योग अस्तित्व की अवधारणा | Concept of yoga existence in Hindi

 योग अस्तित्व की अवधारणा 

योग अस्तित्व की अवधारणा | Concept of yoga existence in Hindi



योग अस्तित्व की अवधारणा

 

  • प्रिय शिक्षार्थियों, इस सृष्टि के आदि ग्रन्थ के रूप में ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद नामक चार वेदों का वर्णन आता है। इसमें ऋग्वेद संसार का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है जिसमें ज्ञानकाण्ड के लगभग दस हजार मंत्रों का संकलन है। सामवेद गायन का वेद है जिसमें उपासना हेतु गायन मंत्रों का वर्णन किया गया है। यजुर्वेद में कर्मकाण्ड और यज्ञ के मंत्रों का वर्णन है। इसी प्रकार अथर्ववेद में धर्म, आरोग्य और यज्ञ के मंत्रों का वर्णन किया गया है। वेद का अर्थ ज्ञान होता है। संसार की समस्त विद्याओं का मूल वेदों में निहित है। योग विद्या का वर्णन वेद के मंत्रों में किया गया है। इन चारों वेदों से ऋक्, साम, यजु और अथर्व नामक संहिताओं की रचना हुई। इस वैदिक ज्ञान से ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषदों का प्रादुर्भाव हुआ। उपनिषद् काल के उपरान्त रामायण और महाभारत का महाकाव्य काल आता है। इसके उपरान्त दर्शन काल का वर्णन आता है, जिसमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त नामक षड्दर्शनों के साथ-साथ बौद्ध, जैन और चार्वाक दर्शन का समावेश होता है । दर्शन काल के उपरान्त मध्यकाल का वर्णन आता है, जिसे भक्ति काल भी कहा जाता है। इस काल में हठयोग के आचार्यों के द्वारा हठ प्रदीपिका, घेरण्ड संहिता और शिव संहिता आदि ग्रन्थों की रचना हुई। मध्यकाल के उपरान्त, आधुनिक काल का वर्णन आता है। आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द सरस्वती, स्वामी शिवानन्द, महर्षि अरविन्द आदि योगियों के द्वारा योग परम्परा को आगे बढ़ाया गया। इसके साथ-साथ वर्तमान काल में भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री जी के आवाहन पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया है । 


  • इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व में योग विद्या का प्रचार प्रसार बहुत व्यापक स्तर पर हो रहा है। भारत वर्ष के अनेक विश्वविद्यालयों में स्नातक और परास्नातक स्तर पर योग पाठ्यक्रम संचालित हो रहे हैं। इन पाठ्यक्रमों के द्वारा शिक्षा ग्रहण कर विद्यार्थी सम्पूर्ण विश्व में योग विद्या का प्रचार प्रसार कर रहे हैं।

 

  • इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों से अवगत होने के उपरान्त, अब आपके मन में योग के अस्तित्व को जानने की जिज्ञासा भी अवश्य ही उत्पन्न हुई होगी। इसके साथ-साथ आपके मन में यह प्रश्न उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है कि उपरोक्त ग्रन्थों में योग का वर्णन किस रूप में किया गया है। अतः अब क्रमशः वैदिक काल, उपनिषद् काल, काव्य काल, दर्शन काल, मध्य काल और आधुनिक काल में योग के अस्तित्व पर सविस्तार विचार करते हैं

 


1 वैदिक काल (वेदों) में योग का अस्तित्व

 

शिक्षार्थियों, योग विद्या सृष्टि के आरम्भ से ही विद्यमान रही है। योग विद्या के आदि प्रवर्तक, हिरण्यगर्भ को स्वीकार किया गया गया है। हिरण्यगर्भ से तात्पर्य प्रकाश पुंज अर्थात् परमात्मा से लिया जाता है। चूंकि संसार की समस्त विद्याओं का आदि मूल परमात्मा है अतः योगविद्या का आरम्भ भी ईश्वर से ही हुआ है। यहां पर ईश्वर को हिरण्यगर्भ की संज्ञा दी गयी है। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए यजुर्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है

 

ओउम् हिरण्यगर्भ समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । 

स दाधार पृथ्वीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम् ।। (यजुर्वेद)

 

जो स्वयं प्रकाशस्वरूप है और जिसने, प्रकाश करने वाले सूर्य, चन्द्रमा आदि को उत्पन्न करके धारण किये हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था, जो सब जगत के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था, वह इस भूमि और सूर्य आदि को धारण कर रहा है, हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें इसी प्रकार ऋग्वेद में ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा गया है- 

 

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे । सखाय इन्द्र मूतये ।। (ऋग्वेद)

 

अर्थात् हम साधक लोग योग मार्ग में उपस्थित होने वाले विघ्नों में और सभी कठिनाईयों में परम ऐश्वर्यवान इन्द्र का आवाहन करते हैं। इस प्रकार यहां पर योग मार्ग की बाधाओं को दूर करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गयी है।

 

इसी प्रकार अथर्ववेद में मानव शरीर को अयोध्यापुरी की संज्ञा देते हुए कहा गया है-

 

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या । 

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ।। (अथर्ववेद)

 

अर्थात् इस मानव शरीर रूपी अयोध्यापुरी में आठ चक्र और नौ द्वार हैं। इसमें आत्मा निवास करता है। इस शरीर के माध्यम से योग विद्या द्वारा नौ द्वारों को बन्द कर अष्टचक्रों का ज्ञान प्राप्त करते हुए आत्मा को जानना चाहिए।

 

इस प्रकार उपरोक्त मंत्रों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में योग विद्या को विस्तारपूर्वक वर्णित किया गया है। वेदों के सार रूप में उपनिषद् साहित्य का वर्णन आता है। अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उपनिषद् साहित्य में योग विद्या का वर्णन किस रूप में किया गया है अतः अब उपनिषद् में योग के अस्तित्व पर पर विचार करते हैं

 

2 उपनिषद काल (उपनिषद) में योग का अस्तित्व

 

प्रिय शिक्षार्थियों, वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों और आरण्यकों के पश्चात् उपनिषदों का नाम आता है। उपनिषद साहित्य पर वेदों की विचारधारा का पूर्णरूपेण प्रभाव परिलक्षित होता है। उपनिषद साहित्य को ज्ञान काण्ड की संज्ञा दी गई है। इन्हें "वेदान्त" भी कहा जाता है। उपनिषद, गीता तथा ब्रह्मसूत्रों को मिलाकर "प्रस्थानत्रायी" कहा जाता है। ये तीनों शास्त्र मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करते हैं । बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि जिस प्रकार चारों ओर से रखी हुई गीली लकड़ी में अग्नि से पृथक् धुँआ निकलता है, ठीक उसी प्रकार इस महान् सत्ता (आत्मा) से श्वास के रूप में ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, इतिहास तथा उपनिषद आदि प्रादुर्भूत हुए हैं। वेदों के अनन्तर ब्राह्मण ग्रंथों और आरण्यकों का नाम आता है। इनमें दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चिन्तन पाया जाता है। इसी चिन्तन का परमोत्कर्ष आरण्यक ग्रंथों के उपनिषद खण्ड में प्राप्त होता है।

 

उप का अर्थ = समीप, नि का अर्थ = श्रद्धा और सद् का अर्थ बैठना होता है। इस प्रकार = उपनिषद शब्द का सामान्य अर्थ होता है श्रद्धापूर्वक समीप बैठना। अर्थात् जिसमें गुरु और शिष्य श्रद्धापूर्वक समीप बैठकर ब्रह्म विद्या का चिन्तन करते हैं, वह विद्या उपनिषद कहलाती है। उपनिषद शब्द की उत्पत्ति उप और निः उपसर्ग में सद् धातु से होती है। सद् धातु तीन अर्थों में प्रयुक्त होती है- विवरण, गति और अवसादन अर्थात् उपनिषद गुरु और शिष्य के मध्य ब्रह्म विद्या का संवाद है।

 

उपनिषदों में ब्रह्म चिन्तन के साथ-साथ आत्मा, परमात्मा का चिन्तन और योग विद्या पर सविस्तार चर्चा की गयी है। सर्वप्रथम योग के अर्थ एवं स्वरूप को स्पष्ट करते हुए योगशिखोपनिषद में कहा गया है-

 

योऽपानप्राणयोरैक्यं स्वरजोरेतसोस्तथा

सूर्याचन्द्रमसोर्योगो जीवात्मपरमात्मनोः । 

एवं तु द्वन्द्व जालस्य संयोगो योग उच्यते ।। (योगशिखोपनिषद)

 

अर्थात् प्राण और अपान वायु की एकता होना, स्वरजरूपी कुण्डलिनी शक्ति का स्वरेतरूपी आत्मतत्व के साथ मिलन होना, सूर्य स्वर और चन्द्र स्वर का मिलन होना तथा जीवात्मा और परमात्मा के संयोग की अवस्था ही योग कहलाती है।

 

इसी प्रकार कठोपनिषद् में योग को परिभाषित करते हुए कहा गया है 

यदा पञ्चावतिष्ठति ज्ञानानि मनसा सह । 

बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमा गतिम् ।। 

तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणम् । 

अप्रमत्तस्तदा भवति योगो ही प्रभवाप्ययौ ।। (कठोपनिषद )

 

अर्थात् जब पांचों ज्ञानेन्द्रियां मन के साथ स्थिर हो जाती हैं, अन्तर्मुखी हो जाती हैं। ये स्थिर इन्द्रियां और मन बुद्धि के साथ मिल जाते हैं, जिससे स्थिर होकर बुद्धि भी किसी प्रकार की क्रिया नहीं करती है, यह अवस्था परमगति कहलाती है। इन्द्रियों, मन और बुद्धि की इस स्थिर धारणा को ही योग कहा जाता है।

 

इसी प्रकार मैत्रायण्युपनिषद में कहा गया है-

 

एकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च ।

सर्वभाव परित्यागो योग इत्यभिधीयते ।। (मैत्रायण्युपनिषद)

 

अर्थात् प्राण, मन व इन्द्रियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन का आत्मा में लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है।

 

योगाभ्यास हेतु उचित स्थान का वर्णन करते हुए श्वेताश्वतरोपनिषद में स्पष्ट किया गया है-

 

समे शुचौ शर्करा वह्निबालुका विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः । 

मनोऽनुकूले न तु चक्षुः पीड़ने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद )

 

अर्थात् योगाभ्यास के लिए ऐसा स्थान हो जो समतल हो, शुद्ध हो, कंकड़-पत्थर, आग, बालू, जल और शब्द (कोलाहल) से रहित हो । साथ ही योगाभ्यास करने वाल स्थान पर पीने के लिए जल की व्यवस्था हो । इसके साथ-साथ वह स्थान मन के अनुकूल अर्थात् मन को अच्छा लगने वाला हो, वहां पर आंखों की पीड़ा देने वाली एवं चित्त को चंचल बनाने वाली वस्तु नहीं होनी चाहिए। ऐसे एकांत स्थान पर जहां तेज वायु के झोंके नहीं आते हों, ऐसे स्थान पर योगाभ्यास करने से साधक को शीघ्र सफलता प्राप्त होती है। 


छान्दोग्योपनिषद में प्राण के महत्त्व को बताते हुए कहा है

 

सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि प्राणमेवाभिसंविशन्ति ।"

 

अर्थात् सभी भूत प्राण से ही उत्पन्न होते हैं तथा प्राणों में ही लीन होते हैं। प्रिय शिक्षार्थियों, श्वेताश्वतरोपनिषद् में योग के महत्व एवं योग सिद्धि पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है -

 

न तस्य रोगों, न जरा, न मृत्युः, प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ।। (श्वेताश्वतरोपनिषद)

 

अर्थात् योग की अग्नि में तपे हुए शरीर में कोई रोग नहीं होता है, ना ही बुढ़ापा आता है और ना ही मृत्यु आती है।

 

इस प्रकार उपरोक्त अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उपनिषद् साहित्य में योग विद्या का सविस्तार वर्णन किया गया है।

 

3 दर्शन काल (दर्शन) में योग का अस्तित्व

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