पृथ्वी की आयु |पृथ्वी आयु निर्धारण एवं आकलन करने की विधियाँ| पृथ्वी की आयु की गणना | Earth Life Method in Hindi

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पृथ्वी की आयु |पृथ्वी आयु निर्धारण एवं आकलन करने की विधियाँ| पृथ्वी की आयु की गणना | Earth Life Method in Hindi


पृथ्वी की आयु Earth life in Hindi 

  • हमने जाना है कि पृथ्वी की उत्पत्ति लगभग 4.6 अरब वर्ष पहले हुई थी। लेकिन हम इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचे! आपने डायनासोर के बारे में सुना होगा जो पृथ्वी पर लगभग 6.6 करोड़ वर्ष पहले रहते थे जीवन का विकास पृथ्वी के इतिहास में दर्ज है। हम यकीन से कैसे कह सकते है कि डायनासोर 6.6 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी पर थे। आप आश्चर्य कर रहे होंगे कि आज हम यह कैसे बता सकते है कि कोई शैल 10 लाख वर्ष पुरानी हैया कोई जीवाश्म 6.6 करोड़ वर्ष पुराना हैं। भूविज्ञान की शाखा स्तरक्रम विज्ञान (stratigraphy) में हम पृथ्वी की आयु के बारे में पढ़ते हैं। यह पृथ्वी के शैलों के काल निर्धारण से संबंधित विज्ञान है।

 

पृथ्वी आयु निर्धारण एवं आकलन करने की विधियाँ

 

1 शैलों का आयु निर्धारण

 

पृथ्वी एवं शैलों की आयु जानने के लिए कई विधियों का इस्तेमाल होता है जिन्हें हम मोटे तौर पर दो समूहों में बांट सकते हैं।-

 

a) अप्रत्यक्ष विधियां 

  • जिसमें भूवैज्ञानिक घटनाओं का आपेक्षिक कालनिर्धारण किया जाता है। 
  • आपेक्षिक आयु किसी जीवाश्म या भूवैज्ञानिक घटना या विशेषता की भूवैज्ञानिक आयु है जिसकी अभिव्यक्ति जीवशैल विशेष लक्षण के संदर्भ में की जाती है ना कि समय की इकाई की विशिष्ट संख्या में। 


(b) प्रत्यक्ष विधियां

  •  जिसके अंतर्गत रेडियोसक्रिय विधियों द्वारा निरपेक्ष आयु ज्ञात की जाती है। 

  • निरपेक्ष आयु (Absolute age) किसी भी प्रतिदर्श जैसे जीवाश्मखनिजशैल या भूवैज्ञानिक घटना जिसे समय की इकाईयों में व्यक्त किया जाता हैका वास्तविक भूवैज्ञानिक आयु है। निरपेक्ष आयु का निर्धारण भूवैज्ञानिक तथा रेडियोसक्रिय विधियों द्वारा किया जाता है। 


आपेक्षिक आयु किसी जीवाश्म शैलभूवैज्ञानिक घटना या लक्षण का किसी अन्य जीवाश्म शैलभूवैज्ञानिक घटना या लक्षण के संदर्भ मे तुलनात्मक आयु है। 


कुछ प्रमुख विधियां निम्न है:

 

 A)  आयु निर्धारण एवं आकलन भूवैज्ञानिक विधियां 

i) अनाच्छादन या अवसादन (Denudation or sedimentation) 

यह विधि इस तथ्य पर आधारित है कि पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही निक्षेपण की प्रक्रिया द्रोणियों में लगातार जारी रहती है। यह प्रस्तावित किया गया था कि यदि अवसादों की कुल मोटाई जान ली जाए और निक्षेपण का दर मालूम कर लिया जाए तो आयु का निर्धारण निम्न सूत्र द्वारा किया जा सकता है: 

आयु = अवसादों की कुल मोटाई / एक साल में निक्षेपित अवसाद

 

इस विधि द्वारा आयु की गणना कैम्ब्रियन अवसादन के बाद शुरूआत से 51 करोड़ वर्ष की गई। 


लवणता (Salinity) : 

  • इस विधि में यह माना जाता है कि सर्वप्रथम बने हुए समुद्रों में खारा पानी नहीं था आज समुद्र के पानी में जितनी लवणता है वह जमीन पर पाई जाने वाली शैलों के निरंतर अपक्षय और अपरदन से जनित है। यह प्रस्तावित किया गया कि समुद्र में आज कितनी नमक मौजूद है और प्रतिवर्ष इसमें कितनी बढ़ोतरी हो रही है यह जान लिया जाए तो पृथ्वी की आयु की गणना की जा सकती है। इस विधि सेजॉली द्वारा पृथ्वी की आयु 10 करोड़ वर्ष निम्नलिखित सूत्र के माध्यम निर्धारित की है 

आयु = नमक में प्रतिवर्ष बढ़ोतरी

 

ii) हिमनदीय वार्व (Glacier varves): 

  • नदी एवं हिमनद की संयुक्त क्रिया से उत्पन्न निक्षेप को हिमनदीय चार्व कहते है। गर्मियों में बड़े कणों वाले एवं सर्दियों में सूक्ष्म कण वाले अवसादों का जमाव होता है। बड़े एवं महीन कण वाले एक जोड़े निक्षेप को हम वार्य कहते हैं जो एक वर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। इस विधि से वर्ष की गणना करके लगभग 10,000 वर्ष तक भूवैज्ञानिक आयु की गणना की गई है। इस विधि का उपयोग कश्मीर के करेवा बेसिन के अवसादों के लिए किया गया है।

 

iv) वृक्ष वलय (Tree rings)

  • वृक्षों में वार्षिक वृद्वि वलय होते है। द्वितीयक वृद्धि वलयों की गणना की जा सकती है। इन वलयों का एक जोड़ा एक वर्ष को दर्शाता है। इन वृद्धि वलयों के आधार पर कुछ हजार वर्षों तक की गणना की जा सकती है।

 

(v) जीवाश्मीय प्रमाण (Palaeontological evidence)

 1867 में चार्ल्स लयेल ने जीवों एवं पौधों के विकास के आधार पर पृथ्वी की आयु का अनुमान किया था। उन्होंने विकास के 12 चक्र पाये जिसमें हर चक्र 2 करोड़ वर्ष का था। इस पद्धति से पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद की आयु की गणना मोटे तौर पर करने में सहायता मिली है।

 

B) आयु निर्धारण एवं आकलन रेडियोसक्रिय विधियां (Radioactive Method)


 

  • रेडियोसक्रियता के बढ़ते हुए ज्ञान से कुछ विशेष तरह के शैलों की सटीक आयु का निर्धारण कर पाना संभव हो गया है। कुछ उपकरणों का उपयोग करके रेडियोसक्रिय पदार्थों का आसानी से पता लगाया जा सकता है। रेडियोसक्रिय समस्थानिकों (isotopes) के रूप में घड़ियों का निर्माण किया गया है। यदि यह ज्ञात हो तो शैलों के निर्माण की आयु की गणना हम उस शैल में मौजूद रेडियोसक्रिय समस्थानिकों एवं उसके गैर रेडियोसक्रिय पदार्थों में परिवर्तित हुए पदार्थों की मात्रा ज्ञात करके कर सकते हैं। उदाहरण के लिएयूरेनियम गैर रेडियोसक्रिय समस्थानिक सीसा ( lead) में परिवर्तित हो जाता है। तो यूरेनियम युक्त शैल की आयु की गणना हम अक्षय यूरेनियम एवं उसमें मौजूद सीसा के समस्थानिकों से तुलना करके (अनुपात की) कर सकते हैं । 

 



रेडियोसक्रिय परमाणु में अस्थिर नाभिक होता है। जब इन नाभिकों का क्षय होता है या वो टूटते हैंतो वे विशिष्ट तरह के कणों या किरणों का उत्सर्जन करते हैं। इस रेडियोसक्रिय क्षय के परिणामस्वरूप दूसरे तरह के परमाणु का निर्माण होता है।

 

  • एक रेडियोसक्रिय मूल तत्व एक स्थिर दर पर क्षय होकर एक स्थिर दुहिता तत्व (daughter element) बनाता है। सामान्यतः अर्घ आयु (half life) वह समय होता है जिसमे तत्व समाप्त एवं विघटित हो जाते है और आधी संख्या में परमाणु अपने मूल अवस्था में रह जाते हैं। उनकी आयु की इस अवधारणा का उपयोग पृथ्वी की निरपेक्ष (absolute) आयु का पता लगाने के लिए किया जाता है। रेडियोसक्रिय तत्व जैसे रेडियमयूरेनियम और थोरियम विघटित होकर क्रमशः कम परमाणु भार वाले सरल तत्व बनाते हैं। यह परिवर्तन एक स्थिर दर पर होता है और तब तक जारी रहता है जब तक कि एक स्थिर पदार्थ का गठन नहीं हो जाता। यह स्थिर पदार्थ अंत उत्पाद' (end product) या दुहिता तत्व कहलाता है। इन तीनों तत्वों (रेडियमयूरेनियम और थोरियम) के संदर्भ में अंत उत्पाद सीसा (Pb) है जो विभिन्न समस्थानिकों के रूप में मिलता है।


एकीकरण की इस प्रक्रिया में निम्न तीन तरह के विकिरण पहचाने गए है:

 

  • α (अल्फा) कण हीलियम (He+) अणु के साथ 
  • β (बीटा) कण इलेक्ट्रान के साथ 
  • Ƴ (गामा) गैसीय साम्रग्री जो कि एक्स-रे है

 

 

दूसरी विधियों की तुलना में रेडियोसक्रिय विधियों के महत्वपूर्ण लाभ निम्नलिखित हैं:

  • यह शैलों की निरपेक्ष आयु बतलाता है। 
  • पृथ्वी के पर्पटी के सभी शैलों में थोड़ी मात्रा में रेडियो सक्रिय तत्व होते हैं। 
  • रेडियोसक्रिय विधि से आयु की गणना इस तथ्य पर आधारित है कि रेडियोसक्रियता पर तापमानदबाव एवं रासायनिक तरल पदार्थों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। 
  • रेडियोसक्रियता की इस प्रक्रिया मेंयह माना जाता है कि उत्पत्ति के बादहीलियम एवं सीसा दोनों मूल शैल में ही फँस के रह गए है। रेडियोसक्रियता श्रृंखला के आधार पर 


आयु की गणना करने के लिए निम्न पाँच विधियों का उपयोग किया जाता है :

 

आयु की गणना करने के लिए निम्न पाँच विधियों का उपयोग किया जाता है :

 

मुख्य रेडियोसक्रिय श्रृंखला के साथ अर्ध आयु एवं दुहिता तत्व सारणी में देखें। 


 

पृथ्वी की आयु का निर्धारण करने के लिए आमतौर पर इस्तेमाल होने वाली विधियां निम्नलिखित हैं:

 

a) यूरेनियम- सीसा विधि 

  • यूरेनियम के दो समस्थानिक U238 एवं U235 इस्तेमाल किए जा सकते है। उनकी अर्घ आयु क्रमशः 449.8 करोड़ वर्ष एवं 71.3 करोड़ वर्ष है।

 

b) थोरियम-सीसा विधि 

  • थोरियम Th232 के रेडियोसक्रिय क्षय से सीसा Pb 208 बनता है जिसकी अर्घ आयु 13,900 करोड़ वर्ष है।

 

c) पोटैशियम-आर्गन विधि K-Ar

  • कालनिर्धारण स्वभाविक रूप से पाए जाने वाले K40 समस्थानिक के क्षय होकर Ar10 एवं Cato बनने पर निर्भर है। पोटैशियम के तीन समस्थानिक हैं K3BK40 और K" लेकिन केवल K40 ही रेडियोसक्रिय है। इसकी अर्ध आयु 11-9x 10 वर्ष है। लगभग 90% K4 क्षय होकर Ca% और बाकी 10% क्षय होकर Aro बनाता है। यह मानते हुए कि कोई Aro मौजूद नहीं था जब शैल बनाशैल की आयु की गणना की जा सकती है। शैल में मौजूद Aro एवं पोटैशियम की मात्रा की गणना करके उस शैल के नमूने के आयु का निर्धारण कर सकते है। इस विधि में कुछ कमियां है जो व्यावहारिक रूप से आर्गन की छोटी मात्रा मापने में कठिनाई से संबंधित है।

 

d) रूबीडियम स्ट्रांशियम विधि

  •  Rb 87 से Sr87 बनता है जिसकी अर्ध आयु लगभग 50 x 10 वर्ष है। यह कैम्ब्रियन पूर्व काल के कायांतरित शैलों के लिए उपयोगी है। रूबीडियम स्ट्रांशियम कालनिर्धारण प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले Rb के क्षय के दौरान β (बीटा) उत्सर्जन पर आधारित है। द्रव्यमान स्पेक्ट्रसमिति से शैल में मौजूद Rb एवं Sr दोनो को मापा जा सकता है।

 

e) रेडियोकार्बन कालनिर्धारण विधि : 

रेडियोकार्बन विधि सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाली विधि है जिसमें C-14 के समस्थानिक (जिसे हम Carbon-14 भी कहते है) का विश्लेषण 6000 वर्ष से कम आयु वाले पदार्थों के लिए करते हैं। 

  • C-14  का रेडियोसक्रिय क्षय होता है जिसकी अर्ध आयु 5730 वर्ष है लेकिन ब्रह्मांडीय किरणों के प्रभाव से वातावरण में मौजूद कुछ नाइट्रोजन C14 में परिवर्तित हो जाते हैं। साधारण C-12 जिससे सारे जीवित प्राणी बने हैंमें C-14 समस्थानिक होते हैं जो अस्थिर हैं वातावरण में मौजूद कुछ C-14  ऑक्सीजन से प्रतिक्रिया करके कार्बन डाइऑक्साइड बनाते हैं। वायुमंडल में मौजूद लगभग सभी कार्बनडाइऑक्साइड साधारण कार्बन या C- 12 से बने होते हैं जबकि कुछ C-14  से।  रासायनिक तौर पर C-14 साधारण कार्बन की ही तरह हैं। अतः पौधों एवं जानवरों दोनों के ही उत्तकों द्वारा उसी अनुपात में अवशोषित होते हैं जिस अनुपात में वे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में मौजूद होते हैं। पौधे इस कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग अपना भोजन बनाने में करते हैं जिसे बाद में जानवरों द्वारा ग्रहण कर किया जाता है। इसलिएहर पौधे एवं जानवर के शरीर में कुछ मात्रा में रेडियोसक्रिय C14 मौजूद होता है। पौधों एवं जानवरों के उत्तकों में C-14  का अनुपात उसी तरह का होता है जिस तरह का वातावरण में होता हैतब तक जब पौधा या जीव जिन्दा रहता है। जब जीव या पौधा मर जाता हैतब उपापचय (metabolism) बंद हो जाता है और इसके बाद C-14 की मात्रा में कोई वृद्धि नहीं होती है। मृत्यु के बाद शरीर में मौजूद C-14  साधारण कार्बन में तेजी से बदलने लगता है। अतः जीवाश्म में जितनी कम C-14 की संख्या होगी वह उतना ही पुराना जीवाश्म होगा। लकड़ी के टुकड़े या हड्डी में मौजूद वर्तमान C-14 की मात्रा की गणना करके वैज्ञानिक यह आंकलन कर सकते है कि पौधे या जीव की मृत्यु कब हुई है। C-14 और का अनुपात एक ज्ञात दर से कम होती है। C-14 एवं C-12 के बीच का अनुपात ज्ञात करके और उसे अर्ध आयु से गुणा करके आयु की गणना की जा सकती है।

 

  • इस तकनीक का उपयोग ज्ञात आयु की सामग्री पर करके अज्ञात आयु के नमूने की जिसके आयु ज्ञात होजिससे निर्धारण करके इसकी सटीकता का परीक्षण किया जा चुका है। यह पद्धति केवल जैविक सामग्री के लिए हैजिसमें कार्बन विद्यमान है। यह उन जीवाश्मों के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता जिसके सारे कार्बनिक पदार्थ का क्षय हो चुका है। उस मामले में जीवाश्म की आयु का निर्धारण दूसरे रेडियोसक्रिय तत्वों की उपस्थिति से किया जा सकता है।

 

  • 1949 में अमेरिकी रसायनज्ञ विलार्ड लिबी ने रेडियोकार्बन कालनिर्धारण विधि की खोज की जिससे हम जीवों के अवशेष की आयु की गणना यथार्थ रूप में कर सकते है। इस विधि से पश्च अत्यंतनूतन (Late Pleistocene ) तक के शैलों की आयु ज्ञात कर सकते है।

 

 पृथ्वी की आयु की गणना

 

आइए अब हम यह समझें कि आयु की गणना कैसे की जाती है एवं महत्वपूर्ण निष्कर्ष क्या है :

 

  • पृथ्वी की आयु यूरेनियम सीसा अनुपात विधि द्वारा प्राप्त की गयी और वर्तमान में पर्पटी (Crust) की आयु 350 से 555 करोड़ वर्ष आकलित की गई है।

 

  • उल्का पिंड के Pb-207 और Pb-206 की माप से यदि पर्पटी में आद्य (primordial) सीसा की मात्रा उल्का पिंड में मौजूद मात्रा के समान मान ली गयी तो पृथ्वी की आयु 450 करोड़ वर्ष आंकलित की गई है।

 

  • ii) U-He और K-Ar काल निर्धारण विधि से उल्का पिंड़ों का उम्र 458 से 452 करोड़ वर्ष निर्धारित हुई है। Sr87/ Sres निर्धारण भी इसी आयु का सुझाव देता है।

 

  • विकिरणमितिय काल निर्धारण विधि के आधार पर यह निष्कर्ष निकला है कि पृथ्वी की पर्पटी की रचना 4.6 अरब वर्ष पहले हुई होगी। 

 

  • भारत में सबसे पुराने शैल सिंहभूम क्रेटन (Singhbhum Craton) में मिला जो लगभग 3. 77 अरब वर्ष पुराना है ( Saha, 1994 )। आस्ट्रेलिया के एक कायांतरित इलाके में जिस्कॉन क्रिस्टल की आयु 4.1-4.3 अरब वर्ष निकली जो कि सबसे पुराना अभिलेख है (Composton et al. 1986 )। जो यह बतलाता है कि पृथ्वी की आद्य पर्पटी अभी भी अस्तित्व में है जिसमें जिरकॉन क्रिस्टल मौजूद है।

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