आजाद हिन्द फौज का गठन (आई. एन. ए.)। Azad Hindi Fauj Ka Gathan

 आजाद हिन्द फौज का गठन (आई. एन. ए.) 
(Azad Hindi Fauj Ka Gathan)

आजाद हिन्द फौज का गठन (आई. एन. ए.)। Azad Hindi Fauj Ka Gathan


आजाद हिन्द फौज का गठन (आई. एन. ए.)

  • आई. एन. ए. (आजाद हिन्द फौज) का गठन द्वितीय विश्वयुद्ध ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उत्प्रेरक (Catalyst) को काम किया। बिना चेतावनी के जापान ने 7 दिसम्बर 1941 को अमेरिका के समुद्री अड्डे पर्ल हार्वर पर आक्रमण कर दिया। इसके उपरान्त उसने सदूर पूर्व (Far East) में फ्रांसीसी, हॉलैण्ड के और अंग्रेजी साम्राज्यों पर आक्रमण कर दिया। 
  • अंग्रेज़ी सेना ने मलेशिया तथा सिंगापुर में अत्यन्त अपमानजनक हार का मुंह देखा और जापान के हाथों में 45000 युद्ध बन्दी (जिनमें अधिकतर सैनिक भारतीय थे) छोड़ कर वे भाग गए। 
  • पहली आज़ाद हिन्द फौज के गठन का श्रेय एक कैप्टन मोहन सिंह को है। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ भाग जाने से इन्कार कर दिया और इसके विपरीत जापानी अधिकारियों से सम्बन्ध स्थापित किया ताकि वे उनकी एक आज़ाद हिन्द फौज के गठन में सहायता दें जो भारत को अंग्रेज़ी दासता से मुक्त करा सके। उन्होंने अन्य भारतीय सेना के युद्ध बन्दियों को भी इस स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। उन्होंने 1 सितम्बर 1942 को आज़ाद हिन्द फौज का पहला डिवीजन बना दिया। परन्तु मोहन सिंह की आज़ाद हिन्द फौज बहुत सफल नहीं हो सकी क्योंकि मोहन सिंह का जापानी अधिकारियों से सेना की संख्या के प्रश्न पर तथा इस सेना का साम्राज्यवाद विरोधी भूमिका क्या होगी, इन प्रश्नों पर मतभेद हो गया। 
  • 2 जुलाई 1944 को सुभाष बोस सिंगापुर पहुंचे तथा इसके उपरान्त आज़ाद हिन्द फौज पुनः गतिशील हो गई। सुभाष बोस ने आजाद हिन्द सरकार (स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार) गठित को कांग्रेस के तिरंगे झण्डे को इस नई सरकार का झण्डा घोषित किया तथा एक नया जयघोष (Slogan) "जय हिन्द" अपने सैनिकों को दिया। उन्होंने आज़ाद हिन्द सेना का पुनर्गठन किया। सदूर पूर्व में बसे भारतीयों को इस सेना में भरती होने को आमंत्रित किया तथा सेना के व्यय के लिए उन्हें धन देने को भी कहा। वह स्वयं इस सेना के मुखिया बने और सैनिकों का आह्वान किया : "तुम मुझे रक्त दो, मैं तुम्हें स्वतंत्रता दूंगा।" उनका नया युद्ध उद्घोष था; "दिल्ली चलो"। 
  • देश में कांग्रेसी नेता "भारत छोड़ो" आन्दोलन के उपरान्त (अगस्त 1942) सब जेलों में बन्द थे। यूरोप में युद्ध का रुख बदल रहा था। अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा फ्रांस की ओर से युद्ध में सम्मिलित हो चुका था तया 6 जून 1944 को मित्र सेनाएं फ्रांस के नार्मण्डी तट पर उतर चुकी थी। यद्यपि उस समय यह कहना कठिन था कि युद्ध का रुख क्या रहेगा, परन्तु परिस्थितियां बदल रहीं थीं। 

सुभाष चन्द्र बोस की गांधी जी के नाम सिंगापुर स्थित आज़ाद हिन्द रेडियो से एक अपील- 


सम्भवतः इन्हीं तथ्यों को सामने रख कर बोस ने गांधी जी के नाम सिंगापुर स्थित आज़ाद हिन्द रेडियो से एक अपील जारी की और कहा

 "भारत का अन्तिम स्वतंत्रता संग्राम छिड़ चुका है...... हे हमारे राष्ट्रपिता हम भारतीय स्वतंत्रता के पवित्र युद्ध में आपके आशीर्वाद की तथा शुभकामनाओं की आशा करते हैं।" 


  • आज़ाद हिन्द सेना भारतीय सीमाओं की ओर बढ़ रही थीं तथा मई 1944 में ही इस सेना की पहली बटालियन ने मौडोक (Mowdok) जो चाट गांव (आधुनिक बंगला देश में) के दक्षिण में एक बाहरी चौकी थी, पर अधिकार कर भारत भूमि पर तिरंगा फहरा दिया था। दूसरी ओर उत्तर में शाह नवाज़ खां के अधीन एक बटालियन ने जापानी सेना की सहायता से नागालैण्ड स्थित कोदीया नगर पर आक्रमण कर दिया। अगला निशाना मणिपुर स्थित इम्फाल था। योजना यह थी कि शीघ्रता से ब्रह्मपुत्र नदी पार कर बंगाल पर आक्रमण कर दिया जाए।

 

  • इस अभियान को केवल सीमित सफलता ही मिली। दुर्भाग्य से विश्वयुद्ध का पांसा पलट चुका था। जापान तथा जर्मनी दोनों ही हार के द्वार पर खड़े थे। जापानी सेना को दक्षिणी प्रशान्त महासागर में अमेरिकी सेनाओं का प्रतिरोध करने के लिए अपनी सेना को भारत की सीमाओं से वापिस बुलाना पड़ा। आज़ाद हिन्द सेना अब पीछे हटने लगी। (मध्य 1944) तथा मध्य 1945 तक, जब यूरोप में मित्र सेनाएं जर्मनी और इटली की सेनाओं को पूर्ण रूपेण हरा चुकी थीं, तो आज़ाद हिन्द फौज को भी अंग्रेज़ों के आगे हथियार डालने पर विवश होना पड़ा। सुभाष बोस सिंगापुर से जापान की ओर भागे और कहा यह जाता है कि वह ताईपेह (फार्मोस) हवाई अड्डे पर एक विमान दुर्घटना में 18 अगस्त 1945 को मारे गए।

 

  • आज़ाद हिन्द सेना के वे सैनिक जो एक समय में अंग्रेज़ी सेना का भाग थे, उन पर अंग्रेज़ों का यह आक्षेप था कि उन्होंने अपनी राजभक्ति की प्रतिज्ञा तोड़ कर अंग्रेज़ी सम्राज के विरुद्ध युद्ध किया है। सैनिक कानून में इसकी सज़ा मृत्युदण्ड है इतने लोगों को मृत्युदण्ड देना सम्भव नहीं था अतएवं सरकार ने तीन प्रमुख नेताओं, कैप्टन पी. के. सहगल, कैप्टन शाह नवाज़ खां तथा लैफ्टिनेंट गुरबख्श सिंह ढिल्लो (एक हिन्दू, एक मुसलमान तथा एक सिक्ख) पर मुकद्दमें चलाए। कोर्ट माशर्ल की कार्यवाही लालकिले में हुई।

 

  • भारतीय जनता ने इन तीनों वीरों को स्वतंत्र सेनानी माना तथा उन्हें राष्ट्रीय नेताओं जैसा मान दिया। सभी राजनैतिक दलों के नेताओं ने कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा साम्यवादी दल-सभी ने इन वीरों की मुक्ति की मांग की। भारत के लगभग सभी नगरों में सभाएं हुई, जलूस निकाले गए हड़तालें हुई। ऐसा लगता था कि समस्त भारत उबल रहा है। बड़े-बड़े प्रसिद्ध वकील, जिनमें भूलाभाई देसाई, तेज बहादुर सप्रु, जवाहर लाल नेहरू, आसिफ अली, सभी ने सफाई के वकीलों के रूप में काम किया। यद्यपि कोर्ट मार्शल ने उन्हें दोषी पाया परन्तु लार्ड वेवल, जो उस समय वाईसराय थे, समकालीन परिस्थिति को भांपते हुए, उनका दण्ड क्षमा कर दिया। परन्तु उन सैनिकों का दण्ड क्षमा नहीं हुआ जिन्होंने अन्य युद्धबन्दियों को मार-पीट कर अथवा डरा धमका कर, इस सेना में भर्ती होने पर विवश किया था।

 

आज़ाद हिन्द सेना मुकदमों में : पुनर्वेक्षण 

  • आज़ाद हिन्द सेना मुकदमों में इन लोगों के शुद्ध अथवा अशुद्ध आचरण का प्रश्न नहीं रहा था मूलभूत प्रश्न यह बन गया था कि क्या अंग्रेज़ों को यह अधिकार है। जो प्रश्न केवल भारतीयों से सम्बन्ध रखता है; उसका निर्णय क्या अंग्रेज़ करेंगे? लगभग सभी दलों के नेताओं तथा सदस्यों ने यहां तक कि भारत सरकार के कार्यकर्ताओं तथा सैनिकों ने भी इन लोगों को देशभक्तों की संज्ञा दी तथा उन्हें राष्ट्रीय वीर माना। चतुर अंग्रेज़ प्रशासकों को इस बात का बोध हो गया कि अब भारत से जाने का समय आ गया है।

 

सुभाष चन्द्र बोस की उपलब्धियों की समीक्षा 

  • बोस भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के राजा थे। उन्हें शनैः शनैः : राजनैतिक गतिविधियों से कार्य करना असहनीय था। उन्हें गांधी जी की अहिंसा का सिद्धान्त अव्यवहारिक लगता था। जब गांधी जी ने 1922 में असहयोग आन्दोलन वापिस ले लिया तो बोस को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने इसे "देश के लिए एक विपत्ति (Calanity)" की संज्ञा दी। 


  • इसी प्रकार जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन को 1934 में वापिस लिया गया तो बोस ने कहा था कि "यह तो असफलता को स्वीकार करना है (a confession of failure)।" वह कांग्रेस के समाजवादी दल के प्रमुख नेता थे। उन्हें यह विश्वास था कि फासिस्ट तथा कम्युनिस्ट तत्त्वों का एक समन्वय सा हो सकता है। उनके आलोचक जिनमें पण्डित जवाहर लाल नेहरू भी थे, उन्हें नाज़ी तथा फासिस्ट नीतियों का समर्थक मानते थे। वास्तव में उनकी स्वतंत्रता प्राप्त करने की तीव्र इच्छा और व्यग्रता ने उन्हें इन दोनों दलों की नीतियों के पास धकेल दिया। वह युवकों और जोशीले लोगों के लिए अर्धदेवता के समान थे। 
  • वास्तव में उनका नाम भारत के स्वतंत्रता सेनानियों में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। यह ठीक है कि उनकी आज़ाद हिन्द सेना भारत को स्वतंत्र नहीं करा सकी। परन्तु जब इस सेना के तीन अफसरों पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकद्दमा चलाया गया तो जो उग्रता और एकता देश में देखी गई उससे अंग्रेज़ों को यह स्पष्ट हो गया कि यहां से जाने का समय आ गया है।

 

सुभाष बोस पर जवाहर लाल नेहरू के विचार 

  • फरवरी 1938 में सुभाष बोस कांग्रेस अध्यक्ष बने। कांग्रेस जो कोई भी कदम जापान, जर्मनी अथवा इटली के विरुद्ध उठाना चाहती थी, वह उसके विरुद्ध थे। वास्तव में कांग्रेस में तथा देश में यह धारणा बन गई थी कि यद्यपि वह कांग्रेस की जापान, जर्मनी तथा इटली विरोधी भावनाओं से सहमत नहीं हैं परन्तु क्योंकि लोगों की भावनाएं तीखी थीं इसलिए उन्होंने इनका खुलकर विरोध नहीं किया। हमने बहुत से प्रस्ताव चीन अथवा जर्मनी और इटली से दुःखी लोगों के प्रति सहानुभूति दिखलाने के लिए पारित किए जिन्हें वह अनमने मन से मानते रहे। विदेशी तथा अन्तर्देशी मामलों में कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्य नेताओं तथा उनके बीच बहुत मतभेद था और इसी कारण 1939 के आरम्भ में दोनों दलों में टकराव हुआ। उन्होंने कांग्रेस को नीतियों की खुलकर निन्दा की और अन्त में अगस्त 1939 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने अपने पूर्व अध्यक्ष के प्रति अनुशासनिक क्रिया को अपनाया जो अच्छा नहीं था। (भारत की खोज पृष्ठ, 499)

 

  • 1939 के आरम्भिक मास में परिस्थितियां बहुत बिगड़ गई। दुर्भाग्य से मौलाना आज़ाद ने अध्यक्ष पद के लिए प्रत्याशी बनने से मनाही कर दी और फिर एक कड़े विरोध भरे चुनाव में सुभाष बाबू जीत गए। इससे बहुत सी उलझनें पैदा हो गई। जो कुछ मास तक चलती रहीं। त्रिपुरी कांग्रेस में कुछ भद्दी घटनाएं हुई। सुभाष बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और एक नए फारवर्ड ब्लाक का गठन किया जिसका उद्देश्य कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरना था। शीघ्र ही यह दल बिखर गया जो स्वभाविक ही था परन्तु इससे कांग्रेस में विघटन की भावनाएं उभरी। उत्तम शब्दजाल में लिपटे कुछ जीवट भरे तथा अवसरवादी तत्त्वों को एक मंच मिल गया और मुझे लगा कि यह भी जर्मनी के नाज़ी दल के उत्थान के समान ही है।

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