भारतीय इतिहास लेखन की आधुनिक वृतियाँ | Itihaas Lekhan Ki Vidhiyan

भारतीय इतिहास लेखन की आधुनिक वृतियाँ 

भारतीय इतिहास लेखन की आधुनिक वृतियाँ | Itihaas Lekhan Ki Vidhiyan


भारतीय इतिहास लेखन सामान्य परिचय 

 

इस इकाई का उद्देश्य न केवल आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन की तमाम प्रमुख प्रवृत्तियों के बारे में जानना, अपितु उनमे विद्यमान मूलभूत अंतरों को पहचानना भी है. इतिहास लेखन इतिहासकारों की विचारधारा का इतिहास पर असर पड़ना अस्वाभाविक भी नहीं है, क्योंकि प्रत्येक इतिहासकार अंतत: अपने समाज का प्रतिनिधि भी होता है. अत: इतिहासकारों पर परम्पराओं, सांस्कृतिक परिवेशों, तत्कालीन विचारधाराओं आदि का प्रभाव पड़ने की सम्भावनाएं रहती हैं. इन्ही परिस्थितियों के कारण इतिहास लेखन की अनेक प्रवृत्तियों का जन्म हुआ. यहाँ हम केवल आधुनिक इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियों के विशिष्ट लक्षणों पर गौर करेंगे. इस इकाई के अध्ययन के उपरांत आपको अग्रांकित जानकारी हो सकेगी

 आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियां

 
आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन

 

  • औपनिवेशिक इतिहासकारों और उनके बौद्धिक पूर्वजों का यह विचार था कि भारतीयों को इतिहास एवं इतिहास लेखन की समझ नही थी. यूरोपीय बुद्धिजीवी भारत को एक स्थिर समाज की तरह देखते थे जिसमें लम्बे समय तक कोई परिवर्तन ही नहीं हुए थे. और, शासन का आधार मूलत: प्राच्य निरंकुशता' थी. अतः उनका मत था कि अंग्रेज़ों के आने के पूर्व भारत का कोई लिखित इतिहास ही नहीं था. 
  • इतिहास लेखन में प्राथमिक स्रोतों के आधार पर वस्तुनिष्ठ इतिहास लेखन की वकालत करने वाले लियोपॉल्ड रैंके का मत था कि भारत का यदि कोई इतिहास है तो केवल 'प्राकृतिक इतिहास' ही है. इस मत के अनुसार भारत में इतिहास लेखन की कोई परम्परा नही थी. 
  • 1817 में जेम्स मिल द्वारा लिखित हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया को भारत का पहला लिखित इतिहास माना जाता था. औपनिवेशिक बुद्धिजीवीयों के इन तर्कों को भारतीय बुद्धिजीवीयों ने भी कुछ हद तक स्वीकार कर लिया था. अत: भारत में परम्परागत इतिहास लेखन की अनदेखी की जाती थी. 
  • यहाँ हमारा लक्ष्य यह सिद्ध करना नहीं है कि भारत में आधुनिक ढंग के इतिहास लेखन की जानकारी पहले से थी. बल्कि, भारत में इतिहास लेखन की परम्परागत प्रवृत्ति पर प्रकाश डालना भर है.

 

परम्परावादी इतिहास लेखन

Parmpara Vaadi Itihaas Lekhan

 

  • आरम्भिक भारत में भले ही आधुनिक ढंग के इतिहास लेखन का अभाव था परंतु भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना का अभाव नही था. प्राचीनतम संस्कृत पाठों में हमें अनेक ऐतिहासिक जानकारियाँ मिलती हैं. वैदिक ग्रंथों में हमें आर्यों के ही नही अपितु अनार्यों के राजनीतिक संगठन, समाज एवं धर्म के बारे में पता चलता है. 
  • कालांतर में लिखे गये महाकाव्य भारतीय सभ्यता के गौरव ग्रंथ की भाँति देखे जाते है. हलांकि, महाकाव्यों के पात्रों एवं घटनाओं की ऐतिहासिकता संदिग्ध रही है. फिर भी, इनसे भारतीय समाज की विचारधारा का पता चलता है. सबसे महत्वपूर्ण, इन्होंने भारत में इतिहास लेखन की एक परम्परा को जन्म दिया. 
  • कालांतर में यह प्रवृत्ति चरितकाव्य परम्परा में विकसित हुयी. प्राचीन भारत में इतिहास लेखन की एक अन्य विशिष्ट परम्परा पुराणों के रूप में विकसित हुयी. अनेक पुराणों से हमें भारत में शासन करने वाले प्राचीन शासकों (मौर्य, सातवाहन एवं गुप्त आदि) की वंशावलियां प्राप्त होती हैं. इस कारण कुछ पुराण यथा वायु पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण तथा भागवत पुराण अत्यंत महत्वपूर्ण - इतिहास ग्रंथ हैं. फिर भी, पुराणों को इतिहास मानना संम्भव नही है. 
  • पुराणों में ऐतिहासिक घटनाओं का दंतकथाओं एवं जनश्रुतियों के साथ ऐसा मिश्रण हो जाता है कि सत्यता का पता लगाना लगभग असम्भव है.


सातवीं शताब्दी से भारत में इतिहास लेखन 

  • सातवीं शताब्दी से भारत में इतिहास लेखन की परम्परा के रूप में एक नवीन प्रवृत्ति का उदय हुआ; इसे "वंश एवं चरितपरम्परा कहा गया है. इस परम्परा का आरम्भ तो बौद्ध एवं जैन धर्मों हुआ था (उदाहरणस्वरूप अश्वघोष रचित बुद्धचरित). 
  • परंतु, सातवीं शताब्दी से दरबारी कवियों ने राजाओं के वंशों एवं जीवनियों को लिखना आरम्भ कर दिया. ऐसा पहला महत्वपूर्ण ग्रंथ बाणभट्ट रचित हर्षचरित्र था. इसमें बाणभट्ट ने हर्षवर्धन के वंश को बताने के पश्चात उन परिस्थितियों का विस्तार से विवरण दिया जिनके फलस्वरूप हर्ष कन्नौज का शासक बना. अत्यंत रोचक एवं रोमांटिक ढंग से लिखे गये इस ग्रंथ में बाण ने ऐतिहासिक घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण दिया है. इस ग्रंथ से तत्कालीन सामाजिक जीवन का भी पता चलता है क्योंकि बाण ने हर्ष के अभियान के दौरान मार्ग एवं वनों में मिलने वाले लोगों का भी विवरण दिया है. फिर भी, यह रचना अलंकारिक शैली मे लिखी गयी प्रशस्ती से भिन्न नही है. 
  • बाणभट्ट ने अंतत: अपने संरक्षक के शौर्य, वीरता एवं दूसरे राजसी गुणों की भूरी-भूरी प्रशंसा की है, भारतीय इतिहास लेखन की यह परम्परा शीघ्र ही एक शैली के रूप में विकसित हो गयी. कालांतर में राजपूत शासकों के द्वारा संरक्षित दरबारियों और कवियों ने अनेक जीवनवृत लिखे. इनमें वाकपतिराज रचित 'गौड़वाहो', बिल्हण रचित 'विक्रमांकदेवचरित' तथा जयनक का पृथ्वीराज -विजय' आदि कुछेक अत्यंत प्रसिद्ध हैं. ये सभी ग्रंथ अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसात्मक एवं अंलकारिक शैली में लिखे गये हैं. इस शैली में लिखे होने के कारण अक्सर ऐतिहासिक तथ्यों को राजकवि की कल्पना से अलग कर पाना दुर्गम हो जाता है. 
  • प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर का मत है कि 'वंश एवं चरित परम्परा लेखन का उद्देश्य एकतंत्रात्मक राज को सुदृण करना तथा राजा के राजनीतिक अधिकार को स्थापित करना था.' हम जानते हैं कि गुप्तों के पश्चात भारत मे कोई एक सशक्त शासक नही था, अतः राजकवियों ने अलंकृत राजनीतिक जीवन वृतांत के जरिये राजाओं की शक्ति का महिमा मण्डन किया. फिर भी, इससे इन ग्रंथो का महत्व समाप्त नही हो जाता. सातवीं सदी से दिल्ली सल्तनत की स्थापना तक के इतिहास को जानने के ये सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं. 
  • सातवीं शताब्दी से वंश एवं जीवनचरितों की लगातार बढ़ती संख्या भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना बढ़ने का प्रमाण भी है. इस परम्परा में लिखा गया अंतिम महत्वपूर्ण ग्रंथ कल्हण द्वारा रचित 'राजतरंगिणी' है जो कश्मीर के इतिहास को जानने का काफी प्रमाणिक स्रोत है. इसके साथ यह परम्परा समाप्त नही हो गयी, बल्कि आधुनिक काल तक चलती रही. 
  • आधुनिक इतिहास लेखन परम्परा आरम्भ हो जाने के पश्चात भी अनेक लेखक प्रशंसात्मक जीवनियाँ लिखते रहे. अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में शासकों के अतिरिक्त महत्वपूर्ण भारतीयों, समाज सुधारकों एवं धर्म सुधारकों की जीवनियॉ लिखना भी आरम्भ हो गया. क्षेत्रीय भाषाओं में गद्य लेखन के विकास ने इस परम्परा को नये आधार दिये.

 भारत में इतिहास की इंडो मुस्लिम लेखन पद्धति

  • भारत में इतिहास लेखन की एक अन्य परम्परा दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ आरम्भ हुई. इस परम्परा को इंडो मुस्लिम इतिहास लेखन कहा गया है. मुग़ल काल में यह परम्परा पूर्ण रूप से विकसित हो गयी. चूंकि इस काल में अधिकतर इतिहास फ़ारसी में लिखा गया अत: इसे फ़ारसी इतिहास लेखन भी कहा जाता है. 
  • यह इतिहास लेखन दो मामलों में पुराने भारतीय इतिहास लेखन से भिन्न था; एक तो इसमें अक्सर (सदैव नहीं) घटनाओं का तिथिक्रमानुसार विवरण होता था, दूसरे इतिहासकार अपने लेखन को तथ्यों पर आधारित करने का प्रयास करते थे. फिर भी, यह इतिहास अक्सर प्रशंसात्मकता, व्यक्तिपरक, उपदेशात्मकता आदि जैसे दोषों से मुक्त नहीं था. 
  • फ़ारसी इतिहास लेखन से भारत में इतिहास के प्रति रुचि एवं दृष्टिकोण का विकास तो हुआ परंतु इतिहासकारों ने ऐतिहासिक घटनाओं के कारण जानने और ऐतिहासिक विश्लेषण को कोई तरजीह नहीं दी.

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