सर्वोच्च न्यायालय सामान्य ज्ञान

सर्वोच्च न्यायालय सामान्य ज्ञान

Supreme Court GK in Hindi

  • वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या 34 है 

  •  भारत में संघीय न्यायालय की स्थापना भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत 1 अक्तूबर 1937 में की गई थी। वर्तमान का सर्वोच्च न्यायालय भारत शासन अधिनियम, 1935 की देन है। 28 जनवरी 1950 को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का उद्घाटन किया गया। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-124 के तहत भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करने की शक्ति संसद में निहित है। संसद अभी तक 6 बार न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर चुकी है, जो निम्नानुसार है 
  •  मूल संख्या = 8 (मुख्य न्यायाधीश + 7 अन्य न्यायाधीश) 
  •  वर्ष 1956 = 11 (मुख्य न्यायाधीश + 10 अन्य न्यायाधीश) 
  •  वर्ष 1960 = 14 (मुख्य न्यायाधीश + 13 अन्य न्यायाधीश) 
  •  वर्ष 1977 = 18 (मुख्य न्यायाधीश + 17 अन्य न्यायाधीश) 
  •  वर्ष 1986 = 26 (मुख्य न्यायाधीश + 25 अन्य न्यायाधीश) 
  •  वर्ष 2009 = 31 (मुख्य न्यायाधीश + 30 अन्य न्यायाधीश) 
  •  वर्ष 2019 = 34 (मुख्य न्यायाधीश + 33 अन्य न्यायाधीश) 
 

  •  उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये 99वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2014 के द्वारा एक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का गठन किया गया, किन्तु वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-124(2) के तहत भारत का राष्ट्रपति उच्च्तम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श के पश्चात् उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति करेगा। मुख्य न्यायाधीश से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में भारत के मुख्य न्यायाधीश से सदैव परामर्श लेगा और मुख्य न्यायाधीश 4 वरिष्ठ न्यायाधीशों से परामर्श के पश्चात् राष्ट्रपति को सिफारिश भेजेगा। इसे कॉलेजियम प्रणालीके नाम से जाना जाता है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 4 अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश होते हैं। 
  •  संविधान में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल तय नहीं किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 124(2) में उपबंध है कि उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश तब तक पद धारण करेगा, जब तक 65 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता। 
  •  उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद न्यायालय की प्रक्रिया और संचालन हेतु नियम बना सकता है। 
  •  उच्चतम न्यायालय में संविधान की व्याख्या से संबंधित मामलों की सुनवाई के लिये कम-से-कम पाँच न्यायाधीश होने चाहिये, जबकि अन्य मामलों का निर्णय सामान्यतया तीन न्यायाधीशों की पीठ करती है। संविधान में इसे  पीठ के नाम से जाना जाता है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-124(4) में प्रावधान है कि उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर उसके पद से हटाया जा सकता है। 
  •  उच्चतम न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को उसके पद से भारत का राष्ट्रपति, संसद की सिफारिश के आधार पर हटा सकता है। जब संसद विशेष बहुमत द्वारा हटाने संबंधी प्रस्ताव को राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखती है तो राष्ट्रपति हटाने का आदेश जारी कर सकता है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद -125(1) में प्रावधान है कि संसद विधि द्वारा समय-समय पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिये वेतन का प्रावधान करेगी। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-124(6) में उपबंध है कि उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति के समक्ष संविधान की तीसरी अनुसूची (न कि दूसरी अनुसूची) में दिये गए प्रारूप के अनुसार शपथ लेगा। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-125 में उच्चतम न्यायालय के वेतन आदि के संबंध में उपबंध है कि संसद विधि द्वारा समय-समय पर वेतन का निर्धारण करेगी। इसके न्यायाधीशों का वेतन संविधान की दूसरी अनुसूची के तहत भारत की संचित निधि पर भारित होता है, किंतु संसद में इसे मतदान के लिये नहीं रखा जाता अर्थात् संसद के मताधीन नहीं है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद- 124(7) में प्रावधान है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के पश्चात् भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी न्यायालय या किसी प्राधिकारी के समक्ष वकालत या कार्य नहीं करेंगे। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-130 में उच्चतम न्यायालय के स्थान के संबंध में उपबंध किया गया है। इसमें उपबंध है कि उच्चतम न्यायालय दिल्ली में या ऐसे अन्य स्थान या स्थानों में अधिविष्ठ हो सकता है, जिन्हें भारत के मुख्य न्यायमूर्ति, राष्ट्रपति के अनुमोदन से समय-समय पर नियत करें। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-140 के तहत संसद विधि द्वारा उच्चतम न्यायालय को अनुपूरक शक्तियाँ प्रदान करने के लिये उपबंध बना सकती है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-127 में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में प्रावधान है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-128 में उच्चतम न्यायालय की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की उपस्थिति के संबंध में प्रावधान है। इस अनुच्छेद के तहत भारत का मुख्य न्यायमूर्ति, किसी भी समय, उच्चतम या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश से उच्चतम न्यायालय की बैठक में उपस्थित होने और कार्य करने के लिये अनुरोध कर सकता है। ऐसा संबंधित व्यक्ति और राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से किया जा सकता है। इस प्रकार बैठने और कार्य करने के दौरान वह ऐसे भत्तों का हकदार होगा, जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा अवधारित करे। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-126 में भारत के कार्यवाहक/कार्यकारी मुख्य न्यायमूर्ति की नियुक्ति के संबंध में प्रावधान है। 
इसकी नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा निम्नलिखित स्थितियों में की जा सकती है- 
  •  जब मुख्य न्यायमूर्ति का पद रिक्त हो।
  •  अस्थायी रूप से मुख्य न्यायाधीश अनुपस्थित हो।
  •  मुख्य न्यायाधीश अपने दायित्वों के निर्वहन में असमर्थ हो।
  •  उच्चतम न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायमूर्ति (Acting Chief Justice) की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति किसी की सलाह/परामर्श नहीं लेता है।
 
  •  संविधान के अनुच्छेद-32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को और अनुच्छेद-226 के तहत राज्यों के उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति है। 
  •  मूल अधिकारों के उल्लंघन पर नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं। 
  •  मूल अधिकारों के उल्लंघन पर रिट जारी करने की शक्ति केवल सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के पास है 
  •  सर्वोच्च न्यायालय केवल मूल अधिकारों के उल्लंघन पर रिट जारी कर सकता है, जबकि उच्च न्यायालय को मूल  अधिकारों के अतिरिक्त अन्य मामलों में रिट जारी करने की शक्ति है। इस तरह उच्च न्यायालय को रिट जारी करने के संबंध में अधिकारिता सर्वोच्च न्यायालय से ज़्यादा व्यापक है। 
  •  उच्च्तम न्यायालय को मूल अधिकारों का संरक्षक माना जाता है। 
 सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय
  •  उच्चतम न्यायालय देश का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है। संविधान के अनुच्छेद-132 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को निम्न मामलों में अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं- 
  •  संवैधानिक मामलों में-अनुच्छेद-132 
  •  दीवानी/सिविल मामलों में - अनुच्छेद-133 
  •  आपराधिक/फौज़दारी मामलों में-अनुच्छेद-134 
  •  उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई विशेष इज़ाज़त से अपील-अनुच्छेद-136 
 
 न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार
  •  संघ एवं राज्यों के बीच विवाद उच्चतम न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) के अंतर्गत आता है। यह सर्वोच्च न्यायालय का अनन्य क्षेत्राधिकार है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-143 में उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्ति का प्रावधान है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-143(1) के तहत राष्ट्रपति विधि या तथ्य के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श ले सकता है, किंतु सर्वोच्च न्यायालय परामर्श देने के लिये बाध्य नहीं है और न ही राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श को मानने के लिये बाध्य है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद 143(2) के तहत राष्ट्रपति संविधान पूर्व की गई संधियों एवं समझौतों से उत्पन्न विवादों को सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श के लिये भेज सकता है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श देना अनिवार्य है, किंतु राष्ट्रपति ऐसे परामर्श को मानने के लिये बाध्य नहीं है। अभी तक इस प्रकार का मामला राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट नहीं किया गया है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत अब तक सर्वोच्च न्यायालय को 15 मामले भेजे जा चुके हैं, जिसमें से एक केरल शिक्षा विधेयक, 1958 है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-143 में उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्ति के संबंध में प्रावधान है। यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है, जो ऐसी प्रकृति और ऐसे व्यापक महत्त्व का है, जिस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना आवश्यक है, तो राष्ट्रपति राय ले सकता है, जिस पर उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को सलाह देता है, न कि उस पर निर्णय करता है। 
  •  सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का अभिभावक या संरक्षक (Guardian or Custodian) माना जाता है। संविधान की व्याख्या करने का अंतिम अधिकार उसी के पास है। 
  •  संविधान की व्याख्या, कानून की संवैधानिकता की जाँच एवं विधि के सारवान प्रश्नों पर दिये गए निर्णय सबके लिये मान्य होते हैं। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-138 के तहत संसद, उच्चतम न्यायालय की अधिकारिकता एवं शक्तियों में विस्तार कर सकती है। 
  •  उच्चतम न्यायालय का प्रशासनिक व्यय भारत की संचित निधि पर भारित होता है, जबकि उच्च न्यायालय का प्रशासनिक व्यय राज्य की संचित निधि पर भारित होता है।
 
  सर्वोच्च न्यायालय की आरंभिक अधिकारिता
 
  •  संविधान के अनुच्छेद-131 में उच्चतम न्यायालय के आरंभिक/मौलिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) के संबंध में प्रावधान है। यह सर्वोच्च न्यायालय का अनन्य अधिकार है। इसकी सुनवाई किसी और न्यायालय में नहीं की जा सकती है।
 
 इसमें निम्न शामिल है:
  •     भारत सरकार और एक या अधिक राज्यों के बीच विवाद। 
  • ·एक तरफ भारत सरकार और किसी राज्य या राज्यों और दूसरी तरफ एक या अधिक अन्य राज्य के बीच विवाद। 
  • दो या अधिक राज्यों के बीच विवाद। 
  • किसी विवाद में यदि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न अंतर्निहित है, जिस पर किसी विधिक अधिकार का अस्तित्व या विस्तार निर्भर है, तो वे उच्चतम न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आते हैं। 
सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता
 
  •  संविधान के अनुच्छेद-138 में उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता की वृद्धि के संबंध में उपबंध है। संसद को उच्चतम न्यायालय के न्याय क्षेत्र एवं शक्तियों में कटौती का अधिकार नहीं है, किंतु संसद विधि द्वारा इनमें वृद्धि कर सकती है।संविधान के अनुच्छेद-124(2) में प्रावधान है कि राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श के पश्चात् उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा तथा मुख्य न्यायाधीश से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श अवश्य करेगा। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-146 में उच्चतम न्यायालय के अधिकारियों एवं सेवकों की नियुक्ति एवं प्रशासनिक व्यय का प्रावधान है। भारत के मुख्य न्यायमूर्ति को बिना सरकारी हस्तक्षेप के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नियुक्त करने का अधिकार है और इसका प्रशासनिक व्यय भारत की संचित निधि पर भारित होता है। 
  •  उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति तो राष्ट्रपति  करता है, किंतु उसे उसके पद से बिना महाभियोग के नहीं हटाया जा सकता। 
  •  वित्तीय आपातकाल को छोड़कर उसके वेतन में कटौती नहीं की जा सकती। 
  •  महाभियोग के अतिरिक्त संसद या राज्य विधानमंडल में इसके आचरण पर चर्चा नहीं की जा सकती। 
  •  सेवानिवृत्ति के पश्चात् भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर किसी न्यायालय में या प्राधिकरण में वकालत या कार्य नहीं कर सकता। 
  •  उच्चतम न्यायालय उस व्यक्ति को दंडित कर सकता है, जो उसकी अवमानना करे। 
  •  न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् रखा गया है। 
  न्यायाधीश जाँच अधिनियम, 1968 
  •  उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग चलाने के लिये निष्कासन प्रस्ताव पर लोकसभा के 100 या राज्यसभा  के 50 सदस्यों का हस्ताक्षर होना आवश्यक है। 
  •  इसकी जाँच के लिये अध्यक्ष/सभापति द्वारा तीन सदस्यीय समिति का गठन किया जाता है, जिसमें उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश और प्रतिष्ठित न्यायवादी शामिल होते हैं। 
  •  महाभियोग का प्रस्ताव संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा या उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत (विशेष बहुमत) द्वारा पारित होना आवश्यक है। संसद द्वारा पारित प्रस्ताव संसद के उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है। इसके बाद राष्ट्रपति उस न्यायाधीश को हटाने संबंधी आदेश जारी कर देता है। 
  •  अभी तक उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश पर महाभियोग नहीं चलाया गया है। इसका पहला मामला न्यायाधीश वी. रामास्वामी (1991-1993) के संबंध में उठा था, किंतु यह लोकसभा में पारित न हो सका।
 

  •  राज्य विधानमंडल के संबंध में संयुक्त बैठक का प्रावधान नहीं है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-197 में प्रावधान है कि राज्य विधान परिषद किसी साधारण विधेयक को अधिकतम 4 माह तक रोक सकती है। प्रथम बार में तीन माह एवं दूसरे बार में एक माह। 
  •  किसी साधारण विधेयक का प्रारंभ राज्य विधान परिषद में होता है और राज्य विधानसभा द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है तो विधेयक समाप्त हो जाता है।  
  •  संविधान के अनुच्छेद-200 में उपबंध है कि राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करेगा। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-201 के तहत राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति के लिये आरक्षित रख सकेगा। 
 संविधान के अनुच्छेद-201 के तहत राष्ट्रपति, राज्यपाल द्वारा आरक्षित विधयेक पर अपना निर्णय देता है, जो निम्न हैं-
 
  •  अनुमति दे सकता है; या 
  •  अनुमति रोक सकता है; या 
  •  धन विधयेक नहीं है तो विधेयक को विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिये लौटा सकता है और विधानमंडल छःमाह के अन्दर इस पर पुनर्विचार कर राष्ट्रपति को भेजता है तो, राष्ट्रपति इस पर स्वीकृति देने के लिये बाध्य नहीं है। 
  •  राज्यपाल, राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को संविधान के अनुच्छेद-201 के तहत राष्ट्रपति के लिये आरक्षित रखता है। 
  •  संविधान के अनुच्छेद-200 के तहत राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधयेक पर अपनी अनुमति दे सकता है या रोक सकता है या धन विधेयक से भिन्न किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिये राज्य विधानमंडल को लौटा सकता है, किंतु यदि राज्य विधानमंडल विधेयक में संशोधन या बिना संशोधन के राज्यपाल के पास पुनः प्रस्तुत करता है तो राज्यपाल अनुमति देने के लिये बाध्य है। 
  •  राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के लिये आरक्षित रख सकता है। राज्यपाल की राय में विधेयक पर अनुमति देने पर उच्च न्यायालय की शक्तियों का अल्पीकरण होगा, तो विधेयक पर अनुमति नहीं देगा। उसे राष्ट्रपति के लिये आरक्षित रखेगा।

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