चंदेरी रियासत और प्रमुख शासक | Chanderi Riyasat and King in Hindi

Chanderi Riyasat and King in Hindi

Chanderi Riyasat and King in Hindi

चंदेरी रियासत और प्रमुख शासक  

  • चंदेरी राज्य की स्थापना ओरछा राज्य के तत्कालीन शासक रामशाह ( 1605) को ओरछा से स्थानांतरित कर चंदेरी भेजे जाने के कारण हुई थी। रामशाह ने 1609 में ललितपुर के समीप बार नामक स्थान पर एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। 1612 में उनकी मृत्यु होने पर उनके पौत्र भरतसिंह ने 1630 ई. तक बार जागीर पर शासन किया। बादशाह जहाँगीर ने 1616 ई. में बार के समीप स्थित चंदेरी का तीन लाख रू. का इलाका भरतसिंह के अधीन कर दिया था। 1617 ई. में चंदेरी को राजधानी बना दिया गया। भरतसिंह एक पराक्रमी शासक थाउसने चंदेरी को सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से उसके समीप तालबेहट नामक स्थान पर एक अन्य दुर्ग का निर्माण कराया। भरतसिंह के पुत्र देवीसिंह ने तक चंदेरी पर शासन किया। वह भी भारी पराक्रमी थे तथा उन्होंने शाही सेना में अपना भरपूर साथ दिया। इस वजह से जब ओरछा की गद्दी हेतु 1634 ई. में संकट उत्पन्न हुआ तो बादशाह शाहजहाँ ने देवीसिंह को ओरछा का उत्तरदायित्व भी सौंप दिया था। देवीसिंह ने चंदेरी में कई तालाबों एवं बगीचों का निर्माण करवाया था । 26 देवीसिंह के पश्चात् उनके पुत्र दुर्गसिंह ने 1687 ई. तक चंदेरी की बागडोर संभाली। इनके काल में राजस्थान की ओर से बंजारों एवं दक्षिण की ओर से मराठों का आक्रमण चंदेरी पर हुआ थाजिन्हें दुर्गसिंह ने असफल कर दिया था ।

 

दुर्जनसिंह (1687-1736 ई.) : 

  • दुर्गसिंह का उत्तराधिकारी दुर्जनसिंह (1687-1736 ई.) हुआ थाजिसे मराठों का दो छोर से आक्रमण सहन करना पड़ा था। इंदौर की ओर से मल्हार राव होल्कर ने उसके कई क्षेत्रोंजिनमें विदिशाउदैपुराबासोदाआदि क्षेत्र शामिल थेको छीन लिया तो दूसरी ओर सागर के गोविंदराव ने भी मालथैनखिमलासाराहतगढ़ आदि क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। केंद्रीय मुगल सत्ता द्वारा दुर्जन सिंह को एक हजार जात एवं सवार का ओहदा प्रदान किया थाजिससे इस राजा की शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। दुर्जनसिंह ने अपने शासनकाल के दौरान जयपुर के राजा जयसिंह की सलाह पर बुंदेलखण्ड के अन्य शासकों की तरह इलाहाबाद के सूबेदार मुहम्मद खाँ बंगश के चेले दिलेर खाँ के विरुद्ध पन्ना नरेश महाराजा छत्रसाल को युद्ध में सहायता प्रदान की थी।

 

मानसिंह (1736-1750 ई.) : 

  • दुर्जनसिंह ने अपने पुत्र मानसिंह (1736- 1750 ई.) को चंदेरी का शासक नियुक्त किया थाजिसने 1750 ई. तक शासन कियाइस काल में के समीप महरौनी नामक कस्बे का दुर्गीकरण किया गया। मानसिंह ने अपने छोटे भाईयों में से जोरावर सिंह को ललितपुर के समीप स्थित पाली जागीरसूबाजू को बार के समीप स्थित बम्हौरा जागीर तथा धीरजसिंह को बानपुर की जागीर प्रदान कर दी 27 मानसिंह के काल में भी मराठों की ओर नारोशंकर ने चंदेरी के विभिन्न क्षेत्रों पर आक्रमण किया था तथा मुँगावलीसैराईपिपराईकंजिया ईसागढ़ आदि परगनों पर अधिकार कर लिया।

 

रामचंद्र (1775-1802 ई.) : 

  • मानसिंह का उत्तराधिकारी उसका पुत्र अनुरुद्धसिंह (1750-1775 ) हुआ । अनिरूद्ध सिंह ने यद्यपि पच्चीस वर्ष तक शासन कियाकिंतु उसका शासन राजनीतिक अराजकता के दौर में अधिक महत्वपूर्ण नहीं रहा। इस काल में भी मराठों एवं बंजारों की गतिविधियाँ इस राज्य में संचालित रहीं । अनुरुद्धसिंह की मृत्यु के बाद उनके छोटे पुत्र रामचंद्र (1775-1802 ई.) को चंदेरी की राजगद्दी प्राप्त हुई। क्योंकि रामचंद्र अल्पवयस्क थेअतः इसके चाचा हर्षसिंह को संरक्षक बनाया गया। संरक्षक हर्षसिंह एवं राजमाता के मध्य आपसी संबंध तनावपूर्ण होने के कारण राजमाता अपने पुत्र रामचंद्र को लेकर अचलगढ़ (मुँगावली) के जागीरदार कीरतसिंह के पास चली गईं। इन्हीं कीरतसिंह ने जाखलौन के जागीरदार धुरमंगल के साथ मिलकर रामचंद्र को चंदेरी पर पुनर्स्थापित किया तथा स्वयं उसके संरक्षक बन गये जबकि धुरमंगल को राज्य का सेनापति बनाया गया। इस तरह से चंदेरी में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई और इस लड़ाई का अंत हर्षसिंह एवं उनके साथी एक ब्राह्मण की हत्या के साथ 1783 ई. में हुआ 28 हालाँकि ये कत्ल रामचंद्र के पश्चाताप एवं संन्यास का कारण बने और वे चंदेरी का राजपाठ देवजू पॉवर को देकर स्वयं अयोध्या चले गये। इस परिस्थिति से लाभ उठाने के लिए मराठों ने चंदेरी को अपने आक्रमणों का शिकार बनाया। जाखलौन के समीप पनियार में हुए इस युद्ध में जाखलौन के छत्रसिंहअचलगढ़ के चौधरीकिची के दुर्जनसिंह एवं उमरावसिंह ने मराठा सेनानायक सागर के सूबेदार अप्पा साहेब द्वारा नियुक्त मोरोपंत को सशक्त चुनौती दी और युद्ध का कोई निर्णय न हो सका। मराठों को इस युद्ध से कोई लाभ प्राप्त न हो सका 

 

मोर प्रहलाद (1802-1842 ई.) : 

  • 1802 ई. में चंदेरी के शासक रामचंद्र की मृत्यु हो गयी और उनके उत्तराधिकारी प्रजापाल की भी शीघ्र ही मृत्यु हो जाने पर रामचंद्र के दूसरे बेटे मोर प्रहलाद को चंदेरी की सत्ता प्राप्त हुई। उन्होंने लगभग चालीस वर्षों (1802-1842 ई.) तक शासन किया। चंदेरी के सिंहा पर मोर प्रहलाद ऐसे शासक हुये जिनकी गणना अयोग्य शासक के रूप में होती है। 30 इनके शासनकाल में मराठों ने अलग-अलग समय पर इस क्षेत्र पर आक्रमण किये। ग्वालियर के सिंधिया के फ्रेंच कमांडर जीन बेपिस्ट ने चंदेरी पर आक्रमण कर 1810 ई. तक चंदेरी के दो-तिहाई भू-भाग पर अधिकार कर लिया थाजिसमें जेवराबाँसीकोटराननौरारजवाराजाखलौनदेवगढ़महरौनी आदि क्षेत्र शामिल थे। यद्यपि मोर प्रहलाद को अपना राज्य छोड़कर झाँसी की शरण लेनी पड़ी थीतथापि उनके भाईयों बखत सिंह एवं उमराव सिंह ने सिंधिया सेनापति जीन बेप्टिस्ट का डटकर मुकाबला कियाकिंतु अंततः चंदेरी में सिंधिया का कब्जा हो गया। जीन बेप्टिस्ट की इसी सफलता से प्रसन्न होकर सिंधिया ने उसे महरौनी के समीप जरया ग्राम की जागीर प्रदान की थीजो बुंदेलखण्ड की एकमात्र यूरोपियन जागीर बन गई। जीन बेप्टिस्ट के ग्वालियर लौटने पर मोर प्रहलाद ने झाँसी से लौटकर कैलगुवाँ को अपनी राजधानी बनाकर बारबानपुरकैलगुवाँ जैसे अत्यल्प क्षेत्र पर शासन किया। हालाँकि अंग्रेजों ने 1830 में मोर प्रहलाद को उसके कुछ क्षेत्र सिंधिया से वापस दिलवायेजिसकी वजह से अब मोर प्रहलाद ने बानपुर को अपनी राजधानी बनाया । 

 

हृदय शाह (1732-1739 ई.) : 

  • छत्रसाल के उत्तराधिकारी पन्ना के अतिरिक्त अजयगढ़चरखारीबिजावरजसोजिगनीलुगासीसरीला आदि जागीरों पर अधिकार जमाये हुए थे। छत्रसाल लगभग 80 वर्ष की अवस्था में 1732 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुए थे और अपनी मृत्यु के पूर्व ही उसने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था और इस अनुसार हृदयशाह ने पन्ना राज्य की गद्दी सँभाली। उसने पन्ना के पूर्व में स्थित रीवा राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के अल्पवयस्क राजा अवधूत सिंह को परास्त किया तथा रीवा राज्य की राजधानी रीवा पर अधिकार कर लियाजो 1739 ई. तक कायम रहा। इस अवधि में उसने रीवा में एक भव्य फाटक का निर्माण करवायाजो बुंदेली दरवाजा के नाम से जाना गया। इस आक्रमण के दौरान हृदयशाह ने रीवा के अलावा बीरसिंहपुर पर भी आधिपत्य किया था। उन्होंने मऊ के समीप स्थित धुबेला महल के बांयी ओर की पहाड़ी पर एक रंडी महल बनवाया था तथा गढ़ाकोटा के अंतर्गत एक छोटा सा गाँव हृदयनगर गाँव बसवाया था।

 

सुभाग सिंह (1739-1752 ) एवं अमान सिंह (1752-1758 ई.) : 

  • हृदयशाह केवल सात वर्ष तक शासन कर पाया और उनके आठ पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र सुभाग सिहं अथवा सभासिंह उनके उत्तराधिकारी बने । सभासिंह भी केवल तेरह वर्षों तक शासन चला पाये। सभा सिंह को सर्वप्रथम अपने भाई पृथ्वी सिंह के विद्रोह का सामना करना पड़ा। पृथ्वी सिंह को मराठों का संरक्षण प्राप्त थाअतः सभा सिंह ने पृथ्वी सिंह को गढ़ाकोटामालथौनमड़ावरा एवं शाहगढ़ के क्षेत्र प्रदान कर दियेजिनसे शाहगढ़ राज्य अस्तित्व में आया। इनके शासनकाल में ही सर्वप्रथम पन्ना में हीरे की खदानों के विषय में जानकारी प्राप्त होती हैं। सभासिंह की समाधि छतरपुर के समीप एक गाँव सोनिया में स्थापित की गई है। सभासिंह की मृत्यु होने पर उसके पुत्र अमान सिंह ने पन्ना रियासत की राजगद्दी संभाली। उसके लिए राजसिंहासन काँटों का ताज साबित हुआ क्योंकि उसके दो भाइयों हिन्दूपत एवं खेत सिंह लगातार उसकी सत्ता को चुनौती प्रस्तुत कर रहे थे। अंततः इन भाइयों के मध्य चित्रकूट के समीप दुर्गा तालाब परं एक युद्ध हुआजिसमें अमानसिंह की पराजय हुई और उसे मौत के घाट उतार दिया गया। पन्ना रियासत में उत्तराधिकार को लेकर प्रायः अशांति एवं अराजकता का वातावरण बना रहा। बाँदा के गुमानसिंह के सेनापति नौने अर्जुन सिंह ने चरखारी के खुमानसिंह की हत्या कर दी थी। अमानसिंह के अल्पावधि शासनकाल के कारण वह कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं कर सका फिर भी उसे चित्रकूट में मंदिर स्थापित करने के लिए एक लाख रुपये राजस्व वाला भू-भाग दान में देने के लिए याद किया जाता है। 

 

हिन्दूपत (1758-1776 ई.) : 

  • हिन्दूपत ने शीघ्र ही पन्ना का राजपाट संभाला तथा अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये सर्वप्रथम अपने भाई खेत सिंह से दूरी बनाने का प्रयास किया। 1763-64 ई. में बंगाल के नवाब शुजा-उद्-दौला ने जब बुंदेलखण्ड में प्रवेश कियातब अन्य राजाओं के साथ पन्ना के राजा हिन्दूपत से भी नवाब ने वसूली की थी। हिन्दूपत को नवाब को धनराशि चुकाने में थोड़ी परेशानी हुईनवाब के सेनापति कासिम अली खाँ ने समझौता करा दिया। शुजा उद्दौला इस समय अंग्रेजों द्वारा दी जा रही दबिश से संकट में था । हिन्दूपत ने अपने शासनकाल में कई निर्माण कार्य करवायेजिनमें पन्ना में किशोर जी का एक सुंदर मंदिरलौड़ी में बंबूर देवी का मंदिरछतरपुर का राजप्रसादराजगढ़ किला बनवाया। इसीप्रकार बिजावर के समीप महाराजगंज में एक किला और कालिंजर के किले में एक राजप्रासाद का निर्माण भी हिन्दूपत ने ही करवाया था। इनके कामदार बेनी हूजरी ने भी में बेनीगंज मोहल्ले को बसाया था। नवम्बर, 1776 में हिन्दूपत मृत्यु को प्राप्त हुये .

 अनिरुद्ध सिंह (1776-1780 ई.) : 

  • हिन्दूपत का उत्तराधिकारी उनका अवयस्क पुत्र अनिरुद्ध सिंह हुआजिसकी देखभाल के लिये कामदार बेनी हजूरी और कालिंजर के किलेदार ब्राह्मण खेमराज चौबे को नियुक्त किया गया। हालाँकि हिन्दूपत का ज्येष्ठ पुत्र सरनेत सिंह थाकिंतु उसे छतरपुर के समीप राजनगर की जागीर प्रदान की गई । अनिरुद्ध सिंह के काल में ही प्रसिद्ध अंग्रेज सेनापति गोडार्ड का बुंदेलखण्ड में आगमन हुआ था। दरअसल 1777 ई. में बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स पेशवा पद पर दावे के लिये रघुनाथ राव (राघोबा) का सहायता प्रदान करना चाहते इसलिये उन्होंने एक अंग्रेज सेना कर्नल लेस्ली की कमान में कलकत्ता से बाम्बे के लिये रवाना की। उसने ग्वालियर के सिंधिया को इस सेना को हर तरह की सहायता के लिए लिखा था । बुंदेलखण्ड के राजाओं ने गुप्त रूप से तय किया कि अंग्रेजों की सेना को बुंदेलखण्ड में सुविधायें न दी जायें। जब मार्च 1778 में कर्नल लेस्ली बुंदेलखण्ड में प्रविष्ट हुआ तो बुंदेलखण्ड में उसके लिए संकट खड़े किये गये। लेस्ली ने 10 जुलाई, 1778 में पन्ना के राजा अनिरुद्ध सिंह पर आक्रमण कर दिया तथा छतरपुर के मान नामक स्थान पर उसे परास्त किया। युद्ध में लेस्ली को स्थानीय विद्रोहियों में सरनेत सिंह का सहयोग प्राप्त हुआ। 3 अक्टूबर, 1778 ई. को छतरपुर के पास स्थित राजगढ़ में कर्नल लेस्ली की मृत्यु हो जाने पर वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा कर्नल गोडार्ड को उक्त सेना की कमान सौंपी गई । यद्यपि गोडार्ड द्वारा बेनी हजूरी के समक्ष पन्ना राज्य से गुजरने के लिये पासपोर्ट का आवेदन किया गया थाजो अमान्य कर दिया फिर भी गोडार्ड ने बुंदेलों के छुट-पुट हमलों के बीच अपनी यात्रा को जारी रखा |

 

अराजकता का दौर (1780-1785 ई.) : 

  • बेनी हजूरी एवं खेमराज की परस्पर प्रतिद्वंद्विता ने पन्ना को एक बार फिर गृह युद्ध की जकड़ में ला दिया और इस गृह युद्ध में पन्ना के राजा अनिरुद्ध सिंह की 1780 ई. में मृत्यु हो गयीहालाँकि डॉ. भगवानदास गुप्त शोध संस्थानझाँसी में पन्ना रियासत से संबंधित 1780-1783 के मध्य के उपलब्ध कुछ पत्रों में महाराधिराज अनिरूद्धसिंह की उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। अनिरुद्धसिंह की मृत्यु के बाद उसके भाई सरनेत सिंहधोकल सिंह एवं राजवंश के अन्य सदस्यों में गद्दी के लिए संघर्ष छिड़ गया। नौने अर्जुन सिंह ने सरनेत सिंह का पक्ष लेते हुए बेनी हजूरी पर गठौरी नामक स्थान पर आक्रमण कर उसे मौत के घाट उतार दिया। संघर्ष के इस दौर में पन्ना रियासत में संभवतः शक्ति के वास्तविक केंद्रबिंदु सरनेत सिंह ही रहे।

 

धोकल सिंह (1785-1798 ई.) 

  • तमाम संघर्ष के बाद धोकल सिंह पन्ना के राजसिंहासन पर विराजमान हुआ और गद्दी पर बैठते ही उसे एक और लड़ाई का सामना करना पड़ाजब टारौली के समीप स्थित छाछरिया नामक स्थान पर बेनी हजूरी के बेटे राजधर हजूरी एवं नौने अर्जुन सिंह के मध्य संघर्ष छिड़ गया। इस युद्ध में नौने अर्जुन सिंहकीरत सिंह एवं मार्फा के राजा असफल हुये। इन अराजक परिस्थितियों ने गुसाँई बंधुओं हिम्मत बहादुर उर्फ अनूपगिरिजो गिरि गुसाई पंथ के महंत थेतथा अली बहादुरजो पेशवा बाजीराव एवं मुस्लिम नर्तकी से उत्पन्न पुत्र शमशेर बहादुर की संतान थे 34 को बुंदेलखण्ड में अपनी स्थिति को मजबूत करने का सुअवसर प्रदान किया। हिम्मत बहादुर बक्सर के युद्ध में शुजा-उद्-दौला के पक्ष में लड़ चुके थे तथा महादजी सिंधिया की उसने सेवा की थीकिंतु उसे कहीं से भी उतना महत्व प्राप्त नहीं हुआअतः उसने बुंदेलखण्ड में ही अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास किया।

 

  • हिम्मत बहादुर एवं अली बहादुर ने सर्वप्रथम नौने अर्जुन सिंह के विरुद्ध अभियान चलाकर अजयगढ़ के समीप उसे मौत के घाट उतार दियाइसके उपरांत चरखारी में बिजावर के राजा वीर सिंह को परास्त कर मार डाला। हिम्मत बहादुर को इन सैन्य गतिविधियों में एक डेन सेनापति कर्नल मीजलबेक का सहयोग प्राप्त हो रहा था। इस प्रकार अली बहादुर ने बाँदा पर अपना कब्जा कर बुंदेला राजाओं को सनद बाँटना प्रारंभ किया और ऐसे ही राजाओं में पन्ना के राजा धोकल सिंह भी सम्मिलित थेजिन्हें अली बहादुर ने सनद प्रदान की थी। वस्तुतः पन्ना का संपूर्ण राज्य अली बहादुर की सेना ने अधिकृत कर लिया था तथा राजा कालिंजर के दौआ तथा चौबे के साथ रह रहे थे। 1802 ई. में कालिंजर का अभियान करते समय अली बहादुर की मृत्यु हो गई ।

 

किशोर सिंह (1798-1834 ई.) : 

धोकल सिंह के पश्चात् किशोरसिंह (1798-1834) ने पन्ना राज्य किया। किशोरसिंह ने अपने शासनकाल में बुंदेलखण्ड के अन्य राजाओं की भाँति अंग्रेजों से 4 फरवरी 1807 को एक संधि की। 36 इस समझौते में निम्नलिखित प्रावधान किये गये थे ।

 

1. पन्ना राजा किशोर सिंह लुटेरों से संपर्क नहीं रखेगा । 

2. पन्ना नरेश अपने राज्य के अंतर्गत घाटों एवं मार्गों की सुरक्षा व्यवस्था करेगा। 

3. पन्ना घाटी में आने पर राजा अंग्रेज सेना की पूरी सहायता करेगा । 

4. राज्य के लोगों द्वारा कंपनी सरकार के खिलाफ हुए संघर्ष के लिए पन्ना नरेश स्वयं उत्तरदायी रहेंगे। 

5. पन्ना राज्य में यदि कोई कंपनी सरकार का अपराधी निवास कर रहा होगा तो उसे पकड़ कंपनी सरकार को सौंप दिया जाएगा। 

6. पन्ना राजा अपने राज्य में किसी चोर अथवा डाकुओं को शरण नहीं देगा । 

7. पन्ना नरेश अपना कोई विश्वस्त साथी कंम्पनी सरकार के अधीन रखेंगे।

 

इसके समझौते के बदले में उसे पन्ना राज्य पर शासन करने के लिए अंग्रेजों की ओर से 14 मई, 1807 को एक सनद प्रदान की गई। इस सनद में एक तकनीकी खामी यह रह गई कि कामदार राजधर गंगा सिंह यादव ने पवई क्षेत्र की जागीर अपने नाम करवा ली। पन्ना नरेश किशोर सिंह ने तत्काल कंपनी सरकार को इस बात से अवगत कराया तथा पूरे राज्य की सनद दिये जाने का आवेदन किया। अतः कंपनी सरकार ने मामले को समझते हुए 3 जनवरी 1811 ई. को इस सनद को संशोधित कर दिया। 37 संशोधित सनद में भी उन्हीं व्यवस्थाओं को शामिल किया गयाजो पूर्ववर्ती सनद में दी गई थीं। 3 मई, 1811 को कंपनी सरकार ने उक्त समझौते का पालन करते रहने तक के लिए पन्ना नरेश को 1363 गाँवों पर वंश परंपरा से शासन करने की सनद प्रदान कर दी। अब पन्ना राज्य को बुंदेलखण्ड का सनद राज्य कहा जाने लगा। इस अवसर पर किशोर सिंह ने पन्ना में किशोरशाही सिक्का चलाया 138 अपने जीवन के अंतिम काल में किशोरसिंह मानसिक रूप से अस्वस्थ हो गये थेअतः अंग्रेजों ने उनके पुत्र हरवंश राय को उनके स्थान पर पन्ना का राजा बनाया।

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