चोल वंश का इतिहास | Chole Vansh ka itihas


Chole Vansh ka itihas

चोल वंश 

  • चोलों ने 850 से 1200 ई. तक दक्षिण भारत में शासक किया। चोलों का साम्राज्य तुंगभद्रा दोआब से लेकर संपूर्ण प्रायद्वीपीय भारत तक फैला था। मालाबार तथा कोरोमण्डल तटों पर इनका अधिकार हो गया था। श्रीलंका पर इनका वर्षो अधिकार रहा एवं जावा, सुमात्रा, मलय द्वीप समूह पर भी इन्होने विजय प्राप्त की।
  • दक्षिण में चोलों का उल्लेख मौर्य काल से ही मिलता प्रारंभ हो जाता है। चोल इतिहास के सर्वाधिक प्रामाणिक साधन अभिलेख है
  • चोल वंश की स्थापना विजयालय ( 850-871  ई.) ने की थी। पहले यह पल्लवों का सामंत था। इसने पल्लवों को हराकर चोल वंश का शासन स्थापित किया। इसने ‘ तोडमण्डलम ‘ को राजधानी बनाया।
  • राजराजा प्रथम (985-1014 ई. ) ने चोल साम्राज्य को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया। राजराजा प्रथम चोल वंश के महान शासकों में से एक था।
  • राजराजा प्रथम ने लंका नरेंश महेंद्र पंचम को हराकर लंका पर अधिकार कर लिया था। उसने अनुराधापुर के स्थान पर पोलोंन्नरूव ‘ को अपनी राजधानी बनाया। इसने चालुक्यो कलिंग एवं मालदीव को भी जीता।
  • राजराजा प्रथम ने प्रशासन में योग्य अधिकारियों की नियुक्ति की कर व्यवस्था को नया स्वरूप प्रदान किया तथा एक स्थायी सेना एवं विशाल नौसेना का गठन किया। उसने सोने चांदी एवं तांबे के सिक्कों का प्रचलन करवाया। उसने अपनी राजधानी में राजराजेश्वर के मंदिर का निर्माण कराया।
  • राजेंद्र तृतीय चोल वंश का अंतिम शासक था।

चोलयुग की सभ्यता एवं संस्कृति

  • स्थानीय स्वायत्तया, चोल शासन की एक प्रमुख विशेषता थी। चोल शासकों की मृत्यु के बाद उनकी भगवान के रूप में पूजा की जाती थी।
  • केंदीय अधिकारियों की अनेक श्रेणियां थीं। सबसे ऊपर की श्रेणी ‘ पेरून्दनम ‘ एवं नीचे की श्रेणी ‘ शिरूदनम ‘ कहलाती थी।
  • प्रशासन की सुविधा के लिये विशाल चोल साम्राज्य को छः प्रातों में विभक्त किया गया था। प्रांत ‘ मण्डलम ‘ कहलाते थे। मण्डलम ‘ कोट्टम ‘ अथवा ‘ वलनाडू ‘ में बंटे होते थे। वलनाडू में कई जिले होते थे। जिन्हें नाडू कहते थे। नाडू के अंतर्गत अनेक ग्राम संघ होते थे। जिन्हें ‘ कुर्रम ‘ कहते थे। कभी-कभी एक इकाई का अधीन कई गांवों का शासन दिया जाता था। जिन्हें ‘ तनियूर कहते थे। गांवों की मुख्य संस्था सभा ‘ या ‘ उर कहलाती थी। मंदिरों को दी जाने वाली भूमि ‘ देवाग्रहार ‘ कहलाती थी। पम्पपन्न एवं रन्ना कन्नड़-इसी युग  में ही विकसित हुई। चोल काल में अनेक प्रसिद्ध मूर्तियों का भी निर्माण किया गया। इनमें कांसे की  नटराज की मूर्ति सर्वाधिक उल्लेखनीय है।
  • चोलों के काल के सर्वाधिक प्रसिद्ध तमिल लेखक जयन्गोन्दार ने कलिंगत्तुपर्णि नामक ग्रंथ की रचना की।
  • भारतीय स्थापत्य कला की तीन प्रमुख शैलीयां है- नागर, द्रविड़ एवं बेसर। उत्तर भारत के मंदिर नागर शैली  तथा दक्षिण भारत के मंदिर द्रविंड़ शैली  में बनें है। बेसर शैली में दोनों की विशेषतायें पायी जाती है।
  • विमान: यह मंदिर एक भाग है। यहां बैठकर देवताओं की आराधना की जाती है।
  • गोपुरम: मंदिर का मुख्य द्वार या प्रवेश द्वार गोपुरम कहलाता है।

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