चार्वाक दर्शन की ज्ञानमीमांसा । ज्ञानमीमांसा की समीक्षा ।Charvak Ka Gyan Meemansa

चार्वाक दर्शन की ज्ञानमीमांसा ज्ञानमीमांसा की समीक्षा 

Charvak Ka Gyan Meemansa

चार्वाक दर्शन की ज्ञानमीमांसा । ज्ञानमीमांसा की समीक्षा ।Charvak Ka Gyan Meemansa


चार्वाक दर्शन की ज्ञानमीमांसा


  • भारतीय दर्शन चिन्तन में चार्वाक दर्शन ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से प्रत्यक्षवादीतत्त्वमीमांसा की दृष्टि से भौतिकवादी और आचारमीमांसा की दृष्टि से सुखवादी विचारधारा है। इसकी विचारधारा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसका ज्ञानमीमांसीय प्रत्यक्षवाद है। अन्य समस्त भारतीय दर्शन के विपरीत चार्वाक दर्शन केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है और अन्य प्रमाणों का निषेध करता है।

  • वस्तुतः इसके ज्ञानसिद्धान्त का जितना विशिष्ट पक्ष एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकृति हैउतना ही विशिष्ट पक्ष अन्य प्रमाणोंविशेषतः अनुमान प्रमाणका खण्डन भी है। उल्लेखनीय है कि भारतीय दर्शन के चार्वाकेतर सम्प्रदाय प्रमा के साधन के रूप में प्रत्यक्ष के साथ अनुमान प्रमाण के प्रामाण्य में अवश्य विश्वास करते हैं।

  • चार्वाक दर्शन के अनुसार यथार्थ ज्ञान का एकमात्र प्रामाणिक साधन है प्रत्यक्ष- प्रत्यक्षमेकं प्रमाणम्। चार्वाक प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों की वैधता को स्वीकार नहीं करता। प्रत्यक्ष के विषय में चार्वाकों के द्वारा दी गयी कोई भी स्पष्ट परिभाषा प्राप्त नहीं होती। प्रायः वे भी अन्य भारतीय दार्शनिकों की तरह यह स्वीकार करते हैं कि ज्ञानेन्द्रिय एवं विषय के सम्पर्क से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। इसका प्रमाण भी प्रत्यक्ष है। 

  • हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं- चक्षुःश्रोत्रनासिकारसना और त्वक्। रूपरसगन्धस्पर्श और शब्द यह पंचविध इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। सुखदुःख आदि का अनुभव भी इस पंचविध इन्द्रिय प्रत्यक्ष पर ही आश्रित है।

  • चार्वाक में प्रत्यक्ष प्रमाणविषयक चिन्तन की स्पष्टता को इस पकार समझा जा सकता है कि रूप के अभाव में जो अदृष्ट हैरस के अभाव में जो अनास्वादित हैगन्ध के अभाव में जो अनाघ्रात हैस्पर्श के अभाव में जो अस्पृष्ट है तथा शब्द के अभाव में जो अश्रुत है ऐसा चिन्तन केवल कल्पनाओं में ही हो सकता हैयथार्थ में नहीं। प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानने का कारण इस प्रमाण में प्राप्त अभ्रान्तता और निश्चयात्मकता है जो प्रत्यक्षेतर प्रमाणों में सम्भव नहीं है।

अनुमानविषयक चार्वाक चिन्तन- जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया हैकि चार्वाक के द्वारा प्रवर्तित प्रत्यक्ष की परिभाषा प्राप्त नहीं होती। किन्तु इसके द्वारा किया अनुमान का खण्डन सर्वाधिक प्रसिद्ध है। अनुमान का यह खण्डन मध्वविरचित सर्वदर्शनसंग्रह में प्राप्त होता है। 
तदनुसार

  • दृष्ट हेतु से अदृष्ट साध्य की सिद्धि करना अनुमान हैपर्वत पर दृष्ट धूम के ज्ञान से पर्वत पर अदृष्ट अग्नि का ज्ञान करना अनुमान है। अनुमान का आधार व्याप्ति है। यह व्याप्ति हेतु और साध्यलिंग और लिंगी के बीच साहचर्य का नियम है। 

  • चार्वाक का इस विषय में कहना है कि अनुमान में दूसरे की उपस्थिति से एक की उपस्थिति का निश्चय किया जाता है। यह तभी सम्भव है जब दोनों वस्तु व की नित्य सहवर्तिता का दृढ निश्चय हो । जैसे- धूम और अग्नि का सम्बन्ध - जहाँ जहाँ धूम हैवहाँ वहाँ अग्नि अवश्य है। किन्तु तथ्य यह है कि ऐसा नियम बनाया नहीं जा सकता। पुनः पुनः निरीक्षण करने से केवल यह सिद्ध होता है कि धुए की कुछ घटनाए अग्नि की घटना होती हैंलेकिन धुए की सभी घटनाए अग्नि की घटनाए नहीं हो सकतीं क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि ऐसी घटनाए हमारे निरीक्षण में आने से रह जाए। परिणामतः संशय के लिये सदैव स्थान बना रहता है और अनुमान की प्रामाणिकता स्थापित नहीं होती। प्रामाणिक अनुमान की तथाकथित घटनाओं- जहाँ धु० से अग्नि का अनुमान किया गया और उस स्थान पर जाने पर यथार्थ अग्नि दिखी को संयोग ही कहा जा सकता है।

  • चार्वाक दार्शन का यह स्पष्ट कथन है कि धूम और अग्नि के बीच व्याप्य-व्यापक-भाव की कल्पना निराधार एवं तर्कविरुद्ध हैक्योंकि इस प्रकार के तर्कवाक्यों को प्राप्त करने का कोई वैध साधन नहीं है। चूँकि व्याप्ति हेतु और साध्य का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध हैअतः चार्वाकों की मान्यता है कि अनुमान तभी निश्चयात्मक एवं निर्दोष हो सकता है जब व्याप्ति निर्दोष एवं वास्तविक हो । 

  • किन्तु व्याप्ति के विषय में निश्चायक रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता। जहाँ धुआँ होता हैवहाँ आग होती है- हम इस व्याप्ति ज्ञान को केवल तभी निश्चायक एवं प्रमाणिक मान सकते हैं जब हम प्रत्यक्ष से धूम्रयुक्त सभी पदार्थों को अग्नियुक्त जान सकें। किन्तु यह बिल्कुल असम्भव है कि हम भूत एवं भविष्य के सभी धूमवान् स्थलों को अग्नियुक्त देख सकें।

  • प्रत्यक्ष का सम्बन्ध केवल वर्तमान से है और हम वर्तमान समय में भी सभी धूमवान पदार्थों को अग्नियुक्त नहीं जान सकते । पुनःयदि इस प्रकार की व्याप्ति आज सत्य भी हो तो यह भविष्य में भी सत्य होगी- इसका कोई प्रमाण नहीं है। इस प्रकार प्रत्यक्षानुभव का क्षेत्र अत्यन्त सीमित हैपरिणामस्वरूप वह हमें किसी भी सामान्य सम्बन्ध (व्याप्ति) का ज्ञान नहीं करा सकता।

  • चार्वाक का यह भी कहना है कि प्रत्यक्ष के आधार पर धूमत्व एवं वह्नित्व का ज्ञान नहीं हो सकता।

  • इन्द्रिय प्रत्यक्ष से केवल विशेषों का ही ज्ञान होता हैसामान्य का नहीं। जब हमारा सारा ज्ञान विशेषों तक ही सीमित है तो हमें विशेषों की सीमा का अतिक्रमण करने का कोई अधिकार नहीं है विशेषों से सामान्य की कल्पना हमारी बुद्धि की भ्रान्त कल्पना हैवास्तविक ज्ञान नहीं है। धूमत्व एक जाति या सामान्य है जो सभी धूमवान पदार्थों मं विद्यमान रहता है। अतः जब तक सभी धूमवान एवं वह्निमान पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होगातब तक उनके सामान्य धर्म का ज्ञान सम्भव नहीं है। अतः कुछ स्थलों पर धूमत्व एवं वह्नित्व के प्रत्यक्ष से धुएँ और अग्नि के मध्य सामान्य सम्बन्ध (व्याप्ति) की स्थापना सम्भव नहीं है।

  • पुनःव्याप्ति हेतु और साध्य का निरुपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध है। चार्वाक का कथन है कि प्रत्यक्ष द्वारा निरुपाधिक सम्बन्ध का ज्ञान सम्भव नहीं है। उपाधि दो प्रकार की होती है आशंकित और निश्चित। यदि उपाधि निश्चित हैजैसेअग्नि एवं धुएँ मेंतो व्याप्ति अवैध होगी। यदि उपाधि की आशंका है तो भी व्याप्ति वैध नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि हम दो वस्तुओं में साहचर्य को देखकर यह नहीं कह सकते कि उनका साहचर्य निरुपाधिक है।

  • चार्वाक दर्शन के अनुसार अनुमान और शब्द प्रमाण भी व्याप्ति को सत्यापित नहीं कर सकते हैं। अनुमान प्रमाण से व्याप्ति को स्थापित करना इसलिए असम्भव हैक्योंकि जिस अनुमान के द्वारा हम इसकी स्थापना करेंगे वह भी व्याप्ति पर निर्भर होगा। इस प्रकार हमारा तर्क अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त होगा। इस प्रकार एक अनुमान के सत्यापन के लिए किसी अन्य अनुमान की आवश्यकता होगी और उस अनुमान के लिए किसी अन्य अनुमान की अनुमान की यह परम्परा धारावाहिक रूप में बनी ही रहेगी। इस प्रकार अनवस्था दोष का भी प्रसंग उपस्थित होगा।

  • व्याप्ति की स्थापना शब्द प्रमाण से भी सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रथमतःशब्द ज्ञान का प्रामाणिक साधन नहीं है और द्वितीयशब्द प्रमाण के आधार पर व्याप्ति को स्थापित करने के प्रयास में अनुमान शब्द प्रमाण पर निर्भर हो जायेगा। ऐसी स्थिति में अनुमान ज्ञान का स्वतन्त्र साधन नहीं रह जायेगा। पुनःकारण-कार्य नियम के आधार पर भी व्याप्ति को स्थापित नहीं किया जा सकताक्योंकि कारण कार्य का सार्वभौम नियम स्वयं एक व्याप्ति है। इस प्रकार चार्वाकों का कथन है कि व्याप्ति की स्थापना किसी भी प्रमाण से सम्भव नहीं है।

  • इस प्रकार चार्वाक अनुमान प्रमाण की वैधता एवं निश्चयात्मकता में सन्देह व्यक्त करते हैं। उनका यह भी कथन है कि अनुमान को वैध प्रमाण तभी माना जा सकता है जब इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान संशयरहित एवं वास्तविक हो किन्तु अनुमान में इसका सर्वथा अभाव होता है, यद्यपि कुछ अनुमान आकस्मिक रूप से (संयोगवश ) सत्य होते हैं।

चार्वाक की शब्द प्रमाणविषयक मान्यता- 


  • भारतीय दर्शन के प्रायः सारे दार्शनिक सम्प्रदायों में शब्द प्रमाण को भी यथार्थ ज्ञान का साधन माना जाता है। आप्त पुरुषों के वचनों एवं श्रुतियों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे शब्द प्रमा कहते हैं और इसे उपलब्ध कराने वाले असाधारण साधन को 'शब्द प्रमाणकहते हैं। सारी आस्तिक दर्शन परम्परा में वेदों को प्रमाण माना जाता है।

  • चार्वाक दर्शन ने शब्द प्रमाण का भी खण्डन किया है। किसी पुरुष के आप्त और लोकोपकारक होने के कारण उसके वाक्यों में श्रद्धा रखना अनुमान से सम्भव हैयह अनुमान स्वयं प्रमाण नहीं है। इसलिये अनुमानाश्रित शब्द को भी प्रमाण नहीं माना जाना चाहिए। यदि आप्त प्रत्यक्षसिद्ध पदार्थों का वर्णन करते हैं तो यह वर्णन प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत आ जाता है। यदि वे अदृष्ट अश्रुत अज्ञात पदार्थों का वर्णन करें तो इसे उनकी कल्पनामात्र समझा जा सकता है यथार्थ नहीं। 

  • चार्वाक की यह भी मान्यता है कि आप्त पुरुषों के द्वारा उच्चरित शब्दों से ज्ञानप्राप्ति होती हैअतः उसे श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ही मानना चाहिएस्वतन्त्र प्रमाण नहीं। पुनःआप्त पुरुषों के शब्द प्रत्यक्ष विषयों के बोध पर्यन्त ही प्रामाणिक माने जा सकते हैं। यदि उनसे अप्रत्यक्ष विषयों के बोध की धारणा प्रस्तुत की जाती है तो उनका प्रामाण्य सन्दिग्ध हो जाता हैक्योंकि उन विषयों का प्रामाण्य प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। पुनःचार्वाकों का विचार है कि शब्द से प्राप्त सभी ज्ञान अनुमानसिद्ध हैं। चूकि अनुमान की ही प्रामाणिकता सन्दिग्ध है इसलिये अनुमान की तरह शब्दप्रमाण की भी प्रमाणिकता सन्दिग्ध है।

  • चार्वाक वेदों की प्रामाणिकता का सर्वथा निषेध करते हैं। वे वेदों को असत्यतापुनरुक्ति एवं असंगति दोषों से युक्त कहते हैं। वे वेदों को धूर्त पुरोहितों की कृति मानते हैं। वैदिक यज्ञादी कर्मों में भी उनका विश्वास नहीं है। इन कर्मों को वह धूर्तजनों का कृत्य मानते हैं तथा एक प्रकार से वे उन जनों की जीविका का भी उसे साधन मानते हैं। 

  • इनका मानना है कि श्राद्धादि कर्मों से मृत व्यक्ति: तृप्त नहीं हो सकता। ये ईश्वरआत्मावेदपरलोकधर्मअधर्मपापपुण्य आदि को भी स्वीकार नहीं करते। इनकी दृष्टि मेंइनसे प्रायः स्वर्गनरकयज्ञआत्मापरमात्मा आदि अतीन्द्रिय विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है। चूँकि इस ज्ञान को प्रत्यक्ष द्वारा सत्यापित नहीं किया जा सकताअतः ये प्रमाण नहीं हो सकते।

चार्वाक की उपमान प्रमाण विषयक मान्यता - 


  • चार्वाक उपमान की प्रामाणिता को भी अस्वीकार करते हैं। चूँकि उपमान का आधार सादृश्य ज्ञान है और सादृश्य का ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता है। अतः चार्वाक इसके लिए किसी स्वतन्त्र प्रमाण को आवश्यक नहीं मानते। पुनःकतिपय भारतीय विचारक भी उपमान का अन्तर्भाव अनुमान में ही करते हैं। अतः अनुमान के अप्रामाणिक होने से उपमान भी अप्रामाणिक हो जाता है।

  • इस प्रकार अन्य भारतीय दर्शन परम्परा में स्वीकृत अनुमानशब्द और उपमान प्रमाणों के अप्रामाणिक होने के कारण चार्वाक ज्ञानमीमांसा में प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण बचता है।

चार्वाक दर्शन ज्ञानमीमांसा की समीक्षा - 


चार्वाक दर्शन की प्रत्यक्षवादी ज्ञानमीमांसा के विरुद्ध भारतीय दर्शन परम्परा के अन्य सम्प्रदायों में प्रबल प्रतिक्रिया हुईक्योंकि इसने भारतीय ज्ञानमीमांसा में न केवल एक नयी विचारधारा को जन्म दिया प्रत्युत समकालीन समस्त विचारधारा की सनातन स्थापना को सर्वथा परिवर्तित कर दिया। परिणामतः इसे अन्य विचारधारा के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। अन्य  दार्शनिकों ने चार्वाक के ज्ञानसिद्धान्त के विरुद्ध निम्नलिखित आक्षेप किया-

  • (1) चार्वाक दर्शन ने प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण स्वीकार करके तथा इतर प्रमाणों का खण्डन करके बौद्धिक दर्शन चिन्तन के विरुद्ध अपना स्वर मुखर किया। उनके उक्त चिन्तन की सबने उपेक्षा की  तथा कहा कि इस चिन्तन के आधार पर विश्व में किसी भी प्रकार की तार्किक व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। एकमात्र प्रत्यक्ष के प्रमाणत्व से केवल खण्डित ज्ञान सम्भव हैउसकी एकता का नहींक्योंकि प्रत्यक्ष से उन्हें जोड़ने वाले किसी अनिवार्य सम्बन्ध का ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता।

  • (2) चार्वाक के प्रत्यक्ष की प्रामाणिकता भी निर्विवाद नहीं है। प्रत्यक्ष ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति पर निर्भर है। ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति की सीमा ही प्रत्यक्ष के निर्दुष्टत्व का निर्धारण करती है। निर्दुष्ट प्रत्यक्ष के लिए ज्ञानेन्द्रियों का अनुकूल होना भी परम आवश्यक है। ज्ञानेन्द्रियों के प्रतिकूल होने पर प्रत्यक्ष भी सदोष हो जाता है। रज्जु में सर्प की प्रतीतिबालू में जल का आभास आदि दोषपूर्ण प्रत्यक्ष के उदाहरण हैं। इस प्रकार अनुमान के प्रमाणत्व के खण्डन का आधार ही दूषित होने के कारण प्रत्यक्ष के आधार पर अनुमान का खण्डन नहीं किया जा सकता है। प्रत्यक्ष की सीमाओं पर बिना विचार किये उसे ही एकमात्र प्रामाणिक ज्ञान घोषित करके चार्वाक ने रूढ़िवाद एवं अन्धविश्वास को ही बढ़ावा दिया है।

  • (3) जैन दार्शनिकों का कथन है कि चार्वाकों द्वारा अनुमान प्रमाण का खण्डन आत्मघातक है। उनके अनुसार चार्वाक विचारकों द्वारा प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण घोषित करनापरलोकआदि प्रत्यक्ष विषयों के बारे में किसी भी प्रकार का विवेचन करनाअन्य मतों पर विचार करना तथा अपने सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण करना मानो प्रच्छन्न रूप से अनुमान को स्वीकार करना ही है।

  • (4) चार्वाक विचारकों द्वारा व्याप्ति का निषेध अनुचित है। बौद्ध विचारकों की स्पष्ट मान्यता है कि दो वस्तुओं को जोड़ने वाले सामान्य विचार को तब तक सत्य मानना पड़ेगा जब तक वह सर्वस्वीकृत है। साथ ही वह दैनन्दिन जीवन के किसी स्थापित नियम पर आधारित है। किसी मान्य कथन का विरोध व्यावहारिक जीवन के मूल को ही उखाड़ना है।

  • उल्लेखनीय है कि चार्वाक विचारक भी पूर्णतः व्याप्ति का खण्डन नहीं कर पाते हैं। उनकी यह मान्यता कि 'प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है', अनुमान प्रमाण नहीं है, उनकी इस आस्था की ओर संकेत करता है कि कतिपय दृष्टान्तों में व्याप्ति सम्भव हैक्योंकि यह आगमनात्मक सामान्यीकरण का फल है।

  • (5) चार्वाक कृत अनुमानखण्डन का अन्य भारतीय दार्शनिकों ने प्रबल खण्डन किया है। उनके अनुसार बुद्धि द्वारा अनुमान का खण्डन नहीं हो सकता। समस्त बुद्धि-विकल्प कार्य कारणादि नियमों पर आधारित है जिनकी सार्वभौमतानिश्चितता और अनिवार्यतास्वतः सिद्ध और स्वप्रकाश आत्मतत्त्व से आती है। इन बुद्धि विकल्पों के बिना किसी प्रकार का बुद्धि व्यवहार सम्भव नहीं होता।

  • (6) यद्यपि सभी विचारक शब्द स्वीकार नहीं करते तथापि आप्त वचन को नितान्त अग्राह्य घोषित करना सांसारिक व्यावहारिक एवं सामाजिकनैतिक व्यवस्था को निर्मूल कर सकता है।

पुनरपि ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में चार्वाक के अवदान कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इसकी ज्ञानमीमांसा ने भारतीय विचारकों के समक्ष अनेक समस्याएँ उत्पन्न कीं जिनके समाधान के कारण भारतीय दर्शन पुष्ट एवं समृद्ध हुआ। पुनःचार्वाक विचारकों ने भारतीय दर्शन को रूढ़िवादी एवं अन्धविश्वासी होने से बचाया। इसके ज्ञानमीमांसा एक अन्य महत्व पक्ष भारतीय चिन्तन के बहुआयामी दृष्टिकोण एवं वैचारिक स्वतन्त्रता का प्रतिनिधित्व करना है।


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