मध्य प्रदेश के पुरातात्विक स्थल। Archaeological Sites of Madhya Pradesh

 मध्य प्रदेश के पुरातात्विक स्थल (Archaeological Sites of Madhya Pradesh)


मध्य प्रदेश के पुरातात्विक स्थल। Archaeological Sites of Madhya Pradesh


मध्य प्रदेश के पुरातात्विक स्थल 

मध्य प्रदेश की पुरातात्विक विरासत -भाग 02

डांगवाला 

  • उज्जैन से लगभग 32 कि.मी. दूर स्थित डांगवाला गांव में विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन तथा पुरातत्व संग्रहालय एवं संचालनालय द्वारा संयुक्त रूप से 1979 में कराए गए उत्खनन कार्य से समृद्ध सांस्कृतिक सोपानों का पता चलता है, जिनका काल लगभग 2000 ई.पू. से लेकर परमार काल तक है। 
  • एक टीले के उत्खनन से ताम्र-पाषाण संस्कृति का लगभग 7 मीटर स्थूल भण्डार प्राप्त हुआ, जबकि चारों खाइयों की खुदाई से उच्च कोटि की ताम्र-पाषाण सामग्री प्रकाश में आई। 
  • उत्खनन से प्राप्त मृद्धांडों में स्टैण्ड सहित कटोरों, कप तथा तश्तरियों पर लाल रंग पर काला रंग पेंट किया गया है। इन मृद्भांडों में दूधिया लेप वाला भांड तथा चित्रित काले एवं लाल भांड शामिल हैं, जिन पर ज्यामितिक तथा पशुओं के अंग चित्रित किए गए हैं। मृद्भांडों के अलावा प्राप्त सामग्री में पक्की मिट्टी की वृषभ मूर्तियां, पक्की मिट्टी तथा पत्थर की मूर्तियां, पक्की मिट्टी की तश्तरियां, हिरण, बैल, सांभर, नील गाय जैसे पशुओं की हड्डियां, जला हुआ अनाज, चावल, गेहूं, जौ, मूंग, ज्वार आदि शामिल हैं। 
  • संभवतः यहां कम-से-कम दो बार हुए अग्निदाह के कारण मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन टेढ़े-मेढ़े हो गए और लगभग पिघल गए। उत्खनन में प्राप्त ये सभी वस्तुएं 1800 ई. पूर्व. से 1300 ई.पू. की हैं। डांगवाला के उत्खनन में दो यज्ञ कुण्ड वाली एक यज्ञशाला मिली है, जिसका एक कुण्ड वर्गाकार और दूसरा आयताकार है। यहां मिट्टी के पात्र में चावल, गेहूं, मूंग, मसूर के दाने मिश्रित रूप से रखे हैं। यहां पर एक ब्राह्मी मुद्रा भी प्राप्त हुई है। एक खाई से प्राप्त गुप्तकालीन संस्तर की एक मुद्रा पर गुप्त ब्राह्मी मुद्रालेख भट्टारक पट्ट अंकित है। यज्ञ व कुबेर की पक्की मिट्टी के हत्थे और एक महिला की  के बंध मूर्ति खुदाई से प्राप्त हुई है

 

उज्जैन 

  • उज्जैन में हुए उत्खनन से पता चलता है कि इस स्थल का अधिग्रहण उत्तरी काली चमकदार मृभंड के सूत्रपात से कुछ समय पहले अर्थात ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व की अवधि के पूर्वार्द्ध में आरंभ हो गया था । 
  • आधुनिक उज्जैन में स्थित गढ़कालिका स्तूप उज्जयिनी का इतिहास बताता है। उज्जैन शहर संभवतः 700 ई.पू. में काले, लाल मृद्भांडों तथा लोहे, पत्थर और ईंट की संरचनाओं से अस्तित्व में आया। इस स्थल के अधिग्रहण काल को निम्नलिखित अवधियों में विभाजित किया जा सकता है।

 

उज्जैन (700 ई. पू. से 500 ई. पू.) 

  • इस काल के उत्तरार्द्ध में एक चौकोर परकोटा क्षिप्रा तट को छोड़कर नगर को तीनों ओर से घेरे था। नगर की सुरक्षा व्यवस्था के लिए 24 मीटर चौड़ी खाई थी । उत्खनन से प्राप्त अवशेषों में इस काल के काले तथा लाल रंग से पुते हुए अनगढ़े मृद्भांड, मिट्टी के मकान, सड़कों के अवशेष शामिल हैं। लोहे का प्रयोग प्रारंभ से ही देखने को मिलता है। इस काल में नगर में प्रवेश के लिए उत्तर-पश्चिम की ओर द्वार था।

 

उज्जैन (499 ई. पू. से 200 ई. पू.) 

  • इस काल में उत्तरी काले ओपदार मृद्भांड, हड्डी के बने वाणाग्र, सिक्के, उत्कीर्ण मुद्रा, लोहे के बने वाणाग्र तथा शुलाग्र, मिट्टी, तांबे तथा मूल्यवान पत्थरों के बने विभिन्न प्रकार के आभूषण, पक्की ईंटों का बना 10 मीटर गहरा 8 मीटर का एक तालाब, पक्की ईंटों से बनी एक नहर तथा पत्थरों के मनके, वाणाग्र आदि बनाने के एक कारखाने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उत्तरी काले ओपदार मृद्भांडों की संख्या अधिक होना सिद्ध करता है कि इन्हें तैयार किया जाता था।

 

उज्जैन (199 ई. पू. से परमार काल तक) 

  • इस काल से संबंधित उत्खनन में चिन्हांकित सिक्के, मिट्टी की प्रतिमाएं, जिसमें कुषाण काल की बनी स्त्री की प्रतिमा, मूल्यवान पत्थरों के मनके बचे मकान के अवशेष, चूल्हे के अवशेष, नालियों के अवशेष आदि प्राप्त हुए हैं।

 

परमार काल से 14वीं शताब्दी तक

 

  • इस काल से संबंधित उत्खनन में सिक्के, चमकीले मृद्भांडों के ठीकरे, ईंट तथा पत्थर के बने भवनों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उज्जयिनी के निवासी लोहे और लकड़ी का प्रयोग करते थे तथा उन्होंने लोहा और लकड़ी उद्योग का विकास किया था। आबाद क्षेत्र प्रथम काल का निदर्शन निम्नतम परत से होता है, जो लगभग 2 मीटर ऊंची है। इस काल के लोगों की सांस्कृतिक सज्जा की विशेषता मिट्टी के मकान, पत्थर और पक्की ईंट की संरचनाएं, युद्ध के अस्त्र के रूप में अस्थियों और लोहे के वाणाग्र और लोहे के शूलाग्र, घरेलू उपकरण के रूप में लोहे की छुरी और गंडासे, तांबे के पिण्ड, पक्की मिट्टी के बने शीर्ष अस्थित शलाका, तकुये और बहुविध भाण्ड शामिल हैं।

 

कायथा

 

  • उज्जैन नगर से पूर्व में 15 मील की दूरी पर छोटी काली सिंध नदी के तट पर स्थित कायथा ग्राम ( प्राचीन कापिथ्य) में विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के वी. वाकणकर के निर्देशन में उत्खनन कार्य 1965-66 में शुरू कराया गया, जो लगभग तीन वर्षों तक चला। अंतिम वर्ष में डेकर कॉलेज रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना के द्वारा भी उत्खनन में योगदान दिया गया। कायथा उत्खनन से ताम्रपाषाण युगीन सभ्यता के इतिहास की जानकारी मिलती है। कायथा उत्खनन से प्राप्त सामग्री के आधार पर यहां पर विभिन्न काल की सभ्यताओं को निम्नलिखित 10 कालखंडों में विभाजित किया गया

 

प्रथम काल 

  • वाकणकर ने इस काल की सभ्यता को 'कायथा सभ्यता' कहा है। मनोटी उत्खनन को छोड़कर अन्य किसी भी स्थान से कायथा के समान अवशेष नहीं मिले हैं। कायथा से प्राप्त मृद्भांड पर उपलब्ध अलंकरण चित्रण तथा लेखन हड़प्पा के मृद्भांडों से भिन्न हैं। लेपों में गहरा ललिया काला, लाल, गहरा बैंगनी तथा हल्का लाल रंग तथा चित्रण के लिए लाल- सफेद, गहरा लाल व काला रंग काम में लाया गया है। उत्खनन में प्राप्त ताम्र उपकरणों में 29 कंकण, 1 छेनी तथा 2 कुल्हाड़ियां हैं। इसके अतिरिक्त अकीक की दो मालाएं तथा 70,000 के लगभग स्टीएटाइट की मणियां, स्फटिक व चकमक पत्थर के लघु पाषाण उपकरण भी मिले हैं। रेडियोकार्बन विधि से कायथा सभ्यता का काल लगभग 2200 ई.पू. तक आंका गया है।

 

द्वितीय काल 

  • इस काल से प्राप्त सामग्री प्रथम काल से भिन्न आहाड़ सभ्यता' से साम्य रखती है। उत्खनन में प्राप्त मृदभांड चित्रित काले और लाल, चमकीले घर्षित लाल एवं मटियाले हैं। इन मृद्भांडों पर सफेद अथवा गुलाबी रंग से चित्रकारी की गई है। प्राप्त सामग्री लघु पाषाण और तांबा, मिट्टी की बनी पशु एवं मानव आकृतियां हैं। रेडियोकार्बन विधि से इस सभ्यता का काल 1900 ई.पू. से 1600 ई.पू. के मध्य आंका गया है। 

तृतीय काल 

  • इस काल में अधिक उन्नत किस्म के भौतिक सभ्यता के उपकरण पाए गए, जिनमें मिट्टी की बनी विविध पशु एवं मानव आकृतियां तथा मिट्टी के घरों के जले अवशेष शामिल हैं। मृद्भांडों में हल्के लाल रंग के पात्रों पर गहरे काले रंग से ज्यामितिक चित्र, हिरन, कुत्ते, बैल आदि के रेखात्मक चित्र भी मिले हैं। जले चावल के अवशेष तथा गेहूं भी पर्याप्त मात्रा में मिले हैं। इस काल में ताम्र के साथ लघु पाषाण औजारों का भी प्रयोग होता था। इस काल के लोग मातृ देवी की उपासना के साथ अग्नि पूजा भी करते थे। रेडियोकार्बन विधि से इस सभ्यता का काल 1750 ई.पू. से 1300 ई.पू. के बीच माना जाता है।

 

चतुर्थ काल 

  • इस काल के लोग संभवतः लोहे के उपयोग के साथ चित्रित भूरे पात्र तथा काले ओपदार उत्तरी मृद्भांड का उपयोग करते थे। उत्खनन से प्राप्त सामग्री में लोहे के उपकरण, तांबे के आभूषण, हाथी दांत की बनी मातृदेवी की प्रतिमाएं, पत्थरों के मनके, मिट्टी के मनुष्य तथा पशु आकृतियां आदि प्रमुख हैं। इस काल को छठी शताब्दी ई.पू. से दूसरी शताब्दी ई.पू. के मध्य माना गया है।

 

पंचम काल 

  • शुंभ कुषाणकालीन इस काल के स्तर से शुंगकालीन मिट्टी की विशिष्ट मानव आकृतियां एवं ढले हुए सिक्के प्राप्त हुए हैं। ढले हुए सिक्कों पर एक ओर स्वास्तिक तथा दूसरी ओर चक्र या मानव आकृति बनी हुई है। 

षष्ठम काल 

  • उत्खनन से इस काल की सामग्री में ईंटों बने मकान, चूल्हे, गुप्त शैली की बुद्ध प्रतिमा एवं एक चक्की मिली है। इस काल को गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल का माना गया है।

 

सप्तम से दशम काल 

  • इस काल के परमार, मुस्लिम, मराठाओं के आधुनिक काल तक की बस्ती मिली है।

 

आदमगढ़ पुरातात्विक स्थल 

  • होशंगाबाद नगर की बाहरी सीमा पर नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित आदमगढ़ में भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा आर.वी. जोशी तथा एम. डी. खरे के निर्देशन में 1960-61 में उत्खनन कराया गया। चित्रित शैलवत गुफाओं के लिए विश्वविख्यात आदमगढ़ से उत्खनन में पूर्व पाषाणयुगीन हस्त कुठार, विदारणीअंडिल, चक्रिक उपकरण, खुरचनी, शल्क तथा क्रोड मिले हैं। सभी खदरों में दो स्तरों में कांच के टुकड़े, कांच की चूड़ियों के टुकड़े तथा केल्सेडोनी के टुकड़ों के औजार प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त मिट्टी के स्तर में लघु-पाषाण औजार, काली मिट्टी के ऊपरी भाग में मृद्भांड के टुकड़े तथा हड्डियों के टुकड़े भी मिले हैं।

 

अवरा पुरातात्विक स्थल

 

  • मंदसौर जिले में चंदवासा नगर के 6 मील पश्चिम की ओर स्थित अवरा ग्राम में मध्य प्रदेश के पुरातत्व विभाग द्वारा डॉ. एच.वी. त्रिवेदी के निर्देशन में चम्बल बांध बनने से पहले 1960-61 में उत्खनन करवाया गया। 

इस उत्खनन में प्राप्त अवशेषों के आधार पर यहां की सभ्यता को निम्नलिखित छह कालों में विभाजित किया गया है:

 

प्रथम काल ( पाषाण काल ) 

  • अवरा के समीपवर्ती चम्बल घाटी की खोल में पाषाणयुगीन उपकरण मिले हैं। 

द्वितीय काल (ताम्र पाषाण काल ) 

  • उत्खनन में इस काल से संबंधित कुछ मकानों की नींव, फर्शमछली की हड्डियां, लघु पाषाण उपकरण तथा तांबे की एक कुल्हाड़ी मिली है। यह सभ्यता महेश्वर, नागदाटोली नागदा आदि के ताम्र पाषाण युगीन सभ्यता के समकालीन थी।

 

तृतीय काल 500 ई.पू. से 100 ई.पू. तक ) 

  • उत्खनन में इस काल के कच्चे जले हुए मकानों के अवशेष मिले हैं, जिनकी दीवारें बांस, लकड़ी व मिट्टी की बनी हैं तथा छतों पर कीलों के सहारे रखी गयी टाइल्स का उपयोग हुआ है। उत्खनन से लोहे के उपकरणों में वाणाग्र, शूलाग्र, कीलें, हसियां, छेनी, टंगने योग्य दीप, कुल्हाड़ी, तांबे की चूड़ियां, पत्थर की तीन चक्कियां, स्टिएटाइट पत्थर के बने दो गोलाकार मंजूषा के ढक्कन, मूल्यवान पत्थरों के मनके, शंख की चूड़ियां, हाथी दांत की वस्तुओं में मातृदेवी, कटारनुमा वस्तु तथा मिट्टी की वस्तुओं में बच्चों के खिलौने, मानव एवं पशु आकृतियां, मनके तथा मुद्राएं मिली हैं। हाथी दांत से बनी मुद्रा पर मौर्यकालीन ब्राह्मी में 'जिधवस' खुदा है, जिससे इस स्थान का प्राचीन नाम अपरा पता चलता है। इस काल के लोग काले ओपदार, मृद्भांड, उत्तरी मृदभांड, काले और लाल मृद्भांड, अनगढ़ लाल सादे काले मृद्भांड उपयोग करते थे। इस काल के आहत तथा ढले हुए सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।

 

चतुर्थ काल ( 100 ई.पू. से 300 ई.पू. तक) 

  • उत्खनन में चतुर्थ काल की पक्की ईंटों का मकान, शंख तथा हाथी दांत की चूड़ियां, आभूषण, पक्की मिट्टी की बनी चूड़ियां, कान के आभूषण, मिट्टी की गेंद, छिद्रयुक्त ढक्कन, मानव एवं पशु आकृतियां, मिट्टी के बैल का खंडित पिछला भाग जिस पर दूसरी तीसरी शताब्दी के ब्राह्मी लिपि के अक्षरों में उत्कीर्ण लेख सवय", मिट्टी के टुकड़े पर कमल पर देवी तथा दूसरी ओर कमल और मिट्टी की दो मुद्राएं भी मिली हैं। उत्खनन में प्राप्त सिक्कों में पंचमार्क सिक्के उज्जैन चिन्ह युक्त ढले सिक्के तथा क्षत्रप सिक्के प्रमुख हैं। रोमन सभ्यता से सम्पर्क इस काल की प्रमुख विशेषता है। संभवतः इस काल के निवासी लोहे तथा तांबे का उपयोग बहुत करते थे।

 

पंचम काल ( 300 ई.पू. से 500 ई.पू. तक)

  • उत्खनन में उत्तर क्षत्रप काल से सम्बन्धित भवनों के अवशेष, मिट्टी की टोंटियां, मृद्भांडों के ठीकरे, मनके, मानव आकृतियां, खिलौने आदि मिले हैं। मृदभांडों में अनगढ़े लाल रंग के मृद्भांड, जिन पर सफेद पृष्ठभूमि पर काले रंग की चित्रकारी है, गहरे धूसर वर्ण के मृद्भांड, लाल रंग के मोटे मृदभांड तथा चमकीले मृदभांड शामिल हैं।

 

षष्ठम काल ( उत्तर-मध्यम युग से मुस्लिम मराठा युग ) 

  • उत्खनन से लगता है कि यह स्थान पांचवीं-छठी शताब्दी के पश्चात उजड़ गया तथा पुनः मुस्लिम-मराठा काल में आबाद हुआ। यहां से मुस्लिम-मराठाकालीन सिक्के तथा अन्य अवशेष मिले हैं।

 

इंद्रगढ़ पुरातात्विक स्थल

 

  • मंदसौर जिले में स्थित इंद्रगढ़ नामक स्थान में राष्ट्रकूट शासक नन्नप के शासन काल का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें शिव मंदिर का निर्माण कराए जाने का उल्लेख है। इस शिव मंदिर का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए 1958-59 में इंद्रगढ़ में तीन स्थानों पर उत्खनन कराया गया। 
  • पहले स्थल के उत्खनन में प्राप्त यह शिव मंदिर संभवतः 8वीं से 12वीं शताब्दी तक विद्यमान था। 
  • दूसरे स्थल के उत्खनन में प्राचीन बस्ती के अवशेष, चूड़ियों के टुकड़े, मनके व अन्य आभूषण, तौलने के बाट, लोहास्त्र और एक अस्थि पंजर भी मिला है, जिससे युद्ध का अनुमान होता है। 
  • तीसरे स्थल में दो मंजिले जले हुए मकान के अवशेष, घरेलू उपयोग की अन्य वस्तुएं, तीन अस्थि पंजर जिनमें से दो में लोहे के तीर के फल फंसे हुए हैं। इससे यहां मुस्लिम काल में हुए युद्ध का प्रमाण मिलता है।

 

ऐरण (प्राचीन ऐरिकिण) पुरातात्विक स्थल

  • सागर जिले में बीना नदी के तट पर स्थित ऐरण (प्राचीन ऐरिकिण) गांव में सागर विश्वविद्यालय द्वारा प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी के निर्देशन में 1960-61 में उत्खनन कार्य शुरू हुआ, जो पांच वर्षों तक चला। 

इस सभ्यता को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया गया है:

 

प्रथम काल 

  • ताम्र पाषाणकालीन काल के प्राप्त अवशेषों में लघु पाषाण औजार, काले और लाल तथा चित्रित लाल पर काले रंग के मृद्भांड, मिट्टी की मूर्तियां, पत्थर एवं मिट्टी की गुड़िया, कुछ भूरे रंग के मृद्भांड तथा मिट्टी की मूर्तियों में जानवरों की प्रतिमाएं अधिक हैं। तांबे की आदिम कुल्हाड़ियों के टुकड़ेगोलाकार सोने के टुकड़े, मिट्टी तथा शंख की चूड़ियों के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। कड़ी मिट्टी से निर्मित नगर की प्राचीन रक्षा-दीवाल भी मिली है, जिसके दक्षिण में सुरक्षा को मजबूत करने के दृष्टिकोण से खाई का निर्माण किया गया था। इस काल की अवधि 2000 ई.पू. से 700 ई.पू. के मध्य है।

 

द्वितीय काल ( अ ) 

  • ताम्र पाषाणयुगीन 'काले और लाल' मृद्भांड इस पूर्व ऐतिहासिक काल (700 ई. पू. से 200 ई.पू. तक) में मिले हैं, लेकिन इस काल में तांबे के स्थान पर लोहे का प्रयोग होने लगा था। इस काल में प्राप्त मृद्भांडों में काले ओपदार उत्तरी मृदभांड के कुछ ठीकरे, कुछ आहत एवं कबीले सिक्के और सीसे का एक अर्द्धवृत्ताकार टुकड़ा (तौल 2.97 कि.ग्रा.) जिस पर मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में एवं पाली भाषा में 'रजो ईद गुतस' लिखा है। इस काल में ईंट तथा पत्थरों के टुकड़े, मिट्टी की मूर्तियां तथा गुड़िया, शंख तथा चमकीले पत्थरों के आभूषण, बाट आदि भी मिले हैं।

 

द्वितीय काल ( ब ) 

  • इस काल (200 ई. पू. से 100 ई.पू. तक) में काल और लाल मृदभांडों का उपयोग प्रायः बन्द हो गया। इस काल के मृदभांड सादे लाल हैं तथा कुछ पर काले रंग की चित्रकारी है। 3268 आहत सिक्कों की निधि मिली है, जो लगभग दूसरे से पहली शताब्दी ई.पू. की है। अधिकांश सिक्कों पर तांबे तथा कुछ पर चांदी की परत चढ़ी है। अन्य अवशेषों में मिट्टी से बनी पशु एवं मानव आकृतियां, लोहे के टुकड़े, गुड़िया, शंख तथा चमकीले पत्थरों के आभूषण आदि शामिल हैं।

 

तृतीय काल 

  • प्रथम शताब्दी ई. से छठी शताब्दी ई. तक के इस काल में लाल पॉलिशयुक्त मृदभांड, जिनमें कुछ पर काले रंग से खड़ी रेखाएं चित्रित हैं, छोटे आकार की पकी ईंटों के मकान, चांदी और तांबे के सिक्के, मिट्टी, शंख तथा पत्थरों के मनके, शंख की चूड़ियां, लोहे तथा हड्डी की वस्तुएं, मिट्टी की बनी पशु एवं मानव मूर्तियां, कुछ पत्थरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। सिक्कों में क्षत्रप, नाग, गुप्त तथा हूण शासक तोरमाण की भी मुद्राएं मिली हैं। पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्के ढालने के मिट्टी के सांचे का एक टुकड़ा भी मिला है। एक अन्य मिट्टी की मुद्रा पर गुप्त लिपि में महादण्ड नामक 'सिंह नंदी' उत्कीर्ण है।

 

चतुर्थ काल 

  • उत्खनन से प्राप्त इस काल की वस्तुओं का समय 16वीं से 18वीं शताब्दी के मध्य तक ठहरता है। संभवतः इस काल में पत्थर की एक नगर दीवार का निर्माण हुआ, जिसके अवशेष आज भी विद्यमान हैं।

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