शंकराचार्य का जीवन परिचय (जीवन-वृत्त)| Adi Shankara Biography in Hindi

शंकराचार्य का जीवन परिचय (जीवन-वृत्त), Adi Shankara Biography in Hindi

शंकराचार्य का जीवन परिचय (जीवन-वृत्त)| Adi Shankara Biography in Hindi


शंकराचार्य शिक्षा-दर्शन 

 

भारतीय दर्शन मूलतः आदर्शवादी दर्शन है जिसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान आध्यात्मिक पक्ष को दिया गया है। इस आदर्शवादी दर्शन का सर्वाधिक प्रभावशाली प्रतिपादन आदिगुरू शंकराचार्य ने किया। उनके दर्शन को आज पूरा विश्व अद्वैत वेदान्त के नाम से जानता है। अद्वैत वेदान्त का दृढ़ मत है कि ब्रह्म, जीव और जगत एक हैं । भिन्नता अविद्या या अज्ञान के कारण दिखती है। एक मात्र सत्य ब्रह्म है जो सभी जीवों में विद्यमान है। प्राणी अपने कर्मफल के कारण जीवन-मृत्यु के बन्धन में बँधे है। मुक्ति का एकमात्र मार्ग ज्ञान है। शिक्षा का उद्देश्य है आत्मा और ब्रह्म के सही स्वरूप को जानना । अद्वैत - वेदान्त ही इस बात को सुनिश्चित कर सकता है कि सभी छात्र समान हैं और सर्वोच्च सम्मान के अधिकारी हैं। अतः प्रजातांत्रिक समाज में शंकराचार्य के शिक्षा दर्शन का महत्व और बढ़ जाता है।

 

शंकराचार्य का जीवन परिचय (जीवन-वृत्त)-Adi Shankara Biography in Hindi

भारतीय धर्म, संस्कृति और दर्शन ने अपना उच्चतम शिखर जगद्गुरू शंकराचार्य के विचारों और कार्यों से प्राप्त किया है। किसी भी अन्य महापुरूष की तुलना में उनका व्यक्तित्व भारतीय धर्म एवं संस्कृति का बेहतर प्रतिनिधित्व करता है। वे वेदान्त के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्रवर्तक रहे हैं। वेदान्त भारतीय दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है। भारतीय दर्शन को देश-विदेश में वेदान्त दर्शन के रूप में ही जाना जाता है और वेदान्त को शंकराचार्य के रूप में।

 

जिस समय शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ उस समय भारत में बौद्ध धर्म पतन की ओर अग्रसर हो चुका था। बौद्ध मठ व्याभिचार एवं भ्रष्टाचार का केन्द्र बनते जा रहे थे । भिक्षुओं का सम्बन्ध आम जनता से कट चुका था । तंत्र का प्रभाव बढ़ रहा था और धर्म की जगह अनाचार बढ़ रहा था । वैदिक धर्म भी अपनी सरलता खो चुकी थी और उसमें कर्मकांडों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था । हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत की सीमायें असुरक्षित हो गई थीं । भारत की राजनीतिक एकता खंडित हो चुकी थी। ऐसे समय में भारतीयों में आस्तिकता, आत्मविश्वास एवं सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की भावना भरने के लिए जगद्गुरू शंकराचार्य का अवतरण हुआ ।

 

शंकराचार्य का जन्म 788 ई० में केरल प्रदेश के 'कालदी' नामक ग्राम में नम्बूद्री ब्राह्मण परिवार में हुआ था । कालदी ग्राम मालाबार में पेरियार नदी के किनारे वन क्षेत्र में स्थित है। कालदी में विद्याधिराज नामक एक प्रसिद्ध विद्वान थे। उनका पुत्र शिवगुरू था। यह परिवार परम्परागत रूप से शंकर का उपासक था। इन्हीं शिवगुरू के एकलौते पुत्र थे शंकराचार्य । माता-पिता दोनों थे ही अत्यन्त धर्मपरायण थे। इनकी धर्मपरायणता का प्रभाव बालक शंकराचार्य पर पड़ना स्वाभाविक था ।

 

शंकराचार्य बचपन से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के थे। ऐसा माना जाता है कि दो वर्ष की आयु में ही वे अक्षरों को पढ़ने लगे और तीसरे वर्ष में ही काव्य, पुराण आदि को समझने लगे। पिता की मृत्यु शंकर की बाल्यावस्था में ही हो गई। पाँच वर्ष की आयु में शंकर का उपनयन संस्कार किया गया और उन्हें शिक्षा हेतु गुरुकुल भेजा गया। दो वर्ष के अल्पकाल में ही उन्होंने इतिहास - पुराण, स्मृति, महाभारत, वेद-वेदांग, षडदर्शन आदि पर अधिकार कर लिया। सात वर्ष की अवस्था में ही सारी विद्याओं पर उनका अधिकार हो गया। उनकी विलक्षण प्रतिभा से सब आश्चर्यचकित थे । शिक्षा पूरी कर वे घर लौट आए और माता की सेवा में लग गए।

 

बालक शंकर बचपन से ही संसारिक जीवन से विरक्त थे और सन्यास ग्रहण करना चाहते थे। पर माता उन्हें इसकी आज्ञा नहीं देती थी । किंवदन्ती के अनुसार एक बार शंकर जब नदी में स्नान कर रहे थे तो एक मगर ने उनका पैर पकड़ लिया । माता विलाप करने लगी। शंकर के यह कहने पर कि अगर वह उन्हें सन्यास लेने की अनुमति देंगी तो मगर से उनकी प्राण-रक्षा हो जायेगी । विवश माता ने शंकर को सन्यास की अनुमति दे दी। मगर से शंकर ने अपने को मुक्त कर लिया । 

बालक शंकर ने प्रकाण्ड वेदान्ती गोविन्दपाद या गोविन्दाचार्य का शिष्यत्व ग्रहण कर उनसे सन्यास की दीक्षा ली। शंकर की मेधा, जिज्ञासा एवं सेवा से संतुष्ट होकर गोविन्दपाद ने अपने प्रिय शिष्य को उपनिषदों का अर्थ एवं भाव तथा ब्रह्म का गूढ़ रहस्य समझाया । 

आत्मा, परमात्मा एवं सृष्टि के सत्य को समझने के उपरांत शंकराचार्य वेदान्त के प्रचार-प्रसार के लिए निकल पड़े। बनारस नगरी में एक दिन प्रातः वेला में गंगा के किनारे चार श्वानों के साथ एक चाण्डाल मिला । स्पर्श होने के भय से शंकर ने चाण्डाल को मार्ग से हटने के लिए कहा। चाण्डाल ने प्रश्न किया "आप किसे हटने के लिए कह रहे हैं- मेरे शरीर को या मेरी आत्मा को ? शरीर नश्वर एवं नाशवान है, आत्मा तो उसी ब्रह्म को अंश है जो सर्वशक्तिमान है।” शंकर को भेद रहित ब्रह्म में भेद देखने का अहसास हुआ। शंकर ने चाण्डाल को अपना गुरू स्वीकार किया । 

शंकराचार्य में विलक्षण तर्कशक्ति थी वे वाद-विवाद में अपने समस्त विरोधियों को परास्त करते गए। बौद्धों एवं अन्य मतावलम्बियों को शंकर के तर्कों के सामने टिकना कठिन हो रहा था। वे परास्त होकर उनके शिष्य बन गए। सोलह वर्ष की उम्र तक काशी में रहने के उपरांत वे आध्यात्मिक दिग्विजय के लिए निकल पड़े- अब वे शास्त्रार्थ और लेखन कार्य के द्वारा अद्वैत दर्शन की श्रेष्ठता स्थापित करने में लग गए ।

 

प्रयाग में शंकराचार्य ने प्रसिद्ध कर्मकांडी कुमारिल भट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया। वे शंकराचार्य के शिष्य बन गए। प्रयाग प्रवास के पश्चात् शंकराचार्य मिथिला गए जहां उन्होंने प्रसिद्ध मीमांसक एवं उद्भट विद्वान मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ किया। मण्डन मिश्र उस समय सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त विद्वान थे। इस वाद-विवाद की निर्णायक थी मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी शारदा । मण्डन मिश्र पराजित हुए। इसके उपरांत उनकी पत्नी शारदा ने शंकर से शास्त्रार्थ किया। आजन्म ब्रह्मचारी शंकर शारदा के गृहस्थ आश्रम से सम्बन्धित प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाये। पर बाद में शंकर ने कामकला का ज्ञान प्राप्त किया। जिससे शारदा ने पराजय स्वीकार कर ली । मण्डन मिश्र शंकराचार्य के शिष्य बन गए और वे वेदान्त का प्रचार करने लगे। पूरे भारत वर्ष में आध्यात्मिक आन्दोलन चल पड़ा।

 

सन्यासी होने के बावजूद माता के देहावसान पर उन्होंने विधि पूर्वक अन्तिम संस्कार सम्पन्न किया। इसके उपरांत पुनः वे धर्म-प्रचार में जुट गए। सम्पूर्ण भारत की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक एकता को रेखांकित करने हेतु जगद्गुरू शंकराचार्य ने भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की- उत्तर में, बदरीनाथ में, ज्योर्तिमठ और दक्षिण में श्रृंगेरी मठ, पूरब में, पुरी में, गोवर्धन मठ और पश्चिम में, द्वारिका में शारदा मठ । इस प्रकार उन्होंने पूरे भारत में न केवल आध्यात्मिक विजय की पताका फहरायी वरन् हमेशा-हमेशा के लिए संपूर्ण राष्ट्र को धार्मिक-सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बाँध दिया। बत्तीस वर्ष की अल्पायु में ही, सन् 8200 में  शंकराचार्य  देहावसान हो गया ।

 

शंकराचार्य ने अपने छोटे जीवन काल में न केवल पूरे देश की लगातार यात्रा कर सांस्कृतिक धार्मिक एकता को बढ़ाया वरन् वे लगातार लिखते भी रहे । वे एक महान लेखक एवं विचारक थे- उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों पर भाष्य लिखे। सनातन धर्म की परम्परा में गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र को प्रस्थानत्रयी के नाम से पुकारा जाता है। इन तीनों ही ग्रन्थों पर सर्वप्रथम भाष्य लिखने वाले शंकराचार्य ही थे। इन्होंने अनेक महत्वपूर्ण उपनिषदों, जैसे ऐतरेय, ईश केन, छान्दोग्य मुण्डक, माण्डुक्य, , तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, श्वेताश्वतर आदि पर भाष्य लिखे। ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने लगभग दो सौ ग्रन्थों की रचना की थी जिनमें से अनेक ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। शंकराचार्य की प्रमुख उपलब्ध रचनाएँ हैं: उपनिषद्भाष्य, गीताभाष्य, ब्रह्मसूत्रभाष्य, विष्णुसहस्त्रनामभाष्य, सनत्सुजातीयभाष्य, सौन्दर्यलहरी, उपदेशसाहस्त्री आदि । इनकी रचना शैली इतनी रोचक है, गंभीर विषयों को सरल शब्द में अभिव्यक्त करने में इनकी कला इतनी मनोरम है कि इनके 'प्रसन्नगम्भीरभाष्य' साहित्यिक दृष्टि से भी अनुपम है। वेदान्त की जैसी सरल एवं रोचक व्याख्या शंकर के ग्रन्थों में मिलती है वैसी अन्यत्र कहीं नहीं। गीता पर शंकराचार्य का भाष्य अत्यधिक प्रतिष्ठित है ।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.