शिक्षा निरीक्षण का अर्थ उद्गम एवं विकास |Origin and development of education inspection

शिक्षा निरीक्षण का अर्थ तथा कार्य

शिक्षा निरीक्षण का अर्थ उद्गम एवं विकास |Origin and development of education inspection


 

शिक्षा निरीक्षण का अर्थ तथा कार्य प्रस्तावना

 

ऐतिहासिक सन्दर्भ में विचार किया जाए तो आधुनिक पर्यवेक्षण ही निरीक्षण का परिष्कृत स्वरूप है। प्रारम्भिक दर्शन के अनुरूप निरीक्षण का मुख्य उद्देश्य विद्यालयों में उपस्थित विद्यार्थी, शिक्षक और प्रशासकों का विकास है। इसमें विद्यालय और समाज का विकास भी सम्मिलित है। साधारणतः विद्यालय पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण एक ही अर्थ में प्रयुक्त किये जाते है। परन्तु दोनों में अन्तर है। इसकी विवेचना इस अध्याय में की गयी हैं।

 

पर्यवेक्षण का कार्य रचनात्मक अधिक है, यह शिक्षा प्रशासन की सहायक प्रणाली के रूप में कार्य करता है। इसके अन्तर्गत जिला विद्यालय निरीक्षक, विद्यालयों हेतु निरीक्षकों की नियुक्ति करता है। और विद्यालय की निरीक्षण की तिथियाँ निर्धारित करते हैं। विद्यालय निरीक्षण की तैयारी करते हैं। उसके बाद वे रिपोर्ट तैयार करते हैं। रिपोर्ट की प्रतिलिपियाँ जिला विद्यालयों में सफाई, पुताई आदि निरीक्षण के समस्त ही की जाती है। निरीक्षण परिस्थितियाँ औपचारिकता होती है। बढ़ा-चढ़ा कर निरीक्षकों का लक्ष्य व्यवस्था को सुव्यवस्थित करना तथा अनियमिततओं को उजागर करना होता है, परन्तु आज के निरीक्षण कार्य केवल खानापूरी होती है, कोई परिणाम नहीं निकलता है।

 

निरीक्षण का अर्थ 

वैबिस्टर अंग्रेजी शब्द कोश के अनुसार निरीक्षण का अर्थ किसी व्यक्ति की जाँच करना है। शाब्दिक अर्थ के अनुसार विद्यालय के कार्यो का निरीक्षण विद्यालय निरीक्षण कहा जा सकता है। डॉ0 मुकर्जी के अनुसार वरिष्ठ अध्यापक अथवा प्रधानाध्यापक द्वारा किए गए मूल्यांकन को निरीक्षण कहा जाता है।

 

वास्तव में निरीक्षण एवं निरीक्षक की भूमिका देश, समय और परिस्थिति के अनुसार बदली रही है। निरीक्षण के सम्बन्ध में विभिन्न विद्धानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी है। बर्टन महोदय का विचार है कि शिक्षा निरिक्षण का उद्देश्य शिक्षण में उन्नति करना है। बार और बर्टन के अनुसार निरीक्षण एक आधार है। शिक्षण में उन्नति के सभी कार्यक्रम बनाये जाने चाहिए।

 

उपर्युक्त परिभाषाओं में उत्प्रेरक विकास, शिक्षकों की सहायक प्रक्रिया, शिक्षण सुधार तथा विकास, शिक्षण में सहायता, , शिक्षकों की शक्ति को विकसित करना, शिक्षकों की समस्याओं को हल करना, सीखने की स्थितियों का मूल्यांकन आदि के रूप तथा अर्थ में ही शिक्षा निरीक्षण को मान्य किया गया है।

 

शिक्षा निरीक्षण का उद्गम एवं विकास 

शिक्षा निरीक्षण का प्रत्यय अधिक प्राचीन नहीं है सन् 1909 ई0 से पूर्व इसका अस्तित्व ही नहीं था। सर्वप्रथम इंग्लैड के बोस्टन नामक नगर में इस शब्द का प्रयोग किया गया। वहाँ विद्यालयों का निरीक्षण कार्य करने के लिये सन् 1909 ई0 में एक विशेष समिति की स्थापना की गयी जिसमें कुछ चुने हुए धर्माधिकारी कुछ धनिक व्यक्ति और कुछ न्यासी सम्मिलित किये गये। इस समिति का कार्य सामान्य रूप से भवन की देखभाल करना, विद्यालय के लिये धन जुटाना तथा शिक्षकों की नियुक्ति पर ध्यान देना था। इस विद्यालय के अधिकांश सदस्य अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित होते थे उनमें कार्यक्षमता अधिक नहीं होती थी इसलिये वे निरीक्षण कार्य को भी अपर्याप्त एवं अनियन्त्रित ढंग से करते थे। कुछ समय पश्चात् निरीक्षण की आवश्यकता पर और अधिक बल दिया जाने लगा। सन् (1914) ई0 से निरीक्षकों के क्षेत्र में शिक्षित व्यक्तियों का हस्तक्षेप प्रारम्भ हुआ। सुप्रसिद्ध विद्धान इलियट ने शिक्षण कार्य, शिक्षण कार्य, शिक्षण विधि एवं शिक्षण के उद्देश्यों के सम्बन्ध में अपने सुझा दिये। सन् (1922) ई0 में बर्टन ने निरीक्षण के महत्वपर अधिकाधिक ध्यान आकृष्ट किया। बर्टन का मत था कि शिक्षण कार्य में सुधार तथा उन्नति के लिये, शिक्षक कार्य में सुधार करने के लिये, विषय एवं पाठ्यवस्तु का चयन करने के लिये, परीक्षण तथा मापन के लिये तथा शिक्षकों की योग्यताओं के आधार पर उनका श्रेणीकरण करने के लिये निरीक्षण का अत्यधिक महत्व है। इस प्रकार निरीक्षण के प्रत्यय का उद्भव इंग्लैंड में हुआ जो आगे चलकर पर्यवेक्षण के स्वरूप में परिवर्तित होता गया।

 

भारत में निरीक्षण का विकास 

भारत में निरीक्षण के इतिहास का आरम्भ बूड के घोषणा पत्र (1954) की संस्तुति के बाद होती है, जिसके अनुसार प्रत्येक राज्य में एक डाइरेक्टर ऑफ पब्लिक निरीक्षक की नियुक्ति हुई थी। पुनः इन डाइरेक्टरों के लिए शिक्षा की स्थिति का सही चित्र प्रस्तुत करने के लिए योग्य इन्सपेक्टर" की आवश्यकता सुझायी गई। इ इन्सपेक्टर का कार्य सामयिक रूप से स्कूल और कॉलेजो की स्थिति का विवरण सरकार को भेजना होता था। इनका कार्य परीक्षण कराना व उनमें सहयोग देना भी था। अतः प्रारम्भ से इन्सपेक्टर का कार्य एक प्रकार से नियमों को लागू करने तथा त्रुटियों का निर्धारण करने के लिए ही हुआ ।

 

सन् 1858 में स्कूलों को डाइरेक्टर की ओर से अनुदान की शर्ते प्रस्तुत की गई, जिसके अनुसार इन्सपेक्टर को स्कूलों को निरीक्षण एवं अनुदान राशि की मात्रा निश्चित करने का भी अधिकार दिया गया। इस प्रकार इन्सपेक्टर शिक्षा प्रशासन की एक उच्च अधिकृत के रूप में सामने आया।

 

सन् 1882 में 'हन्टर कमीश्न' की सिफारिश पर इन्सपेक्टर का कार्य शिक्षण की प्रभावशीलता को इस प्रकार देखना था कि जो अनुदान सरकार की ओर से दिया जा रहा है, उसका उपयोग किस सीमा तक समुचित रूप से हो रहा है। बाद में इन्सपेक्टरों को अनुशासन सम्बन्धी अधिकार भी दिए गए।

 

सन् 1908 में बंगाल के स्कूलों में राष्ट्रीय आन्दोलनों को हतोत्सासित करने के लिए और भी अधिकार दिए गए। सन् (1919) में सेडलर कमीशन निरीक्षण की आलोचना करते हुए लिखा है कि निरीक्षण अधिकांश जल्दबाजी में होता है तथा पाठन विधियों और व्यवस्था के सम्बन्ध में मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों से रहित होता है, जोकि स्कूल निरीक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।

 

सन् 1928 में साइमन कमीशन की स्थापना हुई। उसने तत्कालीन विद्यालय निरीक्षण की कमियों की ओर ध्यान दिया। माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने भी जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि जो समय इन्सपेक्टर, इन्सपेक्शन पर बिताते हैं, वह कम है, कमियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जो इस प्रकार है-

 

i. निरीक्षक शाला में प्रभुत्व, सर्वेसर्वा बनकर आते हैं, जो केवल दोष ही ढूँढते हैं तथा आलोचना करते हैं। 

ii. अधिकतर निरीक्षक औपचारिकता निभाने के लिए आते हैं। वे न तो शैक्षिक विकास पर न ही स्कूल के विकास पर जोर देते हैं। 

iii. निरीक्षक का दृष्टिकोण रचनात्मक न होकर विध्वंसात्मक होता है। 

iv. स्कूलों की संख्या के अनुपात में निरीक्षकों की संख्या कम होती है, 

अतः वे पूरे स्कूलों को नियमित रूप से नहीं देख सकते ।

 

फोर्ड फाउंडेशन के तत्वावधान में एक अध्ययन दल ने भारतीय माध्यमिक विद्यालयों में प्रक्रिया का अध्ययन किया तथा सुधार हेतु निम्नाकिंत सुझाव प्रस्तुत किए- 


i. निरीक्षक को मानवीय सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए अपना कार्य पूरा करना चाहिए और प्रशासक की भावना दूर होनी चाहिए।

 

ii. इन्सपेक्टर का कार्य बजाय निर्णय के, सुझाव देना है।

 

iii. इन्सपेक्टरों के लिए विशेष प्रशिक्षण की जरूरत है।

 

iv. निरीक्षक को कई विधियों का ज्ञान होना चहिए तथा उसको कई भाषाएँ आनी चाहिए।

 

भारतवर्ष में निरीक्षक का प्रारम्भ पाश्चात्य शिक्षण प्रणाली का अनुकरण करने के फलस्वरूप ही हुआ। भारतवर्ष में वुड डिस्पैच की संस्तुतियों के फलस्वरूप प्रत्येक प्रान्त में शिक्षा मण्डलों तथा निरीक्षण- मण्डलों की स्थापना की गयी। पर्यवेक्षण के सन्दर्भ में वुड डिस्पैच की संस्तुति अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह संस्तुति इस प्रकार थी-

 

"हमारी शिक्षा प्रणाली का भविष्य में अत्यावश्यक अंग निरीक्षण प्रणाली का उचित स्वरूप होगा। हमारी इच्छा है कि सरकार द्वारा चलाये गये विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में निरीक्षकों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ि की जाय जो समय-समय पर इन विद्यालयों की गतिविधियों की आख्या भी प्रस्तुत कर सकेंगे। ये निरीक्षक इन विद्यालयों में परीक्षा सम्बन्धी कार्यों में भी सहायता करेंगे।

 

इन सुझावों का परिणाम यह हुआ कि शिक्षण कार्य गुणात्मकता को परखने के लिये तथा विद्यालयों को गये अनुदानों का उचित प्रयोग परखने के लिये निरीक्षकों की नियुक्ति की गयी। निरीक्षकों के अधिकारों में भी कुछ वृद्धि की गयी। जिसके फलस्वरूप निरीक्षक शिक्षण संस्थाओं में आतंक भी उत्पन्न करने लगे। वास्तव में

 

यह समय भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का था और निरीक्षकों को अधिक शक्ति एवं अधिकारों को देने का आशय तत्कालीन राष्ट्रीय भावनाओं को कुचलना था। सन् (1919) ई0 में सैडलर कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया था-

 

अधिकाशं रूप में निरीक्षण तीव्र गति से किया जाता है, उसमें सौहार्दपूर्ण सुझावों का अभाव है। शिक्षण- पद्धति तथा संगठन सम्बन्धी सुधार की ओर लेशमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता जो विद्यालयों के लिये अत्यावश्यक है।"

 

वास्तव में इन आयोगों तथा समय-समय पर नियुक्त समितियों के प्रतिवेदनों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में सुयोग्य एवं प्रशिक्षत निरीक्षकों का सर्वथा अभाव है जिसके कारण यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था तथा प्रभाव शून्य है। इन प्रतिवेदनों का एक प्रभाव यह भी हुआ कि निरीक्षण के स्थान पर पर्यवेक्षण के महत्व को समझा जाने लगा। निरीक्षक के कार्यों में सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार को सम्मिलित किया जाने लगा। सन् (1934) ई0 में अंग्रेजी सरकार द्वारा दो परामार्शदाताओं वुड तथा अबोट को भारतवर्ष के विद्यालयों में नीरीक्षण करने के लिये भेजा गया। उनके कथन का साराशं निरीक्षण के कार्य में सुधार रूप में स्वीकार किया जा सकता है। उनका कथन इस प्रकार था-

 

आचार्य नरेन्द्र देव द्वारा प्रतिवेदन में निरीक्षकों के कार्यो को अत्यधिक परम्परागत तथा मशीनवत् बताया गया तथा उसमें पर्याप्त सुधार करने के लिये सुझाव भी दिये गये। इसी क्रम से सन् (1952) ई0 में ए0 एल0 मुदालियर माध्यमिक शिक्षा आयोग के अध्यक्ष थे। उन्होंने भी अपनी रिपोर्ट में निरीक्षण की तत्कालिन स्थिति को सोचनीय बतलाते हुए इस प्रकार कहा-

 

माध्यमिक शिक्षा आयोग की सिफारिशों के आधार पर पर्यवेक्षक के महत्व को और अधिक स्वीकार " किया गया। यह धारणा बनी कि शिक्षा-संस्थाओं का उचित निर्देशन पर्यवेक्षक द्वारा ही दिया जा सकता है। पर्यवेक्षकों की गुणात्मकता एवं शक्ति में वृद्धि करने के प्रयास किये गये। निरीक्षक को विद्यालयों के प्रशासनिक कार्यों के प्रति पूर्णरूप से उत्तरदायी स्वीकार किया गया। माध्यमिक शिक्षा आयोग की कुछ प्रमुख संस्तुतियाँ थी जिसे भारतीय सरकार द्वारा स्वीकार किया गया। इसके साथ ही पर्यवेक्षण के महत्व पर दृष्टि रखते हुए भारतीय सरकार ने पर्यवेक्षण का गहन अध्ययन करने के लिये इस आयोग को पुनः प्रेरित किया जिसके बारे में विस्तार से आप पहली ईकाई मे जान चूके हैं।

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