मध्यकाल की लोक-शास्त्रीय विधाऐं | Madhya Kalin Lok Shashtriya Vidhyen
मध्यकाल की लोक-शास्त्रीय विधाऐं | Madhya Kalin Lok Shashtriya Vidhyen
मध्यकाल में अनेक लोक-शास्त्रीय विधाओं का विकास हुआ जो आज भारतीय कलाओं में प्रमुख स्थान रखती हैं, इनका संक्षिप्त विवरण अग्रांकित है-
ठुमरी गायन क्या है
- ठुमरी गायन का प्रचार लखनऊ में वाजिद अली शाह के समय हुआ। वाजिद अली शाह ने स्वयं अख्तर पिया के नाम से अनेक ठुमरियां रची हैं। अन्य रचनायें इस क्षेत्र में कदरपिया, सकनपिया, ललनापिया, चांदपिया, फजल हुसैन आदि के नामों से हुई है। लखनऊ के वाजिद अली शाह के बाद ठुमरी का प्रचार मौजुद्दीन खां, मैमा गनपत राव, बिन्दादीन महाराज आदि द्वारा हुआ। ठुमरी की प्रमुख भूमिकाओं में जयपुर की गोरखी बाई, लखनऊ की पीरबाई, कलकत्ते की मोहरजान आदि खूब प्रसिद्व हुई। मियां मौजुद्दीन खां ठुमरी के शहंशाह कहलाते थे।
ठुमरी गायन शैलियां
उत्तर में मुख्यतः ठुमरी गायन की दो शैलियां प्रचलित हैं।
1 पूरब की ठुमरी
2. पंजाबी ठुमरी
- लखनऊ तथा बनारसी शैलियों के अन्तर्गत छोटी-छोटी मुरकियां, धीमी लय, बोल-ता तथा बोल अलापी की विशेषतायें हैं। लखनऊ की ठुमरियों में अधिकतर शायरी और गजलों आनन्द अधिक आता है। आधुनिक समय में पूर्वी अंग की ठुमरियों के लिए काशी की रसूलन बाई तथा लखनऊ (फैजाबाद) की बेगम अख्तर, अख्तरी बाई अधिक प्रसिद्ध हैं।
- पंजाबी ठुमरियों पर ठप्पा अंग का विशेष प्रभाव पडा है। साथ ही पंजाबी लोक गीतों का प्रभाव भी इन ठुमरियों में दिखलाई पड़ता है। स्वर का लगाव, सुन्दर मुरकियों का प्रयोग तथा टप्पा गायन की पेंचदार तानों का कलात्मक प्रयोग, इन गायन की विशेषतायें हैं। इन भाग के प्रमुख गायक बडे गुलाम अली खां, आशिक अली खां इत्यादि।
- इन दो घरानों के अतिरिक्त ठुमरी के अन्य प्रसिद्ध गायक हुए हैं, जो ख्याल गायन के विभिन्न घरानों से सम्बन्ध रखते हैं। सबसे प्रमुख घराना किराना घराने के स्व0 अब्दुल करीम खां थे जिनकी ठुमरियों ने लोगों का मन मोह लिया था। खां साहब के ठुमरी गाने का ढंग मधुर था। इनकी शैली को अपनाने वाले कलाकार हीराबाई बडोदकर, सरस्वती राने, बहरे बुआ इत्यादि प्रमुख हैं।
- आगरा घराने के ख्याल-गायक सुप्रसिद्व फैय्याज खां साहब भी ठुमरियां गाते थे, परन्तु ख्याल-गायक होने के कारण उनका इस क्षेत्र में कोई विशेष स्थान नहीं था।
कत्थक नृत्य की उत्पत्ति
- कत्थक शब्द कथा से निकला है। कत्थक नृत्य की उत्पत्ति उत्तर भारत के मन्दिरों के पुजारियों द्वारा महाकाव्यों की कथा बांचते समय स्वांग और हाव-भाव प्रदर्शन के फलस्वरूप विकसित होता गया।
- 15वीं और 16वीं शताब्दी में राधा-कृष्ण उपाख्यानों या रासलीला की लोकप्रियता से कथक का और विकास हुआ। मुगल शासकों के काल में यह मन्दिरों से निकलकर राज-दरबारों में पहुंचा।
- जयपुर, बनारस, राजगढ़ तथा लखनऊ इसके मुख्य केन्द्र थे। लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह के काल में कत्थक अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया। बीसवीं सदी में लीला सोखे (मेनका) के प्रयासों से यह और अधिक लोकप्रिय हुआ।
- यह अत्यन्त नियमबद्व एवं शुद्ध शास्त्रीय नृत्य शैली है। जिसमें पूरा ध्यान लय पर दिया जाता है। नृत्य के आधार पर लयों की अवस्थाओं को तत्कार, पलटा, तोड़ा, परन तथा आमद के नाम से जाना जाता है। इस नृत्य शैली में पैरों की थिरकन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस नृत्य नहीं मुड़ते।
- इसके कलाकरों में प्रमुख हैं- बिन्दादीन महाराज, बिरजू महाराज, सुखेदव महाराज, नारायण प्रसाद, देवी, गोपीकृष्ण, शोभना नारायण, मालविका सरकार, भारती गुप्ता, दयमंती जोशी, चन्द्र लेखा आदि।
गजल किसे कहते हैं
- प्रायः प्रेम को मुख्य विषय-वस्तु मानकर उर्दू रचनाओं को गाने की यह एक मधुर शैली है। इन रचनाओं में 5-13 शेर होते हैं। जो एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं।
- कुछ विद्वान गजलों का जनक मिर्जा गालिब को मानते हैं।
- गजल रचनाकारों में गालिब के अलावा जफर, शाहिर लुधियानवी, कैफी आजमी आदि प्रसिद्ध हैं। जबकि इसके गायकों में मेंहदी हसन, गुलाम अली, जगजीत सिंह, बेगम अख्तर आदि उल्लेखनीय हैं। ये एक लोकप्रिय विधा है।
ख्याल शैली क्या है
- ख्याल एक स्वर-प्रधान गायक शैली है जो वर्तमान समय में हिन्दुस्तानी संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय गायन शैली है।
- 15वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जौनपुर के सुल्तान शाह शर्की को ख्याल का अविष्कारक माना जाता है, परन्तु कुछ विद्वान इसका श्रेय अमीर खुसरों को देते हैं।
- मध्यकाल में ख्याल लोक संगीत के अन्तर्गत गाया जाता था।
- इसे शास्त्रीय स्वरूप प्रदान करने का श्रेय 18वीं सदी में सदानंद नियामत खाँ को दिया जाता है।
- ब्रजभाषा, राजस्थानी, पंजाबी, हिन्दी भाषाओं में गाये जाने वाले ख्याल की विषय-वस्तु, राजस्तुति, नायिका वर्णन, श्रृंगार रस सम्बन्धी परिस्थितियों तथा विवाह प्रसंग आदि होते हैं।
- ख्याल गाने से पूर्व अलाप नहीं लिया जाता । प्रारम्भ में इसमें तान का प्रयोग नहीं होता था, परन्तु अब इसका प्रयोग होने लगा । अब तो सरगम का भी प्रयोग होने लगा है।
- ख्याल के दो खण्ड होते हैं, स्थायी और अन्तरा। स्थायी में शब्द अपेक्षाकृत बहुत कम रखे जाते हैं, इसमें खटके, मुरली आदि लघु अलंकरणों का प्रयोग सामान्य रूप से किया जाता है।
- ख्याल गायकों में सदारंग, अदारंग, मनरंग, मुहम्मद शाह रंगीले, कुमार गंधर्व आदि प्रमुख हैं।
- ख्याल गायन की शैलियां / ख्याल गायन के घराना
- ख्याल गायन की चार प्रमुख शैलियां हैं, जिन्हें घराना कहा जाता है।
ग्वालियर घराना
- 1 ग्वालियर घराना, जो ख्याल गायकी का जन्मदाता है। इस शैली या घराने में ध्रुपद की बोल बांट की सभी विशेषतायें प्रचलित हैं.
किराना घराना
- 2 किराना घराना जो अलाप प्रधान बोल तान कम और ताल की अपेक्षा गीत के प्रति विशेष लगाव न होना तथा सिर्फ मुखड़ा पकड़कर ही गा लेना आदि विशेषताएं दर्शाता है।
पटियाला घराना
- 3 पटियाला घराना, जिसमें ठुमरी अंग की प्रधानता, स्वर की सत्यता, तानों की सफाई और तैय्यारी आदि विशेषताएं दृष्टिगत होती हैं।
आगरा घराना
- 4 आगरा घराना, जिसमें रंगीलापन, धुपद की प्रधानता आदि गुण दिखाई पड़ते हैं। के समान ही बंदिश के नोम तोम अलाप तथा लयकारी।
कव्वाली किसे कहते हैं
- यह भी उर्दू शायरी की संगीतमय अभिव्यक्ति की एक लोकप्रिय शैली है।
- प्रायः सूफी संतों द्वारा सामूहिक रूप या एकल रूप से ईश्वर की आराधना हेतु यह गायी जाती थी। आज इनकी विषय में अन्य सांसारिक तत्व भी शामिल गय हैं।
- भारत में तुर्कों के आगमन के पश्चात कब्बाली का प्रारंभ मिलता है। हजरत शेख निजाम उद्दीन औलिया कब्बाली में अत्यन्त रूचि लेते थे। इनके खिदमती अमीर खुसरो अपने शेख को प्रसन्न करने के लिए कब्बाली की महफिल सजाते थे और अपने शेख को ईश्वर की तपस्या में विलीन करते थे।
तराना किसे कहते हैं
- यह एक कर्कश प्राकृतिक राग है। इसमें अर्थहीन शब्दों की रचना होती है।
- कुछ विद्वानों का विचार है कि यह राग अरबी एवं फारसी का ही एक खण्ड है, जबकि कुछ संगीत संगीतज्ञों का मत है कि यह तबला और सितार के आघात से उत्पन्न हुआ है। जो भी हो इसमें श्रोता में उल्लास की उत्तेजना उत्पन्न होती है। इस शैली का श्रीगणेश अमीर खुसरो ने किया।
- अलामा इकबाल का तराना बहुत प्रसिद्ध है- सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
सिलसिला क्या होता है
- भारतीय परिप्रेक्ष्य में सूफीमत का विकास मुस्लिम शासन की स्थापना के साथ होता हैं। थोडे ही समय में सिलसिला तथा खानखाह का विस्तार मुल्तान से लखनौती तथा पंजाब से देवगिरी तक हो गया।
- आइने-अकबरी में अबुल फजल ने चौदह प्रकार के सूफी-सिलसिलों का उल्लेख किया है। इनमें चिश्ती, सुहरावर्दी और कादरी सिलसिला प्रमुख हैं।
अन्य सिलसिले
1. 15वीं शताब्दी में भारत में शेख अब्दुल्ला शत्तारी ने शत्तारी सिलसिला की स्थापना की
2. कलन्दरी सम्प्रदाय में घुमन्तु फकीर शामिल थे। ये निन्दनीय थे, क्योंकि सामाजिक व्यवहारों का पालन नहीं किया करते थे।
3. 15वीं 16वीं शताब्दी में कश्मीर में सूफीमत का ऋषि सम्प्रदाय स्थापित हुआ।
4. शेख नुरूद्दीन बली (मृ0 1430) द्वारा स्थापित ऋषि सम्प्रदाय मूलतः स्वदेशी था।
5. ऋषि सम्प्रदाय कश्मीर के ग्रामीण परिवेश में फला-फूला।
6. ऋषि सम्प्रदाय की लोकप्रियता का कारण उसका ग्रामीण परिवेश था।
मध्यकाल की अन्य शब्दावली
दोआब का अर्थ क्या है
- गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र को दोआब कहते हैं। भारत के इतिहास में प्राचीन काल आधुनिक काल तक प्रत्येक शासक की निगाहें इस क्षेत्र पर गई। क्योंकि यह उपजाऊ क्षेत्र था। यहां कृषि का उत्पादन अधिकतम रहा है और प्रत्येक शासक ने अपने राज्य की आर्थिक व्यवस्था ठोस करने के लिए अनेक प्रकार के नियम कृषकों के लिए बनाये ताकि कृषि का उत्पादन अधिक हो एवं अधिक लोगों को लाभ हो।
बुतपरस्त का अर्थ
- मनुष्य के द्वारा भगवान की कल्पनाओं को पत्थर के सांचे मे ढालकर मूर्ति का निर्माण करना और उसे साकार मानकर उसकी पूजा अर्चना करना बुतपरस्ती कहलाता है।
- तुर्की के भारत आगमन पश्चात् जब उन्होंने भारत में इस तरह की बुत को पूजने के भिन्न भिन्न तरीके देखे तो उसे उन्होने बुतपरस्ती की संज्ञा देना आरम्भ कर दिया।
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