बुंदेलखंड का इतिहास | Bundel Khand Ka Itihass
बुंदेलखंड का इतिहास
- पुरातात्विक साहित्यिक शोधों कि विपुलता ने इतने नये तथ्य प्रस्तुत किए हैं कि भारतवर्ष के समग्र इतिहास से पुनरलेखन की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है।
- "बुंदेलखंड' का इतिहास भी इसी प्रकार नयी शोधों के संदर्भ में आलेखन की अपेक्षा रखता है। "बुंदेलखंड 'शब्द मध्यकाल से पहले इस नाम से प्रयोग में नहीं आया है। इसके विविध नाम और उनके उपयोग आधुनिक युग में ही हुए हैं। बीसवीं शती के प्रारंभिक दशक में रायबहादुर महाराजसिंह ने बुंदेलखंड का इतिहास लिखा था। इसमे बुंदेलखंड के अन्तर्गत आने वाली जागीरों और उनके शासकों के नामों की गणना मुख्य थी। दीवान प्रतिपाल सिंह ने तथा पन्ना दरबार के प्रसिद्ध कवि "कृष्ण' ने अपने स्रोतों से बुंदेलखंड के इतिहास लिखे परन्तु वे विद्वान भी सामाजिक सांस्कृतिक चेतनाओं के प्रति उदासीन रहे।
- पं० हरिहर निवास द्विवेदी ने "मध्य भारत का इतिहास' ग्रंथ में बुंदेलखंड की राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा प्रकारांतर से की है। इस ग्रंथ में कुछ स्थानों पर बुंदेलखंड का इतिहास भी आया है। एक उत्तम प्रयास पं० गोरेलाल तिवारी ने किया और "बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास' लिखा जो अब तक के ग्रंथो से सबसे अलग था परन्तु तिवारीजी ने बुंदेलखंड का इतिहास समाजशास्रीय आधार पर लिख कर केवल राजनैतिक घटनाओं के आधार पर लिखा है।
- बुंदेलखंड सुदूर अतीत में शबर, कोल, किरात, पुलिन्द और निषादों का प्रदेश था। आर्यों के मध्यदेश में आने पर जन जातियों ने प्रतिरोध किया था। वैदिक काल से बुंदेलों के शासनकाल तक दो हज़ार वर्षों में इस प्रदेश पर अनेक जातियों और राजवंशं ने शासन किया है और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से इन जातियों के मूल संस्कारों को प्रभावित किया है।
- विभिन्न शासकों में मौर्य, सुंग, शक, हुण, कुषाण, नाग, वाकाटक, गुप्त, कलचुरि, चन्देल, अफगान, मुगल, बुंदेला, बघेल, गौड़, मराठ और अंग्रेज मुख्य हैं।
- ई० पू० 321 तक वैदिक काल से मौर्यकाल तक का इतिहास वस्तुत: बुंदेलखंड का "पौराणिक-इतिहास' माना जा सकता है। इसके समस्त आधार पौराणिक ग्रंथ है।
बुंदेलखंड का पौराणिक इतिहास
- समस्त भारतीय इतिहासों में "मनु' मानव समाज के आदि पुरुष हैं। इनकी ख्याति कोसल देश में अयोध्या को राजधानी बनाने और उत्तम-शासन व्यवस्था देने में है।
- महाभारत और रघुवंश के आधार पर माना जाता है कि मनु के उपरांत इस्वाकु आऐ और उनके तीसरे पुत्र दण्डक ने विन्धयपर्वत पर अपनी राजधानी बनाई थी ।
- मनु के समानान्तर बुध के पुत्र पुरुखा माने गए हैं इनके प्रपौत्र ययति थे जिनके ज्येष्ठ पुत्र यदु और उसके पुत्र कोष्टु भी जनपद काल में चेदि (वर्तमान बुंदेलखंड) से संबंद्ध रहे हैं।
- एक अन्य परंपरा कालिदास के "अभिज्ञान शाकुंतल' से इस प्रकार मिलती है कि दुष्यंत के वंशज कुरु थे जिनके दूसरे पुत्र की शाखा में राजा उपरिचर-वसु हुए थे । इनकी ख्याति विशेष कर शौर्य के कारण हुई है। इनके उतराधिकारियों को भी चेदि, मत्स्य आदि प्रांतो से संबंधित माना गया है।
- बहरहाल पौराणिक काल में बुंदेलखंड प्रसिद्ध शासकों के अधीन रहा है जिनमें चन्द्रवंशी राजाओं की विस्तृत सूची मिलती है। पुराणकालीन समस्त जनपदों की स्थिति बौद्धकाल में भी मिलती है। चेदि राज्य को प्राचीन बुंदेलखंड माना जा सकता है।
- बौद्धकाल में शाम्पक नामक बौद्ध ने बागुढ़ा प्रदेश में भगवान बुद्द के नाखून और बाल से एक स्तूप का निर्माण कराया था। वर्तमान मरहूत (वरदावती नगर) में इसके अवशेष विद्यमान हैं।
- बौद्ध कालीन इतिहास के संबंध में बुंदेलखंड में प्राप्त तत्युगीन अवशेषों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की स्थिती में इस अवधि में कोई लक्षणीय परिवर्तन नहीं हुआ था। चेदि की चर्चा न होना और वत्स, अवन्ति के शासकों का महत्व दर्शाया जाना इस बात का प्रमाण है कि चेदि इनमें से किसी एक के अधीन रहा होगा। पौराणिक युग का चेदि जनपद ही इस प्रकार प्राचीन बुंदेलखंड है।
बुंदेलखंड का मौर्यकाल
- मौर्यों के पहले का राजनैतिक जो कि बुंदेलखंड क्षेत्र की चर्चा करता हो उपलब्ध नहीं है। वर्तमान खोजों तथा प्राचीन वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला, भित्तिचित्रों आदि के आधार पर कहा जा सकता है कि जनपद काल के बाद प्राचीन चेदि जनपद बाद में पुलिन्द देश के साथ मिल गया था ।
- सबसे प्राचीन साक्ष्य "एरण' की पुरातात्विक खोजों और उत्खननों से उपलब्ध हुए हैं। ये साक्ष्य 300 ई० पू० के माने गए हैं। इस समय एरन का शासक धर्मपाल था जिसके संबंध में मिले सिक्कों पर "एरिकिण' मुद्रित है।
- त्रिपुरी और उज्जयिनि के समान एरन भी एक गणतंत्र था । मौर्यशासन के आते ही समस्त बुंदेलखंड (जिनमें एरण भी था) उसमे विलीयत हुआ। मत्स्य पुराण और विष्णु पुराण में मौर्य शासन के 130 वर्षों का यह साक्ष्य है।
- मौर्य वंश के तीसरे राजा अशोक ने बुंदेलखंड के अनेक स्थानों पर विहारों, मठों आदि का निर्माण कराया था । वर्तमान गुर्गी (गोलकी मठ) अशोक के समय का सबसे बड़ा विहार था। बुंदेलखंड के दक्षिणी भाग पर अशोक का शासन था जो उसके उज्जयिनी तथा विदिशा मे रहने से प्रमाणित है। परवर्ती मौर्यशासक दुर्बल थे और कई अनेक कारण थे जिनकी वजह से अपने राज्य की रक्षा करने मे समर्थ न रहै फलत: इस प्रदेश पर शुंग वंश का कब्जा हुआ।
- वृहद्थों को भास्कर पुण्यमित्र का राज्य कायम होना बाण के "हषचरित' से भी समर्थित है। शुंग वंश भार्गव च्वयन के वंशाधर शुनक के पुत्र शोनक से उद्भूल है। इन्होंने 36 वर्षों तक इस क्षेत्र में राज्य किया। इसके उपरांत गर्दभिल्ला और नागों का अधिकार इस प्रदेश पर हुआ।
- भागवत पुराण और वायुपुराण में किलीकला क्षेत्र का वर्णन आया है। ये किलीकला क्षेत्र और राज्य विन्ध्यप्रदेश (नागौद) था। नागों द्वारा स्थापित शिवाल्यों के अवशेष भ्रमरा (नागौद) बैजनाथ (रीवाँ के पास) कुहरा (अजयगढ़) में अब भी मिलते हैं। नागों के प्रसिद्ध राजा छानाग, त्रयनाग, वहिनाग, चखनाग और भवनाग प्रमुख नाग शासक थे। भवनाग के उत्तराधिकारी वाकाटक माने गए हैं।
- पुराणकाल में बुंदेलखंड का अपना एक महत्व था, मौर्य के समय में तथा उनके बाद भी यह प्रदेश अपनी गरिमा बनाए हुए था तथा इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य हुए।
बुंदेलखंड में वाकाटक और गुप्तशासन
- डा० वी० पी- मिरांशी के अनुसार वाकाटक वंश का सर्वश्रेष्ठ राजा विन्ध्यशक्ति का पुत्र प्रवरसेन था। इसने अपने साम्राजय का विस्तार उत्तर में नर्मदा से आगे तक किया था। पुराणों में आये वर्णन के अनुसार उसने परिक नामक नगरी पर अधिकार किया था जिसे विदिशा राज के नागराज दैहित्र शिशुक ने अपने अधीन कर रखा था। पुरिका प्रवरसेन के राज्य की राजधानी भी रही है।
वाकाटक राज्य की परम्परा तीन रुपों में पाई जाती है -
क) स्वतंत्र वाकाटक साम्राज्य
ख) गुप्तकालीन वाकाटक साम्राज्य
ग) गुप्तों के उपरान्त वाकाटक साम्राजय
कुन्तीदेवी अग्निहोत्री का विचार है कि सन 345 से वाकाटक गुप्तों के प्रभाव में आये और पाँचवीं शताब्दी के मध्य तक उनके आश्रित रहे हैं। कतिपय विद्वान विन्ध्यशक्ति के समय से सन् 255 तक वाकाटकों का काल मानते हैं। ये झाँसी के पास बागाट स्थान से उद्भूत है अत: बुंदेलखंड से इनका विशेष संबंध रहा है।
प्रमुख वाकाटक शासक :
- प्रवरसेन प्रथम सन 275 ई० से 335 ई०
- रुद्रसेन प्रथम 335 ई० से 360 ई०
- पृथ्वीसेन 360 ई० से 385 ई०
- रुद्रसेन द्वितीय 390 ई० से 410 ई०
- प्रवरसेन द्वितीय 410 ई० से 440 ई०
- नरेन्द्रसेन 440 ई० से 460 ई०
- पृथ्वीसेन द्वितीय 460 ई० से 480 ई०
- हरिसेन
- इतिहासकारों के अनुसार हरिसेन ने पश्चिमी और पूर्वी समुद्र के बीच की सारी भूमि पर राज किया था।
- गुप्तवंश का उद्भव उत्तरी भारत में चतुर्थ शताब्दी में हुआ था। चीनी यात्री ह्येनसांग जिस समय बुंदेलखंड में आया था, उस समय भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त का शासनकाल था। उसने वाकाटकों को अपने अधीन कर लिया था । कलचुरियों के उद्भव का समय भी इसी के आसपास माना गया है।
- समुद्रगुप्त की दिग्विजय और "एरण' पर उसका अधिकार शिलालेखों और ताम्रपटों के आधार पर सभी इतिहासकारों ने माना है, "एरण' की पुरातात्विक खोजों को प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपनी पुस्तिका "सागर थ्रू एजेज' में प्रस्तुत किया है।
- एरण के दो नाम मिलते हैं "एरिकण और "स्वभोनगर' ।
- स्वभोनगर से स्पष्ट है कि यह वैभव की नगरी रही है। हटा तहसील (वर्तमान दमोह जिला) के सकौर ग्राम में 24 सोनो के सिक्के मिले हैं जिनमें गुप्तवंश के राजाओं के नाम अंकित हैं। इससे स्पष्ट है कि गुप्तों के समय में बुंदेलखंड एक वैभवशाली प्रदेश था ।
- स्कन्दगुप्त के उपरांत बुंदेलखंड बुधगुप्त के अधीन था। इसकी देखरेख मांडलीक सुश्मिचंद्र करता था। सुश्मिचंद्र ने मैत्रायणीय शाखा के मातृविष्णु और धान्य विष्णु ब्राह्मणों को एरन का शासक बनाया था जिसकी पुष्टि "एरण' के स्तम्भ से होती है। सुश्मिचंद्र गुप्त का शासन यमुना और नर्मदा के बीच के भाग पर माना गया है।
- गुप्तों की अधीनता स्वीकार करने वालों में उच्छकल्प और परिव्राजकों का नाम लिया जाता है। पाँचवी शताब्दी के आसपास उच्छकल्पों की राजसत्ता की स्थापना हुई थी। ओधदेव इस वंश का प्रतीक था। इस वंश के चौथे शासक व्याघ्रदेव के वाकाटकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इसके शासकों में जयनाथ और शर्वनाथ के शासनकाल के अनेक दानपत्र उपलब्ध हुए हैं जिनसे पता चलता है कि उच्छकल्पों की राजधानी "उच्छकल्प' (वर्तमान ऊँचेहरा) में थी।
- इनके शासन में आने वाले भूभाग के "महाकान्तर' प्रदेश कहा जाता है। इसी के पास परिव्राजकों की राजधानी थी । विक्रम की चौथी सदी में परिव्राजकों ने अपने राज्य की स्थापना की थी । इनका राज्य वम्र्मराज्य भी कहा जाता है। वम्र्मराज्य पर बाद में नागौद के परिहारों ने अपना शासन जमा लिया था ।
- पाँचवी शताब्दी के अंत तक हूण शासकों द्वारा बुंदेलखंड का शासन करना इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। हूणों का प्रमुख तोरमाण था जिसने गुप्तों को पराजित करके पूर्वी मालवा तक अपना साम्राज्य बढ़ाया था ।
- एरण के वराहमूर्ति शिलालेख में तोरमण के ऐश्वर्य की चर्चा है। इतिहासकारों के अनुसार भानुगुप्त और तोरमाण हर्षवर्धन के पूर्व का समय अंधकारमय है।
- चीनी यात्री ह्यानसांग के यात्रा विवरण में बुंदेलखंड का शासन ब्राह्मण राजा के द्वारा चलाया जाना बताया गया है।
- कालांतर में ब्राह्मण राजा ने स्वयं हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली थी। हर्ष के उपरांत अराजकता की स्थिती में बुंदेलखंड धार नरेश भोज के अधिकार में आया । इसके बाद सूरजपाल कछवाहा, तेजकर्ण, वज्रदामा, कीर्तिराज आदि शासक हुए पर इन्होनें कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं दिया।
कलचुरियों का शासन
- सन 647 से 1200 ई० के आसपास तक कन्नौज में अनेक शासक हुए, इनमें यशोवर्मन, आयुध, राजकुल, प्रतिहार, गाहड़वाल, शाकम्भरी के चौहान (अजयराज, विग्रहराज चतुर्थ वांसलदेव और पृथ्वीराज तृतीय प्रमुख हैं।
- इसी समय देश पर मुस्लिम आक्रमण भी हुए। मध्यकाल तक आसाम में भास्कर वर्मन, बंगाल में पालराजकुल का प्रभाव बढ़ा तो त्रिपुरी में कलचुरि जेजाकमुक्ति (बुंदेलखंड) में चन्देल, मालवा में परमाल तथा आन्हिवाड़ में चालुक्य राजकुलों की शक्ति में संवर्द्धन हुआ। बुंदेलखंड में कलचुरियों और चन्देलों का प्रभाव दीर्घकाल तक रहा।
कलचुरियों की दो शाखायें हैं -
- रतनपुर के कलचुरि और त्रिपुरी के कलचुरि बुंदेलखंड में त्रिपुरी के कलचुरियों का महत्व है। यह वंश पुराणों में प्रसिद्ध हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन की परंपरा में माना जाता है। इसके संस्थापक महाराज कोक्कल ने (जबलपुर के पास) त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया अतएव यह वंश त्रिपुरी के कलचुरियों के नाम से विख्यात है।
- प्राचीन काल में नर्मदा के शीर्ष स्थानीय प्रदेश से महानदी के प्रदेश का विस्तृत भूभाग चेदि जनपद के नाम से प्रसिद्ध था। मध्यकाल में इसे "डहाल' कहा जाने लगा।
- कोवकल बड़ी सूझबूझ एवं दूरदृष्टि वाला उत्साही व्यक्ति था ; उसने उत्तर के चंदेलों की बढ़ती हुई शक्ति से लाभ उठाने के लिए चन्देल कुमारी नट्टा देवी से विवाह किया।
- प्रतापी कोवकलदेव के पुत्र मुग्धतुंग और केयूरवंर्ष ने अभूतपूर्व उन्नति की थी। बिलहरी के शिलालेख के अनुसाल केयूरवर्ष ने गौड़, कर्णाटलाट आदि देशों की स्रियों से राजमहल को सुशोभित किया था और उससे कैलास से सेतुबंध तक के शत्रु भयाक्रान्त थे। केयूरवर्ष के प्रताप का वर्णन राजशेखर ने विद्शाल मंजिका नाटक में भी किया है।
- कलचुरियों ने लक्षमणदेव, गंगेयदेव, कर्ण, गयाकर्ण, नरसिंह, जयसिंह आदि का शासन काल समृद्धिपूर्ण माना जाता है। इन्होंने 500 वर्ष तक शासन किया जिसे सन 1200 के आसपास देवगढ़ के राजा ने समाप्त कर दिया और फिर चन्देलों के अधीन आया। हर्षवर्धन के समय चन्देल राज्य एक छोटी सी ईकाई थी परन्तु उसके बाद यह विस्तार पाकर दसवीं शताब्दी तक एक शक्तिशाली राज्य बन गया।
चन्देलों का शासनः
- महोबा चन्देलों का केन्द्र था। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद गहरवारों ने इस पर अधिकार कर लिया था। गहरवारों को पराजित करने वाले परिहार थे। स्मिथ और कीनधम ने इस जनश्रुति का समर्थन अपने ग्रंथों में किया है।
- केशवचन्द्र मिश्र का कथन है कि चन्द्रात्रेय से नन्नुक के राज्यकाल तक का (सन 740 से 831 तक) 10 वर्ष तक का समय चन्देलों के उदय का काल है। इस वंश के प्रमुख शासक मुनि चन्द्रात्रेय, नृपति भूभुजाम और नन्नुक हैं। धंग के खजुराहो शिलालेख से इसका प्रमाण मिलता है। इसी संदर्भ मे कोक्कल के लेख और ताम्रपत्रों से प्रभूत सामग्री मिलती है।
- चन्देलों की उत्पति विवादास्पद है। डॉ स्मिथ, कीनंधम, वैद्य और हेमचंद्र राय के मतों में बहुत भिन्नता है। किवदन्ती के अनुसाल हेमावती के पुत्र का चन्द्रमा से उत्पन्न होना चन्देल कहलाया है। जन्म सम्बन्धी वृतांत में चन्देलों का कलिं में रहना, प्रथम प्रतापी शासक बनना भी शामिल हैं।
- महाकवि चन्द ने भी चन्देलों के राजवंशों की विस्तृत सूची दी है। चन्देलों का आदि पुरुष नन्नुक माना जाता है। इसे प्रारंभ मे राजा न मानकर नागभ द्वितीय (प्रतिहार शासक) के संरक्षण में विकसित होने वाला शासक बताया गया है। ऐसा साक्ष्य धंग के खजुराहो - अभिलेख में भी मिला है।
- चन्देलों की अपनी परंपरा है। नन्नुक आदि शासक हैं। इसके बाद वाक्यपति का नाम आता है। वाक्यपति के दो पुत्र हुए जयशक्ति और विजयशक्ति। जयशक्ति को वाक्यपति के बाद सिंहासन में बैठाया गया और इसके नाम से ही बुंदेलखंड क्षेत्र का नाम "जेजाक-मुक्ति' पड़ा।
- मदनपुर के शिलालेख और अलबेरुनी के भारत संबंधी यात्रा विवरण में इस तथ्य को समर्थन मिलता है। अलबरुनी ने जेजाक मुक्ति के स्थान पर "जेजाहुति' शब्द का प्रयोग किया है।
- जयशक्ति के बाद विजयशक्ति गद्दी पर बैठा। इसने कोई महत्वपूर्ण कार्य नही किए परन्तु उसके पुत्र राहील की ख्याति अपने पराक्रम के लिए विशेष है। केशव चन्द्र मिश्र ने लिखा है कि "यदि चन्देल शासक राहील के कार्यों का सिंहावलोकन किया जाये तो ज्ञात होगा कि 900 ई० से 915 ई० तक के 15 वर्षों के शासन काल मे उसने सैन्यबल संगठित किया, उसे महत्वाशाली बनाया और अजयगढ़ की विजय करके ऐतिहासिक सैनिक केन्द्र स्थापित किया।
- कलचुरि से वैवाहिक संबंध जोड़कर उसने प्रभावशाली कार्य किया।' राहिल के बाद चन्देल राज्य की स्वतंत्र सत्ता का और विकास होता है। चन्देलों ने सोलहवीं शताब्दी तक शासन किया।
चंदेल वंश शासकों के नाम की सूची
- नन्नुक सन् 831 ई०
- वाक्पति सन् 845 ई०
- यशोवर्मन 930 ई०
- धंग सन् 950 ई०
- गंड सन् 1000 ई०
- विद्याधर 1025 ई०
- विजयपाल 1040 ई०
- देववर्मा 1055 ई०
- कीर्तिवर्मा सन् 1060 ई०
- सल्लक्षण वर्मन 1100 ई०
- जयवर्मन 1110 ई०
- पृथ्वीवर्मन 1120
- मदनवर्मन 1129 ई०
- परमर्दि 1165 ई०
- त्रैलोक्यवर्मन 1203 ई०
- वीरवर्मन 1245 ई०
- भोजवर्मा 1282 ई०
- वीरवर्मा द्वितीय 1300 ई०
- कीर्तिराय 1520 ई०
- रामचन्द्र 1569 ई०
- चन्देल काल में बुंदेलखंड में मूर्तिकला, वास्तुकला तथा अन्य कलाओं का विशेष विकास हुआ। "आल्हा' के रचयिता जगीनक माने जाते हैं। ये चन्देलों के सैनिक सलाहकार भी थे। पृथ्वीराज से चन्देलों से संबंध भी आल्हा में दर्शाये गये हैं। सन् 1182-83 में चौहानों ने चन्देलों को सिरसागढ़ में पराजित किया था और कलिन् का किला लूटा था।
- चन्देल अभिलेख से स्पष्ट है कि परमार नरेश भोज के समय मे विदेशी आक्रमणकारियों का ताँता लग गया था । कलिं को लूटने के लिए मुहम्मद कासिम, महमूद गज़नवी, शहाबुद्दीन गौरी आदि आर्य और विपुलधन अपने साथ ले गये। कुतुबुद्दीनएबक मुहम्मद गौरी के द्वारा यहां का शासक बनाया गया था उसके मरने के बाद स्वतंत्र हुआ और चंगेजखाँ के आक्रमण तक शासक बना रहा।
- बुंदेलखंड में कलिं का किला सभी बादशाहों को आकर्षण का केन्द्र रहा और इसे प्राप्त करने के सभी ने प्रयत्न किया। हिन्दु और मुसलमान राजाओं में इसके निमित्त अनेक लड़ाईयां हुईं। खिलजी वंश का शासन संवत् 1377 तक माना गया है। अलाउद्दीन खिलजी को उसके मंत्री मलिक काफूर ने मारा, मुबारक के बनने पर खुसरो ने उसे समाप्त किया। कलिंजर और अजयगढ़ चन्देलों के हाथ में ही रहे। इसी समय नरसिंहराय ने ग्वालियर पर अपना अधिकार किया। बाद में य तोमरों के हाथ में चला गया। मानसी तोमर ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा माने गए हैं।
- बुंदेलखंड के अधिकांश राजाओं ने अपनी स्वतंत्र सत्ता बनानी प्रारंभ कर दी थी फिर वे किसी न किसी रुप में दिल्ली के तख्त से जुड़े रहते थे। बाबर के बाद हुमायूँ, अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ के शासन स्मरणीय है।
बुंदेलों का शासनः
- बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबन्धित हैं। इक्ष्वाकु के बाद रामचन्द्र के पुत्र "लव' से उनके वंशजो की परंपरा आगे बढ़ाई गई है और इसी में काशी के गहरवार शाखा के कर्त्तृराज को जोड़ा गया है। लव से कर्त्तृराज तक के उत्तराधिकारियों में गगनसेन, कनकसेन, प्रद्युम्न आदि के नाम ही महत्वपूर्ण हैं।
- कर्त्तृराज का गहरवार होना किसी घटना के आधार पर हैं जिसमें काशी मे ऊपर ग्रहों की बुरी दशा के निवारणार्थ उसके प्रयत्नों में "ग्रहनिवार' संज्ञा से वह पुकारा जाने लगा था। कालांतर "ग्रहनिवार' गहरवार बन गया।
बनारस के राजाओं की अनेक समय तक सूर्यवंशी सूर्य-कुलावंतस काशीश्वर पुकारा जाता रहा है। इनकी परंपरा इस प्रकार है -
- कर्त्तृराज, महिराज, मूर्धराज, उदयराज, गरुड़सेन, समरसेन, आनंदसेन, करनसेन, कुमारसेन, मोहनसेन, राजसेन, काशीराज, श्यामदेव, प्रह्मलाददेव, हम्मीरदेव, आसकरन, अभयकरन, जैतकरन, सोहनपाल और करनपाल। करनपाल के तीन पुत्र थे - वीर, हेमकरण और अरिब्रह्म। करनपाल ने हेमकरन को अपने सामने ही गद्दी पर बैठाया था। इसे करनपाल की मृत्यु पर शेष दो भाईयों ने पदच्युत कर देश निकाला दे दिया था।
- अपने भाइयों से त्रस्त होकर हेमकरन ने राजपुरोहित गजाधर से परामर्श लिया। उसने विन्धयवासिनी देवी की पूजा के लिए प्रेरित किया। मिर्जापुर में विन्ध्यवासिनी देवी की पूजा में चार नरबलियाँ दी गई, देवी प्रसन्न हुई और हेमकरन को वरदान दिया परंतु हेमकरन के भाईयों का अत्याचार हेमकरन के लिए अब भी कम नही हुआ। कालांतर में उसने एक और नरबलि देकर देवी को प्रसन्न किया। देवी नें पाँचों नरबलियों के कारण उसे पंचम की संज्ञा दी। इसके बाद वह विन्ध्यवासिनी का परम भक्त बन गया। जनसमाज में वह "पंचम विन्ध्येला' कहलाया। देवी द्वारा दिये गए वरदानों को ओरछा राज्य के इतिहास में विशेष महत्व दिया गया है।
- एक अन्य कथा के अनुसार हेमकरन ने देवी के समक्ष अपनी गर्दन पर जब तलवार रखी और स्वयं की बलि देनी चाही तो देवी ने उसे रोक दिया परंतु तलवार की धार से हेमकरन के रक्त की पांच बूंदें गिर गई थीं इन्हीं के कारण हेमकरन का नाम पंचम बुंदेला पड़ा था।
- ओरछा दरबार के पत्र में अभी भी पूर्ववर्ती विरुद्ध के प्रमाण मिलते हैं जैसे - श्री सूर्यकुलावतन्स काशीश्वरपंचम ग्रहनिवार विन्ध्यलखण्डमण्लाहीश्वर श्री महाराजाधिराज ओरछा नरेश। चूंकि हेमकरन को विन्ध्यवासिनी देवी का वरदान रविवार को मिला था, ओरछा में आज भी पवरात्र महोत्सव में इस दिन नगाड़े बनाये जाते हैं।
- मिर्जापुर स्थित गौरा भी हेमकरन के बाद गहरवारपुरा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके बाद का चक्र बड़ी तेजी से घूमा और वीरभद्र ने गदौरिया राजपूतों मे अँटेर छीन लिया और महोनी को अपनी राजधानी बनाया। गढ़कुण्डार इसके बाद बुंदेलों की राजधानी बनी।
- वीरभद्र के पाँच विवाह और पाँच पुत्र प्रसिद्ध हैं - इनमें रणधीर द्वितीय रानी से, कर्णपाल तृतीय रानी से, हीराशी, हंसराज और कल्याणसिंह पँचम रानी से थे। वीरभद्र के बाद कर्णपाल (1087 ई० से 1112 ई०) गद्दी पर बैठा। उसकी चार पत्नियाँ थीं। प्रथम के कन्नारशाह, उदयशाह और जामशाह पैदा हुए। द्वितीय पत्नी से शौनक देव तथा नन्नुकदेव तथा चतुर्थ पत्नी से वीरसिंहदेव का जन्म हुआ।
- कन्नारशाह (1112 ई० - 1130 ई०), शौनकदेव (1130 ई०-1152 ई०), नन्नुकदेव (1152ई०-1169 ई०) ओरछा की गद्दी पर क्रम से बैठे। इसके बाद वीरसिंह के पुत्र मोहनपति (1169 ई०-1197 ई०), अभयभूपति (1169 ई०-1215 ई०) गद्दी पर आये। अर्जुनपाल अभयभूपति का पुत्र था। ये 1215 ई० से 1231 ई० तक गद्दी पर रहा। उसने तीन विवाह किए। दूसरी रानी से सोहनपाल का जन्म हुआ। यह ओरछा बसाने में विशेष सहायक माना जाता है।
ओरछा के बुंदेला
- रुद्रप्रताप के साथ ही ओरछा के शासकों का युगारंभ होता है। वह सिकन्दर और इब्राहिम लोधी दोनों से लड़ा था।
- ओरछा की स्थापना मन 1530 में हुई थी।
- रुद्रप्रताप बड़ा नीतिज्ञ था, ग्वालियर के तोमर नरेशों से उसने मैत्री संधी की। उसके मृत्यु के बाद भारतीचन्द्र (1531 ई०-1554ई०) गद्दी पर बैठा।
- हुमायूँ को जब शेरशाह ने पदच्युत करके सिंहासन कथियाया था तब उसने बुंदेलखंड के जतारा स्थान पर दुर्ग बनवा कर हिन्दु राजाओं को दमित करने के निमित्त अपने पुत्र सलीमशाह को रखा।
- कलिं का किला कीर्तिसिंह चन्देल के अधिकार में था। शेरशाह ने इस पर किया तो भारतीचन्द ने कीर्तिसिंह की सहायता ली। शेरशाह युद्ध में मारा गया और उसके पुत्र सलीमशाह को दिल्ली जाना पड़ा।
- भारतीचन्द के उपरांत मधुकरशाह (1554 ई०-1592 ई०) गद्दी पर बैठा। इसके बाद समय में स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना हुई।
- अकबर के बुलाने पर जब वे दरबार में नही पहुँचा तो सादिख खाँ को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा गया। युद्ध में मधुकरशाह हार गए। मधुकरशाह के आठ पुत्र थे, उनमें सबसे ज्येष्ठ रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया। राज्य का प्रबन्ध उनके छोटे भाई इन्द्रजीक किया करते थे। केशवदास नामक प्रसिद्ध कवि इन्हीं के दरबार में थे।
- इन्द्रजीत का भाई वीरसिंह देव (जिसे मुसलमान लेखकों ने नाहरसिंह लिखा है) सदैव मुसलमानों का विरोध किया करता था) उसे कई बार दबाने की चेष्टा की गई पर असफर ही रही। अबुलफज़ल को मारने में वीरसिंहदेव ने सलीम का पूरा सहयोग किया था, इसलिए वह सलीम के शासक बनते ही बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण शासक बना। जहाँगीर ने इसकी चर्चा अपनी डायरी में की है।
- वीरसिंह देव (1605 ई० - 1627 ई०) के शासनकाल में ओरछा में जहाँगीर महल तथा अन्य महत्वपूर्ण मंदिर बने थे। जुझारसिंह ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हें गद्दी दी गई और शेष 11 भाइयों को जागीरें दी गई।
- सन् 1633 ई० में जुझारसिंह ने गोड़ राजा प्रेमशाह पर आक्रमण करके चौरागढ़ जीता परंतु शाहजहाँ नें प्रत्याक्रमण किया और ओरछा खो बैठे। उन्हें दक्षिण की ओर भागना पड़ा। उनके कुमारों को मुसलमान बनाया गया तथा वे कहीं पर दक्षिण में ही मारे गये। वीरसिंह के बाद ओरछा के शासकों में देवीसिंह और पहाड़सिहं का नाम लिया जाता है परंतु ये अधिक समय तक राज न कर सके।
- वीरसिंह के उपरांत चम्पतराय प्रताप का इतिहास प्रसिद्ध है। औरंगज़ेब की सहायता करने (दारा के विरुद्ध) पर उन्हें ओरछा से जमुना तक का प्रदेश जागीर में दिया गया था। दिल्ली दरबार के उमराव होते हुए भी चम्पतराय ने बुंदेलखंड को स्वाधीन करने का प्रयत्न किया और वे औरंगज़ेब से ही भीड़ गए। सन 1664 मे चम्पतराय ने आत्महत्या कर ली। ओरछा दरबार का प्रभाव यहाँ से शून्य हो जाता है।
- पन्ना दरबार इसी के बाद छत्रसाल के नेतृत्व में उन्नति करता है। ओरछा गज़ेटियर के अनुसार मुगल शासकों नें चम्पतराय के परिवार को गद्दी न दी और जुझारसिंह के भाई पहाड़सिंह को शासक नियुक्त किया। ओरछा के परवर्ती शासकों ने सुजानसिंह (1653 ई०-1672 ई०), इन्द्रमीण (1672 ई०-1675 ई०), यशवंत सिंह (1675 ई०-1684 ई०), भगवंत सिंह (1684 ई० - 1689 ई०), उद्दोतसिंह, दत्तक पुत्र (1689 ई०-1736 ई०), पृथ्वी सिंह (1736 ई०-1752 ई०), सावंत सिंह (1752 ई०-1765 ई०) तथा हतेसिंह विक्रमाजीत, धरमपाल, तेजसिंह, हमीरीसिंह, प्रतापसिंह के नाम प्रमुख हैं।
- छत्रसाल ने बुंदेलखंड की स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में अथक परिश्रम किया। औरंगज़ेब ने इन्हें भी दबाने की कोशिश की पर सफल न हुए। छत्रसाल ने कलिं को भी अपने अधिकार में किया। सन् 1707 ई० सें औरंगज़ेब के मरने के बाद बहादुरगढ़ गद्दी पर बैठा। छत्रसाल से इसकी खूब बनी। इस समय मराठों का भी ज़ोर बढ़ गया था।
- छत्रसाल स्वयं कवि थे। छत्तरपुर इन्हीं ने बसाया था। कलाप्रेमी और भक्त के रुप में भी इनकी ख्याती थी। धुवेला-महल इनकी भवन निर्माण-कला की स्मृति दिलाता है। बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल की मृत्यु के बाद बुंदेलखंड राज्य भागों में बँट गया। एक भाग हिरदेशाह, दूसरा जगतराय और तीसरा पेशवा को मिला। छत्रसाल की मृत्यु 13 मई सन् 1731 में हुई थी।
- प्रथम हिस्से में हिरदेशाह को पन्ना, मऊ, गढ़ाकोटा, कलिंजर, शाहगढ़ और उसके आसपास के इलाके मिले।
- द्वितीय हिस्से में जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, जरखारी, बिजावर, सरोला, भूरागढ़ और बाँदा मिला।
- बाजीराव को तीसरे हिस्से में कलपी, हटा, हृदयनगर, जालौन, गुरसाय, झाँसी, गुना, गढ़कोटा और सागर इत्यादि मिला।
- अठारवीं शताब्दी में हिन्दुपत के वंशज सोनेशाह ने छत्तरपुर की स्थापना की। कृष्णकवि (पन्ना दरबार के राजकवि) ने इसे छत्रसाल द्वारा बसाया माना है। जबकि छत्तरपुर गजेटियर में इसे सोनोशाह का नाम ही दिया है। सोनेशाह के बाद छत्तरपुर राज्य में प्रतापसिंह, जगतराज और विश्वनाथसिंह आदि राजाओं ने शासन किया। सोनेशाह के समय में छत्तरपुर में अनेक महलों, तालाबों, मन्दिरों का निर्माण करवाया।
मराठों का शासन
- छत्रसाल के समय से ही मराठों का शासन बुंदेलखंड पर प्रारंभ हो गया था। उस समय ओरछा का शासक भी मराठों को चौथ देता था। दिल्ली के मुसलमान शासकों द्वारा अराजकता फैलाने के कारण उत्तर भारत में धीमे-धीमे अंग्रेजी शासन फैलता जा रहा था। सन् 1759 में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध युद्ध में गोविन्दराव पतं मारे गए।
- बुंदेलखंड में अंग्रेजों का आगमन हानिकारक सिद्ध हुआ। कर्नल वेलेजली ने सन् 1778 में कलपी पर आक्रमण किया और मराठों को हराया। कालांतर में नाना फड़नवीस की सलाह मे माधव नारायण को पेशवा बनाया गया तथा मराठों और अंग्रेजों में संधि हो गई।
- हिम्मत बहादुर की सहायता से अंग्रेजों नें बुंदेलखंड पर कब्जा किया। सन् 1818 ई० तक बुंदेलखंड के अधिकांश भाग अंग्रेजों के अधीन हो गए।
बुंदेलखंड मे राजविद्रोह
- सन् 1847 का वर्ष अंग्रेजों के लिए इसीलिए उत्तम सिद्ध हुआ था क्योंकि महाराज रणजीत सिंह का पुत्र उनके बाद पंजाब का राजा बनाया गया। लार्ड डलहौज़ी इस समय गवर्नर जनरल था और उन्होंन दिलीपसिंह को अयोग्य शासक बताकर पंजाब पर कब्जा जमा लिया।
- शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को पुर्तगालियों से मिले रहने का आरोप लगा कर सतारा में कैद किया और दक्षिण का बाग अपने अधीन किया। झाँसी में गंगाधरराव की मृत्यु के बाद दामोदर राव को गोद लिया गया। लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु इसी समय 1857 के विद्रोह की घटना घटी।
- बरहमपुर, मेरठ, दिल्ली, मुर्शीदाबाद, लखनऊ, इलाहाबाद, काशी, कानपुर, झाँसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए। झाँसी पर विद्रोहियों ने किले पर अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई ने किसी प्रकार युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई कहलाई।
- सागर की 42 न० पलटन ने अंग्रेजी हुकूमत मानना अस्वीकार कर दिया। बानपुर के महाराज मर्दनसिंह ने अंग्रेजी अधिकार के परगनों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया। खुरई का अहमदबख्श तहसीलदार भी मर्दनसिंह मे मिल गया। ललितपुर, चंदेरी पर दोनों ने कब्जा किया। शाहगढ़ में बख्तवली ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित की। सागर की 31 नं० पलटन चूंकि बागी न थी इसीलिए उसकी सहायता से मर्दनसिंह की मालथौन में डटी हुई सेना को हटाया गया, फिर 42 नं० पलटन से युद्ध हुआ।
- बख्तवली नें 31 नं० पलटन ने शेखरमजान से मेल कर लिया विद्रोह की लहर, सागर, दमोह, जबलपुर आदि स्थानों में फैल गई। इस समय तक पन्ना के राजा की स्थिती मजबूत थी, अंग्रेजों ने उनसे सहायता माँगी।
- राजा ने तुरन्त सेना पहुँचाई और जबलपुर की 52 नं० की पलटन को बुरी तरह दबा दिया गया। शनै: शनै: बख्तवली और मर्दनसिंह को नरहट की घाटी में सर हारोज ने पराजित किया। अंग्रेजी सेना झाँसी की ओर बढ़ती गई। झाँसी, कालपी में अंग्रेजों को डटकर मुकाबला करना पड़ा। रानी लक्ष्मी बाई दामोदर राव (पुत्र) को अपनी पीठ पर बाँधकर मर्दाने वेश में कालपी की ओर भाग गयी। इसके बाद झाँसी पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
- कालपी में एक बार फिर बख्तवली और मर्दनसिंह ने रानी के साथ मिलकर सर ह्यूरोज से युद्ध किया। यहाँ भी उसे पराजय हाथ लगी। वह ग्वालियर पहुँची और सिंधिया को हराकर वहाँ भी शासक बन बैठी पर सर ह्यूरोज ने ग्वालियर पर अचानक हमला किया। राव साहब पेशवा, तात्या टोपे का पराभव, रानी की मृत्यु आदि ने पूर्णत: विद्रोह की अग्नि को ठंडा कर दिया। बुंदेलखंड के सारे प्रदेश इस प्रकार अंग्रेजी राज्य में समा गए।
- बुंदेलखंड का राजविद्रोह वास्तव में जनता का विद्रोह न होकर सामन्तों और सेना का विद्रोह था इसी पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक और धार्मिक भावना के साथ साथ स्वामिभक्ति का पुट विशेष है। देश की सीमा वस्तुत: सामन्तो की जागीरों अथवा राज्यों की सीमायें थीं। सामन्तों का धर्म जनता का धर्म था अत: विद्रोहियों द्वारा देश पर कब्जा और धर्म का नाश असह्य था जिसे गोली में लगी चर्बी के बहाने हिन्दु और मुसलमानों दोनो ने व्यक्ति किया।
अंग्रेजी राज्य में विलयनः
- बुंदेलखडं की सीमायें छत्रसाल के समय तक अत्यंत व्यापक थीं, इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला तथा मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड, लहार और मोण्डेर के जिले और परगने शामिल थे।
- इस पूर भूभाग का क्षेत्रफल लगभग 3000 वर्गमील था। अंग्रेजी राज्य में आने से पूर्व बुंदेलखंड में अनेक जागीरें और छोटे छोटे राज्य थे। बुंदेलखंड कमिश्नरी का निर्माण सन् 1820 में हुआ। सन् 1835 में जालौन, हमीरपुर, बाँदा के जिलों को उत्तर प्रदेश और सागर के जिले को मध्यप्रदेश में मिला दिया गया, जिसकी देख रेख आगरा से होती थी।
- सन् 1839 में सागर और दमोह जिले को मिलाकर एक कमिश्नरी बना दी गई जिसकी देखरेख झाँसी से होती थी। कुछ दिनों बाद कमिश्नरी का कार्यालय झाँसी से नौगाँव आ गया।
- सन् 1842 में सागर, दामोह जिलों में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ आन्दोलन हुआ परंतु फूट डालने की नीति के द्वारा शान्ति स्थापित की गई। इसके बाद बुंदेलखंड का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य की नीतियों की ही अभिव्यक्ति करता है। अनेक शहीदों ने समय समय पर स्वतंत्रता के आन्दोलन छेड़े परंतु गांधी जी जैसे नेता के आने से पहले कुछ ठोस उपलब्धि संभव न हुई।
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