अंतर्राष्ट्रीय कराधान |दोहरा कराधान |International taxation

अंतर्राष्ट्रीय कराधान

अंतर्राष्ट्रीय कराधान |दोहरा कराधान |International taxation


 

  • विश्वभर में तमाम देशों का रातों रात 'एकीकरण', खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाददेखा गया है। पूँजी (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश – FDI के रूप में) और श्रम का मुक्त आवागमनउच्च कर से निम्न कर अवस्थानों की ओरविनिर्माण आधारों का आवागमनव्यापार अवरोधों का निराकरणसूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का (ICT) विकास-क्रमबौद्धिक संपदा अधिकारों का दोहनआदि सभी ने सीमापार क्रियाकलापों को एक नई दिशा देने में योगदान दिया है।


  • वैश्वीकरण ने व्यापार को आगे बढ़ाया है और अनेक देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि की है। परंपरागत रूप सेलोक अर्थशास्त्र और कराधान संबंधी अध्ययन विषय संवृत अर्थव्यवस्था प्राधार में ही परिसीमित रहे हैं। परंतुअंतर्राष्ट्रीय उपादान गतिशीलता और द्रुत वैश्वीकरण के कारणकराधान नीतियों को एक अनावृत अर्थव्यवस्था प्राधार में देखे जाने की आवश्यकता है। अंतर्राष्ट्रीय कराधान विभिन्न देशों के बीच कर व्यवस्थाओं की अंतक्रिया से उस समय उत्पन्न होने वाली समस्याओं से जुड़ा होता है जब उपादानों का उनकी सीमाओं के आर-पार आदान-प्रदान होता हो ।

 

1 दोहरा कराधान

 

  • विभिन्न देश आर्थिक मूल्य के उन पहलुओं पर कर लगाते हैं जो उत्पादन के विभिन्न कारकों द्वारा नाना प्रकार के लेन-देनों (अथवा अधिकृत भण्डारों) से उत्पन्न होते हैं। इस प्रक्रिया में अनेक मुद्दे उठ खड़े होते हैं। अन्य देशों से संबद्ध लोगों एवं निगमों द्वारा एक अर्थव्यवस्था में कुछ लेन-देन व आय उत्पन्न होती है। इसी प्रकार किसी मातृ-देश (माना भारत) से संबद्ध लोग और निगम विभिन्न कर अधिकार क्षेत्रों में आय उत्पन्न करते हैं। इन आय एवं लेन-देनों से कैसे पेश आएँ और उन पर कैसे कर लगाएँयह भीएक मुद्दा बन जाता है। 


  • अनेक देश घरेलू अथवा विदेशी आय पर ध्यान दिए बिना ही अपने नागरिकों की सभी प्रकार की आय पर कर लगाते हैं। जब दोनों ही आय पर कर लगाते हैं तो दोहरे कराधान की स्थिति पैदा होती है। उदाहरण के लिएजब कोई फर्म किसी समुद्रपार देश (जिसे मेजबान अथवा स्रोत देश कहते हैं) में निवेश करती है तो गृह-देश (जिसे निवास देश कहा जाता है) इस सीमापार क्रियाकलाप से कर लाभों की अपेक्षा रख सकता है। मेज़बान देश भी कर के अधिकार का प्रयोग कर सकता है क्योंकि लाभ उसके अधिकार क्षेत्र में उत्पन्न किए जा रहे हैं। यह दोहरे कराधान की ओर प्रवृत्त करता है। ऐसे दोहरे कराधान से उपादान गतिशीलता गंभीर रूप से प्रभावित होती है।


  • कंपनियाँ किसी देश में समावेश के आधार पर निवासी मानी जाती हैं। जब कोई कंपनी किसी देश के अधिकार क्षेत्र में समावेशित होती है तो उसे उस देश द्वारा एक 'निवासीकंपनी माना जाता है। प्रभावशाली प्रबंधन एक अन्य निकष होता है। यहाँइस बात पर विचार किया जाता है कि क्या कंपनी का नियंत्रण मंडल बैठकें करता है और / अथवा क्या उसके दैनिक कार्य इस देश से संचालित किए जाते हैं अथवा नहींपरंतुप्रत्येक फर्म के लिए संक्रियाओं की कोटि निर्धारित करना दुष्कर होता है। भारत मेंदेश में समावेशित किसी भी कंपनी को उसका सामान्य निवासी माना जाता है [ आयकर अधिनियम, 1961 के अनुच्छेद आयकर अधिनियम, 1961 के अनुच्छेद) के अनुसार]। भारत में अनुप्रयोज्य एक दूसरी संकल्पना स्थायी स्थापना (PE) पर आधारित है। यह इस बात पर निर्भर करती है कि क्या उस इकाई का प्रबंधन एवं नियंत्रण किसी वर्ष के दौरान भारत में अवस्थित रहा। इसके तहत यदि विदेशी कंपनी प्रासंगिक स्थायित्व को कोई स्थान देती है (जो कि स्रोत देश में व्यापार गतिविधियाँ चलाने या जारी रखने के लिए प्रयोग किया जाता है) तो उसे निवासी मान लिया जाता है। आयकर अधिनियम, 1961 में स्थानीय स्थापना की कोई अवधारणा नहीं है। अतःपूर्व परंपराओं के आधार पर स्थायी स्थापना निर्धारित की जाती है।

 

  • इस भूमंडलीकृत विश्व में कंपनियाँ विभिन्न साधनों से समुद्रपारीय आय अर्जित कर सकती हैं। कुछ संभावित मार्ग हैं- विदेशी सहयोगअधिकार शुल्क तकनीक शुल्कपेटेंट हेतु अनुज्ञा शुल्कप्रतिलिप्याधिकार अथवा ट्रेडमार्कलाभलाभांशब्याज एवं पूँजीगत लाभ अनेक कर प्राधिकरणों ने पाया है कि फर्मे निम्नलिखित द्वारा आक्रामक कर नियोजन वाले करों से बच निकलते हैं- (i) करयोग्य आय का पुनर्नियतन (ii) अंतर-फर्म बिक्री दर्शाना अथवा किसी उच्च कर वाले देश से निम्न कर वाले देश की ओर किसी प्रकार का निगम ऋण दर्शाना, (iii) कर्ज पर ब्याज़ कटौती दर्शानाआदि । ये फर्मेंतद्नुसारकिसी प्रकार उच्च कर वाले देश में कम और निम्न कर वाले देश में उच्च लाभ दर्शा ही देती हैं।

 

  • अनेक सरकारें विदेशी आय एवं लाभों पर मानक कराधान प्रक्रिया के संरूपण हेतु द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय कर-संधियाँ कर लेती हैं। अधिकांश कर-संधियाँ दोहरा कराधान परिहार समझौतों' (DTAAS) और कर राजस्व किसी परस्पर लाभकारी तरीके से साझा करने पर अभिलक्षित होती हैं। कर-संधियाँ आलिप्त पक्षों को प्राथमिक एवं द्वितीयक कराधान अधिकार प्रदान एवं अनुदिष्ट करती हैं। आमतौर परस्रोत देशों को सीधे निवेश से व्यापार आय पर कर लगाने का प्राथमिक अधिकार दिया जाता है और निवासी देश को अन्य रूपों में कर वसूलने का प्राथमिक अधिकार मिलता है (जैसे- विदेशी संस्थागत निवेश और निवेश सूची निवेश) । 


  • परंतु इलेक्ट्रॉनिक व्यापार करने वाली फर्मों से संबद्ध पारिभाषिक एवं स्थायी स्थापना संबंधी प्रश्न देशों के बीच एक विवादास्पद मुद्दा ही रहा है। दिलचस्प रूप से कठोर कर-संधियाँ भी बचाव के कुछ ऐसे रास्ते छोड़ देती हैं जो एक ऐसी अवधारणा को जन्म देते हैं जिसे 'संधि खरीदारीकहा जाता है।


  • इसके तहतबहुराष्ट्रीय कंपनियाँ लाभ पर करों से बचने के लिए बस किसी देश में नियंत्रित कंपनियाँ या दुकानें ही खोलती रहती हैं। उक्त समझौते (DTAAs) अनेक रूपों में दिखाई पड़ते हैं कुछ व्यापक होते हैं तो कुछ सीमित। बहरहालइनके मुख्यतः दो प्रतिमान हैं OECD मॉडल और UN मॉडल। भारत इस प्रकार के 100 से भी अधिक समझौते (DTAAs) कर चुका है। 
  • आय कर अधिनियम के अनुच्छेद 90 और 90A कर-संधि का आधार तैयार करते हैं। अधिकांश भारतीय कर संधियों ने UN मॉडल अपनाया है। आगे चलकरव्यापार इकाई अथवा स्रोत व्यक्ति विशेष की अपेक्षा राजकोष के लिए कहीं अधिक राजस्व उत्पन्न करेगा और वह स्थान जहाँ आय अर्जित की जाती हैव्यक्ति के अधिकार क्षेत्र की अपेक्षा कहीं अधिक राजस्व उगाह कर देगा ( टी. एस. एडम्स )

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