वैदिक कालीन सभ्यता एवं संस्कृति | Civilization and Culture of The Vedic Age in Hindi

 

वैदिक कालीन सभ्यता एवं संस्कृति

 वैदिक साहित्य

Civilization and  Culture of  The Vedic Age in Hindi


वैदिक युग

भारतीय आर्यों के इतिहास के प्राचीनतम युग को वैदिक युग कहते हैं। इसका कारण यह है कि वेद आर्यों के प्राचीनतम ग्रंथ हैं और उनके अनुशीलन से हम इन आर्यों की सभ्यता, संस्कृति व धर्म के संबंध में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि वैदिक सूक्तों मे आर्य ऋषियों के विचार और कथन अविकल रूप से उनकी अपनी भाषा में विद्यमान हैं।

जिस प्रकार पौराणिक अनुश्रुति प्राचीन आर्यों के राजनीतिक वृतांत को सूचित करती है, वैसे वैदिक संहिताएं उनके धर्म व सभ्यता का परिचय देती हैं।

वैवस्त मनु से महाभारत तक के काल को हम वैदिक युग कह सकते हैं । क्योंकि इस सुदीर्घ (1500 के लगभग) काल में वैदिक सूक्तों का निरंतर निर्माण होता रहा, वेदों के अनुशीलीन से जिस सभ्यता और संस्कृति का परिचय मिलता है वह इसी युग की है।

यह भी पढ़ें......  

वैदिक कालीन सभ्यता एवं संस्कृति

वैदिक संहिता

आर्य जाति का सबसे प्राचीन साहित्य वेद है। वेद का अर्थ है-ज्ञान। वेद मुख्यतया पद्य में हैं, यद्यपि उमें गद्य भाग भी विद्यमान है। वैदिक पद्य को ऋग् या ऋचा कहते हैं, वैदिक गद्य को यजुष कहा जाता है, वेदों में जो गीतात्मक (छंद रूप) पद्य हैं, उन्हें साम कहते हैं।  ऋचाओं और सामों का एक समूह का नाम सूक्त होता है। जिसका अर्थ है- उत्कृष्ट उक्ति या सुभाषित।

वेद में इस प्रकार के हजार सूक्त विद्यमान हैं। प्राचीन समय में वेदों को त्रयीभी कहते थे। ऋचा, यजुष ओर साम- इन तीन प्रकार के पदों में होने के कारण ही वेद की त्रयीसंज्ञा भी थी।

पर वैदिक मंत्रों का संकलन जिस रूप में आजकल उपलब्ध होता है उसे, संहिता कहते हैं। विविध , ऋषि-वंशों में जो मंत्र श्रुति द्वारा चले आते थे, बाद में उनका संकलन व संग्रह किया गया ।

पहले वेद मंत्रों को लेखबद्ध करने की परिपाटी शायद नहीं थी। गुरू-शिष्य परम्परा व पिता-पुत्र परंपरा द्वारा ये मंत्र ऋषि-वंशों में स्थित रहते थे और उन्हें श्रुति (श्रवण) द्वारा शिष्य गुरू से या पुत्र पिता से जानता था। इसी कारण उन्हें श्रुति भी कहा जाता था।

विविध ऋषि वंशों में जो विविध सूक्त श्रुति चले आते थे, धीरे-धीरे बाद में उनकों संकलित किया जाने लगा। इस कार्य का प्रधान श्रेय मुनि वेदव्यास को है। वे महाभारत युद्ध के समकालीन थे और असाधारण रूप से प्रतिभाशाली विद्वान थे।

वेदव्यास ने वैदिक सूक्तों का संहिता के रूप में संग्रह किया, उनके द्वारा  संकलित वैदिक संहिताएं चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।

चार वेद

ऋग्वेद

  • ऋग्वेद में कुल मिलाकर 1017 सूक्त हैं। यदि 11 बालखिल्य सूक्तों को भी इनमें शामिल कर लिया जाये तो ऋग्वेद के कुल सूक्तों की संख्या 1028 हो जाती है।
  • 1017 या 1028 सूक्त 10 मंडलों में विभक्त है।
  • वेद में प्रत्येक सूक्त व ऋचा (मंत्र) के साथ ऋषि और देवता का नाम दिया गया है।
  • ऋषि का अर्थ है मंत्रद्रष्टा या मंत्र का दर्शन करने वाला। जो लोग वेदों को ईशवरीय ज्ञान मानते हैं, उनके अनुसार वेदों का निर्माण तो ईश्वर द्वारा हुआ था, पर इस वैदिक ज्ञान को अभिव्यक्त करने वाले ऋषि थे।
  • वैदिक देवता से अभ्रिपाय उस देवता से है, जिसकी उस मंत्र में स्तुति की गयी है या जिसके संबंध में मंत्र का प्रतिपादन किया गया है।
  • ऋग्वेद के ऋषियों में सर्वप्रथम गृत्समद, विश्वमित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, और वशिष्ठ है। इन छः ऋषियों और इनके वंशजों ने ऋग्वेद के दूसरे, तीसरे, चौथे, पॉचवे, छठे, और सातवें मंडलों का दर्शन या निर्माण किया था।
  • आठवे मंडल में ऋषि कण्व और आंगिरस वंश के हैं।
  • प्रथम मंडल के पचास सूक्त भी कण्व वंश के ऋषियों द्वारा निर्मित हुए। अन्य मंडलों और प्रथम के अन्य सूक्तों का निर्माण विविध ऋषियों के द्वारा हुआ, जिन सबके नाम सूक्त में मिलते हैं। इन ऋषियों में वैवस्वत मुन, शिवि, ओर औशीनर,  प्रतर्दन, मधुछन्दा और देवापि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ऋग्वेद के इन ऋषियों में कतिपय स्त्रियां भी हैं जिनमें लोपमुद्रा प्रमुख हैं। लोपमुद्रा राजकुल में उत्पन्न हुई थी। वह विदर्भ-राज कन्या थी और अगस्त ऋषि की पत्नी थीं।
यह भी पढ़ें 

यजुर्वेद

  • यजुर्वेद के दो प्रधान रूप इस समय मिलते हैं, शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद।
  • शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कहते हैं, जिसकी दो शाखाएं उपलब्ध हैं- काण्व और माध्यनिन्दनीय।
  • कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएं प्राप्त होती हैं, काठक संहिता, कपिष्ठल संहिता, मैत्रेयी संहिता और तैत्तिरीय संहिता।
  • विविध ऋषि-वंशों व सम्प्रदायों में श्रुति द्वारा चले आने के कारण वेदमंत्रों के मूल पाठ में भेद का हो जाना असंभव नहीं था। संभवतः इसी कारण यजुर्वेद की ये विविध शाखाएं बनीं।
  • इन शाखाओं में अनेक स्थानों पर मंत्रों में पाठभेद पाया जाता है। इनमें यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता सबसे महत्वपूर्ण है। बहुत से विद्वान उसे ही असली यजुर्वेद मानते हैं। यह चालीस अध्यायों में विभक्त है। इसमें उन मंत्रों का पृथक-पृथक रूप से संग्रह किया गया है, जो विविध याज्ञिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त किये जाते थे।
  • यजुर्वेद का अंतिम अध्याय ईशोपनिषद् है, जिसका संबंध याज्ञिक अनुष्ठानों के साथ न होकर अध्यात्म चिंतन के साथ हैं।

सामवेद

  • सामवेद की तीन शाखाएं इस समय मिलती हैं, कौथुम शाखा, राणानीय शाखा और जैमिनीय शाखा। इनका आधार भी पाठभेद हैं।
  • सामवेद के दो भाग हैं पूर्वाचर्चिक और उत्तराचर्चिक। दोनों की मंत्र-संख्या 1810 है।

अथर्ववेद

  • अथर्ववेद की दो शाखाएं इस समय मिलती हैं, शौनक, पिप्पलाद।
  • इनमें शौनक शाखा अधिक प्रसिद्ध है और उसे प्रामाणिक रूप से स्वीकार किया जाता है। 
  • अथर्ववेद में कुल मिलाकार 20 काण्ड और 732 सूक्त हैं। सूक्तों के अंतर्गत मंत्रों की संख्या 6000 के लगभग हे।

 

ब्राहम्ण ग्रंथ

वैदिक साहित्य में चार वैदिक संहिताओं के अतिरिक्त ब्राहम्ण ग्रंथों को भी सम्मिलत किया जाता है। इन ब्राहम्ण ग्रंथों में उन अनुष्ठानों का विशद रूप से से वर्णन है, जिनमें वैदिक मंत्रों को प्रयुक्त किया जाता है। अनुष्ठानों के अतिरिक्त इनमें वेदमंत्रों के अभिप्राय व विनियोग की विधि का भी वर्णन है।

प्रत्येक ब्राहम्ण ग्रंथ का किसी वेद के साथ संबंध है, और उसे उसी वेद का ब्राहम्ण माना जाता है। यहां यह आवश्क है कि हम प्रत्येक वेद के साथ संबंध रखने वाले ब्राहम्ण ग्रंथों का संक्षेप उल्लेख करें, क्योंकि ब्राहम्ण के परिचय के बिना वैदिक साहितय का वर्णन पूरा नहीं हो सकता।

ऐतरेय-ब्राम्हण ग्रंथ- ऋग्वेद का प्रधान ब्राम्हण ग्रंथ ऐतरेय है। अनुश्रुति के अनुसार ऐतरेय ब्राह्मण के रचियता महीदास ऐतरेय थे।

ऋग्वेद का दूसरा ब्राह्मण कौशीतकी या सांख्यान ब्राह्मण है।

कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय है।

कृष्ण और शुक्त यजुर्वेद में मुख्य अंतर यह है कि जहां शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्र भाग हैं, वहां कृष्ण यजुर्वेद में ब्राह्मण भाग भी अंतर्गत है। उसमें मंत्रों के साथ-साथ विधि-विधान व याज्ञिक अनुष्ठान के साथ संबंध रखने वाले ब्राह्मण भाग को भी दिया गया है। अतः तैतरीय ब्राह्मण रचना की दृष्टि से कृष्ण यजुर्वेद से बहुत भिन्न नहीं है।

शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ है जो अत्यंत विशाल ग्रंथ है। इसमें कुल मिलाकर सौ अध्याय हैं, जिन्हें 14 काण्डों में विभक्त किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में न केवल याज्ञिक अनुष्ठानों का विशद रूप से वर्णन किया गया है, पर साथ ही इस बात पर भी विचार किया गया है कि इन विविध अनुष्ठानों का क्या प्रयोजन है और इन्हें क्यों यज्ञ का अंग बनाया गया है। शतपथ ब्राह्मण का रचयिता याज्ञवल्क्य ऋषि को माना जाता है।

सामवेद के तीन ब्राह्मण है ताण्ड्य महा ब्राह्मण, षड्विंश ब्राह्मण और जैमिनीय ब्राह्मण। अनेक विद्वानों के अनुसार ये तीनों ब्राह्मण अन्य ब्राह्मण ग्रंथों की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं।

अथर्ववेद का ब्राह्मण गोपद है, अनेक विद्वानों की सम्मिति में यह बहुत प्राचीन नहीं है, इसमें उस ढंग से याज्ञिक अनुष्ठानों का वर्णन नहीं है, जैसे कि अन्य ब्राह्मण ग्रंथों में पाया जाता है।

आरण्यक तथा उपनिषद्

भारत के प्राचीन आर्यों के धर्म में यज्ञों की प्रधानता थी। यज्ञ के विधि-विधानों में अनुष्ठानों को वे बहुत महत्व देते थे। इसलिए याज्ञिक अनुष्ठानों के प्रतिपादन व उनमें वैदिक मंत्रों के विनियोग को प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने ब्राह्मण ग्रंथों की रचना की थी। पर साथ ही , वैदिक ऋषि आध्यात्मिक, दार्शनिक व परलौकिक विषयों पर भी चिंतन किया करते थे। आत्मा क्या है, सृष्टि की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, सृष्टि किन तत्वों से मिलकर बनी है, इस सृष्टि का कर्ता व नियामक कौन है, जड़ प्रकृति से भिन्न जो चेतन सत्ता है उसका क्या स्वरूप है- इस प्रकार के प्रश्नों का भी वे विचार किया करते थे।

इन गुढ़ विषयों का चिंतन करने वाले ऋषि व विचारक प्रायः जंगलों व अरण्यों में निवास करते थे, जहां वे आश्रम बनाकर रहते थे। वहीं उस साहित्य की सृष्टि हुई, जिसे आरण्यक तथा उपनिषद् कहते हैं। अनेक आरण्यक ब्राह्मण ग्रंथों के ही भाग हैं। ऋषियों ने अरण्य में स्थापित आश्रमों में जिन उपनिषदों का विकास किया, उनकी संख्या दो सौ से भी ऊपर है।


प्रमुख उपनिषद


ऐतरेय उपनिषद्

यह ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण का एक भाग है। ऋग्वेद के दूसरे ब्राह्मण ग्र्रंथ कौशीतकी ब्राह्मण के अंत में भी आरण्यक भाग है, जिसे कौशीतक आरण्यक या कौशीतकी उपनिषद् कहते हैं।

ईशोपनिषद्

यजुर्वेद का अंतिम अध्याय ईशोपनिषद के रूप में जाना जाता है। शुक्ल यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण का अंतिम भी आरण्यक का रूप है, जिसे वृहदाण्यकोपनिषद् कहते हैं। कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथों के अंतर्गत कठ उपनिषद, श्वेताश्वतोपनिषद्, तैत्तरीय उपनिषद और मैत्रायणीय उपनिषद् हैं।

छांदोग्य उपनिषद

सामवेद के ब्राह्मण ग्रंथों के साथ संबंध रखने वाले उपनिषद केन और छांदोग्य हैं।

मुण्डक उपनिषद्

अथर्ववेद के साथ मुण्डक उपनिषद और माण्डूक्य उपनिषद का संबंध है।


Read Also.....

आर्यों की उत्पत्ति एवं मूल निवास स्थान

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.