गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- दलपतिशाह वीर नारायण रानी दुर्गावती | Gond Rajya Ka Itihaas - Part 03

 गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- दलपतिशाह 

गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- दलपतिशाह वीर नारायण रानी दुर्गावती | Gond Rajya Ka Itihaas - Part 03


 

गढ़ा का गोंड राज्य का इतिहास- दलपतिशाह 

संग्रामशाह के दो पुत्रों में ज्येष्ठ होने के कारण संग्रामशाह की मृत्यु के पश्चात् दलपतिशाह सन् 1543 ई. में सिंहासनासीन हुआ। सिंहासनारोहण के समय दलपतिशाह की आयु छब्बीस वर्ष की होगी। पत्नी दुर्गावतीमाँ पद्मावतीविमाता सुमति और अनुज चन्द्रशाह के सहयोग से उसने राजकार्य प्रारम्भ किया। दलपतिशाह ने राज्यारोहण के शीघ्र बाद अपनी राजधानी गढ़ा से सिंगौरगढ़ स्थानांतरित कर दी। दलपतिशाह के समय की अन्य किसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता। गढ़ा राज्य के दुर्भाग्य से दलपतिशाह शासन सुख का उपभोग अधिक समय तक न कर सका। अबुलफज़ल के अनसार शासन के सातवें वर्ष में दलपतिशाह की मृत्यु हो गई और उस समय उसके पुत्र वीरनारायण की आयु 5 वर्ष की थी अनुमान है कि दलपतिशाह की मृत्यु 1550 ई. में हुई ।

 

गढ़ेशनृपवर्णनसंग्रहश्लोकाः में दलपतिशाह के सचिव अधार कायस्थ का उल्लेख है । दलपतिशाह मृत्यु के उपरांत दुर्गावती के समय भी वह प्रधानमंत्री के पद पर था । दलपतिशाह के समय एक की मैथिल विद्वान महेश ठक्कुर का भी उल्लेख मिलता है। महेश ठक्कुर ने संस्कृत मे अनेक ग्रंथ लिखे केशव लौगाक्ष नामक विद्वान भी दलपतिशाह के दरबार में थे। वे मीमांसान्याय और धर्मशास्त्र के ज्ञाता थे तथा उन्होंने इन विषयों पर ग्रंथों की रचना की। दलपतिशाह एक सहिष्णु शासक था और उसने बाबा कपूर साहिब 20 कोजो कबीरपंथी संत या मुस्लिम संत प्रतीत होते हैंदान दिया।

 

वीर नारायण : दुर्गावती द्वारा सूत्र संचालन

 

दलपतिशाह की असामयिक मृत्यु ने दुर्गावती को समस्याओं की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। लगभग आठ वर्ष के वैवाहिक जीवन का उपभोग करके दुर्गावती अनुमानतः छब्बीस वर्ष की आयु में ही वैधव्य को प्राप्त हो गई। पुत्र वीरनारायण अभी बालक ही था। रानी ने अधार कायस्थ और मान ब्राह्मण नामक दो महत्वपूर्ण अधिकारियों की सलाह से वीरनारायण को राजसिंहासन पर बिठाया तथा वास्तविक शक्ति स्वयं अपने हाथ में रखी। अधार कायस्थजो दलपतिशाह के समय भी दीवान थाफिर से दीवान या मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किया गया। मान ब्राह्मण भी किसी महत्वपूर्ण पद पर था।

 

शासन शक्ति हाथ में आते ही रानी ने अत्यन्त सक्रियता से प्रशासनादि का कार्य करना प्रारम्भ किया। अपनी योग्यता से रानी ने प्रशासन की जटिल समस्याओं और राजकार्य को दक्षता से संभाला और इसमें उसने अबुलफज़ल कहता है कि साहस तथा योग्यता का परिचय दिया और अपनी दूरदर्शिता से उसने महान कार्य किए। दलपतिशाह के समय गढ़ा राज्य की राजधानी सिंगौरगढ़ थी पर दलपतिशाह की मृत्यु के बाद रानी दुर्गावती ने राजधानी के लिए अपने राज्य के दूसरे महत्वपूर्ण किले चौरागढ़ को अधिक उपयुक्त समझा और उसे अपनी राजधानी बनाया। सतपुड़ा पर्वत के एक दुर्गम तथा ऊँचे शिखर पर गढ़ा राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित यह किला आज मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले में चौगान के नाम से विख्यात है। चौरागढ़ सन् 1634 ई. तक गढ़ा राज्य की राजधानी रहा।

 

रानी दुर्गावती के समय की घटनाएँ

 

रानी दुर्गावती के समय की कई घटनाओं की जानकारी इतिहास में मिलती है। अबलुफज़ल लिखता है कि रानी का संघर्ष मियाना अफगानों से हुआ जिसमें वह विजयी हुई। इसके बाद अनेक मियाना अफगानों ने रानी की सेना में नौकरी कर ली। उदाहरण के लिए शम्स खाँ मियाना रानी की सेना का एक महत्वपूर्ण सैन्याधिकारी था ।

 

शेरशाह ने शुजात खाँ को मालवा का गवर्नर नियुक्त किया था। 1556 ई. में उसकी मृत्यु होने के बाद मालवा का शासक उसका पुत्र बाजबहादुर बना। रूपमती बाजबहादुर की प्रेमकथा का यह नायक संगीत प्रेमी था और स्वयं रूपमती संगीत और सौंदर्य की स्वामिनी थी। गद्दी पर बैठने के शीघ्र बाद बाजबहादुर ने गढ़ा राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में बाजबहादुर की पराजय हुई और अपना क्लेश भुलाने के लिए उसने स्वयं को विषय-भोगों में डुबा दिया। यह घटना 1556 और 1562 ई. के मध्य की है क्योंकि बाजबहादुर के शासन के ये ही वर्ष थे। मालवा के विख्यात शासक को हराने से रानी दुर्गावती का यश चारों ओर फैल गया। इस समय तक अकबर मुगल सम्राट के रूप में सत्तारूढ़ हो चुका था और दिल्ली के राजनीतिक वातावरण में दुर्गावती के विजय की चर्चा ने अवश्य स्थान पाया होगा ।

 

दलपतिशाह के समय के मैथिल विद्वान महेश ठक्कुर रानी दुर्गावती के समय भी पुरोहित पद पर थे। महेश ठक्कुर के तीन अग्रज भी बहुत विद्वान थे। इनके नाम थे थेघमेघ (भगीरथ) और 1 दामोदार | 22 रानी दुर्गावती के समय महेश ठक्कुर गढ़ा राज्य त्याग कर मिथिला चले गए और वहाँ उन्होंने दरभंगा राज्य की स्थापना की ऐसा विवरण स्थानीय वृत्तांतों में और जनश्रुतियों में मिलता है। दरभंगा के धनुखा शिलालेख 23 में भी ऐसा ही कहा गया है। यह शिलालेख 1556-57 ई. का है।

 

गढ़ा का महेश ठक्कुर के जाने के बाद गढ़ा राज्य में उनका कार्यभार उनके अग्रज दामोदर ठक्कुर ने संभाला। महेश ठक्कुर के जो वर्ष गढ़ा राज्य में बीते थेउनमें उन्होंने ऐसे अनेक निर्माण कार्य किए जो आज भी उनकी स्मृति को ताजा करते हैं। जबलपुर के आस पास ठाकुर तालतिरहुतिया ताल और महेशपुर ग्राम महेश ठक्कुर या उनके अग्रज दामोदर ठक्कुर ने निर्मित किए थेऐसी जनधारणा है। मैथिल ब्राह्मणों को प्रश्रय देने की परम्परा गढ़ा कटंगा राज्य में अंत तक कायम रही। रानी दुर्गावती के दरबार के एक अन्य विद्वान थे पद्मनाभ भट्टाचार्य ।

 

वल्लभ सम्प्रदाय के सुप्रसिद्ध सत विट्ठलनाथ जी रानी दुर्गावती के समय गढ़ा पधारे थे। वे वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक श्री वल्लभाचार्य के पुत्र थे। दक्षिण प्रवास से लौटते समय वे गढ़ा में रुके थेजहाँ रानी दुर्गावती ने उनके दर्शन किए और उनसे दीक्षा ली। रानी ने गुसाई विट्ठलनाथ जी को 108 ग्राम दान में दिएजिसे गुसाई जी ने अपने साथ दक्षिण से आयें तैलंग ब्राह्मणों को बाँट दिए 124 इसके बाद गुसाई जी एक बार फिर से गढ़ा आये और वहाँ उन्होंने विष्णुताल पर डेखिला। सोमवती के दिन रानी ने उनका भव्य स्वागत किया। यह सम्भवतः 1563 ई. की बात है।

 

रानी दुर्गावती के समय मुगल आक्रमण 

इस समय तक महानतम मुगल सम्राट अकबर सत्तारूढ़ हो चुका था। 1556 में पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू को परास्त करने के बाद उसका सिंहासन स्थिरता प्राप्त कर चुका था। 1562 में मालवा के शासक बाजबहादुर को परास्त करके वह मालवा को मुगल साम्राज्य में शामिल कर चुका थी। इससे गढ़ा राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमा मुगल साम्राज्य के मालवा सूबे से टकराने लगी। उधर उत्तर में भी गढ़ा राज्य की सीमा के पार से ही मुगल प्रदेश प्रारम्भ हो जाता था। तब गढ़ा राज्य के उत्तर-पूर्व में स्थित मुगल प्रदेश के कड़ा-मानिकपुर का प्रशासक आसफखाँ था। 

 

आसफखाँ का मूल नाम अब्दुल मजीद था। वह पहले बादशाह अकबर के पिता हुमायूँ की सेवा में रह चुका था और हुमायूँ के भारत लौटने के बाद दीवान के पद पर नियुक्त हुआ था। जब अकबर बादशाह बना तब उसे आसफखाँ की पदवी दी गई और तीन हजार का मनसबदार बनाकर पदोन्नत किया गया। फिर उसे कड़ा-मानिकपुर का प्रशासक भी नियुक्त किया गया। उसने भाठ के राजा रामचन्द्र को परास्त किया और उसे मुगल बादशाह की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। भाठ (रीवा राज्य) से लगा हुआ ही गढ़ा राज्य था। गढ़ा राज्य की समृद्धि के बारे में जब आसिफखाँ ने सुना तो उसके मन में गढ़ा राज्य को अधिकृत करने की इच्छा जागृत हो गई और उसने शाही अनुमति से गढ़ा राज्य पर आक्रमण करने की योजना बना डाली। 

 

जल्दी ही वह गढ़ा राज्य की सीमा में पहुँच गया। अबुलफज़ल लिखता है कि गढ़ा की सीमा तक आसफखाँ के पहुँचने पर भी रानी को चिंता नहीं हुई क्योंकि उसे अपनी सेना की शक्तिअपने साहस तथा अपनी योग्यता पर भरोसा था। आसफखाँ ने एक दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ की भाँति पहले मित्रता का द्वार मुक्त रखा और इस बीच वह चुपचाप गढ़ा राज्य के संचार साधनोंआय-व्यय और आंतरिक स्थिति जानने के लिए गुप्तचरों और अनुभवी व्यापारियों का भेजता रहा। शीघ्र ही उसने यह जानकारी एकत्र कर ली कि गढ़ा राज्य में कितनी सम्पत्ति है और कहाँ-कहाँ धन छुपा रखा है। उसने पाया कि गढ़ा राज्य को बिना अधिक कठिनाई के विजित किया जा सकता है। सम्राट की आज्ञा से दस हजार घुड़सवार एकत्र करके उसने गढ़ा पर विजय के लिए कमर कस ली। शाही आदेश से मुहब्बब अली खानमुहम्मद मुराद खानवजीर खानबाबाई काकशालनाजिर बहादुरआक मुहम्मद और इस प्रदेश के अनेक इक्तादार आसफखाँ के साथ हो लिए। पहले आसफखाँ दमोह की ओर बढ़ा। दमोह पहुँचते-पहुँचते छोटे-मोटे सरदारों के शामिल हो जाने के कारण आसफखाँ की घुड़सवार सेना की संख्या काफी हो गई। 

 

दुर्गावती का पीछे लौटना  

रानी के पास एकाएक समाचार पहुँचा कि आसफखाँ दमोह पहुँच चुका है। उस समय दुर्गावती अपने सैनिकों के साथ पास में ही सिंगौरगढ़ के किले में थी। इस खबर से रानी के सैनिकों में हलचल मच गई। उनमें से अधिकांश अपने परिवार की सुरक्षा के लिए भाग खड़े हुए। रानी के पास केवल पाँच सौ सैनिक रह गए। अपूर्ण तैयारी के बावजूद रानी को युद्ध के लिए सन्नद्ध देखकर रानी के दीवान अधार कायस्थ ने रानी को सैनिकों के पलायन के कारणों का और शत्रु की सेना की विशालता का परिचय भी दिया। रानी ने सारी स्थिति के लिए आधार को ही दोषी ठहराया और युद्धभूमि से मुँह मोड़ने से एकदम इंकार कर दियाचाहे परिणाम कुछ भी हो। स्थिति निर्बल देखकर रानी ने वापिस लौटना ठीक समझा तदनुसार रानी सेना सहित गढ़ा के पश्चिम के सघन जंगलों में चली गई। अधिक सुरक्षा की दृष्टि से कुछ किलोमीटर दक्षिण-पूर्व की ओर चली और नर्मदा तथा गौर नदियों के मध्य में स्थित वन पर्वतों के बीच नरही नामक स्थान पर उसने शिविर गाड़ दिए। अब आसफखाँ दमोह से रवाना होकर गढ़ा की ओर बढ़ा। रास्ते में इसी समय उसे रानी की स्थिति की सूचना मिली। आगे बढ़कर आसफखाँ ने गढ़ा में अपनी एक सेना छोड़ी और रानी के पीछे निकल पड़ा।

 

नर्रई में रानी की स्थिति अत्यन्त विकट थी। उसे एक प्रबल सेना से अपनी रक्षा करनी थी। उसे अब सुरक्षात्मक युद्ध ही लड़ना थाआक्रमणात्मक युद्ध का प्रश्न नहीं था। रानी ने जब आसफखाँ के आगमन का समाचार सुनाउसने तुरन्त अपने अधिकारियों की एक बैठक बुलाई। रानी के ओजपूर्ण वक्तव्य ने अपना काम किया और यह जानते हुए भी कि मृत्यु सुनिश्चित हैउसके सारे सैनिकों नेजिनकी संख्या लगभग 5000 थीयुद्ध करने का निश्चय किया। दूसरे दिन समाचार आया कि नाजिर मोहम्मदआक मुहम्मद और बहादुर सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी ने घाटीजहाँ से नरही को रास्ता जाता थाके सिरे पर अधिकार कर लिया और दुर्गावती के हाथियों के फौजदार अर्जुनदास बैस को वीरगति प्राप्त हुई। यह समाचार सुनकर रानी ने कवच और शिरस्त्राण धारण किया और एक हाथी पर सवार होकर युद्ध के लिए चल पड़ी। दोनों पक्षों के अनेक सैनिक धराशायी हुए और शाही पक्ष के तीन सौ सैनिक नष्ट हुए। इस युद्ध में रानी की विजय हुई। उसने शाही सेना का पीछा किया और घाटी से निकल आई। दिन अस्त होने पर उसने अपने प्रमुख व्यक्तियों को सलाह दी कि आज की रात ही शत्रु पर आक्रमण करके उसका नाश करना ठीक होगा नहीं तो आसफखाँ सुबह स्वयं आएगा और घाटी पर अधिकार कर लेगा तथा तोपखाने से उसकी किलेबंदी कर लेगा। लेकिन रानी के प्रस्ताव से कोई सहमत न हुआ ।

 

रानी दुर्गावती की पराजय और बलिदान 

 

दूसरे दिन सुबह वही हुआ जिसका रानी ने अनुमान लगाया था। आसफखाँ तोपखाना लेकर आया और घाटी के प्रवेश की किलेबंदी करके उसकी सेना ने पर्वतों में प्रवेश किया। युद्ध के जोश में रानी अपने हाथियों में से सर्वश्रेष्ठ और ऊँचे तथा तेज हाथी सरमन पर बैठकर बाहर निकली। उसने अपनी सेना को सन्नद्ध करके हाथी बाँटे और युद्ध के लिए तैयार हो गई । युद्ध प्रारम्भ हुआ और तीरोंबन्दूकोंकटारों और तलवारों पर बात आ गई। रानी के पुत्र राजा बीरसा (वीरनारायण) ने जो नाममात्र का शासक थाअत्यंत वीरता का प्रदर्शन किया। शम्सखान मियाना और मुबारक बिलूच ने बहादुरी से युद्ध  किया। राजा वीरनारायण ने तीन बार शाही फौज को पीछे हटायाकिन्तु तीसरी बार वह घायल हो गया। रानी के आदेश से उसे युद्ध भूमि से हटाकर सुरक्षित जगह पर ले जाया गया। इस कारण अनेक लोग युद्धभूमि छोड़कर चले गए और रानी की सेना अब काफी कम हो गई।

 

युद्ध के दौरान एक तीर रानी के दायीं कनपटी पर लगा। उसने साहस के साथ उसे निकालकर फेंक दियाकिन्तु तीर का फल घाव के भीतर ही रह गया। उसी समय एक दूसरा तीर आकर रानी की गर्दन में घुस गया। उसे भी उसने साहस से निकाल दिया। किन्तु अत्यधिक पीड़ा होने के कारण रानी भूर्च्छित हो गई। इससे रानी की सेना अपना साहस खो बैठी और उसके पैर उखड़ने लगे। कुछ क्षण उपरांत रानी को जब होश आया तो उसने देखा कि पराजय सुनिश्चित है। पराजय के उपरांत अपने दुखद अंत की कल्पना करके रानी सिहर उठी और उसने अपने महावत अधारसिंह बखीला (बघेला) से कहा कि वह एक कटार से रानी का काम तमाम कर दे। महावत ने ऐसा करने में असमर्थता प्रकट की और युद्धभूमि से बाहर ले चलने का प्रस्ताव रखा। इस पर रानी ने अपनी कटार निकाली और स्वयं अपने पर आघात किया और वीरगति को प्राप्त हो गई।

 

अबुलफज़ल लिखता है कि आसफखाँ के हाथ एक हजार हाथी तथा ढेर सारी सम्पत्ति लगी और एक विशाल भू-भाग पर उसका अधिकार हो गया। नर्रई के युद्ध की निश्चित तिथि के सम्बन्ध में इतिहास में कुछ उल्लेख नहीं मिलता। यह अवश्य है कि यह युद्ध 1564 में हुआ। जिस स्थल पर रानी ने वीरगति पाई थी वहाँ आज रानी की समाधि है और उसके निकट रानी के हाथी की भी समाधि है ।

 

दुर्गावती की पराजय के कारण ढूँढना कठिन नहीं है। गढ़ा राज्य की सीमा पर आसफखाँ के एकाएक प्रवेश से यह भी पता चलता है कि रानी की गुप्तचर व्यवस्था कमजोर थी तभी तो वह सीमा पर शत्रु की उपस्थिति का पता पहले से नहीं लगा पाई। रानी के पास तोपखाने का अभाव एक बहुत बड़ी कमी थी। रानी के पास तोपखाना था ही नहीं। फिरअन्त में वही गलती दोहराई गई जो मध्यकालीन इतिहास में अनेक बार हुई है। वह है रानी का हाथी पर बैठकर सैन्य संचालन करनाजिसके कारण वह सरलता से किसी तीरन्दाज के तीर का शिकार हो गई।

 

चौरागढ़ का पतन  

नई का युद्ध मुगलों की गढ़ा राज्य की विजय का पहला चरण था । किन्तु राजधानी चौरागढ़ पर अभी अधिकार नहीं हुआ था। वहाँ दुर्गावती का घायल पुत्र वीरनारायण अपने सहयोगियों सहित विद्यमान था। आसफखाँ को गढ़ा के आसपास के क्षेत्र पर अधिकार करने और उसकी व्यवस्था करने में दो माह लग गए। फिर वह चौरागढ़ की ओर रवाना हुआ। आसफखाँ की सेना के आगमन का समाचार सुनकर वीरनारायण युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गयाकिन्तु उसकी स्थिति इतनी निर्बल थी कि उसे पराजय का आभास हो गया था। वीरनारायण ने पराजय की स्थिति में राजपूत परम्परा के अनुसार राजपरिवार की स्त्रियों के लिए जौहर की व्यवस्था की एक संक्षिप्त युद्ध के बाद ही मुगल सेनाओं ने चौरागढ़ का किला विजय कर लिया और राजा वीरगति को प्राप्त हुआ। किले की स्त्रियों ने जौहर कर लिया। मृत्यु के समय वीरनारायण की आयु अधिक से अधिक 20 वर्ष की थी। वीरनारायण का राजत्वकाल कुल 15 वर्ष रहा।

 

अबुल फजल लिखता है कि चौरागढ़ पर अधिकार करने के बाद आसफखाँ को वहाँ सिक्केंठोस रूप में सोनानक्काशीदार पात्रजवाहरातमोतीपशुओं की ठोस रूप में सोने की आकृतियाँ और अन्य दुर्लभ चीजें मिलीं। साथ ही अलाउद्दीन के समय की सोने की अशर्फियों से भरे सौ बड़े घड़े भी उसे वहाँ मिले।

 

अलाउद्दीन के पश्चात् गढ़ा - मण्डला के वन्य प्रदेश में इतने भीतर तक अकबर की सेना ही घुस पाई। लेकिन अकबर के काल में विंध्याचल और सतपुड़ा के भीतरी भागों में आसफखाँ के सेनानायकत्व में सुसंगठित अभियान हुआजिसके फलस्वरूप इस क्षेत्र पर मुगल आधिपत्य हुआ। यह आक्रमण गौंडवाना के इतिहास के लिए कई मायनों में युगांतरकारी सिद्ध हुआ। इसके बाद से उत्तर भारत की राजनीति से इस क्षेत्र का सक्रिय सम्बन्ध स्थापित हुआ और उत्तर भारत के राजनैतिक परिवर्तनों का असर न्यूनाधिक रूप में यहाँ भी दृष्टिगोचर होता रहा। दूसरेमुगल सस्कृति से यहाँ की स्थानीय संस्कृति का सम्पर्क होना प्रारम्भ हो गया। तीसरेएक विशेष बात यह हुई कि गोंडों की राजसत्ता की स्वतंत्रता का जो अन्त हुआ उससे स्वतंत्रता आगे पुनर्जीवित न हो सकी। वे मुगल साम्राज्य के अधीनस्थ रहे।

 

रानी दुर्गावती का व्यक्तित्व और चरित्र 

रानी के शत्रु मुगलों के दरबारी इतिहासकार अबुलफज़ल की लेखनी रानी की प्रशंसा करते नहीं थकती। अबुलफज़ल कहता है कि वह सदैव शिकार पर जाती और बन्दूक से जानवरों का शिकार करती थी। उसकी आदत थी कि जब शेर दिखने का समाचार उसे मिलता तो वह उसे बिना मारे जल भी ग्रहण न करती थी। वह साहसी थी और अपनी दूरदर्शिता से उसने महान कार्य किए। 29 आसफखाँ के आक्रमण के समय निर्बल सैन्य स्थिति होने पर जब उसके सलाहकारों के उसे पीछे लौटने की सलाह दी तो उसने बुद्धिमत्तापूर्वक उसे स्वीकार करके दूरदर्शिता का ही परिचय दिया। नर्रई के रणक्षेत्र में उसकी युद्ध-योजना के कारण ही प्रारम्भ में गौंड सेना को विजय प्राप्त हुई। बाद में रानी की सलाह न मानने के कारण ही सेना को पराजय का मुँह देखना पड़ा। यह सब रानी के सामरिक ज्ञान का अच्छा प्रमाण है।

 

रानी बहुत स्वाभिमानी थी। नर्रई के रणक्षेत्र में रानी के घायल हो जाने के उपरान्त जब महावत अधार सिंह बघेला ने रानी को कटार मारने में अपनी असमर्थता बताते हुए रानी को युद्धभूमि से बाहर ले जाने का प्रस्ताव किया तो रानी ने इसे अपने सम्मान के विरुद्ध समझा और महावत को खूब फटकारा। अन्त में सम्मान की रक्षा के लिए ही रानी ने आत्मघात किया ।

 

रानी ने जनहित के कितने ही काम किए। आज भी जबलपुर स्थिति रानीताल दुर्गावती की स्मृति को ताजा बनाता है। रानीताल के निकट चेरीताल उसकी किसी दासी (चेरी) द्वारा निर्मित किया गया था। उसके मंत्री अधार कायस्थ ने जबलपुर के निकट अपने नाम पर एक तालाब अधारताल बनवाया । वास्तव में गढ़ा के आसपास रानी के समय के अनेक सार्वजनिक हित के कार्य सम्पन्न हुए। रानी ने योग्य मुसलमानों को भी ऊँचे पद दिए । शम्सखाँ मियाना और खानजहाँ डाकीत उसकी सेना के योग्य अधिकारी थे। खानजहाँ डाकीत ने मुगलों के विरुद्ध लड़ाई लड़ते हुए अपने प्राण दिए थे। विद्वानों को रानी ने समुचित प्रश्रय दिया और उनके प्रति सम्मान भी बरता। उसके दरबार में महेश ठक्कुर तथा दामोदर ठक्कुर जैसे अप्रतिम विद्वान थे। गोप महापात्र तथा नरहरि महापात्र को भी रानी ने सम्मानित किया। रानी स्वभाव से धार्मिक महिला थी। वल्लभ सम्प्रदाय के गुसाई विट्ठलनाथ जब पहली बार 1558 में गढ़ा आये तब रानी ने न केवल उनका भव्य स्वागत किया बल्कि उनसे दीक्षा ली और 108 ग्राम दान में दिए। राधाकृष्ण की भक्ति के पोषक इस सम्प्रदाय के स्वामी चतुर्भुजदास ने भी गढ़ा में अनुकूल वातावरण पाकर वहाँ एक मंदिर की स्थापना कर डाली। यह मंदिर आज भी गढ़ा के पंचमठा के क्षेत्र में विद्यमान है।

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