वैदिक युग का राजनीतिक जीवन | समिति और सभा

 

वैदिक युग का राजनीतिक जीवन

वैदिक युग का राजनीतिक जीवन


वैदिक संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ और उपनिषदों के अध्ययन से वैदिक युग के आर्यों की सभ्यता, राजनीतिक संगठन, धर्म, आर्थिक दशा और संस्कृति आदि के सम्बन्ध में बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। उनका संक्षिप्त रूप से उल्लेख करना उपयोगी होगा।

वैदिक युग का राजनीतिक संगठन-

जब आर्यों ने पहले-पहल भारत में प्रवेश किया, तो वे सभ्यता के क्षेत्र में अच्छी उन्नति कर चुके थे। वे शिकारी की दशा से आगे बढ़कर पशुपालक और कृषक की दशा को पहुँच चुके थे।

राजनीतिक दृष्टि से वे 'जनों' में संगठित थे। जन को हम कबीला या ट्राइब समझ सकते हैं। जन का संगठन एक बड़े परिवार के समान था, जिसमें यह विचार विद्यमान था कि उसके सब व्यक्ति एक आदि पुरुष की सन्तान हैं और एक ही परिवार के अंग हैं।


जिस प्रकार एक परिवार में सबसे वृद्ध व्यक्ति शासन करता है, उसी प्रकार जन रूपी बड़े परिवार में भी एक पिता या मुखिया का शासन होता था। इस मुखिया को राजा कहते थे और इसकी नियुक्ति परम्परागत प्रथा के अनुसार या निर्वाचन द्वारा होती थी।


प्रत्येक जन की सम्पूर्ण विशः (जनता) इस राजा का वरण करती थी। यह समझा जाता था कि जनता राजा के साथ एक संविदा (इकरार) करती है, जिसके अनुसार राजा यह जिम्मा लेता है कि वह अपनी प्रजा की सब बाह्य और आभ्यन्तर शत्रुओं से रक्षा करेगा और उसका न्यायपूर्वक पालन करेगा। इसी कार्य के लिए राजा को प्रजा 'बलि' (कर) प्रदान करती थी।


राज्याभिषेक के अवसर पर राजा धर्मपूर्वक प्रजापालन की प्रतिज्ञा करता था। यदि वह इस प्रतिज्ञा को तोड़े, तो प्रजा को अधिकार था कि वह उसे पदच्युत कर सके।

राजा किसी दैवी अधिकार से शासन करता है, यह विचार वैदिक संहिताओं में कहीं नहीं पाया जाता। इसके विपरीत, वहाँ यह विचार स्पष्ट रूप से विद्यमान है कि 'विशः' राजा को शासन कार्य के लिए वरण करती है। वरण द्वारा जब कोई व्यक्ति राजा के पद पर नियत होता था, तो उससे यह आशा की जाती थी कि वह जीवन-पर्यन्त अपने पद पर ध्रुव (स्थिर) रहेगा।

अथर्ववेद में लिखा है कि यह द्यौः और पृथ्वी सब ध्रुव हैं। यह सारा विश्व ध्रुव है, ये पर्वत ध्रुव हैं। इसी प्रकार विशः का यह राजा भी ध्रुव रहे। सब 'विशः' इसको चाहें, और यह राष्ट्र में अपने पद से कभी च्युत न हो।

राजा को वरण करने का कार्य 'विशः' के जिन प्रमुख व्यक्तियों के सुपुर्द था, उन्हें 'राजकृतः' (राजा को नियत करने वाले) कहते थे। 'राजकृतः' स्वयं भी राजा कहलाते थे, राजा के पद पर वरण किया गया व्यक्ति इन 'राजाश्रयः राजकृतः' का मुखियामात्र माना जाता था। ये 'राजकृतः' कौन होते थे, वेदों से यह स्पष्ट नहीं होता।

ब्राह्मण-ग्रन्थों में 'रत्नियों' का उल्लेख आया है, जो राज्याभिषेक के समय पर राजा से हवि ग्रहण करते थे। सम्भवतः, ब्राह्मण-ग्रन्थों में जिन्हें 'रत्नी' कहा गया है, वैदिक काल में वे ही 'राजकृतः राजानः' कहे जाते थे, क्योंकि वैदिक युग के ये राजकृतः राज्याभिषेक के अवसर पर राजा को एक 'पर्णमणि' प्रदान करते थे, जो राजत्व का चिह्न समझी जाती थी। सम्भवतः, यह पर्णमणि (पर्णों द्वारा निर्मित रत्न) पलाश वृक्ष की शाखा होती थी। पलाश को पवित्र मानने की कल्पना वैदिक काल में भी विद्यमान थी।

'राजकृतः राजनः' के अतिरिक्त सूत, ग्रामणी, रथकार, कार आदि जनता के विविध व्यक्ति भी राज्याभिषेक में हाथ बँटाते थे और 'विश:' की ओर से राजा का वरण किया करते थे।

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समिति और सभा-वैदिक युग

जनता द्वारा वरण किये जा चुकने पर राजा अकेला शासन-कार्य का संचालन करता हो, यह बात नहीं थी। वैदिक युग में समिति और सभा नामक दो संस्थाएँ भी थीं, जो न केवल राजकार्य में राजा की सहायता करती थीं, अपितु उस पर नियन्त्रण भी रखती थीं। 

अथर्ववेद के जिस सूक्त में राजा के ध्रुव रहने की प्रार्थना की गयी है, उसी में यह भी कहा गया है कि राजा की समिति भी ध्रुव रहे। समिति के सदस्य कौन होते थे, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। सम्भवतः, वह सम्पूर्ण विशः की संस्था थी और उसमें 'जन' के सब लोक एकत्र होते थे। यह भी सम्भव है कि वैदिक युग के जनपदों में जनसंख्या के बढ़ने के साथ-साथ सब लोग इस समिति में एकत्र न होते हों, कतिपय प्रमुख व्यक्ति ही इसमें सम्मिलित होने का अधिकार रखते हों। 

प्राचीन ग्रीक नगर-राज्यों की लोकसभाओं (यथा एथेन्स की एक्लीजिया) में सब नागरिक सदस्य रूप से सम्मिलित होते थे। जब नगर-राज्यों की जनसंख्या लाखों में हो गयी थी, तब भी प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार था कि वह अपने राज्य की लोकसभा में उपस्थित होकर विचार में हाथ बँटा सके और अपनी सम्मति दे सके। 

सम्भवतः, वैदिक युग के आर्य जनपदों (जिनका स्वरूप नगर-राज्य के समान ही था) की समिति का भी यही रूप था। उसमें जनपद की सम्पूर्ण 'विशः' एकत्र हो सकती थी। वहाँ एकत्र हुए व्यक्ति सब विचारणीय विषयों पर वाद-विवाद करते थे। विवाद व भाषण में प्रवीणता प्राप्त करना एक अत्यन्त महत्त्व की बात समझी जाती थी।

अथर्ववेद के एक सूक्त में एक व्यक्ति यह प्रार्थना करता है कि वह बहुत कुशल वक्ता बने, अपनी युक्तियों, ज्ञान और भाषण कला द्वारा सबको वशीभूत कर ले। वाद-विवाद में अपने प्रतिपक्षियों को परास्त करने और भाषण द्वारा सबको अपने पक्ष में कर सकने की शक्ति प्राप्त करने के लिए अनेक प्रार्थनाएँ वेदों में विद्यमान हैं।

निःसन्देह, समिति में विविध विषयों पर खुला विवाद होता था और विविध व्यक्ति वहाँ अपनी वक्तृत्वशक्ति का चमत्कार प्रदर्शित किया करते थे। समिति में केवल राजनीतिक विषयों पर ही विवाद नहीं होता था, अपितु साथ ही आध्यात्मिक व गूढ़ विषयों पर भी उनमें विचार हुआ करता था।

छान्दोग्य और वृहदारण्यक उपनिषद में 'समिति' में ब्रह्म-विद्या-विषयक विचारों का उल्लेख आया है। श्वेतकेतु पांचाल जनपद की इसी प्रकार की समिति में उपस्थित हुआ था और वहाँ उसने अध्यात्म-विषयक विचार में हाथ बँटाया था। 

समिति का अपना अध्यक्ष होता था, जिसे 'ईशान्' कहते थे। ईशान् के सभापतित्व में ही समिति का कार्य चलता था। पर राजा भी विविध अवसरों पर समिति में उपस्थित होता था। जब श्वेतकेतु पांचाल-जनपद की समिति में गया, तो वहाँ का राजा प्रवाहण जाबालि उसमें उपस्थित था। 

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सभा का एक मुख्य कार्य न्याय करना था। न्याय के लिए अभियुक्त रूप में जिस व्यक्ति को सभा के सम्मुख पेश किया जाता था, उसे 'सभाचर' कहते थे। यजुर्वेद में सभाचर का उल्लेख पुरुषमेध के प्रकरण में किया गया है। आलंकारिक रूप से विचार करने पर अभियुक्त व्यक्ति को 'मेध्य' (बलि योग्य) समझ सकना कठिन नहीं है।

यजुर्वेद के ही एक अन्य मन्त्र में सभा में किये गये पाप के प्रायश्चित का उल्लेख किया गया है। न्याय कार्य को करते हुए सभासद् लोगों से अनजाने में या जान-बूझकर जो भूल हो जाती थी, उसे यजुर्वेद में पाप कहा गया है और उससे छूटने के लिए प्रार्थना की गयी है।

सूत्रग्रन्थों और धर्मशास्त्रों के समय में भी सभा' न्याय का कार्य करती थी। या तो सभा में जायें नहीं, जायें तो वहाँ सोच-समझकर अपनी बात कहनी चाहिए, सभा में जाकर जो अपनी सम्मति नहीं कहता या गलत बात कहता है, वह पापी होता है," यह धर्मशास्त्रों का वचन जिस सभा के विषय में है, वह सम्भवतः न्याय का भी कार्य करती थी।

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