इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ |राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ |Major trends in Historiography

इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ 
राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ |राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ |Major trends in Historiography


 

राष्ट्रवादी इतिहास लेखन सामान्य परिचय 

  • राष्ट्रवादी इतिहास लेखन का आरम्भ उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में हुआ. आधुनिक अंग्रेज़ी शिक्षा और यूरोपीय इतिहास लेखन ने भारतीयों में इतिहास के प्रति एक चेतना पैदा कर थी. अत: अतीत के प्रति जागरुक भारतीयों ने मूल तथ्यों एवं प्राथमिक स्रोतों को आधार बनाकर आधुनिक इतिहास-लेखन का आरम्भ किया. 
  • यूरोपीय साम्राज्यवादी इतिहास लेखन में भारत के अतीत का जो चित्रण किया था, वह भारतीयों के अनुसार उचित नही था. यूरोपीय इतिहास लेखन के साम्राज्यवादी तर्कों को काटने के लिये भारतीयों में स्वयं भारतीय इतिहास के पुनर्विश्लेषण का बीड़ा उठाया. अत: राष्ट्रवादी इतिहास लेखन का आरम्भ साम्राज्यवादी इतिहास-लेखन की प्रतिक्रिया के रूप में शुरु हुआ. इसीलिये इसे वैचारिक आधार पर साम्राज्यवाद विरोधी अथवा उपनिवेशवाद विरोधी इतिहास लेखन भी कहा जा सकता है. 
  • स्वाभाविक रूप से, इस इतिहास-लेखन में एक ओर भारतीय अतीत की भूरी-भूरी प्रशंसा की गई थी, तो दूसरी ओर साम्राज्यवाद के आर्थिक पहलुओं का पहली बार विश्लेषण किया गया. इसप्रकार, राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की कई धारायें निकलीं. 

 

राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

 

  • साम्राज्यवादी इतिहास लेखन में यह साबित करने का यत्न किया था कि भारतीय अतीत में अधिकतर या तो राजनीतिक एवं प्रशासनिक अराजकता रही या एक प्राच्य निरंकुशता. कुल मिलाकर साम्राज्यवादी इतिहासकारों में यह दिखाने का प्रयास किया था कि भारतीय स्वशासन के अनुकूल नहीं हैं. 
  • राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने साम्राज्यवादी इतिहास को चुनौती देते हुए भारतीय इतिहास से विपरीत प्रमाण देना आरम्भ किया. के. पी. जायसवाल ने अपने ग्रंथ हिन्दू पॉलिटी (1915) में प्राचीन भारत में गणतन्त्रों की उपस्थिति के प्रमाण दिये. परंतु, प्राचीन भारत में संसदीय प्रजातंत्र के सारे लक्षणों को साबित करने के प्रयास में उन्होंने प्राचीन शब्दों की नवीन एवं एकदम निजी व्याख्या की प्राचीन भारत में सुसंगठित शासन की व्यवस्था को पुष्ट करने में कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र की खोज सबसे महत्वपूर्ण थी. 
  • मैसूर स्थित ओरियण्टल रिसर्च इंसटीट्यूट में कार्यरत आर. शामशास्त्री ने इसे खोज निकाला और 1909 में संस्कृत में प्रकाशित किया. 1915 में उन्होंने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी छाप दिया. राष्ट्रवादी इतिहासकारों में भारतीय अतीत को यूरोप से समृद्ध दिखाने के प्रयास में अतिरेकपूर्ण ढंग से कौटिल्य की तुलना मैकयावली और बिस्मार्क से की. मौर्यकालीन मंत्रि-परिषद को ब्रिटेन की प्रिवी-कॉउंसिल के समतुल्य बताया गया. 
  • साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने तर्क दिये थे कि भारत ब्रिटिश शासन से पूर्व कभी भी एक राष्ट्र नहीं था. साथ ही उन्होंने भारतीय संस्कृति को निकृष्ट बताया था. राष्ट्रवादी लेखक अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के बचाव के लिये दौड़ पड़े. उन्होंने साहित्यिक स्रोतों की पुनर्व्याख्या करके यह दिखाने की चेष्टा की कि प्राचीन भारतीय संस्कृति एक महान संस्कृति थी. इस अन्धी दौड़ में अक्सर तथ्यों की सत्यता को भी नज़रअन्दाज़ कर दिया गया. इसप्रकार सांस्कृतिक राष्ट्रव्वदी इतिहास लेखन की परम्परा आरम्भ हुई. 
  • भारत को एक राष्ट्र के रूप में चित्रित करने के प्रयास में शक, कुषाण तथा हूणों के आक्रमणों को विदेशी आक्रमणों की भाँति पेश किया जाने लगा. के. पी. जायसवाल ने अपने ग्रंथ हिस्ट्री आफ इंडिया में नागों को शक कुषाण शासकों से मुक्तिदाता के रूप में पेश किया, हलांकि इसके लिये पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे. सबसे खतरनाक था तुर्कों एवं मुग़ल शासकों को विदेशी आक्रांता बताना. क्योंकि इसके विरोध में मुस्लिम इतिहासकारों नें तुर्क और मुग़ल शासकों की झूठी प्रशंसा आरम्भ कर दी. इस प्रक्रम में जदुनाथ सरकार द्वारा रचित हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब सबसे प्रतिक्रियावादी साबित हुई. 
  • दी फॉल आफ मुग़ल इम्पायर में सरकार ने मुगलों के पतन को औरंगज़ेब की धार्मिक नीति से जोड़ा. कुछ मुस्लिम इतिहासकारों नें औरंगज़ेब की तथाकथित कट्टर धार्मिक नीति को राजनीतिक आधार पर सही ठहराने की चेष्टा की. इसप्रकार साम्प्रादायिक इतिहास लेखन के बीज पड़ना आरम्भ हो गये.
  • अनेक राष्ट्रवादी इतिहासकारों के लेखनों में मध्यकाल और मुस्लिमों के प्रति वैमनस्य की भावना झलकती थी, जो कहीं से भी ऐतिहासिक नहीं थी. साम्राज्यवाद विरोधी होते हुए भी ये इतिहासकार वस्तुत: साम्राज्यवादी इतिहास लेखन की विभाजनकारी विचारधारा से प्रभावित हो गये थे. उन्होंने साम्राज्यवादी इतिहास लेखन के तर्कों को तो काटा परंतु इसमें छिपी वर्चस्ववादी ऐतिहासिक दृष्टि को नहीं पहचान सके. राष्ट्रवाद का गाँधीवादी युग आते-आते इस प्रवृत्ति के इतिहास लेखन की आलोचना होंने लगी. 
  • महात्मा गाँधी ने स्वयं भी विभाजनकारी साम्राज्यवादी इतिहास लेखन को एक ख़तरे की भाँति देखा और भारत का सही इतिहास लिखने की प्रेरणा दी. गाँधीवादी राष्ट्रवाद से प्रभावित भारतीय इतिहासकारों ने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन की नींव डाली. मुहम्मद हबीब नें अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ महमूद ऑफ ग़ज़नी में महमूद ग़ज़नी को इस्लाम धर्मप्रचारक की भाँति नहीं देखा. वरन, उन्होंने सिद्ध किया कि महमूद के आक्रमण धर्मयुद्ध के आह्वान नहीं, बल्कि गौरव प्राप्ति की आकांक्षा तथा सोने की लालच में लूट के प्रयास थे.
  • मध्यकालीन इतिहास को ग़ैर-साम्प्रादायिक ढंग से पुनर्विश्लेषित करने के प्रयास में ताराचन्द का इतिहास लेखन सर्वोपरि था. अपनी पुस्तक इंफ्लुएंस आफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर में उन्होंने मध्यकालीन इतिहास में हिन्दू-मुस्लिम समन्यवय को मुख्य विषय बनाया. के. एम. अशरफ ने अपने ग्रंथ लाइफ एंड कंडीशन आफ दी पीपुल आफ हिन्दुस्तान 1200-1500 (1935) में तुर्क शासकों की तीखी आलोचना की. उन्होंने तर्क दिया कि इस काल में हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य कोई सांस्कृतिक संघर्ष नहीं था. साथ ही, अशरफ ने दिखाया कि सल्तनतकाल में इसलाम के आने से आम लोगों की दशा में भी कोई सुधार नहीं हुआ था. के. एम. अशरफ संभवत: पहले इतिहासकार थे जिन्होंने निम्न सामाजिक वर्गों को इतिहास का पात्र बनाया ग़ैर-साम्प्रदायिक एवं धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी इतिहास लिखने की दिशा में एक सफ़ल प्रयोग जवाहरलाल नेहरु नें किया. उनकी विश्व प्रसिद्ध रचना दी डिसकवरी ऑफ इंडिया 1946 में प्रकाशित हुई. इस ग्रंथ में दूसरे राष्ट्रवादियों के तरह ही प्राचीन भारत की तमाम उपलब्धियों की चर्चा थी, फिर भी, अतिवादी दृष्टिकोण का अभाव था. 
  • नेहरु नें भारतीय दर्शन और गणित की प्रशंसा की थी परंतु व्यक्तिवादी दर्शन की निन्दा भी की. मध्यकालीन इतिहास की सबसे महान विषेशता के रूप में नेहरु ने मिली-जुली संस्कृति के विकास की सराहना की. भारत के राष्ट्रनायकों के रूप में नेहरु ने अशोक और अकबर की प्रशंसा की. दोनों ने ही अपने-अपने काल मे धार्मिक सहिष्णुता के लिये कार्य किया था. फिर भी यह इतिहास उन त्रुटियों से मुक्त नहीं था, जो समकालीन इतिहास में मौजूद थीं. स्पष्ट है नेहरु ने उपलब्ध ग्रंथों का ही सहारा लिया था. फिर भी, राष्ट्रनायकों का गौरव शिवाजी एवं महाराणा प्रताप के स्थान पर अशोक और अकबर को देना अपने आप में राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की उस त्रुटि को दुरुस्त करना था जिसनें साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया था. डिसकवरी में सबसे महत्वपूर्ण था आधुनिक भारत का इतिहास लिखना आज़ादी से पूर्व बड़े पैमाने पर आधुनिक  भारत का इतिहास राष्ट्रवादी दृष्टि से नहीं लिखा गया था. नेहरु ने राष्ट्रवाद एवं साम्राज्यवाद का आर्थिक विश्लेषण भी इसमें किया था. हलांकि यह पहला विश्लेषण नहीं था और उन्नीसवीं  शताब्दी के अंत में राष्ट्रवादियों द्वारा किया गया सबसे उल्लेखनीय कार्य था.

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