मालवा का इतिहास : होशंगशाह गोरी ( 1406 ई. से 1435 ई.)। Malwa Ka Itihass Hoshang Shaah Gori

मालवा का इतिहास :  होशंगशाह गोरी ( 1406 ई. से 1435 ई.) 

मालवा का इतिहास :  होशंगशाह गोरी ( 1406 ई. से 1435 ई.)। Malwa Ka Itihass Hoshang Shaah Gori



मालवा का इतिहास :  होशंगशाह गोरी ( 1406 ई. से 1435 ई.)

 

  • दिलावर खाँ गोरी का बड़ा पुत्र अल्प खाँ "अस सुल्तान उल आजम हुसाम - उद दुनिया वदीन अंबुल मुजाहिद होशंगशाह अस सुल्तान की पद्वी धारण कर 1406 ई. (806 हि.) में गद्दी पर बैठा।

 

  • होशंगशाह का राज्यारोहण बहुत ही शान्तिपूर्वक हुआ। सभी अमीरों ने उसका अभिनन्दन कर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। होशंगशाह ने माण्डू को अपनी राजधानी बनाया

 

  • होशंगाशाह के सुल्तान बनते ही गुजरात के शासक मुजफ्फर शाह ने 1407 ई. में धार पर आक्रमण किया। आक्रमण के कारणों और उद्देश्य के सम्बन्ध में समकालीन और बाद के इतिहासकार एकमत नहीं हैं। निजामुद्दीन अहमद और फरिश्ता दोनों लिखते है कि गुजरात के शासक ने होशंगशाह को दण्ड देने के लिये आक्रमण किया था क्योंकि उसने अपने पिता को विष देकर मारा था। गुजरात का शासक दिलावर खाँ का अभिन्न मित्र था और दोनों में भ्रातृभाव था। 
  • मालवा का इतिहासकार शीहाब हाकिम लिखता है कि गुजरात का शासक मालवा का पुराना बैरी था और होशंगशाह के पूर्ण रूप से व्यवस्थित होने के पूर्व मालवा पर अधिकार कर उसे गुजरात में मिलना चाहता था।

 

  • गुजरात के आक्रमण का समाचार मिलते ही होशंगशाह शीघ्रता से सेना के साथ धार आ गया। दोनों सेनाओं में युद्ध धार नगर के सामने वाले मैदान पर हुआ। युद्ध भीषण था। दोनों सेनाएँ अन्त तक वीरता से लड़ती रहीं। 


  • मुजफ्फरशाह घायल हो गया और होशंगशाह घोड़े से नीचे गिर गया। होशंगशाह की पराजय हुईऔर उसने धार के किले में शरण ली। मुजफ्फर शाह को विश्वास हो गया था कि वह धार के किले को नहीं जीत सकता है। इसलिए उसने शान्तिवार्ता के लिये होशंगशाह को निमंत्रण दिया। होशंगशाह ने प्रस्ताव पर अपने दरबारियों से विचार विमर्श किया। दरैबारी वार्ता के पक्ष में नहीं थे। वे इसे गुजरात के शासक की एक चाल और धोखा मानते थे। युवा होशंगशाह ने दरबारियों के परामर्श को नहीं माना और वार्ता के लिए गुजराती शिविर में चला गया। वार्ता चलती रही लेकिन एक रात मुजफ्फर शाह ने धोखे से होशंगशाह को कैद कर उसे गुजरात भेज दिया।

 

  • मुजफ्फर शाह अपने भाई नुसरत खाँ को मालवा का शासक नियुक्त कर गुजरात लौट गया। नुसरत खाँ का शासन मालवा पर कठोर और अमानवीय था। इस कारण मालवा में सभी ओर असन्तोष और विद्रोह फैल गया। अमीरों और अधिकारियों ने धार के निकट युद्ध में नुसरत खाँ को पराजित कर दियावह विवश होकर गुजरात भाग गया। अमीरों और अधिकारियों ने होशंगशाह के चचेरे भाई मूसा खाँ को अपना नेता स्वीकार कर लिया। मूसा खाँ ने शीघ्र ही धार और पूरे मालवा में शान्ति और व्यवस्था कायम की।

 

  • मुजफ्फर शाह जानता था कि वह मालवा में अमीरों के विरोध के कारण सफल नहीं हो पायेगा इसलिए उसने अपने अमीरों से परामर्श कर और होशंगशाह की प्रार्थना पर विचार कर अपने पोते राजकुमार अहमद को सेना के साथ 1408 ई. में होशंगशाह को मालवा में पुनः प्रतिष्ठित करने भेजा 

 

  • होशंगशाह के धार आते ही उसके विश्वास पात्र अमीर और अधिकारी उससे मिल गये। मालवा की जनता होशंगशाह को बहुत चाहती थी। उन्होंने उसे सहायता का पूरा वचन दिया। उसने मालवा के दक्षिणी भागों पर अधिकार कर महेश्वर को अपना केन्द्र बनाया।" 


  • इसी बीच मलिक मुगीथ नेजो होशंगशाह की बुआ का पुत्र थाहोशंगशाह का साथ दिया। वह माण्डू के किले से निकल कर एक अन्य अमीर मियाँ आखा के साथ होशंगशाह से जा मिला।
  • मूसा खाँ को जब इन अमीरों का होशंगशाह के पक्ष में जाने का पता चला तो वह बहुत हताश और निराश हो गया। उसने माण्डू दुर्ग खाली कर दिया। मूसा खाँ को निमाड़ क्षेत्र में जागीर प्रदान कर दी गई। मलिक मुगीथ को होशंगशाह ने मलिक उस शर्क की पदवी प्रदान की और उसे मालवा का वजीर नियुक्त किया। इसी मलिक मुगीथ और इसके पुत्र महमूद ने मालवा के इतिहास महत्व योगदान दिया।

 

  • होशंगशाहमलिक मुगीथ और अधिकारियों की मदद मालवा के प्रशासन को व्यवस्थित करने में लग गयापरन्तु अभी उसकी स्थिति डावाँडोल थी। होशंगशाह और मालवा के लोगों का सबसे कट्टर शत्रु गुजरात था। यद्यपि होशंगशाह गुजरात की कृतज्ञता के बोझ से दबा थाकिन्तु वह अपने अपमान को नहीं भूला था। वह गुजरात से पुराना हिसाब बराबर करना चाहता था। 

  • गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह की मृत्यु 27 जुलाई 1411 ई. में हो गई। मृत सुल्तान का पोता अहमद शाह गद्दी पर बैठा। अहमद शाह का उसके चाचाओं फीरोज खाँ और हेबत खाँ ने विरोध कर विद्रोह कर दिया। गुजरात के अनेक असन्तुष्ट अमीरों ने भी दोनों का समर्थन किया। फीरोज खाँ को भड़ोंच में स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया गया। इस अवसर का लाभ होशंगशाह उसी प्रकार उठाना चाहता था जैसा कि सुल्तान दिलावर खाँ की मृत्यु के समय उत्पन्न परिस्थिति का लाभ मुजफ्फरशाह ने उठाया था।

 

  • फीरोज खाँ ने होशंगशाह को सहायता के लिए पत्र लिखा और निवेदन किया कि वह तुरन्त गुजरात पहुँचे। फीरोज खाँ ने सेना के खर्च के लिये प्रत्येक पड़ाव के लिए एक लाख टंका भी देना स्वीकार किया। होशंगशाह फीरोज खाँ का निमंत्रण स्वीकार कर तुरन्त सेना के साथ गुजरात की ओर चल दिया। उसे विश्वास था कि सुल्तान अहमदशाह आन्तरिक विद्रोहों को दबाने में व्यस्त है और इस अवसर का लाभ उसे गुजरात के कुछ भागों पर अधिकार करने में प्राप्त हो जाऐगा। लेकिन युवा गुजराती सुल्तान कहीं अधिक फुर्तीला और दूरदर्शी था। उसने तत्काल विद्रोहों का दमन कर दिया। उसने अपने चाचाओं और विद्रोहियों को आश्वासन दिया कि यदि वे विद्रोह का मार्ग छोड़ दें तो उन्हें क्षमा कर दिया जावेगा। परिणामस्वरूप सफलता की आशा क्षीण समझ फीरोज खाँ ने आत्मसमर्पण कर दिया। अहमदशाह ने फीरोज खाँ और विद्रोहियों को क्षमा कर उनकी जागीरें पुनः प्रदान कर दीं।


  • गुजरात के विद्रोह की समाप्ति और वहाँ सहायता की कोई संभावना नहीं होने से होशंगशाह निराश हो गया और उसने मालवा लौटने का विचार किया। लौटते समय उसने पूर्वी गुजरात के एक बड़े क्षेत्र को उजाड़ डाला। अहमदशाह ने एमादुल्मुल्क को होशंगशाह के विरुद्ध भेजाजिसने होशंगशाह का पीछा मालवा की सीमा तक किया। लौटते समय उसने उन जमीदारों को दण्ड देने के लिये बन्दी बना कर सुल्तान अहमदशाह के सामने पेश किया जिन्होंने होशंगशाह का साथ दिया था।

 

  • गुजरात के प्रथम आक्रमण की असफलता के बाद होशंगशाह ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि जब भी उसे अवसर मिलेगा तो वह गुजरात पर आक्रमण करेगा। 1413-14 ई. में गुजरात के सुल्तान अहमदशाह ने झालावाड़ के राज्य पर आक्रमण किया। झालावाड़ के शासक ने होशंगशाह से सहायता की प्रार्थना की। होशंगशाह के लिये यह बहुत उपयुक्त अवसर था। होशंगशाह ने अहमदशाह को व्यस्त जानकर तुरन्त गुजरात के पूर्वी भागों पर आक्रमण कर दिया। उसने इस क्षेत्र को लूटना और उजाड़ना शुरू कर दिया। उसे आशा थी कि झालावाड़ का शासक और अन्य असन्तुष्ट अमीर उसकी सहायता करेंगे। 


  • सुल्तान अहमदशाह ने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित कर एक सेना को कच्छ के विद्रोह के दमन के लिये भेजा। दूसरी सेना को उसने इमादुल्मुल्क के नेतृत्व होशंगशाह के विरुद्ध भेजा। गुजराती सेना के आगमन का समाचार पाकर वह तेजी से मालवा लौट आया। इस प्रकार गुजरात का द्वितीय अभियान भी असफल रहा।

 

  • होशंगशाह के दोनों गुजरात अभियान असफल और निष्फल ही रहे और उसकी प्रतिष्ठा धूमिल होने लगी। उसने पुनः गुजरात के सम्बन्ध में अपनी नीति की समीक्षा कर भविष्य की नीति निर्धारित की।

 

  • गुजरात पर तृतीय आक्रमण का अवसर उसे सुल्तान अहमदशाह गुजराती की कठोर धर्माध धार्मिक नीति ने प्रदान किया। सुल्तान अहमदशाह ने सम्पूर्ण गुजरात में मन्दिरों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। उसने मावास और गिरास नामक सामन्तों को भी समाप्त करना प्रारंभ कर दिया। उसकी धार्मिक नीति से त्रस्त होकर ईडर के शासक पूजाचम्पानेर के राजा त्रिम्बकदास झालावाड़ के राजा छत्रसाल और नान्दोत के राजा सीरा ने एक साथ होशंगशाह से सहायता की प्रार्थना की। इन शासकों ने पूर्व में सहायता न कर पाने के लिये क्षमा माँगी और निवेदन किया कि इस बार हम सहायता करने में कोई कसर नहीं रखेंगे। आपकी सेना को हमारे मार्गदर्शक ऐसे मार्गों से लाऐंगे कि सुल्तान अहमदशाह को खबर भी न होगी।

 

  • सुल्तान होशंगशाह में गुजरात की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा पर अव्यवस्था उत्पन्न करने हेतु अपने पुत्र गजनी खाँ को पन्द्रह हजार घुड़सवारों के साथ खानदेश के सुल्तान नासिर खां की सहायता के लिये भेज दिया ताकि गुजरात के सुल्तान का ध्यान व शक्ति विभाजित हो जाए। इसी बीच खानदेश के सुल्तान ने अपने छोटे भाई इफ्तिकार खाँ को थालनेर के किले से निकाल दिया। इफ्तिकार खाँ ने गुजरात के शासक से सहायता की प्रार्थना की। 
  • नासिर खाँ और गजनी खाँ ने गुजरात के जिले सुल्तानपुर पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया। सुल्तानपुर के पतन का समाचार पाकर अहमदशाह तुरन्त खानदेश की ओर बढ़ा। गुजरात के सुल्तान के आगमन का समाचार सुनकर अहमदशाह तुरन्त खानदेश की ओर बढ़ा। इससे गजनी खाँ भयभीत हो गया और नासिरखां को उसके भाग्य पर छोड़कर मालवा भाग आया। गजनी खाँ के इस पलायन से खानदेश और मालवा के सम्बन्धों में दरार पड़ गई जो लम्बे समय तक रही कुछ समय के लिए खानदेश गुजरात के प्रभाव में चला गया।

 

  • जैसे ही अहमदशाह खानदेश की ओर अग्रसर हुआ। होशंगशाह निर्धारित योजनानुसार विशाल में सेना के साथ 1418-19 ई. में मेहसाना के रास्ते गुजरात में प्रवेश कर गया। उसने गुजरात के सुल्तान के चाचा शम्स खाँ को अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न किया परन्तु वह सफल न हो सका। शम्स खाँ ने अपने भतीजे की इस उलझनपूर्ण और दयनीय स्थिति का लाभ न उठाते हुए एक तेज सन्देशवाहक के द्वारा उत्तरी गुजरात में निर्मित स्थिति से अवगत करवाया। 
  • होशंगशाह उत्तरी गुजरात के मध्य में में में पहुँच गयावहाँ उसके समर्थक राजा उससे आ मिले। अहमदशाह भी वर्षाऋतु में नर्मदा और अन्य नदियों में आई बाढ़ की परवाह किये बिना द्रुत गति से एकाएक मेहसाना के पास पहुँच गया।

 

  • होशंगशाह को गुजरात के सुल्तान का मेहसाना के निकट एकाएक आने की सूचना मिली तो वह स्तम्भित रह गयाक्योंकि उसे विश्वास था कि अहमदशाह के आगमन के पूर्व ही वह उत्तरी गुजरात पर अधिकार कर लेगा। उसने गुजरात के राजाओं को बुलाकर उन पर विश्वासघात का आरोप लगाया कि उन्होंने गुजरात के सुल्तान के आगमन की खबर को छुपाकर रखा। होशंगशाह राजाओं के को उनके भाग्य पर छोड़कर मालवा लौट आया। गुजरात के राजाओं ने अहमदशाह से क्षमा माँग ली। सुल्तान ने उन्हें क्षमा कर दिया क्योंकि वह होशंगशाह को उसके कृत्यों का दण्ड देना चाहता था। उसने उसी वर्ष मालवा पर आक्रमण करने की योजना बनाई।

 

मालवा पर अहमदशाह के आक्रमण

 

निजामुद्दीन अहमद लिखता है कि फरवरी-मार्च 1418 ई. को गुजरात का सुल्तान मेहसाना से होशंगशाह को दण्डित करने के लिए मालवा को रवाना हुआ। " इस बार मालवा में अहमदशाह का लक्ष्य मालवा की राजधानी न होकर धार्मिक नगर उज्जैन था।

  • अहमदशाह ने उज्जैन के निकट कालियादह तालाब के किनारे पड़ाव डाला और सेना की सुरक्षा के लिए मिट्टी की दीवारें बनवा दीं। होशंगशाह ने भी कटीली झाड़ियों की बाड़ (घेरा) बनवा कर अपनी सेना की मोर्चाबन्दी कर ली। युद्ध प्रारंभ हो गया। होशंगशाह की सेना छिन्न-भिन्न होकर भागने लगी। सुलतान पराजित होकर माण्डू के किले की ओर शरण लेने के लिए भागा और किले में शरण ले ली। गुजराती सेना ने होशंगशाह का पीछा  माण्डू तक किया और मालवा के कुछ हाथियों और सैनिकों को अपने अधिकार में ले लिया।


  • अहमदशाह का इरादा माण्डू के दुर्ग का घेरा डालने का था। माण्डू के किले की सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही मजबूत थी। वर्षा ऋतु भी आ चुकी थी। अमीरों की सलाह मानकर अहमदशाह जून-जुलाई 1418 ई. में चम्पानेर के मार्ग से गुजरात लौट गया।

 

  • अपनी योजनानुसार अहमदशाह ने मालवा पर पुनः आक्रमण किया। होशंगशाह युद्ध के लिए तैयार नहीं था। उसने मौलाना मूसा और हमीद को उपहारों के साथ अहमदशाह के पास भेजा और प्रार्थना की कि वह मालवा के पीड़ितों और मुसलमानों को कष्ट न पहुँचाए। अहमदशाह युद्ध नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने अपने वजीर निजाम उल्मुल्क की सलाह मानकर होशंगशाह का निवेदन स्वीकार कर लिया और मई 1419 में गुजरात वापस लौट गया। होशंगशाह ने इस समय बुद्धिमत्ता और सूझबूझ से मालवा को एक भीषण युद्ध से बचा लिया । यदि युद्ध होता तो मालवा के लिए विनाशकारी होता।

 

  • होशंगशाह को अहमदशाह गुजराती के वापस जाने के बाद यह अहसास हो गया था कि बिना सैन्य शक्ति को मजबूत किये वह गुजरात का सामना नहीं कर सकता है। सेना को और शक्तिशाली बनाने के लिए हाथियों की आवश्यकता थी। ये हाथी जाजनगर (उड़ीसा) और खेरला (म.प्र. के बैतूल जिले में) से प्राप्त किये जा सकते है। 
  • अभियान पर जाने के पूर्व होशंगशाह ने मलिक मुगीथ के पुत्र महमूद की योग्यता को जानकर उसे 'खान' की पदवी प्रदान की और राज्य के सभी कार्यो में सहायक नियुक्त किया।
  • मलिक मुगीथ को माण्डू से शासन का कार्यभार सम्भालने का उत्तरदायित्व सौंपा।होशंगशाह ने सर्व प्रथम खेरला के दुर्ग प आक्रमण कर वहाँ के राय नरसिंह को आत्मसमर्पण के लिए विवश किया। खेरला से वह व्यापारी के वेश में हाथियों को प्राप्त करने जाजनगर जा पहुँचा। उसने वहाँ के शासक भानुदेव चतुर्थ को 75 हाथी देने को कहा और जब राजा उसके शिविर में पहुँचा तो उसने अपनी असलियत बताई कि वह मालवा का सुल्तान होशंगशाह है।" उसने हाथियों को प्राप्त कर राजा भानुदेव को सुरक्षा की दृष्टि से मालवा की सीमा तक लाया और बाद में मुक्त किया। इसी बीच होशंगशाह को समाचार मिला कि गुजरात के शासक ने मालवा पर आक्रमण कर माण्डू को घेर लिया है। वह खेरला के किले में सेना रखकर खेरला के राजा नरसिंह राय को अपने साथ लेकर तारापुर दरवाजे से माण्डू दुर्ग में प्रवेश कर गया।

 

  • लगभग दो वर्ष के अन्तराल के बाद अहमदशाह ने पुनः मार्च 1422 ई. में मालवा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के क्या कारण और उद्देश्य थे, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है, क्योंकि पूर्व में शासकों में समझौता हो चुका था कि वे दोनों राज्यों मे शान्ति बनाए रखेंगे। जब अहमदशाह को पता चला कि होशंगशाह हाथियों की प्राप्ति हेतु मालवा से बाहर गया है तो उसने होशंगशाह की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर मालवा पर आक्रमण कर दिया। उसने माण्डू दुर्ग को घेर लिया। किन्तु वर्षा ऋतु आ जाने से वह उज्जैन आ गया और वहाँ शिविर स्थापित किया। अहमदशाह पुनः वर्षा ऋतु की समाप्ति पर माण्डू दुर्ग को घेर लिया। घेरा चालीस दिनों तक चला। इसी बीच होशंगशाह माण्डू के किले में आ चुका था, परिणामस्वरूप वहाँ सेना और लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई और वे अब उत्साह के साथ दुर्ग की रक्षा में लग गये। 
  • दुर्ग को जीतना कठिन जानकर अहमदशाह ने आसपास के क्षेत्रों को लूटना प्रारंभ कर दिया। उसने पवित्र नगर महेश्वर को भी लूटा। अहमदशाह ने अपनी सेना को एकत्र किया जो मालवा के कई भागों में थी उसने सारंगपुर में शिविर स्थापित किया
  • होशंगशाह सारंगपुर की सुरक्षा के लिए चिन्तित हो गया। उसने गुजरात के सुल्तान के समक्ष शान्ति और संधि का प्रस्ताव रखा कि आप वापस गुजरात लौट जायें मुसलमानों का खून बहाना बहुत बड़ा पाप है। उसने कहा कि भेंट आपके पीछे-पीछे पहुँच जाएगी। अहमदशाह जो धार्मिक प्रवृत्ति का था, ने होशंगशाह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और लौटने की तैयारियाँ शुरू कर दीं। लेकिन होशंगशाह ने धोखे से रात्रि में असावधान गुजराती सेना पर आक्रमण कर दिया।

 

  • इस अचानक आक्रमण से गुजराती सेना में खलबली मच गई और वह इधर-उधर भागने लगी परन्तु सुल्तान अहमदशाह ने हिम्मत नहीं हारी और जीत की खुशी में मगन मालवी सेना पर संगठित होकर भीषण आक्रमण किया। दोनों सुल्तान हाथों में तलवार लिये अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल वीरता से लड़ते रहे। दोनों घायल हो गये, गुजराती सेना ने मालवी सेना को घेर लिया। होशंगशाह इस आक्रमण का सामना न कर सका। फरिश्ता लिखता है कि "मालवा के सुल्तान जिसके सम्मुख विजयश्री कभी भी नहीं मुस्कराई, पुनः हार गया", और भागकर उसने सारगपुर के किले में शरण ली। सुल्तान अहमदशाह ने सारंगपुर को घेर लिया परन्तु सफलता की कोई आशा न देख विशाल धन सम्पति और हाथियों के साथ 6 अप्रेल 1423 ई. को गुजरात लौट गया ।

 

  • होशंगशाह के जीवनकाल में गुजरात से यह उसका अन्तिम युद्ध था। दोनों सुल्तानों के लिये राजनैतिक दृष्टि से ये आक्रमण निष्फल रहे। दोनों राज्यों के निवासियों को असहनीय कष्ट सहने पड़े जन और धन सम्पत्ति की अपार क्षति हुई। भविष्य में दोनों राज्यों के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गये।

 

होशंगशाह द्वारा राज्य विस्तार

 

  • गुजरात के विरुद्ध सफलता की कोई आशा न देख होशंगशाह ने अब राज्य विस्तार के लिये दक्षिण पूर्व और उत्तर को चुना। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने खेरला गागरोन, ग्वालियर, और दक्षिण में बहमनी तथा उत्तर में कालपी पर अभियान किये।

 

  • होशंगाशाह ने अपने जाजनगर अभियान के दौरान खेरला पर 1420 ई. में अधिकार कर हाथी भी प्राप्त किये थे। उसने खेरला के राय नरसिंह को पराजित कर अधीनता स्वीकार करवाई और इस शर्त पर खेरला पुनः लौटाया की राय प्रतिवर्ष मालवा को राजस्व देता रहेगा ।जब खेरला के राय नरसिंह ने बहमनी राज्य की अधीनता स्वीकार की थी तो होशंगशाह ने खेरला पर आक्रमण कर युद्ध में राय को मार डाला। नरसिंह राय के पुत्र ने मालवा की अधीनता स्वीकार कर ली ।

 

  • गागरोन मालवा के उत्तर-पश्चिम में हाड़ौती क्षेत्र में स्थित था। इसका राजनीतिक और सामूहिक महत्व था | गागरोन पर खीची राजपूतों का राज्य था। यहाँ का शासक अचलदास खीची मेवाड़ के राणा मोकल का जामाता था। अचलदास भोगविलास में व्यस्त रहता और उसने प्रशासन की उपेक्षा की। होशंगशाह ने शक्तिशाली सेना के साथ 29 दिसम्बर 1423 ई. में गागरोन के किले को घेर लिया। घेरा 15 दिनों तक चला। अचलदास का पुत्र पाल्हणसिंह सहायता के लिए मेवाड़ के राणा मोकल के पास पहुँचा। परन्तु होशंगशाह के भय के कारण सहायता न प्राप्त हो सकी। खीचियों ने वीरता से सामना किया किन्तु अन्त में पराजित हो गये। दुर्ग पर मालवा का अधिकार हो गया। अचलदास की रानियाँ और हजारों स्त्रियाँ जौहर कर आग में जल कर मर गई। अचलदास सहित हजारों राजपूत युद्ध में मारे गये।

 

  • गागरोन विजय से प्रोत्साहित होकर होशंगशाह ने ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार करने का विचार किया, ताकि उत्तरी सीमा पर सतर्क निगाह रखी जा सके। उसने ग्वालियर के राय को विवश किया की वह उसकी अधीनता स्वीकार करे। ग्वालियर के शासक ने दिल्ली के सुल्तान मुबारकशाह सैयद से सहायता की प्रार्थना की। सुल्तान ने सेना के साथ चम्बल नदी के उत्तरी तट पर आकर पड़ाव डाल दिया। मालवा और दिल्ली की सेनाओं में छुटपुट झड़पें हुई। ऐसा प्रतीत होता था दोनों के युद्ध पक्ष में नहीं थे। उपहारों के आदान-प्रदान के बाद दोनों अपने-अपने राज्यों को लौट गये।

 

  • मालवा के दक्षिण में बहमनी राज्य शक्तिशाली राज्य था। उत्तर की ओर उसकी दृष्टि खेरला राज्य पर थी जो मालवा के आधीन था। साम्राज्य विस्तार की कामना से 1428 ई. अहमदशाह बहमनी ने खेरला पर आक्रमण कर दिया। खेरला के राय ने होशंगशाह से सहायता की प्रार्थना की, होशंगशाह तुरन्त खेरला की ओर अग्रसर हुआ। होशंगशाह के आगमन का समाचार पाकर बहमनी सेना वापस लौटने लगी। इसी बीच खेरला के राय के आग्रह पर होशंगशाह ने बहमनी की लौटती सेना का पीछा तीन दिनों तक किया बहमनी सेना ने रुककर मालवा की सेना को चारों ओर से घेर लिया। होशंगशाह बुरी तरह पराजित हुआ, और मुश्किल से बच सका। उसके हरम और पत्नी को कैद कर लिया गया। बाद में ससम्मान अहमदशाह बहमनी ने उन्हें मालवा भिजवा दिया। खेरला होशंगशाह के पास रहा, परन्तु इस अभियान से होशंगशाह की प्रतिष्ठा को बहुत ठेस पहुँची। बाद में खानदेश के प्रयासों से मालवा और बहमनी राज्यों में शान्ति स्थापित हो गई।

 

  • मालवा की स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना के समय ही कालपी में महमूद शाह ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। महमूद शाह को प्रारंभिक दिनों में इटावा और बुंदेलखण्ड के राजपूत शासकों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा था। दिलावर खाँ गोरी ने कालपी की सहायता कर उसे उपकृत किया और अपना हितैषी बना लिया। इस सम्बंध को अधिक मजबूत करने के लिये दिलावर खाँ ने अपनी पुत्री का विवाह कालपी के शासक महमूद शाह के पुत्र कादिर शाह से कर दिया था।

 

  • महमूद शाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कादिर शाह गद्दी पर बैठा। कादिर शाह के काल में मालवा और कालपी के सम्बन्ध बहुत अच्छे रहे। 1432 ई. में सुल्तान कादिर शाह की मृत्यु हो गई। परिणामस्वरूप मृत सुल्तान के पुत्रों में संघर्ष स्वाभाविक था। अमीरों ने होशंगशाह के भानजे जलाल खाँ को गद्दी पर बैठाया, क्योंकि वे होशंगशाह को अप्रसन्न नहीं करना चाहते थे। मृत सुल्तान का बड़ा पुत्र सहायता के लिए जौनपुर शर्की सुल्तान के दरबार में पहुँचा। इब्राहीमशाह शर्की ने उसे सहायता का आश्वासन देकर सेना के साथ कालपी की ओर कूच किया। 
  • होशंगशाह यह कभी सहन नहीं कर सकता था कि कालपी जौनपुर के प्रभाव में चला जाये। इसलिये वह भी कालपी की ओर सेना सहित चल दिया इब्राहीमशाह शर्की ने नासिर खाँ को गद्दी पर बैठा दिया। जलाल खाँ भागकर चन्देरी आ गया। 
  • होशंगशाह ने जलाल खाँ के साथ कालपी पहुँच कर कालपी को घेर लिया। इस बीच समाचार मिला कि सुल्तान मुबारक शाह सैयद जौनपुर की ओर कूच कर गया। जौनुपर की रक्षा से चिन्तित हो इब्राहीमशाह जौनपुर लौट गया। होशंगशाह ने पुनः जलाल खाँ को कालपी की गद्दी पर बैठा दिया और मालवा लौट आया । कालपी का राज्य पूर्ण रूप से मालवा का आश्रित राज्य बन गया।

 

  • मालवा के शासकों ने खानदेश के फारुखी सुल्तानों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर, गुजरात और बहमनी राज्य के विरुद्ध मालवा की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा सुरक्षित कर ली थी। होशंगशाह ने समय-समय पर गुजरात के विरुद्ध खानदेश की सहायता की कुछ समय बाद दोनों राज्यों में गुजरात और बहमनी राज्यों के कारण दरार पड़ गई। 
  • 1429 ई. में जब मालवा और बहमनी राज्यों में युद्ध हुआ तो नासिरखाँ ने उदासीनता और तटस्थता का रुख अपनाया। मालवा के पुराने सम्बन्धों की उपेक्षा कर खानदेश के सुल्तान नासिर खाँ ने अपनी पुत्री का विवाह बहमनी के सुल्तान के पुत्र अलाउद्दीन के साथ कर दिया। किन्तु होशंगशाह ने इस सम्बंध पर अपनी कोई अप्रसन्नता व्यक्त नहीं की। मालवा और बहमनी के युद्ध के समय खानदेश के सुल्तान नासिर खाँ ने खेरला के प्रश्न पर दोनों में समझौता कर दिया। परिणामस्वरूप मालवा और खानदेश के सम्बन्ध सौहर्द्रपूर्ण हो गये। जो गोरी शासकों के शासनकाल तक चलते रहे।

 

  • मालवा के उत्तर पश्चिम में गुहिलोत राजपूतों ने राणा क्षेत्रसिंह के नेतृत्व में अपने आपको राजपूताना की प्रमुख शक्ति के रूप में संगठित किया था। इस कारण गोरी शासकों ने मालवा की उत्तरी-पश्चिमी सीमा की कभी उपेक्षा नहीं की। दिलावर खाँ गोरी और क्षेत्रसिंह दोनों ही एक दूसरे की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित थे। कुंभलगढ़ अभिलेख के अनुसार क्षेत्रसिंह ने अन्य राजपूत शासकों की मदद से दिलावर खाँ को पराजित किया था ।

 

  • होशंगशाह ने मेवाड़ और हाड़ौती क्षेत्र पर नजर रखने के लिए मन्दसौर में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाकर वहाँ सेना रखी थी। होशंगशाह ने मेवाड़ के प्रति कोई आक्रमण कार्यवाही नहीं की किन्तु वह मेवाड़ के दरबार में होने वाले कुचक्रों के प्रति सतर्क था 1421 ई. में राणा लक्ष्यसिंह का ज्येष्ठ पुत्र चूंडा अपने छोटे भाई अज्जा के साथ सौतेले भाई मोकल के पक्ष में गद्दी त्यागकर चितौड़ से माण्डू चला आया। होशंगशाह ने चूंडा को मालवा में आश्रय प्रदान कर जागीर प्रदान की। यह मालवा के लिए गौरव की बात थी। चूंडा की मालवा में उपस्थिति ने मेवाड़ को उलझन में डाल दिया । 

 

होशंगशाह के अन्तिम दिन

 

  • होशंगशाह के अन्तिम दिन शान्ति से नहीं बीते। उसे उसके पुत्रों की आपसी कलह और योजताल के पास की पहाड़ियों को पास रहने वाली जातियों के विद्रोह के कारण ने परेशान कर दिया था। होशंगशाह ने मलिक मुगीथ से परामर्श कर राजकुमारों को माण्डू के दुर्ग में कैद कर दिया।

 

  • भोजसागर का निर्माण राजा भोज परमार ने करवाया था। यह एक विशाल झील थी। यह सागर 16 मील लम्बा और 8 मील चौड़ा था, इसका एक किनारा दूसरे किनारे से दिखाई नहीं देता था। इसके बीच की पहाड़ियाँ टापू बन गये थे। इन्हीं टापुओं में विद्रोही शरण लेते थे। इस कारण विद्रोहियों के विरुद्ध कोई सफल कार्यवाही नहीं हो पाती थी।
  • होशंगशाह ने गौंड मजदूरों की विशाल सेना के प्रयत्नों, से तीन माह के प्रयास के बाद भोज सागर के बाँधों को कटवा दिया। विद्रोही बाढ़ से बचने के लिये इधर-उधर भागने लगे और पहाड़ियों का राजा भाग गया। झील को सूखने में तीन वर्ष लगे। परन्तु होशंगशाह ने हजार एकड़ कृषि भूमि प्राप्त कर ली।

 

  • विद्रोहियों का दमन करने के बाद होशंगशाह ने होशंगाबाद नगर की नींव नर्मदा नदी के तट पर की और वहाँ एक किला भी बनवाया ।  फरिश्ता और निजामुद्दीन अहमद ने इस नगर के बसाये जाने का कोई उल्लेख नहीं किया है। परन्तु कालपी अभियान से लौटने के बाद होशंगशाह अधिक समय तक होशंगाबाद में ही रहा।

 

  • होशंगशाह अन्तिम दिनों में मधुमेह से ग्रस्त हो गया था। इस रोग के कारण वह माण्डू के लिए चल पड़ा। अपना अन्तिम समय जान कर उसने मार्ग में दरबार लगवाया और अपने वरिष्ठ पुत्र गजनी खाँ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। सुल्तान ने महमूद खाँ और स्वामिभक्त अमीरों से वचन ले लिया कि वे उसके निर्णय का पालन करेंगे। माण्डू के निकट पहुँचते ही होशंगशाह की 6 जुलाई 1435 ई. को मृत्यु हो गई। माण्डू में मदरसे में एक कब्र में उसे दफना दिया गया। 
  • वर्तमान में माण्डू में जो होशंगशाह का मकबरा है, उसे महमूद खिलजी ने अपने राज्य काल में बनवाया था।

 

होशंगशाह की उपलब्धियाँ

 

  • निःसन्देह होशंगशाह मालवा के गोरी सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ था। उसका मालवा की सल्तनत में वही स्थान है जो इल्तुतमिश का दिल्ली सल्तनत में है। मालवा के अव्यवस्थित राज्य को संगठित करने का श्रेय होशंगशाह को है। मध्यकालीन मालवा के इतिहास में वह महमूद खिलजी का अग्रगामी था। उसने अविश्रान्त युद्धों के द्वारा मालवा की सीमाओं को सुरक्षित कर दिया था। जिसके फलस्वरूप महमूद खिलजी ने मालवा के राज्य को साम्राज्य का रूप दिया।

 

  • होशंगशाह ने मालवा की आन्तरिक व्यवस्था और प्रशासन का पुनर्गठन किया। उसने राजपूतों को जागीरें प्रदान कर उनका सहयोग प्राप्त किया। प्रशासन की सुगमता के लिए उसने राज्य को उज्जैन, चन्देरी, भेलसा, मन्दसौर, रायसेन, होशंगाबाद और बीजागढ़ आदि में विभाजित कर क्षेत्रीय सरकारें बनाई ये माण्डू के अधीन थीं।

 

  • होशंगशाह ने अपने समकालीन मुसलमान शासकों की धार्मिक नीति के विपरीत उदार धार्मिक नीति अपनाई। उसने बहुसंख्यक जनता की धार्मिक भावनाओं को देवालयों को ध्वस्त कर कभी भी ठेस नहीं पहुँचायी। उसने हिन्दुओं और जैनों को राज्य में उच्च पद प्रदान किये। इसके अभिलेख सम्बन्धी प्रमाण हैं।

 

  • होशंगशाह में रचनात्मक और निर्माणकारी प्रतिभा का बाहुल्य था। वह मालवा का प्रथम सुल्तान था जिसने शुद्ध सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के प्रचलित किये। होशंगशाह को स्थान से बहुत प्रेम था। उसने अपने जीवनकाल में अनेक सुन्दर भवनों का निर्माण करवाया माण्डू नगर का निर्माण उसके मस्तिष्क की योजना थी। माण्डू में जहाज महल, हिण्डोला महल आदि का निर्माण करवाया।

 

  • होशंगशाह ने मालवा में शिक्षा को प्रोत्साहन देकर अनेक विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। उसने माण्डू में मदरसे की स्थापना भी की। भारत के कई भागों से विद्वान और धार्मिक व्यक्ति मालवा आये। अनेक सूफी सन्तों ने माण्डू को अपना निवास स्थान बनाया। होशंगशाह ने सांस्कृतिक गतिविधियों को पुनर्जीवित कर मालवा के जनजीवन में नई आशा का संचार किया ।

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