हिन्दी में उपचारी शिक्षण। उपचारी शिक्षण का महत्त्व । भाषा दोष उच्चारण शिक्षा । Remedial Teaching in Hindi

हिन्दी में उपचारी शिक्षण, उपचारी शिक्षण का महत्त्व , भाषा दोष उच्चारण शिक्षा 

हिन्दी में उपचारी शिक्षण। उपचारी शिक्षण का महत्त्व , भाषा दोष उच्चारण शिक्षा


हिन्दी में उपचारी शिक्षण Remedial Teaching in Hindi

 

  • शैक्षणिक निदान का प्रयोजन ही उपचारी शिक्षण है। शैक्षणिक निदान द्वारा बालकों  की कठिनाइयों का पता लगाकर उन कठिनाइयों को दूर करते हुए जो शिक्षक कार्य अपनाया जाता है उसे उपचारी शिक्षण कहते हैं।  
  • उपचारी शिक्षण के भी अनेक रूप हो सकते हैं- बालकों की कठिनाइयों का सामूहिक रूप से निवारण और उचित अभ्यास, वैयक्तिक भेदों के आधार पर व्यक्तिगत बालक की अशुद्धियों का निवारण, उपचार गृहों अथवा भाषा प्रयोगशालाओं में बालकों के उच्चारण एवं भाषा सम्बन्धी प्रशिक्षण और अभ्यास।

 

सस्वर वाचन सम्बन्धी कठिनाइयों से सम्बन्धित उपचारी शिक्षण 

Remedial Teaching Related to the Problems of Recitation Reading

 

  • सर्वप्रथम शिक्षक को अपना आदर्श वाचन सभी दृष्टियों- शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण, उचित स्वर, गति, यति, प्रवाह, आरोह-अवरोह आदि से आदर्श बनाना चाहिए। 
  • जिन ध्वनियों एवं शब्दों के उच्चारण में अशुद्धियाँ होती हैं, उनके शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण की शिक्षा और अभ्यास कराना। 
  • शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण और बाद में उचित स्वर, गति, यति, प्रवाह की दृष्टि से भी बालकों को प्रशिक्षित करना और सस्वर वाचन का अभ्यास कराना। 
  • शब्दार्थ सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर करना और अर्थ ग्रहण की योग्यता बढ़ाना। 
  • अच्छे-अच्छे अवतरणों का चयन कर वाचन कराना, वाचन में रुचि उत्पन्न करना, अधिक वाचन के लिए प्रोत्साहित करना । 
  • मौखिक रचना सम्बन्धी विविध अभ्यास - भाषण, वाद-विवाद, कविता-पाठ, अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता आदि।

 

सस्वर वाचन सम्बन्धी उपचारी शिक्षण में ध्यान रखने योग्य बातें 

Remember Points Related to Recitation Reading of Remedial Teaching 

  • दोषपूर्ण सस्वर वाचन करने वाले छात्रों की योग्यता को ध्यान में रखते हुए उनके अनुकूल विषय-सामग्री द्वारा उनका शिक्षण प्रारम्भ करना चाहिए, भले ही कुछ समय के लिए कक्षा स्तर से नीचे उतरना पड़े। पठन सामग्री उनके अनुकूल र और रोचक होनी चाहिए। जिससे धीरे-धीरे पठन में उसकी रुचि बढ़े, गति बढ़े और अर्थ ग्रहण की शक्ति भी बढ़े। वाचन को सोद्देश्य बनाकर ऐसे बालकों में पढ़ने के प्रति प्रेरणा उत्पन्न करनी चाहिए। 

  • ऐसे अभ्यास दिए जाए जिनकी उपयोगिता का छात्र भी अनुभव करते चले। 
  • बालकों को स्वयं अपनी प्रगति जानने का भी अवसर दिया जाए।
  • रोचक एवं उपयोगी पुस्तकों की चर्चा, घटनाओं का वर्णन, साहसिक कहानियाँ जिनमें कम प्रतिभा वाले बालक भी परिश्रम एवं अध्ययन द्वारा महान बन गए हों, सुनाई जाएँ और छात्रों से पढ़वाई जाएँ। 
  • बालक में छिपी हुई किसी विशिष्ट प्रतिभा, योग्यता, कुशलता का उसे आभास कराना जिससे उसकी हीन भावना दूर हो, संकोच और झिझक दूर हो, आत्मसम्मान का भाव पैदा हो और वह निर्भीक बने। अभिनय, वाद-विवाद आदि कार्यक्रमों से भाग लेने के लिए उसे प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाए।

 

शैक्षणिक निदान एवं उपचारी शिक्षण का महत्त्व 

Academic Diagnosis and Importance of Remedial Teaching 

  • आधुनिक शिक्षण में 'शैक्षणिक निदान एवं उपचारी शिक्षण' एक नवीन प्रयोग है और इससे उन बालकों को विशेष लाभ है जो किन्हीं कारणों से सीखने की क्रिया में पिछड़ जाते हैं और अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाते। 
  • शैक्षणिक निदान द्वारा बालकों की सीखने सम्बन्धी कठिनाइयों का पता चल जाता है। 
  •  कठिनाइयाँ एवं कारणों को दूर करने में समुचित शिक्षण प्रक्रिया अपनाई जाती है। 
  • शिक्षण प्रक्रिया प्रभावशाली होती है और बालकों को अपनी शक्ति एवं योग्यतानुसार शैक्षिक प्रगति करने का अवसर मिलता है। 
  • उपचारी शिक्षण द्वारा छात्रों की व्यक्तिगत कठिनाइयाँ दूर होती हैं और इस क्रिया से अन्य छात्रों के समय आदि की भी क्षति नहीं होती। 
  • पिछड़े बालकों की हीन भावना दूर हो जाती है और वे असमायोजन से बच जाते हैं, उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है और उनके व्यक्तित्व को समुचित विकास में सहायता मिलती है।

 

भाषा दोष Language Defect

 

  • यदि बालक अपने स्वर यन्त्रों पर नियन्त्रण नहीं रख पाता, तो उसमें भाषा दोष उत्पन्न हो जाता है। 
  • भाषा दोष से ग्रसित बालक समाज से कतराने लगते हैं। उनमें हीनता की भावना का विकास हो जाता है और वे सामान्यतः अन्तर्मुखी स्वभाव के हो जाते हैं। 
  • भाषा दोष शैक्षिक विकास को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। 

मुख्यतः भाषा दोष निम्नलिखित प्रकार के होते हैं

 

  • ध्वनि परिवर्तन 
  • हकलाना 
  • अस्पष्ट उच्चारण 
  • तुतलाना 
  • तीव्र अस्पष्ट वाणी

 

उच्चारण शिक्षा की आवश्यकताएँ 

Importance of Pronunciation Education

  • अशुद्ध उच्चारण से भाषा का स्वरूप बिगड़ता है। 
  • बिना उच्चारण ज्ञान के भाषा का ज्ञान नहीं हो सकता है। उच्चारण ध्वनियों के आधार पर किया जाता है। ध्वनियों के अभाव में न भाषा ठीक ढंग से समझी जा सकती है, न ही उसका सम्यक् ज्ञान ही हो पाता है। 
  • उच्चारण बाल्यावस्था से ही बनता-बिगड़ता है। इस कारण बालकों के उच्चारण पर विशेष बल देना चाहिए। बचपन से ही भ्रष्ट उच्चारण से बचाया जाना चाहिए।
  • हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों में अनेक बोलियाँ, उप-बोलियाँ प्रचलित हैं, यथा ब्रजअवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बांगरी, मालवी, बुन्देली आदि। इन बोलियों का प्रभाव खड़ी बोली पर पड़ा है। इस कारण उसमें ग्रामीण भाषा का पुट मिल गया है। अध्यापक को सावधानीपूर्वक ग्रामीण बोलियों के उच्चारण के प्रभाव से बच्चों को मुक्त करना चाहिए। दुर्भाग्यवश अध्यापक भी इस दुष्प्रभाव से वंचित नहीं हैं। इसलिए अशुद्ध उच्चारण प्रचलित है। 
  • अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के बालकों पर प्रान्तीय भाषाओं का प्रभाव पड़ता है। वहाँ के बालकों को हिन्दी के उच्चारण में इन प्रान्तीय भाषाओं के प्रभाव से बचाना चाहिए। 
  • हिन्दी में उच्चारण सम्बन्धी अनेक दोष एवं कठिनाइयाँ हैं। सावधानीपूर्वक इनका निराकरण करना चाहिए। इसके लिए छात्रों को उच्चारण दोष से मुक्त करना आवश्यक है।

 

उच्चारण दोष के कारण Reasons of Pronunciation Defect

 

  • शारीरिक कारण उच्चारण यन्त्रों के विकार के कारण उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं। कुछ लोगों के कण्ठ, तालु, होठ, दाँत आदि उच्चारण अंगों में दोष होते हैं। इसलिए वे सम्बद्ध ध्वनियों का सही उच्चारण नहीं कर पाते हैं।

 

  • वर्णों के उच्चारण का अज्ञान हिन्दी भाषा की एक विशेषता यह भी है कि उसका जैसा अक्षर-विन्यास है, ठीक वैसे ही उच्चारित भी की जाती है। इसके बावजूद अज्ञानवश वर्णों व शब्दों के सही रूप कुछ लोग उच्चारित नहीं कर पाते हैं जैसे आमदनी को आम्दनी कहना, खींचने को खेंचना कहना, प्रताप को परताप कहना, वृक्ष को व्रक्ष कहना, वीरेन्द्र को वीरेन्दर कहना आदि।

 

  • क्षेत्रीय बोलियों का प्रभाव कहावत है कि कोस कोस पर पानी बदले, दस कोस पर बानी ।' अर्थात् प्रत्येक दस कोस (बीस मील) पर बानी अर्थात् वाणी बदल जाती है। वास्तव में भाषा का रूप विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तित नजर आता है। इसका मूल कारण क्षेत्रीय भाषाओं का खड़ी बोली पर भोजपुरी प्रभाव है। क्षेत्र के लोग 'ने' का प्रयोग कम करते हैं, तो पंजाबी क्षेत्र के लोग उसका अनावश्यक प्रयोग भी करते हैं, यथा, हमने जाना है।' 'ने' के बदले कहीं '' का प्रयोग, कहीं '' के बदले '' का प्रयोग, तो कही '', '' और '' के बदले '', '', '' का प्रयोग आदि।

 

  • अन्य भाषाओं का प्रयोग हिन्दी भाषा पर अन्य भाषाओं का भी प्रभाव पड़ता है, जिससे उसके उच्चारण पर प्रभाव पड़ता है। उर्दू के कारण हिन्दी का क, , - क़, ख़, ग़ हो गया है। अंग्रेजी के कारण कॉलेज, प्लेटफार्म आदि अनेक शब्द जुड़ गए हैं। अंग्रेजी के कारण ही '' का उच्चारण '' होने लगा है।

 

  • भौगोलिक कारण विभिन्न परिस्थितियों में रहने से स्वर - यन्त्र में भी थोड़ी-बहुत विभिन्नता आ जाती है, इससे उच्चारण प्रभावित होता है। अरबवासी धूप आदि से बचने के कारण सिर पर कपड़ा बाँधते हैं, गला कस-सा जाता है, इस कारण वहाँ क, , ग क़, ख़ और ग़ हो जाता है। हिन्दी में भी विभिन्न राज्यों में हिन्दी का उच्चारण इससे किंचित प्रभावित हुआ है।


  • मनोवैज्ञानिक कारण उच्चारण पर मनोवैज्ञानिकता का प्रभाव पड़ता है। संकोच, शीघ्रता, बिलम्ब आदि से उच्चारण में दोष आ जाते हैं। इससे लापरवाही आदि का विकास होता है और उच्चारण प्रभावित होता है। 


  • स्थानीय प्रभाव जिस क्षेत्र विशेष में बालक निवास करता है, वहाँ की भाषा बच्चे भय, तुतलानाके उच्चारण को प्रभावित करती है। कहा भी जाता है "चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर वाणी" स्थानीय बोली के प्रभाव से उच्चारण अशुद्ध हो जाता है।


  • अध्यापक की अयोग्यता उच्चारण सुधार में अध्यापक का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अगर अध्यापक उच्चारण में सतर्कता नहीं रखता या शुद्ध उच्चारण करने में असमर्थ है, तो छात्र उसका अनुकरण करके अशुद्ध उच्चारण करना प्रारम्भ कर देते हैं और यह दोष सदा के लिए उनमें घर कर जाता है।


  • प्रयत्न-लाघव ध्वनियों व शब्दों के उच्चारण में पूर्ण सावधानी न रखने पर दोष का आना स्वाभाविक है। शब्दों एवं ध्वनियों का उच्चारण पूर्णरूप से किया जाना चाहिए। प्रयत्न-लाघव (short cut) विधि को अपनाने से उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं, यथा परमेश्वर को 'प्रमेसर', 'मास्टर साहब' को 'म्मासाब' आदि।

 

  • दोषपूर्ण आदतें वैयक्तिक दोषपूर्ण आदतें भी अशुद्ध उच्चारण का कारण बन जाती हैं। अनुस्वरों का अधिक उच्चारण इसका प्रलचित रूप है जैसे 'कहा' को 'कहाँ' कहना या अनुस्वरों का लोप जैसा 'हैं' को 'है' कहना आदि। रुक-रुक कर बोलना, शीघ्रता में बोलना, किसी की नकल करके बोलना भी उच्चारण दोष लाने के कारण हैं।

 

  • शुद्ध भाषा के वातावरण का अभाव भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है। अगर भाषा के शुद्ध रूप का वातावरण नहीं मिला, तो अशुद्ध उच्चारण स्वाभाविक है। अशुद्ध उच्चारण के बीच पलने वाला बालक शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता है।

 

  • अक्षरों एवं मात्राओं का अस्पष्ट ज्ञान जिन छात्रों को अक्षरों एवं मात्राओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं दिया जाता, उनमें उच्चारण दोष होता है। संयुक्ताक्षरों के सन्दर्भ में यह भूल अधिक होती है जैसे स्वर्ग को सरग कहना, कर्म को करम कहना, धर्म को धरम कहना आदि।

 

  • नागरी ध्वनियों का अनिश्चित उच्चारण नागरी ध्वनियों में 'ड.', '', '' 'क्ष', 'ज्ञ' आदि का प्रयोग बहुत कम होता है। इस कारण इनका उच्चारण अनिश्चित-सा हो गया है। इस कारण इनके उच्चारण में बहुधा भूल सम्भावना रहती है। 

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