पृथ्वी की उत्पत्ति एवं संरचना सामान्य ज्ञान

 पृथ्वी की उत्पत्ति एवं संरचना सामान्य ज्ञान

पृथ्वी की उत्पत्ति एवं संरचना सामान्य ज्ञान


सर्वप्रथम भूगोल शब्द का प्रयोग इरेटॉस्थेनीज़, एक ग्रीक विद्वान (276-194 ई.पू.) ने किया। यह शब्द, ग्रीक भाषा के दो मूल 'Geo' (पृथ्वी) एवं 'graphos' (वर्णन) से प्राप्त किया गया है। दोनों को एक साथ रखने पर इसका अर्थ बनता है, पृथ्वी का वर्णन।
  • पृथ्वी के इतिहास काल में डायनासोर का विकास जुरेसिक काल में हुआ।
  • स्थल पर जीवन के प्रथम चिह्न पौधे, पहली मछली का विकास प्रवालवदि/सिलरियन काल में हुआ।
  • पृथ्वी के विकास के इतिहास काल के कैम्ब्रियन युग में स्थल पर कोई जीवन नहीं था, बल्कि जल में बिना रीढ़ की हड्डी वाले जीव पाए जाते थे।
  • कार्बोनिफेरस युग में पहले रेंगने वाले जंतु तथा उसके बाद रीढ़ की हड्डी वाले जीव का विकास हुआ।
  • हाइड्रोजन गैस से बने विशाल बादल के संचयन को नीहारिका (Nebula) कहा जाता है। नीहारिका को सौरमंडल का जनक माना जाता है।
  • सूर्य तथा छुद्र ग्रह पट्टी के बीच अवस्थित बुध, शुक्र, पृथ्वी व मंगल ग्रह को भीतरी ग्रह (Inner Planets) कहा जाता है।
  • छुद्र ग्रह पट्टी के बाहर स्थित ग्रहों, जैसे- बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून को बाहरी ग्रह (Outer Planets) कहा जाता है।
  • सूर्य और छुद्र ग्रह पट्टी के बीच अवस्थित बुध, शुक्र, पृथ्वी व मंगल ग्रह को पार्थिव (Terrestrail) ग्रह कहा जाता है।
  • बुध, शुक्र व मंगल ग्रह पृथ्वी की भाँति ही शैलों और धातुओं से बने हैं और अपेक्षाकृत अधिक घनत्व वाले ग्रह हैं। इसी कारण इनको पार्थिव ग्रह कहा जाता है।
  • चार ग्रह (बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेप्च्यून) गैस से बने विशाल ग्रह या जोवियन (Jovian) ग्रह कहलाते हैं। जोवियन का अर्थ है बृहस्पति (Jupiter) की तरह इनमें से अधिकतर पार्थिव ग्रहों से विशाल हैं और हाइड्रोजन व हीलियम से बना सघन वायुमंडल है।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना-स्रोत

  • पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में जानकारी प्राप्त करने के प्रत्यक्ष स्रोत- धरातलीय चट्टान, पृथ्वी की गहरी खुदाई से प्राप्त पदार्थ तथा ज्वालामुखी उद्गार हैं।
  • पृथ्वी पर सबसे आसानी से उपलब्ध प्रत्यक्ष स्रोत ठोस पदार्थ धरातलीय चट्टानें हैं अथवा वे चट्टानें जो हम खनन क्षेत्रों से प्राप्त करते हैं। पृथ्वी की अधिक गहराई में जा पाना असंभव है, क्योंकि गहराई बढ़ने के साथ-साथ  तापमान में भी वृद्धि होती है। खनन के अतिरिक्त वैज्ञानिक, विभिन्न परियोजनाओं के अंतर्गत पृथ्वी की आंतरिक स्थिति को जानने के लिये पर्पटी में गहराई तक छानबीन कर रहे हैं।
  • विश्व भर के वैज्ञानिक दो मुख्य परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। पहली,  गहरे समुद्र में प्रवेधन (Deep Ocean drilling Project) व दूसरी समन्वित महासागरीय प्रवेधन परियोजना (Integrated Ocean drilling Project)। इन परियोजनाओं तथा बहुत-सी अन्य गहरी खुदाई परियोजनाओं के अंतर्गत विभिन्न गहराई से प्राप्त पदार्थों के विश्लेषण से हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना से संबंधित असाधारण जानकारी प्राप्त हुई है।
  • ज्वालामुखी उद्गार प्रत्यक्ष जानकारी का एक अन्य स्रोत है। जब भी ज्वालामुखी उद्गार से लावा पृथ्वी के धरातल पर आता है, यह प्रयोगशाला अन्वेषण के लिये उपलब्ध होता है।
  • पृथ्वी की आंतरिक संरचना के विषय में जानकारी प्राप्त करने के अप्रत्यक्ष स्रोत हैं- पृथ्वी के आंतरिक पदार्थ के गुणधर्म का विश्लेषण, उल्का पिंड, गुरुत्वाकर्षण, चुम्बकीय क्षेत्र व भूकंप।
  • पदार्थ के गुणधर्म के विश्लेषण से पृथ्वी के आंतरिक भाग की अप्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त होती है। खनन क्रिया के दौरान पृथ्वी के धरातल में गहराई बढ़ने के साथ-साथ तापमान एवं दाब में वृद्धि होती है। इतना ही नहीं, गहराई बढ़ने के साथ-साथ पदार्थ का घनत्व भी बढ़ता है। तापमान, दाब व घनत्व में इस परिवर्तन की दर को आँका जा सकता है। वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की कुल मोटाई को ध्यान में रखते हुए विभिन्न गहराइयों पर पदार्थ के तापमान, दाब एवं घनत्व के मान को अनुमानित किया है। उल्का पिंड पृथ्वी की आंतरिक जानकारी प्राप्त करने के अन्य स्रोत हैं। उल्काओं से प्राप्त पदार्थ और उनकी संरचना पृथ्वी से मिलती-जुलती है। उल्काएँ वैसे ही पदार्थ से बने ठोस पिंड हैं, जिनसे हमारा ग्रह (पृथ्वी) बना है।
  • अन्य अप्रत्यक्ष स्रोतों में गुरुत्वाकर्षण, चुंबकीय क्षेत्र व भूकंप संबंधी क्रियाएँ शामिल हैं।
  • पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न अक्षांशों पर गुरुत्वाकर्षण बल एकसमान नहीं होता है। गुरुत्वाकर्षण बल का मान ध्रुवों पर अधिक एवं भूमध्य रेखा पर कम होता है। पृथ्वी के केंद्र से भूमध्य रेखा की दूरी अधिक एवं ध्रुवों की कम होती है, इसलिये गुरुत्वाकर्षण का मान ध्रुवों पर भूमध्य रेखा की अपेक्षा अधिक होता है।
  • गुरुत्व का मान पदार्थ के द्रव्यमान के अनुसार बदलता है। पृथ्वी के भीतर पदार्थों का असमान वितरण भी इस भिन्नता को प्रभावित करता है।
  • साधारण भाषा में भूकंप का अर्थ है- पृथ्वी का कंपन। यह एक प्राकृतिक घटना है। पृथ्वी के अंदर से ऊर्जा निकलने के कारण तरंगें उत्पन्न होती हैं जो सभी दिशाओं में फैलकर भूकंप लाती हैं। प्रायः भ्रंश के किनारों से ही ऊर्जा निकलती है। भूपर्पटी की शैलों में गहन दरारें ही भ्रंश होती हैं।
  • वह स्थान जहाँ से ऊर्जा निकलती है भूकंप का उद्गम केंद्र (Focus) कहलाता है। इसे अवकेंद्र (Hypocentre) भी कहा जाता है। ऊर्जा तरंगें अलग-अलग दिशाओं में चलती हुई पृथ्वी की सतह तक पहुँचती हैं। भू-तल पर वह बिंदु जो उद्गम केंद्र के समीपतम होता है, अधिकेंद्र (Epicentre) कहलाता है।
  •  अधिकेंद्र पर सबसे पहले भूकंपीय तरंग को महसूस किया जाता है। अधिकेंद्र, उद्गम केंद्र के ठीक ऊपर (90º के कोण पर) होता है।
  • सभी प्राकृतिक भूकंप केवल स्थलमंडल (Lithosphere) में आते हैं। स्थलमंडल पृथ्वी के धरातल से 200 किमी. तक की गहराई वाले भाग को कहते हैं। भूकंपमापी यंत्र (Seiesmograph) सतह पर पहुँचने वाली भूकंपीय तरंगों को अभिलेखित करता है।
  • बुनियादी तौर पर भूकंपीय तरंगें दो प्रकार की हैं- भूगर्भिक तरंगें (Body Wave) व धरातलीय तरंगें (Surface Wave)
  • भूगर्भिक तरंगें उद्गम  केंद्र से ऊर्जा के मुक्त होने के दौरान पैदा होती हैं और पृथ्वी के अंदरूनी भाग से होकर सभी दिशाओं में आगे बढ़ती हैं। इसलिये इन्हें भूगर्भिक तरंगें कहा जाता है।
  • भूगर्भिक तरंगों एवं धरातलीय शैलों के मध्य अन्योन्य क्रिया के कारण नई तरंगें उत्पन्न होती हैं जिन्हें धरातलीय तरंगें कहा जाता है। ये तरंगें धरातल के साथ-साथ चलती हैं। तरंगों का वेग अलग-अलग घनत्व वाले पदार्थों से गुज़रने पर परिवर्तित हो जाता है। अधिक घनत्व वाले पदार्थों में तरंगों का वेग अधिक होता है।

भूगर्भीय तरंगें दो प्रकार की होती हैं। इन्हें 'P' तरंगें व 'S' तरंगें कहा जाता है।

भूगर्भीय 'P' तरंगों के संबंध में 

  • P तरंगें तीव्र गति से चलने वाली तरंगें हैं और धरातल पर सबसे पहले पहुँचती हैं।
  • P तरंगों को प्राथमिक तरंग भी कहा जाता है।
  • P तरंगें ध्वनि तरंगों जैसी होती हैं।
  • ये तरंगें ठोस, तरल व गैस- तीनों प्रकार के पदार्थों से गुज़र सकती हैं।
  • भिन्न-भिन्न प्रकार की भूकंपीय तरंगों के संचरित होने की प्रणाली भिन्न-भिन्न होती है। P तरंगों से कंपन की दिशा तरंगों के संचरण की दिशा के समानांतर होती है। यह संचरण गति की दिशा में ही पदार्थ पर दबाव डालती है। इसके (दबाव) फलस्वरूप पदार्थ के घनत्व में भिन्नता आती है और शैलों में संकुचन व फैलाव की प्रक्रिया होती है।

भूगर्भीय 'S' तरंगों के संबंध में

  • 'S' तरंगें धरातल पर 'P' तरंगों के कुछ समय अंतराल के बाद पहुँचती हैं। ये द्वितीयक तरंगेंकहलाती हैं।
  • 'S' तरंगें केवल ठोस पदार्थों के माध्यम में ही चलती हैं। 'S' तरंगों की यह एक      महत्त्वपूर्ण विशेषता है। इसी विशेषता ने वैज्ञानिकों को भूगर्भीय संरचना को समझने में मदद की।

धरातलीय तरंगें
  • धरातलीय तरंगें ज़्यादा विनाशकारी होती हैं। इन तरंगों से शैलें विस्थापित होती हैं और इमारतें गिर जाती हैं। धरातलीय तरंगें भूकंपलेखी यंत्र (Seismograph) पर अंत में अभिलेखित होती हैं।
  • S' तरंगें ऊर्ध्वाधर तल में तरंगों की दिशा के समकोण पर कंपन पैदा करती हैं। अतः ये जिस पदार्थ से गुज़रती हैं उसमें उभार व गर्त बनाती हैं। धरातलीय तरंगें सबसे अधिक विनाशकारी समझी जाती हैं।

भूकंपलेखी यंत्र

भूकंपलेखी यंत्र (Seismograph) पर दूरस्थ स्थानों से आने वाली भूकंपीय  तरंगें अभिलेखित होती हैं। यद्यपि कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ कोई भूकंपीय तरंग अभिलेखित नहीं होती। ऐसे क्षेत्र को भूकंपीय छाया क्षेत्र (Shadow Zone) कहा जाता है। विभिन्न भूकंपीय घटनाओं के अध्ययन से पता चलता है कि एक भूकंप का छाया क्षेत्र दूसरे भूकंप के छाया क्षेत्र से सर्वथा भिन्न होता है।

105º से परे पूरे क्षेत्र में 'S' तरंगें नहीं पहुँचती। 'S' तरंगों का छाया क्षेत्र 'P' तरंगों के छाया क्षेत्र से अधिक विस्तृत है। भूकंप अधिकेंद्र के 105º से 145º तक 'P' तरंगों का छाया क्षेत्र एक पट्टी (Band) के रूप में पृथ्वी के चारों तरफ प्रतीत होता है। 'S' तरंगों का छाया क्षेत्र न केवल विस्तार में बड़ा है, वरन् यह पृथ्वी के 40 प्रतिशत भाग से भी अधिक है।

भूकंप के प्रकार

1-भ्रंशतल के किनारे चट्टानों के खिसक जाने के कारण विवर्तनिक (Tectonic) भूकंप आते हैं। सामान्यतः इसी प्रकार के भूकंप आते हैं।

2. एक विशिष्ट वर्ग के विवर्तनिक भूकंप को ही ज्वालामुखी (Volcanic) जन्य भूकंप समझा जाता है। ये भूकंप अधिकांशतः सक्रिय ज्वालामुखी क्षेत्रों तक सीमित रहते हैं।

3. खनन क्षेत्रों में कभी-कभी अत्यधिक खनन कार्य से भूमिगत खानों की छत ढह जाती है, जिससे हल्के झटके महसूस किये जाते हैं। इन्हें नियात (Collapse) भूकंप कहा जाता है।

4. कभी-कभी परमाणु व रासायनिक विस्फोट से भी भूमि में कंपन होता है। इस तरह के झटकों को विस्फोट (Explosion) भूकंप कहते हैं।

5. बड़े बांधों के निर्माण के कारण आने वाले भूकंप को बांध जनित (Reservoir Induced) भूकंप कहा जाता है।


भूकंपीय तीव्रता

भूकंपीय घटनाओं का मापन भूकंपीय तीव्रता के आधार पर अथवा आघात की तीव्रता के आधार पर किया जाता है। भूकंपीय तीव्रता की मापनी रिक्टर स्केल’ (Richter Scale) द्वारा की जाती है।

पृथ्वी की संरचना

भूपर्पटी पृथ्वी का सबसे बाहरी भाग है जिसमें जल्दी टूट जाने की प्रवृत्ति पाई जाती है। भूपर्पटी की मोटाई महाद्वीपों व महासागरों के नीचे अलग-अलग है। महासागरों में भूपर्पटी की मोटाई महाद्वीपों की तुलना में कम है। महासागरों के नीचे इसकी औसत मोटाई 5 किमी. है, जबकि महाद्वीपों के नीचे यह 30 किमी. तक है। मुख्य पर्वतीय शृंखलाओं के क्षेत्र में यह मोटाई और भी अधिक है। हिमालय पर्वत श्रेणियों के नीचे भूपर्पटी की मोटाई लगभग 70 किमी. तक है।

महासागरों के नीचे भूपर्पटी की चट्टानें बेसाल्ट निर्मित हैं।

भूगर्भ में पर्पटी के नीचे का भाग मैंटल कहलाता है। यह मोहो असांतत्य से प्रारंभ होकर 2900 किमी. की गहराई तक पाया जाता है। मैंटल के ऊपरी भाग को दुर्बलतामंडल (Asthenosphere) कहा जाता है। इसका विस्तार 400 किमी. तक आँका गया है। 

ज्वालामुखी उद्गार के दौरान जो लावा धरातल पर पहुँचता है उसका मुख्य स्रोत मैंटल है। इसका घनत्व भूपर्पटी की चट्टानों से अधिक है।

भूपर्पटी एवं मैंटल का ऊपरी भाग मिलकर स्थलमंडल (Lithosphere) कहलाता है

भूकंपीय तरंगों के वेग ने पृथ्वी के क्रोड को समझने में सहायता की है। पृथ्वी का बाह्य क्रोड (Outer Core) तरल अवस्था में है। मैंटल व क्रोड की सीमा पर चट्टानों का घनत्व लगभग 5 ग्राम प्रति घन सेमी. तथा केंद्र में 63,00 किमी. की गहराई तक घनत्व लगभग 13 ग्राम प्रति घन सेमी. तक हो  जाता है। इससे यह पता चलता है कि क्रोड भारी पदार्थों, मुख्यतः निकिल (Nickle) व लोहे (Ferrum) का बना है। इसे निफे’ (Nife) परत के नाम से जाना जाता है।

 ज्वालामुखी प्रक्रिया

ज्वालामुखी वह स्थान है जहाँ से निकलकर गैसें, राख और तरल चट्टानी पदार्थ लावा पृथ्वी के धरातल पर पहुँचता है। यदि यह पदार्थ कुछ समय पहले ही बाहर आया हो या अभी निकल रहा हो तो वह ज्वालामुखी सक्रिय ज्वालामुखी कहलाता है।

तरल चट्टानी पदार्थ जब मैंटल के ऊपरी भाग में रहता है, मैग्मा कहलाता है। जब यह भू-पटल के ऊपर या धरातल पर पहुँचता है तो लावा कहा जाता है।

जो ज्वालामुखी पदार्थ धरातल पर पहुँचता है, उसमें लावा प्रवाह, लावा के जमे हुए टुकड़ों का मलबा (ज्वलखंडाश्मि) (Pyroclastic debris) ज्वालामुखी बम राख, धूलकण व गैसें जैसे- नाइट्रोजन यौगिक, सल्फर यौगिक और कुछ मात्रा में क्लोरीन, हाइड्रोजन व ऑर्गन शामिल होते हैं।

शील्ड के ज्वालामुखी

  • बेसाल्ट प्रवाह को छोड़कर पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी ज्वालामुखियों में शील्ड ज्वालामुखी सबसे विशाल हैं।
  • हवाई द्वीप के ज्वालामुखी, शील्ड ज्वालामुखी के सबसे अच्छे उदाहरण हैं।
  • शील्ड ज्वालामुखी मुख्यतः बेसाल्ट से निर्मित होते हैं जो तरल लावा के ठंडे होने से बनते हैं। यह लावा उद्गार के समय बहुत तरल होता है।
  • कम विस्फोटक होना इन ज्वालामुखियों की विशेषता है। किंतु यदि किसी तरह निकास नलिका (Vent) से पानी भीतर चला जाए तो ये ज्वालामुखी विस्फोटक भी हो जाते हैं।

ज्वालामुखी कुंड (Caldera)

ये पृथ्वी पर पाए जाने वाले सबसे अधिक विस्फोटक ज्वालामुखी हैं। आमतौर पर ये इतने विस्फोटक होते हैं कि जब इनमें विस्फोट होता है तब वे ऊँचा ढाँचा बनाने  की बजाय स्वयं नीचे धँस जाते हैं। धँसे हुए विध्वंसक गर्त (लावा गिरने से जो गड्डे बनते हैं) ही ज्वालामुखी कुंड (Caldera) कहलाते हैं। इनका यह विस्फोटक रूप बताता है कि इन्हें लावा प्रदान करने वाले मैग्मा के भंडार न केवल विशाल हैं वरन् इनके बहुत पास स्थित हैं।


दक्कन ट्रैप का शैल समूह

बेसाल्ट प्रवाह ज्वालामुखी अत्यधिक तरल लावा उगलते हैं जो बहुत दूर तक बह निकलता है। संसार के कुछ भाग हज़ारों वर्ग किमी. घने लावा प्रवाह से ढके हैं। भारत का दक्कन ट्रैप, जिस पर वर्तमान महाराष्ट्र पठार का ज़्यादातर भाग पाया जाता है, वृहत् बेसाल्ट लावा प्रवाह क्षेत्र है।

 

आग्नेय शैल

ज्वालामुखी उद्गार से जो लावा निकलता है उसके ठंडा होने से आग्नेय शैल बनती है। लावा का यह जमाव या तो धरातल पर पहुँचकर होता है या धरातल तक पहुँचने से पहले ही भू-पटल के नीचे शैल परतों में ही हो जाता है। लावा के ठंडा होने के स्थान के आधार पर आग्नेय शैलों का वर्गीकरण किया जाता है-

1. ज्वालामुखी शैलें- जब लावा धरातल पर पहुँचकर ठंडा होता है।

2. पातालीय (Plutonic) शैल- जब लावा धरातल के नीचे ही ठंडा होकर जम जाता है।

 

जब ज्वालामुखी लावा भू-पटल के भीतर ही ठंडा हो जाता है तो कई आकृतियों का निर्माण होता है, जैसे- बैथोलिथ, लैकोलिथ, लैपोलिथ, फैकोलिथ, सिल व डाइक।

बैथोलिथ (Batholiths): 

यदि मैग्मा का बड़ा पिंड भूपर्पटी में अधिक गहराई पर ठंडा हो जाए तो यह एक गुंबद के आकार में विकसित हो जाता है। अनाच्छादन प्रक्रियाओं के द्वारा ऊपरी पदार्थ के हट जाने पर ही ये धरातल पर प्रकट होते हैं। ये ग्रेनाइट के बने पिंड हैं। इन्हें बैथोलिथ कहा जाता है जो मैग्मा भंडारों के जमे हुए भाग हैं।

लैकोलिथ (Lacolitghs): 

ये गुंबदनुमा विशाल अंतर्वेधी चट्टानें हैं जिनका तल समतल व एक पाइपरूपी वाहक नली से नीचे से जुड़ा होता है। इनकी आकृति धरातल पर पाए जाने वाले मिश्रित ज्वालामुखी के गुंबद से मिलती है। अंतर केवल यह होता है कि लैकोलिथ गहराई में पाया जाता है।

ऊपर उठते हुए लावा का कुछ भाग क्षैतिज दिशा में पाए जाने वाले कमज़ोर   धरातल में चला जाता है। यहाँ यह अलग-अलग आकृतियों में जम जाता है। यदि यह तस्तरी (Saucer) के आकार में जम जाए तो यह लैपोलिथ कहलाता है।


सिल या शीट 

अंतर्वेधी आग्नेय चट्टानों का क्षैतिज तल में एक चादर के रूप में ठंडा होना सिल या शीट कहलाता है। जमाव की मोटाई के आधार पर इन्हें विभाजित किया जाता है- कम मोटाई वाले जमाव को शीट व घनी मोटाई वाले जमाव सिल कहलाते हैं।


डाइक 

जब लावा का प्रवाह दरारों में धरातल के लगभग समकोण होता है और अगर यह इसी अवस्था में ठंडा हो जाए तो एक दीवार की भाँति संरचना बनाता है। यही संरचना डाइक कहलाती है। पश्चिम महाराष्ट्र क्षेत्र की अंतर्वेधी आग्नेय चट्टानों में यह आकृति बहुतायत में पाई जाती है।  कर्नाटक के पठार में ग्रेनाइट चट्टानों से बनी ऐसी ही गुंबदनुमा पहाड़ियाँ हैं।

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