ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था एवं समाज पर प्रभाव | British Shasan Ka Bharat Me Prabhav

 ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था एवं समाज पर प्रभाव 

ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था एवं समाज पर प्रभाव | British Shasan Ka Bharat Me Prabhav


विषय सूची :- 

ब्रिटिश राज(शासन) का भारत पर का आर्थिक प्रभाव

ब्रिटिश शासन के समय  भूमि राजस्व बंदोबस्त

भारतीय रेल के विकास के चरण

ब्रिटिश शासन में कृषि का वाणिज्यीकरण

भारतीय  उद्योगों का पतन  एवं आधुनिक उद्योगों का विकास

भारत में सांस्कृतिक टकराव तथा सामाजिक परिवर्तन

भारत में पश्चिमी शिक्षा और आधुनिक विचार का प्रयोग


ब्रिटिश राज (शासन) का भारत पर का आर्थिक प्रभाव

 

  • भारत में अंग्रेजी कानून के प्रभाव के फलस्वरूप स्वाभाविक परिवर्तन होने लगे। ये परिवर्तन पहले तो धीरे-धीरे हुए लेकिन 1850 के बाद इनमें तेजी दिखाई दी। ये परिवर्तन प्रशासन, यातायात के साधनों, संचार माध्यमों, देश के व्यापारिक ढांचे, कृषि और वाणिज्यिक संगठनों, सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं और सबसे अधिक लोगों के दृष्टिकोण एवं विचारों में दिखाई दिए ।

 

  • इंग्लैंड द्वारा भारतीय निर्यातकों के द्वारा तैयार माल पर आरोपित व्यापारिक प्रतिबंध के साथ-साथ यूरोपियन बाजार ने भी इन्हें बाहर निकाल फेंका। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप भारत के आयात और निर्यात व्यापार में भी मौलिक परिवर्तन हुए। 
  • तैयार माल, जैसे कपड़ा और सिल्क की बजाय भारत धीरे-धीरे व्यापारिक कच्चा माल और गरम प्रदेश की चीजें जैसे: कच्ची रुई, नील, चाय, कॉफ़ी, चीनी और गेहूं आदि निर्यात के लिए बाध्य हुआ। 
  • इंग्लैंड यह कच्चा माल अपने यहां धीरे-धीरे पनप रहीं उत्पादक इकाइयों के लिए मंगवाता था (जैसा कि ज्ञात है 1750 में इंग्लैंड में धीरे-धीरे औद्योगिक क्रांति पैदा हो रही थी)। बदले में भारत लंकाशायर में बना सस्ता सामान, जैसे कपड़ा मंगवाने के लिए बाध्य था ।

 

  • इंग्लैंड ने औद्योगिक और सैनिक विशिष्टता प्राप्त करने के बाद व्यापारिक लेन-देन के बंधनयुक्त व्यापार के स्थान पर मुक्त व्यापार का सिद्धांत अपनाया। व्यापारिक कंपनियों के सीमाशुल्क रहित और बंधन मुक्त आयात और निर्यात मुक्त व्यापार का सिद्धांत 1815 में नेपोलियन से लड़ाई के बाद प्रबल रूप से कार्यान्वित किया गया। इस प्रकार व्यावहारिक रूप से भारत और इंग्लैंड के बीच व्यापार पर प्रतिबंध (जहाज़ों पर प्रतिबंध समेत) 1853 में समाप्त हो गया। इससे इंग्लैंड और भारत के बीच व्यापार को एक बड़ा सहारा मिला ।

 

  • 1840 के बाद कुछ और महत्त्वपूर्ण विकास हुए। सामान्य सेलिंग जहाज धीरे-धीरे स्टीम जहाजों में बदलते गए। 1869 में स्वेज नदी खोल दी गई और समुद्री भाग यूरोप और भारत के बीच दो भागों में बांट दिए गए। समुद्र के नीचे तार बिछा दिए गए। अंतर्राष्ट्रीय डाक सुविधा ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रेरणा दी। लंबे समय से भारत का आयात-निर्यात अधिकतर इंग्लैंड के साथ ही था किंतु धीरे धीरे अन्य देश भी इसमें शामिल होते गए। ऐसा पहला देश जर्मनी था। 19वीं शताब्दी की समाप्ति पर संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान भी भारतीय बाजार में अपना बनाया हुआ सामान बेच रहे थे।

 

  • 1850 के बाद भारत में अंदरूनी बाजार भी खुल गए। 1850 देश में रेलवे और सड़क के निर्माण कार्यक्रम शुरू होने लगे। लॉर्ड डलहौजी द्वारा स्थापित पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट ने 1850 के दौरान भारत में आधुनिक सड़क बनानी शुरू की। भारत की सबसे पहली रेलवे लाइन 1850 में खोली गई। देश में जल्द ही एक यथार्थ क्रांति पैदा हुई और देश में पहले कभी न खुले हुए बाजार अस्तित्व में आए।

 

  • रेल निर्माण ने देश के अंदरूनी भागों को बंबई और कलकत्ता के बंदरगाह और शहरों से आपस में जोड़ दिया। इस प्रकार सामान के आवागमन को अंदर से बंदरगाह और बंदरगाह शहरों से अंदरूनी हिस्सों में भेजा गया। सामान के अंदरूनी आवागमन पर अनेक स्थानों पर मार्ग कर' थोपे गए। इस प्रकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर निशुल्क और आसान आवागमन में बाधा आई जिससे अंदरूनी व्यापार को नुकसान हुआ। इस कर को 1836 में निरस्त कर दिया गया। 
  • 1835 के बाद रुपया एक कानूनी मुद्रा बन गई। अंदरूनी व्यापार में बाधा बन रहे तथा भ्रम पैदा करने वाले तरह-तरह के सिक्कों का स्थान इस अभिन्न रुपये ने ले लिया जिसने अंदरूनी व्यापार की बढ़ोतरी में मदद की।

 

  • इंग्लैंड द्वारा मुक्त व्यापार का सिद्धांत अपनाने के फलस्वरूप और इसी सिद्धांत को भारत जैसे शासनाधीन देश पर लागू करने की वजह से सारे आयात कर धीरे-धीरे 1882 तक समाप्त हो गए। इसी प्रकार 1888 तक भारत पर लागू सारे निर्यात शुल्क हटा दिए गए।

 

भारत में उपनिवेशवाद के तीन चरण

 

  • ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत में अपनी जड़ तीन चरणों में जमाई। प्रत्येक चरण में उपनिवेश का एक अलग प्रकार का अधीनीकरण देखने को मिलता है जिसके परिणामस्वरूप अलग-अलग उपनिवेशवादी नीतियां, विचारधाराएं बनीं। इसके अलग-अलग परिणाम हुए तथा उपनिवेश के प्रति जनता की प्रतिक्रियाएं भी अलग-अलग थीं। एक चरण से दूसरे चरण में परिवर्तन का कारण कुछ तो राजधानी के अंदर के ही परिवर्तन थे तथा कुछ उपनिवेशों में परिवर्तन थे।

 

ये तीनों चरण सही अर्थ में संबद्ध नहीं हैं। लेकिन प्रत्येक चरण के कुछ मुख्य लक्षण हैं, हालांकि पहले वाले चरण के लक्षण बाद वाले चरण में भी हो सकते हैं। कुछ उपनिवेशों में कुछ चरण एक साथ मिल गए हैं, जैसे कि भारत में तीसरा चरण । 


वाणिज्यवाद का काल (1757-1813) - 

इस काल में अंग्रेजों के उद्देश्य व्यापार पर एकाधिकार तथा करों की प्रत्यक्ष प्राप्ति रहे हैं। मुख्य लक्षण निम्न थे- 

 

  • लूटपाट पर जोर तथा सत्ता पर प्रत्यक्ष अधिकार 
  • बड़े पैमाने पर ब्रिटिश वस्तुओं में आयात की अनुपस्थिति । 
  • उपनिवेश के प्रशासन, न्याय व्यवस्था, संस्कृति, अर्थव्यवस्था आदि में मूलभूत परिवर्तन न करना । 


मुक्त व्यापार का काल (1813-1860 ) - 

इस काल के मुख्य लक्षण निम्नलिखित थे- 

 

  • ब्रिटेन के औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर उपनिवेश की प्रशासकीय नीतियों तथा आर्थिक ढांचे का निर्धारण । 
  • उपनिवेशों को एक अधीनस्थ व्यवसाय सहयोगी बनाया गया जो कच्चे माल का निर्यात तथा तैयार माल का आयात करें। 
  • ब्रिटिश हितों की रक्षा तथा शोषण को तीव्र करने हेतु उपनिवेश की अर्थव्यवस्था, राजनैतिक अवस्था, प्रशासन, समाज, संस्कृति तथा विचारधारा को परिवर्तित कर विकास एवं आधुनिकता का जामा पहनाया गया।

 

वित्तीय साम्राज्यवाद ( 1860-1947 )

इस काल के मुख्य लक्षण  निम्नलिखित थे

 

  • औद्योगिक देशों में नए, सुरक्षित तथा विशिष्ट बाजार एवं कच्चे माल के स्रोतों पर अधिकार के लिए संघर्ष । 
  • इन देशों द्वारा उपनिवेशों को पूंजी का निर्यात । 
  • उपनिवेशों के प्रशासन में उदारवादी नीतियों के स्थान पर प्रतिक्रियावादी नीतियों का समावेश ।

 

भारत से धन का दोहन

 

अर्थ तथा प्रकृति — 

  • अंग्रेजों के 200 वर्षों के दौरान भारत ने जो भी पाया उसका बहुत बड़ा हिसाब इसे चुकाना पड़ा। भारत का जो राजनैतिक, आर्थिक तथा  सामाजिक विकास अंग्रेजों के कारण हुआ, उसके अनुपात में भारत को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी और अंग्रेजों ने भारत को "अमीरी के बावजूद गरीब मुल्क" बनाकर छोड़ा। अंग्रेजों ने भारत से धन का दोहन काफी किया जिसे अर्थशास्त्री आर० सी० दत्त, दादाभाई नौरोजी तथा अन्य लोग आर्थिक दोहन के नाम से पुकारते हैं । 

 

  • भारत के राष्ट्रवादी चिंतकों ने आर्थिक दोहन के सिद्धांत को प्रतिपादित किया ताकि भारत की गरीबी के कारणों का मूल्यांकन किया जा सके। निर्यात की तुलना में आयात का ज्यादा होना और उससे प्राप्त धन का ब्रिटेन जाना" दोहन का प्रमुख रूप था। यह आर्थिक दोहन औपनिवेशिक शासन का ही परिणाम था ।

 

  • इंग्लैंड द्वारा भारत को कुछ भी नहीं दिया गया या जो कुछ दिया गया वह भारत से भेजे गए संसाधनों की तुलना में काफी कम था और इस तरह से भारतीय धनों का इंग्लैंड जाना ही दोहन के नाम से जाना गया। दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक "पॉवर्टी एण्ड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया (1871) " में इस समस्या पर गंभीरता से विचार किया है '

 

  • दादाभाई नौरोजी ने अपनी इस किताब में दोहन के कारण, दोहन की मात्रा और उसके परिणामों की चर्चा की है। दादाभाई ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि भारत में व्याप्त गरीबी इस दोहन का सीधा परिणाम थी।

 

दादा भाई नौरोजी के अनुसार दोहन के प्रकार

 

  1. यूरोपियनों द्वारा इंग्लैण्ड में रह रहे अपने परिवार वालों तथा बच्चों की शिक्षा पर किये जाने वाले खर्च का भारत से जाना । 
  2. कंपनी के कर्मचारियों द्वारा बचाए गए वेतन के भाग का निवेश इंग्लैण्ड में किया जाना ।
  3. ब्रिटिश सामानों की खरीदारी ब्रिटिश कर्मचारियों के लिए। 
  4. ब्रिटेन में बने सामानों का यहां की सरकार द्वारा स्टोर के लिए खरीदा जाना।
  5. सार्वजनिक कर्जों पर सूद दिया जाना जिसे भारत में निवेश किया गया था। 

6- भारत सरकार का काफी बड़ा धन इंग्लैंड में कार्यरत कर्मचारियों, जो राजनैतिक, प्रशासनिक तथा व्यावसायिक कामों को देखते थे, के ऊपर खर्च होता था जिसे "होम चार्ज" कहा जाता था वह इस प्रकार हैं- 

 

  • सार्वजनिक निवेश पर दिया दरों पर लिया गया था।
  • रेलवे तथा सिंचाई कार्यों पर किए गए निवेश पर दिया गया वार्षिक भुगतान 
  • असैनिक विभाग में कार्यरत अंग्रेजों को दिया जाने वाला वेतन । 
  • इंडिया ऑफिस के खर्च जिसमें पदाधिकारियों की पेंशन (जिन्होंने भारत में या भारत के लिए इंग्लैंड में काम किया था), सेना तथा नौसेना के पदाधिकारियों को दिया जाने वाला खर्च शामिल था।

 

भारत में ब्रिटिश दोहन का मूल्यांकन

 

  • ब्रिटिश शासन के दौरान भारत से इंग्लैंड को जाने वाले संसाधनों तथा सोने की मात्रा का अनुमान लगाना काफी मुश्किल है। कुछ विद्वानों द्वारा अनुमानित दोहन को देखा जा सकता है।

 

  • वेरलेस्ट के अनुसार प्लासी युद्ध के 5 साल के अंदर लगभग 4.94 मिलियन पौंड का माल तथा सोना भारत से बाहर गया। आई.सी. सिन्हा का कहना है कि 1757 से 1780 के बीच अकेले बंगाल से 38 मिलियन पौंड का दोहन हुआ। 

 

  • उपलब्ध सूत्रों से पता चलता है कि भारत के राजस्व का एक-चौथाई 'होम चार्ज' के लिए इंग्लैंड चला जाता था। विभिन्न राष्ट्रीय नेताओं ने प्रतिवर्ष भारत से इंग्लैंड जाने वाले दोहन का आंकलन किया। परंतु उनके आंकलन में भिन्नताएं भी पाई गई हैं क्योंकि उन्होंने अलग-अलग तरीकों को दोहन की तीव्रता मापने में अपनाया। भारत की अत्यधिक निर्यात की प्रकृति लगातार बदलती जा रही थी।

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