प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कर: संकल्पनाएँ |प्रगामी, समानुपातिक और प्रतिगामी कराधान |Direct and Indirect Taxes: Concepts

प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कर: संकल्पनाएँ 
प्रगामी, समानुपातिक और प्रतिगामी कराधान 
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कर: संकल्पनाएँ |प्रगामी, समानुपातिक और प्रतिगामी कराधान |Direct and Indirect Taxes: Concepts



कर सामान्य परिचय  

  • कर अपनी-अपनी सरकारों के प्रति अनिवार्य देयताएँ हैं ताकि उन्हें सार्वजनिक वस्तुएँ एवं सेवाएँ और कभी-कभी विशेष गुण वस्तुएँ प्रदान करने में सक्षम बनाया जा सके। इसके 'प्रतिदान' की कोई सुनिश्चितता नहीं होती। 
  • इसका अर्थ है कि किसी भी व्यक्ति द्वारा चुकाए गए करों और उसे प्राप्त लोक-हित सेवाओं के बीच कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। किसी भी व्यक्ति से एकत्रित कर किसी भी ऐसे उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयोग किए जा सकते हैं जो लोक-हित को अधिकतम करता हो, न कि करदाता को निजी लाभ पहुँचाने के लिए। 
  • कुछ लोग हस्तांतरणों को ऋणात्मक करों के रूप में देखते हैं। बहरहाल, हस्तांतरण अभिलक्षित लोगों के लिए वितरणात्मक लक्ष्य हासिल करने का प्रयास करते हैं (यथा, वे कुपोषण घटाने जैसे विशिष्ट उद्देश्यों को पूरा करते हैं । इन हस्तांतरणों में शामिल होते हैं- समाज कल्याण देयताएँ, बेरोजगारी भत्ता, आदि। ये करों की ही भाँति उपभोग, निवेश एवं कार्य प्रयास को भी प्रभावित कर सकते हैं। तद्नुसार, कराधान के बहुविध उद्देश्य हो सकते हैं राजस्व उगाही, उत्पादन एवं वितरण से लेकर उपभोग में व्यवहारपरक परिवर्तन लाने तक। 


मस्प्रेव (1959) के अनुसार, कर विभिन्न श्रेणियों में बाँटे जो सकते हैं, जैसे- 


(i) उत्पाद अथवा उपादान बाजारों में अध्यारोपित कर विक्रेताओं अथवा क्रेताओं पर आरोपित कर 

(iii) परिवारों अथवा फर्मों पर लगाए गए कर तथा 

(iv) करदाता खाते के स्रोत अथवा प्रयोगकर्ता पक्ष पर लगाए गए कर इन सभी श्रेणियों में से एक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कर सामान्यतः राजकीय कर आँकड़ा प्रणालियों में प्रयोग किए जाते हैं। आय, सम्पत्ति एवं व्यावसायिक कर प्रमुख प्रत्यक्ष कर हैं और वस्तु एवं सेवा कर (GST), सीमा शुल्क, स्टैम्प शुल्क व पंजीकरण शुल्क प्रमुख अप्रत्यक्ष कर हैं।

 

प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कर: संकल्पनाएँ

 

किसी कर को उस स्थिति में प्रत्यक्ष कहा जाता है जब प्रभाव और भार दोनों एक ही कर इकाई पर पड़ते हों। परोक्ष अर्थात् अप्रत्यक्ष कर की स्थिति में प्रभाव और भार भिन्न-भिन्न कर इकाइयों पर पड़ते हैं। दूसरे शब्दों में, जब किसी इकाई पर कर लगाया जाता है तो वह जिसकी आय एवं क्षेम में कर की वजह से कमी आती है, अन्य इकाइयों से सार्थक अंतर हेतु आधार बन जाता है।

कर भार स्थानांतरण की साध्यता करारोपित इकाई ( अथवा वस्तु) की माँग एवं आपूर्ति की लोच पर निर्भर करती है। वास्तव में, यह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष भेद अनेक स्थितियों में अस्पष्ट ही होता है क्योंकि कर भार और आपतन निश्चित रूप में जानना मुश्किल होता है। 

प्रत्यक्ष करों में अधिकांशतः आय एवं पूँजी कर आते हैं, जिनको आगे परिवारों, फर्मों एवं सम्पत्ति पर अध्यारोपित करों में बाँटा जा सकता है। परोक्ष कर प्रमुखतः क्रय-विक्रय पर लगाए जाते हैं। 


प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही करों में गुण और दोष

  • प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही करों में कुछ गुण और दोष हैं। प्रत्यक्ष कर समतापूर्ण, मितव्ययतापूर्ण, निश्चित एवं परिशुद्ध होते हैं। इनके दोष हैं- ये कष्टकर और वंचन प्रवण होते हैं। 
  • दूसरी ओर, परोक्ष कर सुविधाजनक एवं व्यय-नियामक होते हैं; यथा ये राजस्व उगाही के उद्देश्य से न होकर उपभोग को हतोत्साहित करने के उद्देश्य से लगाए जाते हैं (जैसे- तम्बाकू कर ) । इनसे बच निकलना कठिन होता है और इनके तहत मदों की एक व्यापक श्रृंखला आती है। परंतु अप्रत्यक्ष कर प्रतिगामी एवं अनिश्चित होते हैं और असमानताएँ बढ़ाने के अलावा उपभोग एवं उत्पादन निर्णयों को भी प्रभावित कर सकते हैं, और इस प्रकार निष्पक्ष नहीं होते।

 

  • कराधान के वैयक्तिक के साथ-साथ समष्टिक स्तर पर भी दूरगामी प्रभाव होते हैं। उदाहरण के लिए, आयकर शिक्षा के करोपरांत लाभ को प्रभावित कर सकता है, जो कि बदले में किसी व्यक्ति की स्कूली शिक्षा के वर्ष निर्धारित कर सकता है। 


  • यदि कर रहित लाभों के साथ किसी विशेष प्रकार की नौकरियों के लिए कर प्रलोभन होंगे तो लोगों के नौकरी विकल्पों को प्रभावित किया जा सकता है। पारंपरिक वेतन और कार्य संतुलन प्रयास उन लोगों के साथ चल सकता है जो अपनी भागीदारी (यथा, वे कार्यबल में शामिल रहें अथवा नहीं) और सेवानिवृत्ति आयु (यथा, क्या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति उनके लिए लाभदायक रहेगी) तय कर रहे हों। जब किन्हीं विशेष वस्तुओं अथवा क्षेत्रों में कर प्रोत्साहन घोषित होते हैं तो उन क्षेत्रों में नए निवेशों का प्रवाह देखा जा सकता है। कुल मिलाकर कर समाज की कर संस्कृति निर्धारित करता है और अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

 

1 प्रगामी, समानुपातिक और प्रतिगामी कराधान

 

  • किसी कर को प्रगामी या प्रगतिशील कहा जाता है यदि कर दर करदाता की आय में वृद्धि के साथ ही बढ़ती हो। 
  • कोई कर समानुपातिक होता है यदि कर दर करदाता के आय-स्तर पर ध्यान दिए बिना ही किसी दर पर नियत कर दिया गया हो। 
  • कोई भी कर प्रतिगामी कहलाता है यदि कर की दर करदाता की आय में कमी के साथ-साथ न घटती हो। अनेक प्रत्यक्ष कर प्रगतिशीलता के सिद्धांत का ही पालन करते हैं।
  • प्रगतिशीलता हेतु तर्काधार यह है कि कर धनाढ्य वर्ग पर अपेक्षाकृत अधिक बोझ डाले । दुर्भाग्यवश, वास्तव में, कर प्रगतिशीलता की कोटि को मापना कठिन होता है।
  • प्रगतिशीलता इस अर्थ में समय-संबद्ध भी होती है कि कोई कर वार्षिक आधार पर लगाए जाते समय प्रतिगामी हो सकता है परंतु वह अपना समय प्राधार जीवनकाल तक बढ़ाए जाने की स्थिति में प्रगतिशील भी हो सकता है (जैसे- अमेरिका में सामाजिक सुरक्षा कर बेशक वेतनभोगी अल्पावधि में कर स्वरूप अपने वेतन की बड़ी राशि चुकाते हैं, किंतु सेवानिवृत्ति के बाद वे पूरे जीवनभर लाभ प्राप्त करते हैं, जिससे उनके त्याग की प्रतिपूर्ति हो जाती है) । 
  • कर परिवर्तनों के प्रति करदाताओं की अनुक्रिया असंयमित हो सकती है और वह आर्थिक वर्ग एवं धन-सम्पत्ति पर नियंत्रण पर निर्भर करते हुए भिन्न भिन्न होगी। दूसरी ओर, अत्यधिक प्रगामी दरों पर घातक वस्तुओं पर कर लगाना (यथा, वे कर जो तंबाकू एवं शराब जैसी वस्तुओं के उपभोग को हतोत्साहित करते हों) न्यायोचित है और तमाम देशों में इस पर आम सहमति देखी जाती है।

 

विशिष्ट बनाम मूल्यानुसार कर 

  • कोई भी विशिष्ट कर प्रति इकाई आधार पर वस्तुओं और सेवाओं पर वसूला जाता है। दूसरी ओर, कोई कर 'मूल्यानुसार कर' कहलाता है यदि वह उत्पाद के मूल्य के प्रतिशत के रूप में लगाया गया है। विशिष्ट और मूल्यानुसार के बीच चयन तर्क का विषय है।
  • विशिष्ट कर मुद्रास्फीति में परिवर्तनों के प्रति स्वतः अनुक्रिया नहीं करते हैं और इसीलिए वस्तुओं की नियत कीमत पर लगे किसी भी कर के भार को घटा देते हैं। 
  • अधिकांश व्यापक आधार वाले कर मूल्यानुसार ही लगाए जाते हैं जो एक-सोपानिक अथवा बहु-सोपानिक हो सकते हैं। जब यह बहु सोपानिक होता है तो यह मुख्यतः संवर्धित मूल्य पर होता है [जैसे, मूल्य-संवर्धित कर (VAT) एवं GST] परंतु ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें किसी उत्पाद पर कर लगाने के लिए दोनों के संयोजन का प्रयोग किया जाता है (जैसे- भारत में नई जीएसटी प्रणाली में तंबाकू पर विशिष्ट एवं मूल्यानुसार दोनों के संयोजन स्वरूप कर लगाए जाते हैं)।


  • जब अर्थव्यवस्था विकास के परंपरागत से संक्रांति और फिर आधुनिक काल में पहुँचती है तो कर राजस्व प्राधार की प्रकृति भी भू-आधारित करों जैसे परंपरागत करों से अप्रत्यक्ष करों और फिर प्रत्यक्ष करों वाली हो जाती है। 


  • परंपरागत अर्थव्यवस्था में अधिकांशतः संपत्ति, भूमि, आयात एवं निर्यात पर कर प्रभावी होते हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था अभिभावी रूप से कृषिक होती है और कच्चे माल के निर्यात अथवा आयात में लगी होती है। 


  • परंपरागत अवस्था में विनिर्माण और व्यापार प्रभुत्व रखते हैं, जब संक्रांति काल में, व्यापार कर के साथ-साथ उत्पादन शुल्क और बिक्री कर जैसे अप्रत्यक्ष कर प्रभावी होते हैं। पूर्ण विकसित सेवा क्षेत्र वाली आधुनिक अर्थव्यवस्था में राजस्व रूपरेखा से अपेक्षा होती है कि वह वस्तु कर द्वारा निभाई जाने वाली लघुतर भूमिका के साथ आय कर की ओर रुख कर लेगी। 

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