वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य | Objectives of Financial Management in Hindi

 वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य (Objectives of Financial Management)

वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य | Objectives of Financial Management in Hindi


 

 वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य (Objectives of Financial Management)

एक व्यावसायिक उपक्रम के वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य क्या होते हैं यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। संकुचित दृष्टिकोण से देखने पर कहा जा सकता है कि वित्तीय प्रबंध का तात्कालिक उद्देश्य उपक्रम के लिए पर्याप्त सरल एवं लाभदायक वित्त की व्यवस्था करना होता है। परन्तु विस्तृत रूप से देखने पर कहा जा सकता है कि वित्तीय प्रबंध का उद्देश्य फर्म के उद्देश्यों की प्राप्ति में अधिकतम सहायता पहुँचाना होता है। इस बात पर सामान्य सहमति है कि फर्म का वित्तीय उद्देश्य फर्म के स्वामियों के आर्थिक कल्याण को अधिकतम करना होना चाहिए। स्वामियों के आर्थिक कल्याण को किस प्रकार अधिकतम किया जा सकता हैइसके लिए अत्यधि चर्चित दो आधार बताये जाते हैंये हैं: (i) लाभ को अधिकतम करना तथा (ii) संपदा के मूल्य को अधिकतम करना। हम इन दोनों ही अधिकारों का अध्ययन करेंगे तथा यह स्पष्ट करेंगे कि स्वामियों के कल्याण को अधिकतम करने के लिए संपदा को अधिकतम करने का आधार व्यवहार में लागू करने की दृष्टि से अधिक प्रामाणिक आधार है।

 

लाभ को अधिकतम करना (Profit Maximisation)

 

परंपरागत रूप से व्यवसाय को एक आर्थिक संस्था माना गया है तथा संस्था की कुलशता को जाँचने के लिए लाभ को एक अच्छा प्रमाप माना गया है। इसलिए व्यवसाय का यह एक प्राकृतिक उद्देश्य है कि अधिकतम लाभ अर्जित करें। लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य की उपयुक्तता को निम्नलिखित तर्कों के आधार पर न्यायोचित बताया जाता है :

 

1. लाभ अधिकतम करना विवेक के आधार पर ठीक है (Profit Maximisation is justified on the ground of rationality) 

एक व्यक्ति कोई आर्थिक क्रिया विवेकपूर्ण ढंग से करता है तो उसका उद्देश्य उपयोगिता को अधिकतम करना होता है। यह तर्क दिया जाता है कि उपयोगिता को लाभ के रूप में मापा जा सकता है। अतः विवेक के आधार पर लाभ को अधिकतम करना उचित ठहराया जा सकता है।

 

2. आर्थिक कुशलता का सूचक (Indicator of economic efficiency): 

एक उपक्रम में लाभ उसकी आर्थिक कुशलता का सूचक होता है जबकि हानि आर्थिक अकुशलता की ।

 

3. साधनों का कुशल आबंटन एवं उपयोग (Efficient allocation and utilisation of resources) : 

उपलब्ध साधनों का कुशल आवंटन एवं प्रयोग लाभ के आधार पर किया जा सकता है। वित्तीय प्रबंध साधनों को कम लाभदायक उपयोगों से निकाल कर अधिक लाभदायक उपयोगों में लगाता है जिससे कुशलता बढ़ती है ।

 

4. व्यावसायिक निर्णयों की सफलता का मापक (Measurement of success of business decisions ) : 

सभी व्यावसायिक निर्णय लाभोपार्जन के उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिये जाते हैं। अतः यह निर्णयों की सफलता का प्रमुख साधन है। एक उपक्रम अपने उत्पादनविक्रय तथा निष्पादन में कुशलता अर्जित करके ही लाभ अर्जित कर सकता हैप्रबंध का कोई कार्य अथवा निर्णय सफल हुआ अथवा नहीं इसका मापन लाभ के आधार पर किया जा सकता है।

 

5. प्रेरणा का स्रोत (Source of Incentive)

 लाभ व्यवसाय के प्रेरणा का एक प्रमुख स्रोत होता है। अधिक लाभ अर्जित करने के लिए एक फर्म अन्य फर्मों से अधिक कुशल बनने के प्रयत्न करती हैअतः लाभ व्यावसायिक कुशलता का आधार है। यदि व्यावसायिक उपक्रमों से लाभ की प्रेरणा समाप्त कर दी जाये तो प्रतियोगिता का अन्त हो जायेगा तथा इससे विकास एवं प्रगति की दर धीमी पड़ जाएगी।

 

6. सामाजिक लाभ को अधिकतम बनाना (Maximisation of social benefit) 

एक फर्म अपने लाभ अधिकतम करने के उद्देश्य का पालन करके सामाजिक आर्थिक कल्याण को अधिकतम करती हैक्योंकि फर्म लाभ अर्जित करके ही विभिन्न सामाजिक कार्यों जैसे शिक्षाचिकित्साश्रम कल्याणआवासमनोरंजन आदि पर व्यय करके लोगों के कल्याण को बढ़ा सकती है।

 

लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य की निम्न सीमाएँ अथवा आलोचनाएँ :

व्यवसाय के लाभ अधिकतम करने के उद्देश्य की पिछले वर्षों में अनेक आलोचनाएं की गई है। प्रथम अब अनेक विद्वानों द्वारा यह माना जाता है कि एक व्यवसाय लाभ को अधिकतम करने का उद्देश्य केवल पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में ही प्राप्त कर सकता हैजबकि आजकल सभी देशों में तथा सभी बाजारों में अपूर्ण प्रतियोगिता देखने को मिलती है। अतः अपूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं में लाभ को अधिकतम करने का उद्देश्य उचित नहीं जान पड़ता है। द्वितीय यह भी कहा जाता है कि जब 19वीं शताब्दी के आरम्भ में लाभ को अधिकतम करने को व्यवसाय का उद्देश्य स्वीकार किया गयाउस समय व्यवसाय के ढाँचे की विशेषताएँस्वयं वित्त निजी संपत्ति तथा एकाकी संगठन थे। एकाकी स्वामी के उद्देश्य अपनी निजी संपत्ति एवं शक्ति को बढ़ाना होता था जो लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य द्वारा संतुष्ट किये जा सकते थे । परन्तु आधुनिक व्यवसाय की प्रमुख विशेषताएँ सीमित दायित्व एवं प्रबंध तथा स्वामित्व में पृथक्करण है। आज व्यवसाय के लिए वित्त की व्यवस्था अशंधारियों तथा लेनदारों द्वारा की जाती है तथा उसका प्रबंध पेशेवर प्रबंधकों द्वारा किया जाता है। तृतीय व्यवसाय से अन्य पक्षकार ग्राहककर्मचारीसरकार एवं समाज भी संबंधित होते हैं। परिवर्तित व्यावसायिक ढाँचे के अन्तर्गत स्वामी प्रबंधक का स्थान पेशेवर प्रबंधकों ने ले लिया हैजिसे व्यवसाय से संबंधित सभी पक्षों के विभिन्न टकराव वाले हितों में मेल बैठाना होता है। इस नवीन व्यावसायिक वातावरण में लाभ को अधिकतम करने का उद्देश्य वास्तविककठिन तथा अनैतिक लगता है। उपर्युक्त आलोचनाओं के अतिरिक्त लाभ को अधिकतम करने का विचार व्यवसाय के स्वामियों के आर्थिक कल्याण को प्राप्त करने के आधार के रूप में भी अव्यावहारिक लगता है। इसके द्वारा वैकल्पिक कार्यों का श्रेणीबद्ध करना (Ranking of alternative course of action) संभव नहीं है। लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य की निम्न सीमाएँ अथवा आलोचनाएँ :

 

1. अस्पष्ट धारणा (It is vague)

 लाभ की धारणा एक अस्पष्ट धारणा है। अल्पकालीन लाभ को अधिकतम करें अथवा दीर्घकालीन लाभ को लाभ के अनेक रूप हो सकते हैंजैसे सकल लाभब्याज एवं कर के पूर्ण लाभ कर के बाद लाभशुद्ध लाभ आदि। इनमें से कौन से लाभ को अधिकतम किया जाये।

 

2. मुद्रा के समय मूल्य की उपेक्षा (It ignores time value of money) :

 लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य की इस आधार पर भी आलोचना की जाती है कि यह विभिन्न समय अवधियों में प्राप्त की गई लाभ की राशियों में अन्तर नहीं करता है अर्थात् यह मुद्रा के समय मूल्य को महत्व नहीं देता है। आज जो लाभ होता हैतथा एक सालदो अथवा अधिक सालों बाद प्राप्त होने वाले लाभ मुद्रा के मूल्य की दृष्टि से समान नहीं हो सकते हैं। आज प्राप्त होने वाले एक रुपये का मूल्य आज से एक साल बाद प्राप्त होने वाले एक रुपये के मूल्य से निश्चित रूप से अधिक होगा। इसका कारण यह है कि आज प्राप्त होने वाले लाभ की राशि को आय अर्जित करने के लिए पुनः विनियोग किया जा सकता है। इसे मुद्रा का समय मूल्य कहा जाता हैजिसकी इस विचारधारा द्वारा अपेक्षा की जाती है।

 

3. भावी क्रियाओं से लाभ के उत्कर्ष तत्त्व की उपेक्षा (It overlooks quality aspect of profit from future activities) : 

यह सिद्धांत लाभ के उत्कर्ष तत्त्व (Quality aspect of profit) की ओर ध्यान नहीं देता है। किसी कार्य के करने पर प्राप्त होने वाले लाभ की निश्चितता का अंश अधिक अथवा अनिश्चितता का कम मात्रा में हो सकता है जो जोखिम की न्यून मात्रा का प्रतीक होता हैजबकि किसी कार्य में अनिश्चितता अधिक हो सकती है जो अधिक जोखिम का प्रतीक होगा। किसी कार्य के फलस्वरूप लाभ की निश्चितता अधिक परन्तु थोड़ा कम लाभ हो इसके विपरीत लाभ की अधिकता परन्तु बहुत अधिक अनिश्चितता होतो पहली स्थिति को अधिक पसंद किया जाना चाहिए। यह सिद्धांत इस पर विचार नहीं करता है।

 

4. व्यवसाय के सामाजिक दायित्व की उपेक्षा (Ignores social responsibility of business) : 

यह विचारधारा स्वामियों के लाभ को अधिकतम करता है तथा व्यवसाय के सामाजिक दायित्व की उपेक्षा करता है इसमें श्रमिकोंउपभोक्ताओंसामान्य जनता व सरकार की उपेक्षा की गई है।

 

उपर्युक्त अध्ययन के बाद यह कहा जा सकता है कि लाभ को अधिकतम करने का समय आज की परिवर्तित व्यावसायिक परिस्थितियों में ठीक नहीं जान पड़ता तथा इसको व्यवहार में वित्तीय निर्णयों पर लागू करना भी कठिन है

 

संपदा के मूल्य को अधिकतम करना (Maximization of Wealth)

 

  • अब लाभ को अधिकतम करने के स्थान पर फर्म की संपदा के मूल्य को अधिक करना व्यवसाय का मूल उद्देश्य माना जाता हैअतः वित्तीय प्रबंध का उद्देश्य भी फर्म की संपदा के मूल को अधिकतम करना होता है। वित्तीय प्रबंध को फर्म के लिए ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे फर्म की संपदा का मूल्य बढ़ता है तथा ऐसे कार्य नहीं करने चाहिए जिससे संपदा का मूल्य कम होता है। वह कार्य अवश्य किया जाना चाहिए जिससे संपदा का निर्माण होता है। तथा फर्म का शुद्ध मूल्य (Net worth of the firm) बढ़ता है। यदि वित्तीय प्रबंध के सामने एक से अधिक वैकल्पिक कार्यों में किसी एक को चुनने की समस्या होतो वह कार्य चुना जाना चाहिए जिससे सर्वाधिक संपत्ति अथवा शुद्ध मूल्य का निर्माण हो। किसी आर्थिक कार्य को करने से शुद्ध वर्तमान मूल्य (Net present value of worth) धनात्मक होता है तो उस कार्य को किया जाना चाहिएक्योंकि इससे फर्म की संपदा के मूल्य में वृद्धि होती है। किसी कार्य का शुद्ध वर्तमान मूल्य उस कार्य से प्राप्त कुल वर्तमान मूल्य में से उस कार्य में की गई प्रारम्भिक पूँजी विनियोजन की राशि को घटाने से प्राप्त हो सकता है।

 

  • संपदा के मूल्य को अधिकतम करने का सिद्धांत परिवर्तित व्यवसायिक परिस्थितियों में नियमित उपक्रमों के लिए भी उपयुक्त होता है। यह सिद्धांत संभावित लाभ के समय मूल्य को मान्यता देता है तथा जोखिम एवं अनिश्चिता का भी विश्लेषण करता है। इस सिद्धांत के अनुसार विभिन्न विकल्पों में से सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव किया जा सकता है। जो कंपनियाँ साधारण अंश निर्गमित करती है तथा जिनके अंशों का मूल्य बाजार में उद्धृत किया जाता है उनके अंशों के बाजार मूल्य के आधार पर यह देखा जा सकता है कि कंपनी की संपत्तियों के मूल्य को व्यक्त करता है। कंपनी के अंशधारियों की विनियोजित संपत्ति तभी बढ़ती है सब उनके अंशों के बाजार मूल्य में बढ़ोत्तरी हो। कंपनी के अंशों का मूल्य उसके द्वारा अर्जित लाभों की मात्रा से प्रभावित होता हैपरन्तु यह भी संभव है कि लाभ कमाने वाली कंपनियों के अंशों के बाजार मूल्य में पर्याप्त वृद्धि न होक्योंकि अंशों का बाजार मूल्य कंपनी लाभ की मात्रा के साथ-साथ उसके भावी लाभ कमाने की क्षमता कंपनी की लाभांश नीतिसंपत्तियों की तरलता तथा कंपनी की शोधन क्षमता जैसे अन्य तत्त्वों पर भी निर्भर करता है। इसीलिए दो अथवा अधिक कम्पनियों में लाभ की मात्रा समान होने पर भी उनके अंशों के बाजार मूल्यों में भिन्नता होती है। कंपनी के अंशों का बाजार मूल्य कंपनी की समृद्धि तथा संपन्नता का सूचकांक तथा प्रबंध की कुशलता का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए वित्तीय प्रबंध का उद्देश्य उपक्रम की संपत्तियों के मूल्यों को अधिकतम करना होना चाहिए। निगमित उपक्रमों में यदि अंशों का मूल्य एक लंबे समय में लगातार बढ़ रहा है तो यह कहा जा सकता है कि वित्त प्रबंध निगम उद्देश्य की पूर्ति में सक्षम रहा है।

 

संपदा के मूल्य को अधिकतम करने के सिद्धांत के निम्न लाभ हैं :

 

  • संपदा मूल्य अधिकतम करना एक स्पष्ट अवधारणा हैइसमें भावी रोकड़ प्रवाहों का वर्तमान मूल्य लिया जाता है। 
  • यह सिद्धांत मुद्रा के समय मूल्य पर विचार करता है जिससे रोकड़ प्रवाहों के वर्तमान मूल्य के आधार पर प्रबंध महत्त्वपूर्ण निर्णय ले सकता है। 
  • इस सिद्धांत को सार्वभौमिक स्वीकृति प्राप्त हुई क्योंकि यह वित्तीय संस्थाओं स्वामियोंकर्मचारियों तथा समाज सबके हित का ध्यान रखता है। 
  • यहः सिद्धान्त प्रबंध को सुदृढ लाभांश नीति अपनाने का निर्देशन देता है जिससे समता अंशधारियों को अधिकतम प्रत्याय प्राप्त हो । 


यह सिद्धांत जोखिम तत्व को विनियोग निर्णयों में आवश्यक महत्त्व प्रदान करता है। एक फर्म जो अपने अंशधारकों की संपत्ति का मूल्य अधिकतम बनाने का कार्य करती हैऐसे निम्न कार्य करने चाहिएं :

 

1. उच्च स्तर की जोखिमों से बचा जाय (Avoid high levels of risks) :

 यदि फर्म के दीर्घकालीन व्यवसायिक प्रचालनों को देखा जाये तो उनमें अनावश्यक तथा अधिक मात्रा वाली जोखिमों से बचना चाहिए। अधिक जोखिम कार्यों की तुलना में कम जोखिमपूर्ण तथा अधिक लाभदायकता वाले क्षेत्रों को चुनना चाहिए। ऊँचे स्तर की जोखिम की क्रियाएँ फर्म के लिए बड़ी घातक सिद्ध हो सकती है।

 

2. लागत में कमी (Reduction in cost ) : 

संस्था को एक तरफ पूँजी की लागत कम करनी चाहिए अर्थात् साधन न्यूनतम लागत पर प्राप्त किये जायें तथा द्वितीय इसे अपने कार्यचालन की लागत (Operating Cost ) को कम करना चाहिए।

 

3. लाभांश का भुगतान ( Pay dividends ) 

लाभांशों का भुगतान फर्म तथा अंशधारियों की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। फर्म के जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में नीची दर से लाभांश दिया जाये तथा जैसे-जैसे फर्म परिपक्व हो तथा उसे विस्तार के लिए धन की कम आवश्यकता होवैसे-वैसे अधिक लाभांश बाँटा जाये। निरन्तर उपयुक्त मात्रा में लाभांश दिए जाने पर विनियोक्ता आकर्षित होते हैं। फर्म के अंशों का बाजार मूल्य तथा फर्म की वर्तमान संपदा बढ़ती है।

 

4. विकास अथवा वृद्धि की प्राप्ति (Seek growth) 

एक फर्म को अपने वर्तमान मूल्य को अधिकतम करने के लिए अपने विक्रय तथा लाभों में वृद्धि करनी होती है। उसे विकास एवं विस्तार की योजनाएँ बनाकर लागू करनी चाहिए। कोई भी संस्था या तो विकास करती है या उसका पतन हो जाता है। इसलिए फर्म को सदैव विकास व विस्तार के लिए कार्यशील रहना चाहिए।

 

5. अंशों के बाजार मूल्य को बनाये रखना (To maintain market price of shares ) : 

जो प्रबंध फर्म की संपदा के मूल्य को अधिकतम करना चाहता हैउसका कर्तव्य है कि वह फर्म के अशों का बाजार में ऊँचा मूल्य बनाये रखे। वित्तीय प्रबंधक को उपक्रम के स्वास्थ्य के साथ-साथ स्वामी -हित भी अक्षुष्ण रखना होता है।

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