आधुनिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों की व्याख्या कीजिए । आधुनिक भारत में धार्मिक सुधार आंदोलन । Religious Reform Movement in Modern India

आधुनिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों की व्याख्या कीजिए?

 आधुनिक भारत में धार्मिक सुधार आंदोलन 
Religious Reform Movement in Modern India

आधुनिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों की व्याख्या कीजिए?  आधुनिक भारत में धार्मिक सुधार आंदोलन  Religious Reform Movement in Modern India


धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलनों की समान विशेषताएँ

 

  • 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध से कई भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन भारत के इतिहास, दर्शन, विज्ञान, धर्म और साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया। भारत की अतीत की शानदार उपलब्धियों ने भारतीयों में अपनी सभ्यता के प्रति गर्व की भावना का विकास किया। इस ज्ञान से सुधारकों को अमानवीय प्रथाओं अंधविश्वासों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए धार्मिक और सामाजिक सुधार कार्य करने में सहायता प्राप्त हुई।

 

  • क्योंकि अब वे धार्मिक विश्वासों से परिचित हो चुके थे, अतः सामाजिक सुधार के अधिकांश आन्दोलन धार्मिक प्रकृति के थे। ये सामाजिक और धार्मिक सुधार आन्दोलन सभी भारतीय समुदायों में प्रचलित हो गए। उन्होंने धार्मिक कट्टरता, अन्धविश्वासों और पुरोहित वर्ग के आधिपत्य का जम कर विरोध किया। उन्होंने जाति भेद और अस्पृश्ता, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह, सामाजिक भेदभाव और निरक्षरता के विरूद्ध कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ सुधारकों का साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज अधिकारी भी दे रहे थे और कुछ सुधारक अंग्रेजी सरकार द्वारा कुछ सुधार कार्यों के पक्ष में बनाए गए अधिनियमों का भी समर्थन कर रहे थे।

 

ब्रह्मसमाज और राजाराम मोहन राय

 

  • आज स्त्री और पुरुष कुछ अधिकारों और स्वतन्त्रता का उपभोग कर रहे हैं। पर क्या आप जानते हैं कि ये सब हमें कुछ सुधारकों के अनथक प्रयत्नों के द्वारा ही प्राप्त हुए हैं। इस अवधि के महान सुधारकों में राजाराम मोहन राय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । उन्होंने पूर्व और पश्चिम का एक सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया। एक महान साहित्यिक प्रतिभा से युक्त और भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ होते हुए भी उन्होंने ईसाई और इस्लाम धर्म का विशेष रूप से अध्ययन किया जिससे कि हम दोनों धर्मों को भलीभांति समझ सकें। वह कुछ प्रथाओं के कट्टर विरोधी थे जो उस समय धार्मिक स्वीकृति भी प्राप्त कर चुकी थी ।

 

  • उनका प्रमुख ध्यान इस ओर था कि हिन्दू धर्म का मूर्ति पूजा, यज्ञादि कर्मकाण्ड और अन्य निरर्थक धार्मिक कृत्यों से कैसे पीछा छुड़ाया जाय। वे पुरोहित वर्ग को इन प्रथाओं को प्रोत्साहित करने के लिए दोषी ठहराते थे। उनकी राय थी कि सभी प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ एकेश्वरवाद अर्थात् एक ब्रह्म की उपासना का उपदेश देते हैं। 


  • धार्मिक सुधारों के क्षेत्र में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी 1828 ई. में ब्रह्म समाज की स्थापना । ब्रह्म समाज सामाजिक सुध रों का एक महत्त्वपूर्ण संगठन था। ब्रह्म समाज ने मूर्तिपूजा का विरोध किया और निरर्थक रीतिरिवाजों की निन्दा की। इस समाज ने अपने सदस्यों को किसी भी धर्म का विरोध करने के लिए मना किया। इसके विपरीत यह सभी धर्मों की एकता में विश्वास करता था। राजा राममोहन राय विश्वास करते थे कि मनुष्य को सत्य और परोपकार का मार्ग अपनाना चाहिए और झूठ और अन्धविश्वासों पर आधारित प्रथाओं को छोड़ देना चाहिए।

 

  • राजा राम मोहनराय केवल धार्मिक सुधारक ही नहीं थे बल्कि सामाजिक सुधारक भी थे। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी 1929 ई. में सती प्रथा को दूर करवाना। राजा राममोहनराय ने अनुभव किया कि हिन्दु महिलाओं की समाज में बहुत ही निम्न स्थिति थी। अतः वे महिलाओं के अधिकारों के प्रबल समर्थक के रूप में कार्य करने लगे। वे कई वर्षों तक सती प्रथा को बन्द करने के लिए कठिन परिश्रम करते रहे। 
  • 1818 ई. के प्रारम्भ में वह 'सती' विषय पर जनता में जागृति लाने के लिए निकल पड़े। एक ओर वे प्राचीन पवित्र ग्रन्थों से उद्धरणों द्वारा ये सिद्ध करने पर जुटे हुए थे कि हिन्दु धर्म सती प्रथा के विरूद्ध है और दूसरी ओर वे लोगों से दया, तर्क और मानवता के आधार पर आग्रह करते थे। उन्होंने कलकत्ता में विधवाओं के रिश्तेदारों को उन्हें स्वयं को जलाने की योजना के विरूद्ध समझाने के लिए जलते हुए श्मशान घाटों का भी दौरा किया। उनके सती प्रथा के विरूद्ध अभियान ने कट्टरपंथी हिन्दुओं को नाराज कर दिया जो हर प्रकार से उन पर आक्रमण करने लगे।

 

  • राजा राममोहन राय भारतीय समाज में प्रचलित जाति व्यवस्था के भी सख्त विरोधी थे। हृदय की गहराइयों से एक मानवतावादी और प्रजातान्त्रिक विचारों के होने के कारण उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में लिखना और भाषण देना प्रारम्भ किया। एक अन्य महत्त्वपूर्ण विषय जो उनकी चिन्ता का विषय बना हुआ था, वह था हिन्दु बहुदेवतावाद। और उपनिषदों के अध्ययन से उन्हें यह कहने का बल मिला कि प्राचीन हिन्दु धर्म एकेश्वरवाद में विश्वास करता है इसलिए वे बहुदेवतावाद और मूर्तिपूजा के विरूद्ध हैं। वास्तव में वह कोई नया धर्म नहीं प्रारम्भ करना चाहते थे बल्कि वैदिक धर्म को रूढ़िवादी अज्ञानतापूर्ण अन्धविश्वासों से मुक्त करवाना चाहते थे। उन्होंने घोषणा की कि सभी धर्मों और सम्पूर्ण मानवता के लिए भी एक ही भगवान है। उन्होंने बंगाली और अंग्रेजी में लिखा। वह अंग्रेजी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वह फारसी भाषा में भी प्रवीण थे और प्रारम्भ में उनके कुछ बहुत अधिक उदार और तर्कपूर्ण विचार उस भाषा में ही प्रकाशित हुए।

 

  • उन्होंने बहुविवाह (एक व्यक्ति का कई पत्नियाँ रखना) तथा बालविवाह का भी विरोध किया। वे महिलाओं की शिक्षा पर भी बल देते थे और उनके जायदाद में उत्तराधिकार का भी समर्थन करते थे। वे महिलाओं की पराधीनता के भी सख्त विरोधी थे और इस बात का भी पूर्ण खण्डन करते थे कि स्त्रियाँ बुद्धि में या नैतिकता में किसी भी प्रकार से कम हैं। उन्होंने विधवा विवाह का भी पूर्ण समर्थन किया।

 

  • अपने विचारों को क्रियान्वित करने के लिए राजा राम मोहन राय ने 1828 ई. में ब्रह्म सभा की की नींव डाली जो बाद में ब्रह्म समाज के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके द्वार सभी के लिए खुले थे चाहे वे किसी भी वर्ण के विश्वास के जाति के राष्ट्रीयता या धर्म के क्यों न हो। वे मानवता के सम्मान पर बल देते थे, मूर्ति पूजा का विरोध करते थे और सती प्रथा जैसी कुरीतियों का जम कर विरोध करते थे। यह कोई अलग धर्म का प्रचार करने के लिए नहीं बनी थी बल्कि एक ऐसा स्थान था जहाँ एक ईश्वर में विश्वास रखने वाले लोग मिल सकें और प्रार्थना कर सकें। यहाँ कोई मूर्ति नहीं होती थी और न ही किसी प्रकार के यज्ञ या पूजा पाठ का विधान था।

 

  • द्वारकानाथ टैगोर के सुपुत्र देवेन्द्रनाथ टैगोर (1817-1905) (ब्रह्मसमाज के संस्थापक सदस्य) ने राममोहन राय के बाद ब्रह्मसमाज का नेतृत्व संभाला और राजा राम मोहन राय के विचारों का समर्थन करते हुए ब्रह्मसमाज में नवजीवन का संचार किया।


  • केशवचन्द्र सेन (1838-1884) ने टैगोर से समाज का नेतृत्व प्राप्त किया। ब्रह्मसमाज के आदर्श थे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, राष्ट्रीय एकता, दृढ़ विश्वास तथा सहयोग और सभी सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक संबंधों का लोकतान्त्रीकरण । इस प्रकार यह पहली सुसंगठित संस्था बन गई जो राष्ट्रीय जागृति को प्रोत्साहित कर रही थी और भारतीयों के लिए एक नये युग का सूत्रपात कर रही थी। लेकिन फिर आन्तरिक मतभेद के कारण यह संस्था कमजोर पड़ गई और इसका प्रभाव केवल शहर में रहने वाले पढ़ेलिखे वर्ग तक ही सीमित रहा परन्तु इसने बंगाल के बौद्धिक, सामाजिक और राजनैतिक जीवन पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ा।

 

प्रार्थना समाज और राणाडे

 

  • प्रार्थना समाज की स्थापना सन् 1876 ई. में बम्बई में डा. आत्माराम पाण्डुरंग (1825 ई. 2898 ई.) द्वारा की गई थी। इसका उद्देश्य था विवेकपूर्ण पूजा आराधना और समाज सुधार का कार्य करना इसके दो प्रमुख सदस्य थे श्री आर सी मजुमदार, और न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द राणाडे | इन्होंने अन्तर्जातीय भोज, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं तथा दलित वर्ग के उद्धार जैसे समाज सुधार के कार्यों में अपना जीवन लगा दिया।

 

  • महादेव गोविन्द राणाडे (1842 ई. 1901 ई.) ने अपना समस्त जीवन प्रार्थना समाज को ही समर्पित कर दिया था। वे विधवा पुनर्विवाह ऐसोसिएशन ( 1861) तथा दक्कन एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की। उन्होंने पूना सार्वजनिक सभा को भी स्थापित किया। राणाडे के लिए धर्म सुधार और समाज सुधार में कोई अन्तर नहीं था। उनका यह भी विश्वास था कि यदि धार्मिक विचार कट्टरपंथी होंगे तो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकेगी।

 

  • यद्यपि प्रार्थना समाज पर ब्रह्मसमाज के सिद्धान्तों का गहरा प्रभाव था फिर भी इसने मूर्तिपूजा और जातिप्रथा का इतना गहरा विरोध नहीं किया। ये वेद को भी अन्तिम वाक्य नहीं समझते थे, ये पुनर्जन्म और अवतारवाद के सिद्धांत को भी स्वीकार नहीं करते थे। इसका एकमात्र केन्द्रीय विचार था 'एकेश्वरवाद में विश्वास करना।'

 

डेरोजियो और युवा बंगाल आन्दोलन

 

  • हेनरी लुई विवियन डेरोजियो ने कलकत्ता के हिन्दू कालेज में एक प्राध्यापक के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया। वह स्काटलैंड से कलकत्ते में घड़िया बेचने के लिए आए थे लेकिन बाद में उन्होंने बंगाल में आधुनिक शिक्षा के प्रसार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। डेरोजियो ने अपने अध्यापन के माध्यम से क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया और उन्होंने साहित्य दर्शन, इतिहास और विज्ञान पर वाद-विवाद एवं चर्चा करने के लिए गए संघ की भी स्थापना की। उन्होंने अपने अनुयायियों और विद्यार्थियों को सभी सत्ताओं को चुनौती देने के लिए प्ररेणा दी। 


  • डेरोजियो और उसके प्रसिद्ध अनुयायी जिन्हें लोग डोरोजियन और युवा बंगाल के नाम से बुलाते थे, आग उगलने वाले देशभक्त माने जाते थे। वे फ्रेंच विद्रोह (1789 ई.) के आदर्शो और ब्रिटेन के उदार विचारों का सम्मान करते थे। डेरोजियो मात्र 22 वर्ष की उम्र में हैजे से मृत्यु को प्राप्त हुए। डेरोजियो की सेवामुक्ति और अचानक देहान्त के बाद भी युवा बंगाल आन्दोलन जारी रहा। नेतृत्व का अभाव हो जाने पर भी इस वर्ग के सदस्यों ने अपने क्रान्तिकारी विचारों का अध्यापन और पत्रकारिता के माध्यम से जारी रखा।

 

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर और धार्मिक सुधार आंदोलन 

 

  • बंगाल के एक अन्य प्रसिद्ध सुधारक थे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (1820 ई. - 1891 ई.) मूर्धन्य विद्वान होते हुए उन्होंने महिलाओं की मुक्ति के विषय में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। उन्हीं के ही अशक प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप विधवाओं के विवाह के मार्ग में आने वाली कठिनाइयाँ 1856 के एक कानून के द्वारा दूर हो सकीं। उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई और स्वयं लड़कियों के कई स्कूल खोले और खुलवाए। विद्यासागर ने धार्मिक प्रश्नों के विषय में अधिक चिन्ता नहीं दिखाई। फिर भी वे उन लोगों के विरुद्ध थे जो धर्म के नाम पर सुधारों का विरोध करते थे।

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