हठयोग के अंग | षट्कर्म धौति क्या होते हैं | Hatyog ke Ang

हठयोग के अंग , षट्कर्म धौति क्या होते हैं   (Hatyog ke Ang)

हठयोग के अंग | षट्कर्म धौति क्या होते हैं  | Hatyog ke Ang

हठयोग के अंग

 

महर्षि पतजंलि का राजयोग, योग के आठ अंगों को मानता है। ये अंग हैं: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान तथा समाधि । किन्तु हठयोग ग्रंथ, यम तथा नियम को छोड़कर आगे बढ़ते हैं। गोरख संहिता 6 अंगों को ही प्रमुखता देती है। हठयोगप्रदीपिका योग के अंग–आसन, कुम्भक (प्राणायाम) मुद्रा तथा नादानुसंधान को ही महत्व देती है। घेरंड संहिता, सप्तांग योग की चर्चा करती है। यह ग्रंथ हठयोग का एक प्रामाणिक ग्रंथ है जो हठयोग की विस्तृत विवेचना करता है । इसलिए हम यहां संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। ये सात अंग इस प्रकार है-

 

षटकर्मणा शोधनं च आसनेन भवेद्दृढम् । 

मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता ।। 

प्राणायाल्लाधवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मनः ।

 समाधिना निर्लिप्तं च मुक्तिरेव न संशयः ।।

 

सप्तांग योग

 

  • षट्कर्म 
  • आसन 
  • मुद्रा 
  • प्रत्याहार 
  • प्राणायाम
  • ध्यान 
  • समाधि 

 

षट्कर्म क्या होते हैं 

षट्कर्मों से शरीर शुद्धि और आसनों से दृढ़ता, मुद्राओं से स्थिरता तथा प्रत्याहार से धैर्य की प्राप्ति होती है। प्राणायाम से शारीरिक हल्कापन, ध्यान से आत्म-साक्षात्कार और समाधि से निर्लिप्तता तथा बिना संशय मुक्ति प्राप्त होती है। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -

 

स्थूल शरीर को शुद्ध करने के लिए, षट्कर्म का अभ्यास आवश्यक है। शरीर के विषाक्त तत्व या अशुद्धियों को दूर किये बिना उच्च योगाभ्यास में सफलता मिलना कठिन है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हठयोगियों द्वारा इन 6 वैज्ञानिक व यौगिक क्रियाओं का विकास किया गया है। इन्हीं 6 यौगिक क्रियाओं को ही षट्कर्म कहते हैं। ये षट्कर्म हैं - धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक, कपालभाति ।

 

षट्कर्म 

  • धौति 
  • वस्ति 
  • नेति 
  • नौलि 
  • त्राटक 
  • कपालभाति

 

धौति क्या होता है- 

A) धौति - धौति का शाब्दिक अर्थ है- धोना या सफाई करना। इस क्रिया के द्वारा योगी जन अपने शरीर के अंगों की सफाई करते हैं इसीलिए इसे धौतिकर्म कहते हैं। धौति को भी चार अंगों में विभक्त किया गया है -

  1. अन्तधौति
  2. दन्तधौति
  3. हृद्धौति और 
  4. मूलशोधन 

 

(i) अन्तधौति – 

अन्तधौति को भी चार उपभागों में विभक्त किया गया है - ये हैं - 1 वातसार, वारिसार, वहिसार और बहिष्कृत ।

 

(क) वातसार अन्तधौति

 

  • दोनों होठों को कौवे की चोंच के समान कर, मुंह द्वारा धीरे-धीरे वायु को पियें या अन्दर लें। 
  • पूरी तरह से वायु भर जाने पर, पेट में उस वायु को चलायें और फिर उस वायु को बाहर निकाल दें।

 

(ख) वारिसार अन्तधौति - 

वारिसार में वारि का अर्थ जल तथा सार का अर्थ तत्व होता है अर्थात् जल तत्व से शरीर के अंग को धोना वारिसार धौति है। इसे ही आज की भाषा में शंख प्रक्षालन कहते हैं ।

 

  • इस क्रिया में मुख से धीरे-2 जल पीते हुए गले तक भर लेना है। 
  • इसके बाद शंखप्रक्षालन के पांच आसनों ताड़ासन, तिर्यक ताड़ासन, कटिचक्रासन, तिर्यक भुजंगासन तथा उदराकर्षण का अभ्यास कर जल को गुदामार्ग से बाहर निकाल देना होता है। 
  • इसका अभ्यास गुरू के मार्गदर्शन में करना चाहिए।

 

(ग) वहिन्सार अन्तधौति - 

  • वहिन्सार में वह्नि का अर्थ अग्नि होता है। इस प्रकार, जिस क्रिया द्वारा जठराग्नि को तीव्र करके पाचन शक्ति को बढ़ाया जाता है उसे बहिसार या अग्निसार कहते हैं। 
  • इस क्रिया में मुख से श्वास बाहर निकालकर बाहर रोक कर, नाभि को मेरूदण्ड की ओर अन्दर - बाहर किया जाता है।  
  • जब तक श्वास को बाहर आसानी से रोक सकते हैं तब तक इस क्रिया को करना चाहिए । 
  • किसी भी प्रकार की असुविधा होने के पूर्व पेट के परिचालन को रोककर श्वास अन्दर लेते हैं । 
  • यह अग्निसार क्रिया है। इसका अभ्यास योग्य गुरु के मार्गदर्शन में करना चाहिए।

 

(घ) बहिष्कृति अन्तधौति

 

  • कौवे की चोंच के समान होठों को करके उनके द्वारा वायु-पान करते हुए उदर को भर लें। 
  • उस वायु को आधे घण्टे तक अन्दर उदर में रोकर परिचालित करते हुए गुदामार्ग से बाहर निकाल दें। 
  • यह बहिष्कृत धौति है, इसका अभ्यास भी योग्य गुरु मार्गदर्शन में करना चाहिए।

 

(ii) दन्तधौति – 

दन्तधौति के भी पांच भेद हैं- दन्तमल, जिहा मूल, कर्णरंध्र और कपालरंध। दोनों कानों की सफाई करने को इन्हें दो प्रकार माना गया है। इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

 

(क) दंतमूल धौति 

  • कत्थे के रस अथवा विशुद्ध मिट्टी से दांतों की जड़ों को मांजना चाहिए

 

(ख) जिह्वाशोधन धौति - 

  • तर्जनी, मध्यमा और अनामिका को कण्ड में डाल जिहा को स्वच्छ करन चाहिए ।

 

(ग) कर्णरन्ध्र धौति

  • दोनों कानों के छिद्रों को साफ करने के कारण दन्तधौति में इसे तीसरा और चौथा प्रकार माना गया है। तर्जनी और अनामिका द्वारा योगीजन दोनों कानों के छिद्रों की सफाई करते हैं ।

 

(घ) कपालरन्ध्र धौति- 

  • अपने दांये हाथ की अंगुलियों को समेटकर, एक कप की आकृति बनाकर, उस कप की आकृति वाले हाथ में पानी भरकर, अपने कपालरन्ध्र यानी सिर के ऊपरी भाग पर हल्की - 2 थपकी देनी चाहिए।

 

(iii) हृद्धौति – 

शिक्षार्थियों, हृद्धौति के भी तीन उपभेद हैं - दण्ड धौति, वमन धौति और वसन धौति अर्थात् वस्त्र धौति । जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है 1

 

(क) दण्ड धौति - 

  • केले के मृदु भाग के डण्डे, हल्दी के डण्डे या बेंत को भोजन नली में घुसाकर धीरे-2 उसे बाहर निकालना चाहिए। आजकल रबड़ की दण्डधौति भी आने लगी है, उसका उपयोग किया जा सकता है। किन्तु दण्ड धौति का अभ्यास योग्य मार्गदर्शन में ही करें।

 

(ख) वमन धौति – 

भोजन के बाद में कंठ तक पीकर और फिर क्षण भर बाद ऊपर की ओर देखते हुए वमन द्वारा जल को बाहर निकाल देने को वमन धौति कहते हैं। यह बाघीक्रिया के नाम से भी जानी जाती है। शिक्षार्थियों, खाली पेट भी, कंठ तक जल पीकर वमन किया जाता है।

 

(ग) वसन धौति – 

इसका एक दूसरा नाम वस्त्र धौति भी है, महीन वस्त्र की चार अंगुल चौड़ी पट्टी लेकर, धीरे-2 उसे बाहर निकाल लें। इसका अभ्यास भी योग्य मार्गदर्शन में करना चाहिए।

 

iv) मूल शोधन - 

इस क्रिया में गुदा द्वार की सफाई होती है। उकडू बैठकर हल्दी की नरम जड़ अथवा मध्यमा अंगुली को गुदाद्वार में डालना चाहिए। दो-तीन मिनट तक उसे अन्दर छोड़कर धीरे-2 उसे बाहर निकाल लें। इसका अभ्यास भी योग्य मार्गदर्शन में करना चाहिए।

 

(B) वस्ति – 

वस्ति कर्म दो प्रकार का होता है - जल वस्ति, स्थल वस्ति । -

 

(क) जल वस्ति - 

  • जल में नाभिपर्यन्त बैठकर उत्कट आसन लगायें और गुदा देश का आकुंचन-प्रसारण करें, यह जल वस्ति है।

 

(ख) स्थल वस्ति – 

  • अश्विनी मुद्रा के द्वारा गुदा का आकुंचन-प्रसारण करें। यह स्थल वस्ति है।

 

(C) नेति क्रिया – 

नेति कर्म दो प्रकार का होता है - जल नेति, और सूत्र नेति ।

 

(क) जल नेति

टोंटी दार लोटे की टोंटी को, एक नाक में डालकर दूसरी तरफ झुककर, दूसरी नाक से पानी को बाहर निकलने दें। इसी प्रकार, दूसरी नाक से भी करें। यह जल नेति हैं ।

 

(ख) सूत्र नेति - 

आजकल रबड़ की कैथेटर आती है उसे एक नासिका मार्ग से डालकर धीरे-2 मुंह से बाहर निकाल लिया जाता है। इसी प्रकार दूसरे नाक से भी डालना चाहिए। यह सूत्र नेति है

 

(D) नौलि - 

उदर को दोनों पार्श्वों में अत्यन्त वेग पूर्वक घुमाना चाहिए। यह नौलि कर्म है । इसका अभ्यास योग्य मार्गदर्शन में करना चाहिए।

 

(E) त्राटक – 

आंखों की पलकों को रोक कर जब तक आंसू न गिरने लगें, तब तक किसी सूक्ष्म लक्ष्य की ओर टकटकी लगाकर देखते रहने की क्रिया त्राटक कहलाती है। योग्य मार्गदर्शन में ही इसका अभ्यास करें।

 

(F) कपाल भाति - 

श्वास को नासिका से सहज रूप में लेकर नासिका द्वारा एक हल्के झटके से बाहर निकाल देने को कपाल भाति कहते हैं।


2 आसन 

 

हठयोग में आसन का अर्थमन को स्थिर करने हेतु बैठने की विशेष स्थिति से है। हठयोग परम्परानुसारचौरासी लाख आसन माने जाते हैं। इनमें चौरासी आसनों को प्रमुख माना जाता है। किन्तुघेरण्ड ऋषि ने अपनी पुस्तक में 32 आसनों की चर्चा की है। विस्तृत व्याख्या के लिए उनकी पुस्तक का अध्ययन कर सकते हैं।

 

3 मुद्रा

 

चित्त के किसी विशेष भाव को मुद्रा कहते हैं। योगशास्त्र में अनेक मुद्राओं का वर्णन किया गया है। महर्षि घेरण्ड ने 25 मुद्राओं का उल्लेख किया हैजिनका वर्णन उनकी पुस्तक में है। किन्तु इनका अभ्यास योग्य मार्ग दर्शन में करें।

 

4  प्रत्याहार

 

इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकरअपने करण में विलीन करनामन को एकाग्र करना प्रत्याहार कहलाता हैं।

 

प्राणायाम

 

प्राण का नियमन एवं नियन्त्रण करना प्राणायाम कहलाता है। ऋषियों का मत था कि प्राणायाम के अभ्यास द्वारा साधक अपनी जीवनी शक्ति पर नियन्त्रण कर लेता हैजिससे उसे शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। ऋषियों ने अनेक प्रकार के प्राणायामों की खोज की थी । किन्तु उनमें से आठ प्राणायामों की चर्चा की हैजिनका विस्तृत विवरण उनकी पुस्तक में मिलता है।

 

ध्यान

 

किसी आलम्बन पर मन लगाकर लगातारअधिक समय तक टिके रहनाध्यान कहलाता है। ध्यान के अभ्यास से मन शांतएकाग्रता की सर्वोत्कृष्ट स्थिति मानी जाती है। चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए ध्यान का अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण है।

 

समाधि

 

समाधिचित्त के एकाग्रता की सर्वोत्कृष्ट स्थिति मानी जाती है। यह स्वयं अपने आप के स्वरूप में स्थिति है । जब चित्त की समस्त वृत्तियां अपने कारण चित्त की समस्त वृत्तियां अपने कारण चित्त में विलीन हो जाती है और द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है तो वह समाधि की अवस्था होती है।

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