भारत के इतिहास में धार्मिक आंदोलन

 भारत के इतिहास में धार्मिक आंदोलन 

भारत के इतिहास में धार्मिक आंदोलन


धार्मिक बौद्धिक आन्दोलन का उदय 

  • ईसापूर्व छठी शताब्दी में उत्तरपूर्वी भारत के मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में अनेक (62) धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ। अनेक मत तथा दर्शनों के प्रादुर्भाव ने बौद्धिक आन्दोलन का रूप ग्रहण किया।
  • विभिन्‍न मत्तों को मानने वाले संन्यासी (परिब्राजक) घूम-घूम कर अपने जीवनदर्शन का जनसमुदाय में प्रचार तथा एक-दूसरे के दर्शन का खण्डन करते थे। इस बौद्धिक गतिविधि का केन्द्र मगध था।
  • यह आकस्मिक नहीं है कि यहाँ इस काल में एक ओर विशाल साम्राज्य की नींव पड़ रही थी और दूसरी ओर धार्मिक बौद्धिक आन्दोलन पुरातन जीवन दर्शन के विरोध में चल रहे थे। यह भी कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं है कि इस प्रकार से बौद्धिक आन्दोलन के प्रमाण अन्य देशों में भी मिलते हैं।
  • चीन, ईरान तथा यूनान में पुरातन मान्यताओं को चुनौती देने वाले क्रमश: कन्फ्यूशियस, जरथुष्ट्र तथा पाइथागोरस थे।

धार्मिक आन्दोलन का स्वरूप 

भारत में इस आन्दोलन के अनेक प्रत्यक्ष तथा परोक्ष कारण थे जो तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक पररिवर्तनों में निहित थे।

इन परिवर्तनों से प्राचीन वैदिक परम्परा की धार्मिक तथा सामाजिक मान्यताएँ तथा जीवन प्रणाली के अनेक  तत्व केवल रूढ़ि बनकर रह गये, जो सामाजिक विकास में बाधक सिद्ध होने लगे।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी में प्रचलित विभिन्‍न सम्प्रदायों में से आगे चलकर केवल जैन तथा बौद्ध धर्म ही अधिक प्रसिद्ध हुए।

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जैन बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म 


इन धार्मिक सम्प्रदायों ने पुरातन वैदिक ब्राह्मण धर्म के अनेक दोषों पर प्रहार किया। इसलिए इन धर्मों को सुधारवादी आन्दोलन भी कहा जाता है । 

इन सम्प्रदायों के उदय के क्या कारण थे और इनके द्वारा संचालित आन्दोलन का स्वरूप कया था, इसकी समुचित जानकारी के लिए यह आवश्यक है कि पहले हम सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन तथा उसके भौतिक प्रस्प्रेश्य को भली भांति समझ लें। 

  • उत्तरवैदिक काल में यज्ञ प्रधान बैदिक धर्म अपने-अपने मूल में कुरू पंचाल प्रदेश से उत्तर पूर्व की ओर फैलने लगा। 
  • यह मात्र धर्म का प्रसार न था वरन्‌ एक नई उत्पादन तकनीक का प्रसार तथा विकास था।
  • शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट उल्लेख आया है कि यज्ञ अग्नि के माध्यम से जंगल जलाकर वैदिक लोग आगे बढ़े। यह वस्तुत: जंगल जलाकर या पेड़ों को काटकर भूमि को कृषि योग्य बनाने की प्रक्रिया थी। 
  • जंगल की सफाई निशिचत ही अत्यन्त दुप्कर कार्य था। इस काम में लोहे के प्रयोग ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। लोहा (अर्थात्‌ लोहे के अस्त्र-शस्त्र) पहले युद्ध में तो प्रयुक्त होता रहा था, किन्तु आगे चलकर खेती के उपकरण के लिए भी इसका प्रयोग होने लगा। 
  • युद्ध और कृषि दोनों क्षेत्र में इस कठोर धातु के प्रयोग से कुछ मूलभूत सामाजिक परिवर्तन आने लगे। 
  • एक शस्त्रधारी व शक्तिशाली नये क्षत्रिय वर्ग का उदय हुआ, जो अपेक्षाकृत कमजोर लोगों या वर्गों पर अपना स्वामित्व स्थापित करके उन्हें युद्ध तथा खेती दोनों कार्यों में लगा सकता था।
  • दूसरी ओर खेती में भी क्रांतिकारी परिणाम सामने आने लगे। जंगल साफ होना सरल हो गया। लोहे के फाल से गहरी जुताई के कारण अधिक उपज होना स्वाभाविक था।
  • कम श्रम से अधिक उत्पादन की क्षमता बढ़ी। एक ऐतिहासिक घटनाक्रम ने व्यापक सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। 
  •  लौह तकनीक पर आधारित नवीन कृषि प्रणाली के कारण अधिक उत्पादन अधिशेष प्राप्त होने लगा। यह बड़ी 'बस्तियों के प्रादुर्भाव तथा अनेक अस्तित्व में सहायक सिद्ध हुआ। 
  • उत्तर पूर्व भारत की प्राचीन जनजातीय (कबायली) जीवनप्रणाली में नई उत्पादन तकनीक ने क्रांतिकारी प्रभाव डाला। इन क्षेत्रों के जनजातीय लोग छिटपुट आबादी वाली फसलों का उत्पादन करते थे। ये मांसाहार के लिए ही पशुओं को पालते थे, उनसे दूध प्राप्त करने के लिए अथवा उन्हें खेती में उपयोग करने के लिए नहीं। स्पष्ट है कि इनकी उत्पादनप्रणाली तथा जीवनपद्धति वैदिक आर्यों की अपेक्षा काफी पिछड़े ढंग की थी।
  • कुरू पंचाल प्रदेश में विकसित कृषि के बावजूद मांसाहार के लिए पशुवध जारी था। यज्ञ विधान की परम्परा के कारण पशुवध विशेष रूप से प्रचलित था। 
  • किन्तु नवीन कृषि प्रणाली में कृषि कार्य के लिए अधिकाधिक पशुओं की आवश्यकता पड़ने लगी। लोग पशुओं की सुरक्षा की आवश्यकता अनुभव करने लगे। पशुवध चाहे वैदिक यज्ञों  में हो या उत्तर पूर्व के जनजातीय लागों में, यह अब अनावश्यक रूढ़ि बन गई थी।
  • वैदिक ग्रन्थों-विशेष रूप से उपनिपदों में-पशुवध की निंदा  की गई है और अहिंसा के उपदेश दिये गये हैं किन्तु ये उपदेश उतने प्रबल नहीं हैं जितने बौद्ध ग्रन्थों में मिलते हैं, जिनमें पशुओं को सुख देने वाला (सुखदा) तथा अन्न देने वाला (अन्नदा) कहा  गया है। 
  • कृषि के विकास के अतिरिक्त लौह उपकरणों के बढ़ते प्रयोग से अनेक शिल्प तथा बढ़ते उद्योगधन्धों में भी प्रगति हुई। फलस्वरूप व्यवस्थाओं का पर्याप्त विकास तो हुआ ही, नगरीकरण की युगान्तकारी प्रक्रिया भी उत्तर पूर्व भारत में प्रारम्भ हुई। 
  • पालि ग्रन्थों में उस समय मध्य गंगाघाटी में विकसित अनेक नगरों का वर्णन प्राप्त होता है। जिनमें चंपा, राजगृह, वैशाली, वाराणसी, कौशाम्बी, कुशीनगर, श्रावस्ती तथा पाटलिपुत्र महत्त्वपूर्ण थे।
  • ईसापूर्व 600 से 300 के बीच देश भर में 60 नगरों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। नगरों में मुख्य रूप से अधिकतर शिल्पकार तथा छोटे-बड़े व्यापारी रहते थे।
  • इस काल में मुद्रा (आहतमुद्राओं ) के प्रचलन के कारण व्यापार में व्यापक विस्तार हुआ। कृषि तथा व्यापार में क्रांतिकारी विकास के कारण कबायली जीवन की परंपरागत मान्यताएँ टूटने लगीं। शासकवर्ग तथा व्यापारी अत्यधिक धनी होने लगे। निजी सम्पत्ति की धारणा दृढ़तर होने लगी और उसे सामाजिक मान्यता भी मिली।
  • कबीले के अंतर्गत वैश्यों के नववैदिक चरवाहा वर्ग के स्थान पर अब ऐसे कृपक आ गये थे जिनके लिए कबीले का कोई अस्तित्व नहीं था।
  • धनादय व्यापारी (श्रेप्ठी तथा गृहपति) अपनी सम्पत्ति के कारण समाज में महत्त्वपूर्ण थे। अब केवल पशु ही सम्पत्ति की इकाई नहीं रह गये। सम्पत्ति का संचय व्यापार, उत्पादन अथवा कृषि के रूप में हो सकता था। यह स्वाभाविक ही था कि साथ में निर्धनता भी बढ़ती। 
  • बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार धन उपार्जन न करने से निर्धनता का प्रादुर्भाव होता है। निर्धनता के कारण चोरी, झूठ, हिंसा, घृणा, क्रूरता आदि उत्पन्न होते हैं। इसके समाधान के लिए बौद्ध का उपदेश था कि किसानों को बीज तथा अन्य सुविधाएं, व्यापारियों को धन तथा श्रमिकों को उपयुक्त पारिश्रमिक देना चाहिए।
  •  इस भौतिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि परखने पर स्पप्ट होता है कि कुरू पंचाल क्षेत्र में प्रचलित वैदिक संस्कृति के अनेक तत्व अर्थहीन हो गये थे क्योंकि वे सामाजिक विकास में बाधक हो रहे थे। 
  • इसी कारण पूर्वोत्तर भारत का प्राचीन जनजातीय जीवन नये सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे के लिए उपयोगी नहीं रह गया था। किन्तु पश्चिमी गंगाघाटी में पल्लवित वैदिक संस्कृति अत्यधिक संगठित होने के कारण उसकी जड़े अधिक मजबूत थीं। 
  • वैदिक संस्कृति के अनेक तत्व पूर्व में पहुँच चुके थे जैसे-जातिव्यवस्था, यज्ञ वाद, पुरोहितों की महत्ता सम्बन्धी धारणा तथा वेदवाद।
  • उत्तर पूर्व भारत में धार्मिक आन्दोलन ने इन्हीं तत्वों को अपना प्रहार बिन्दु बनाया।
  • ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिपदों से यह ज्ञात होता है कि वैदिक मंत्र देव वाक्य माने जाते थे, उन्हें परिवर्तित नहीं किया जा सकता था। लोगों में यह विश्वास प्रचलित था कि किसी यज्ञ या अनुष्ठान के मंत्रोच्चारण में थोड़ी त्रुटि होने पर भयंकर परिणाम होंगे। 
  • ऐसे संस्कृति परिवेश में यह स्वाभाविक ही है कि पुरोहितों का अत्यधिक महत्त्व होता। किन्तु उनकी धनलोलुपता समाज के लिए कप्टकारक होने लगी और साथ ही यज्ञ तथा कर्मकांड भी नीरस, जटिल तथा बाहरी आडंबर बनकर रह गये।
  • राजसूय तथा अश्वमेघ आदि अनेक जटिल तथा दीर्घकालीन यज्ञों में पशुवध तथा पुरोहितों को दी जाने वाली बहुमूल्य दक्षिणा के कारण धन तथा पशु की हानि हो रही थी। हालांकि इन यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले शासक वर्ग तथा धनादइय लोगों में विश्वास था कि यज्ञ तथा कर्मकांड से ही स्वर्ग की प्राप्ति संभव है। 
  • यज्ञ स्वर्ग ले जाने वाली नौका के समान है। उसी से भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभ हो सकता है। यहाँ तक कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति में यज्ञ ही मूल कारण माना जाने लगा जिसे प्रजापति ने सम्पन्न किया था। 
  • शतपथ ब्राह्मण में वैदिक यज्ञ विधान का उत्तर पूर्व भारत की ओर प्रसार होने की चर्चा है। उपनिपदों से भी हमें ज्ञात होता है कि राजा जनक ने बड़े वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया। किन्तु इस क्षेत्र में यज्ञमूलक वैदिक संस्कृति समाज में पूर्णरूप से स्वीकृत नहीं हो सकी। 
  • कर्म प्रधान वैदिक संस्कृति का प्रवृत्ति मार्गी , धर्म उपनिषद्‌ के ज्ञान मार्ग तथा श्रवण परम्परा के निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान धर्म के विपरीत था।
  • वैदिक संस्कृति में समाज का वर्गीकरण ब्राह्मण तथा क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चार वर्गों में हो चुका था। 
  • वैदिक काल में तो कर्म के अनुसार वर्ण निर्धारित होता था किन्तु इस समय जन्म से ही वर्ण निश्चित होने लगा। समाज में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्णों की श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी थी। अपने निर्धारित कमों से च्युत होने पर भी इन वर्णों के लोग समाज में सम्मान की उपेक्षा करते थे।
  • वर्णव्यवस्था उत्तरपूर्व भारत में भी प्रचलित थी। जन-जातीय वर्ग के जो लोग नवीन उत्पादन प्रणाली में सम्मिलित हाते थे वे धीरे-धीरे अपनी हैसियत तथा क्षमता के अनुरूप किसी न किसी वर्ण से सदस्य के रूप में सामाजिक दर्जा प्राप्त करते थे।
  • नवीन उत्पादन प्रणाली के कारण जनसंख्या में काफी वृद्धि होने लगी और वर्ण के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण की प्रक्रिया इस काल में और भी तेज हो गयी। इस कारण भी समाज में वर्ण सम्बन्धी अव्यवस्था फैल रही थी। 
  • दूसरे क्षत्रिय वर्ग ही शस्त्र धारण का अधिकारी माना जाने लगा। इसी नये क्षत्रिय वर्ग पर एक प्रकार से राज्य की नींव टिकी हुई थी। वही प्रजा से कर वसूला करता था और कृपकों से उपज का अधिशेष भी। शासकों तथा नये क्षत्रिय वर्ग का अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति सहज होना स्वाभाविक था।

धार्मिक आंदोलन का सुधारवादी होना 

भारत में होने वाले इन धार्मिक आन्दोलनों का स्वरूप विनाशकारी न होकर सुधारवादी था। जिस प्रकार उननीसवीं सदी में लूथर तथा कॉल्विन ने यूरोप में कैथोलिक धर्म में घुसी हुई बुराइयों को सुधारा था उसी प्रकार भारत में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म ने हिन्दू समाज एवं धर्म की प्रचलित कुरीतियों एवं बुराइयों का खंडन किया।

वे हिन्दू धर्म में घुसी बुराई को दूर करके उसे सुधारना चाहते थे। वे बुद्धि के विकास को अवरूद्ध करने वाले बन्धनों को काटकर उसे विकासपथ पर आगे बढ़ाना चाहते थे। महावीर और महात्मा बुद्ध के नाम इन सुधारवादियों में सबसे आगे हैं। इन दोनों महान्‌ सुधारकों के बताये हुए मार्ग और धार्मिक सिद्धांतों में कोई नवीनता न थी। उनका विवरण तो पहले ही उपनिपदों में आ चुका था। इन दोनों महात्माओं द्वारा प्रतिपादित वाद-विवाद एवं तर्क-वितर्क भी उपनिपदों में पहले ही से विद्यमान थे। महात्मा बुद्ध की प्रश्नोत्तरी द्वारा सत्यशोधन एवं उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने की प्रणाली का विवरण उपनिपदों में दिया हुआ था। उच्च-कोटि के विद्वानों द्वारा सम्पन्न वादविवाद और तर्कवितर्क , ज्ञानवृद्धि एवं धार्मिक सुधार के पथ पर आगे बढ़ने का महत्त्वपूर्ण अंग था तथा वैदिक ऋषियों को भी मान्य था।

धार्मिक आन्दोलन की सफलता

  •  छठी शताब्दी ईसा पूर्व का यह धर्मसुधार आन्दोलन जैन एवं बौद्ध धर्मों के रूप में साकार हुआ और इस आन्दोलन को उस समय पूरी सफलता मिली। इस सफलता का एक मुख्य कारण यह था कि धर्मसुधार आन्दोलन ने जातिव्यवस्था का घोर विरोध किया। 
  • छठी शताब्दी ईसवी पूर्व के आते-आते जाति का बन्धन इतना जटिल और कठोर हो गया था कि साधारण जनता इससे ऊब गयी थी। 
  • अतएव जब महावीर और बुद्ध ने जातिप्रथा को गलत बताया तो उनके समर्थकों की कमी नहीं रही। फिर, धर्म में जो कुरीतियां घुस गयी थीं उनका मूल कारण अन्धविश्वास था। 
  • धर्म सुधार आन्दोलन के प्रवर्तकों ने अन्धविश्वास को दूर करने का यत्न किया। इसी तरह धर्मसुधार आन्दोलन के प्रवर्तकों ने कर्मकांड , यज्ञादि को गलत बताया।
  • साधारण जनता कई कारणों से इन यज्ञों से घृणा करने लगी थी। अतएव जब धर्मसुधार के प्रवर्तकों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए सीधा सरल मार्ग को बतलाया तो जनता उनकी ओर आकृष्ट हो गयी।
  • आर्य जनता को प्रारम्भ से ही स्वतंत्रता सबसे अधिक प्रिय थी। वैदिक काल में आर्य जनता को पूरी तरह व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्राप्त थी। 
  • उत्तर वैदिक काल और महाकाव्यों के युग में ब्राह्मणों और क्षत्रियों की प्रभुसत्ता ने जनता की इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करके उनके बौद्धिक विकास में भारी अवरोध उत्पन्न कर दिया था। वैश्य और शूद्र वर्णों के बहुसंख्यक लोग पददलित किये जाने लगे।
  • शूद्रों और स्त्रियों की स्वतंत्रता तो नाममात्र की भी शेष न रह गई। उन्हें हीन समझा जाने लगा। छठी शताब्दी ई.पू. में स्वतंत्रता की भावना के जागरूक होने पर जनता धार्मिकसामाजिक और राजनीतिक बन्धनों के विरुद्ध अपनी आवाज ऊंची करने लगी।
  • उस समय के नवोदित धर्मों के संस्थापकों के प्रवचन उन पददलित व्यक्तियों को ऊंचा उठाने और उनके उद्धार का मार्ग तैयार करने में महत्त्वपूर्णयोग प्रदान करने लगे। अत: जनता का एक बड़ा भाग उन धार्मिक नेताओं का अनुसरण करके नवीन धर्मों को सफल बनाने लगा।
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