विवाह से संबंधित नियम |हिंदू विवाह से संबंधित नियम | Hindu Viavah Niyam

विवाह से संबंधित नियम, हिंदू विवाह से संबंधित नियम

विवाह से संबंधित नियम |हिंदू विवाह से संबंधित नियम | Hindu Viavah Niyam


विवाह से संबंधित नियम

 

प्रत्येक समाज में विवाह से संबंधित कुछ नियम पाए जाते हैं। जीवन साथी के चुनाव के दौरान तीन बातों का ध्यान रखा जाता है-

 

(1)चुनाव का क्षेत्र 

(2) चुनाव का पक्ष 

(3) चुनाव की कसौटियां

 

हिंदू विवाह से संबंधित नियम

हिंदू विवाह से संबंधित नियमों को हम चार भागों में बांट सकते हैं- 

 

(1) अंतर्विवाह (Endogamy)

  • अंतर्विवाह का तात्पर्य है एक व्यक्ति अपने जीवन साथी का चुनाव अपने ही समूह से करे। यह समूह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है। डॉ. रिवर्स के अनुसार, 'अंतर्विवाह से अभिप्राय उस विनिमय से है जिसमें समूह में ही विवाह साथी अनिवार्य होता है।

 

(2) बहिर्विवाह (Exogamy)

  • बहिर्विवाह से तात्पर्य है एक व्यक्ति जिस समूह का सदस्य है उससे बाहर विवाह करे। डॉ. रिवर्स के शब्दों में, 'बहिर्विवाह से बोध होता है कि वह दूसरे सामाजिक समूह से अपना जीवन-साथी ढूंढे।'

 

हिंदूओं में प्रचलित बहिर्विवाह के स्परूप निम्न हैं

 

(क) गोत्र बहिर्विवाहः- 

  • हिंदूओं में सगोत्र विवाह निषेध है। गोत्र का सामान्य अर्थ उन व्यक्तियों के समूह से है जिनकी उत्पत्ति एक ऋषि पूर्वज से हुई है। 


  • गोत्र शब्द के तीन या चार अर्थ हैं जैसे गौशालागाय का समूहकिला तथा पर्वत आदि । इस प्रकार एक घेरे में या स्थान पर रहने वाले लोगों में परस्पर विवाह वर्जित था। 

  • गोत्र का शाब्दिक अर्थ गोत्र अर्थात् गायों के बांधने का स्थान। जिन लोगों की गायें एक स्थान पर बंधती थींउनमें नैतिक संबंध बन जाते थे और संभवतः वे रक्त संबंधी भी होते थे। अतः वे परस्पर विवाह नहीं करते। 


  • हिंदू विवाह अधिनियम 1955 द्वारा वर्तमान में सगोत्र बहिर्विवाह से प्रतिबंध हटा दिया गया हैकिंतु व्यवहारों में आज भी इसका प्रचलन है।

 

(ख) सप्रवर बहिर्विवाह ( Sapravar Exogamy)-

  • समान पूर्वज एवं समान ऋषियों के नामों का उच्चारण करने वाले व्यक्ति अपने को एक ही प्रवर संबंद्ध मानते हैं। एक प्रवर में विश्वास करने वाले विवाह नहीं करते। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 द्वारा सप्रवार विवाह संबंधी निषेधों को समाप्त कर दिया गया है।

 

(ग) सपिंड बहिर्विवाह (Spinal Exogamy)

  • इरावती कर्वे सपिंडता का अर्थ बताती हैं- जैसे सपिंड अर्थात् मृत व्यक्ति को पिंडदान देने वाले या उसके रक्तकरण से संबंधित लोगा। मिताक्षरा के अनुसार वे सभी जो एक ही शरीर से पैदा हुए हैं सपिंडी हैं। वसिष्ठ ने पिता की ओर से सात व माता की ओर पांचगौतम ने पिता की ओर से आठ व माता की ओर से छह पीढ़ियों तक के लोगों से विवाह करने पर प्रतिबंध लगाया है।

 

  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 ने सपिंड बहिर्विवाह को मान्यता प्रदान की है। माता एवं पिता दोनों पक्षों से तीन-तीन पीढ़ियों के सपिंडियों में परस्पर विवाह पर रोक लगा दी गई है। फिर भी यदि किसी समूह की प्रथा अथवा परंपरा इसे निषेध नहीं मानती है तो ऐसा विवाह भी वैध माना जाएगा।

 

(घ) ग्राम बहिर्विवाह ( Village Exogamy)- 

  • ग्राम बहिर्विवाह की प्रथा भी काफी प्राचीन है। पंजाब एवं दिल्ली में उस गांव में भी विवाह वर्जित है जिसकी सीमा व्यक्ति के गाव से मिलती है।

 

(ड) टोटम बहिर्विवाह (Totem Exogamy)-

  •  इस प्रकार का नियम जनजातियों में प्रचलित है। टोटम कोई भी एक पशुपक्षीपेड़पौध अथवा निर्जीव वस्तु हो सकती है जिसे एक गोत्र के लोग आदर की दृष्टि से देखते हैंउससे आध्यात्मिक संबंध जोड़ते हैं। टोटम पर विश्वास करने वाले लोग परस्पर भाई-बहिन समझे जाते हैंअतः वे परस्पर विवाह नहीं करते।

 

(3) अनुलोम विवाह (Anuloma or Hypergamy)

  • जब एक उच्च वर्णजातिउपजातिकुल एवं गोत्र के लड़के का विवाह ऐसी लड़की से किया जाए जिसका वर्णजातिउपजातिकुल एवं गोत्र लड़के से नीचा हो तो ऐसे विवाह ही अनुलोम विवाह कहते हैं। अन्य शब्दों मेंइस प्रकार के विवाह में लड़का उच्च सामाजिक समूह का होता है और लड़की निम्न सामाजिक समूह की।

 

(4) प्रतिलोम विवाह (Pratiloma or Hypogamy)- 

  • इस प्रकार के विवाह में लड़की उच्च वर्णजाति तथा उपजाति या कुल की होती है जबकि लड़का निम्न वर्णजातिउपजाति या कुल का होता है। कपाड़िया के शब्दों में, 'निम्न वर्ण के व्यक्ति का उच्च वर्ण की स्त्री के साथ विवाह प्रतिलोम विवाह कहलाता है।
  • प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न होने वाली संतान की कोई जाति नहीं होती है। हिंदू शास्त्रों ने इस प्रकार के विवाह को निषिध ही नहीं माना है बल्कि इसका विरोध भी किया है। ध्यातव्य है कि हिंदू विवाह वैधता अधिनियम, 1949 एवं हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के द्वारा अनुलोम व प्रतिलोम विवाह दोनों को ही वैध माना गया है।

 

विवाह के अन्य स्वरूपः

 

(1) द्वि-जीवन वृत्ति विवाह - 

  • आधुनिक समाज में ऐसे विवाह का रूप देखने को मिल रहा है। जिसमें पति-पत्नी दोनों नौकरी या व्यवसाय करते हैं। पश्चिमी समाजों में ऐसे विवाह अधिकांतः देखने को मिलते हैं। भारत में भी ऐसे विवाह अधिकांशतः देखने को मिलने लगे हैं। इस प्रकार के विवाह में स्त्री को घर व बाहर दोनों के कार्यों को निपटाना पड़ता जिससे वे भूमिका संघर्ष का शिकार होती हैं।

 

(2) समलैंगिक विवाह - 

  • इस प्रकार का विवाह आजकल चर्चा का विषय है तथा विवादग्रस्त है जिसमें दो समलिंगियों अर्थात् पुरूष पुरूष या स्त्री स्त्री के बीच विवाह होता है। आजकल ऐसे विवाह का प्रचलन बढ़ने लगा है। कुछ जनजातियों विशेषकर चाइनाइंडियनों और अजेंडे सूडान में पुरूष-पुरुष के बीच विवाह सामान्य बात है। चाइना इंडियनों में इन्हें द्वितीय पत्नी कहा जाता है।

 

(3) मार्गेनेटिक विवाह 

जब उच्च वर्ग का पुरूष अपने से दो निम्न प्रस्थिति अथवा हीन वर्ग की स्त्री से विवाह करता हैमार्गेनिटिक विवाह कहलाता है। इससे उत्पन्न संतान वैध तो होती हैलेकिन पत्नी व बच्चे को पुरूष की संपत्ति एवं पद से वंचित रखा जाता है। भारत में ऐसे विवाह को वर्जित किया गया है।


विषय सूची 






No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.