वित्तीय प्रशासन का विकास | भारत के वित्तीय प्रशासन का इतिहास | Financial Administration : Evolution in Hindi

वित्तीय प्रशासन का विकास (Financial Administration : Evolution)

वित्तीय प्रशासन का विकास | भारत के वित्तीय प्रशासन का  इतिहास | Financial Administration : Evolution in Hindi


 

वित्तीय प्रशासन का विकास ऐतिहासिक (इतिहास )परिप्रेक्ष्य (Historical Background)

 

  • एक प्रचलन के रूप में, वित्तीय प्रशासन भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। रामायण में संतुलित बजट तैयार करने के बारे में उल्लेख मिलता है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी तक वित्तीय प्रशासन विकास की उन्नत अवस्था में पहुँच गया था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र वित्तीय प्रशासन पर एक शोध-प्रबंधन था। इसके अंतर्गत लोक वित्त तथा वित्तीय प्रशासन के अनेकों स्वस्थ सिद्धान्त मौजूद थे। मौर्यकाल में प्रशासन द्वारा अपने राजकोषीय कार्य इन्हीं सिद्धान्तों के अनुरूप संपादित किए जाते थे। भू-राजस्व, राजस्व का प्रमुख स्त्रोत था। सोना, पशुओं आदि जैसी वस्तुओं पर भी कर लगाए जाते थे। लोक निर्माण कार्यों से प्राप्त आय गैर कर राजस्व का प्रमुख स्त्रोत था । जनता से उधार लेने तथा घाटे की अर्थव्यवस्था जैसी चीजों के बारे में कोई जानता तक नहीं था। उस समय एक भली-भांति संगठित वित्तीय संरचना मौजूद थी जिसके तहत महासंग्रहकार, महा-खजांची तथा महालेखाकार के कार्यालय शामिल थे। राजकोषीय निर्णय राजसी सनक तथा ठाटबाट से प्रभावित रहते थे और वित्तीय जवाबदेही की कोई स्वस्थ प्रणाली मौजूद नहीं थी। गुप्त काल में करीब करीब इससे मिलती जुलती वित्तीय प्रशासन की प्रणाली कायम रही । मुगलकाल में एक व्यापक एवं सुव्यवस्थित वित्तीय प्रणाली देखी गई। भू-राजस्व का राजस्व के प्रमुख स्त्रोत के रूप में होना जारी रहा। इसे सर्वेक्षण तथा बंदोबस्त के नाम से जानी जाने वाली एक व्यवस्थित प्रक्रिया के पश्चात् ही आरोपित किया जाता था। भारत में राजस्व प्रशासन की बुनियादी संरचना का निर्माण शेरशाह सूरी द्वारा किया गया।

 

  • अकबर के दरबार में कार्यरत एक कुलीन व्यक्ति, राजा टोडरमल ने इसे सुव्यवस्थित किया तथा एक नियम पुस्तक के रूप में राजस्व प्रशासन के सिद्धांतों का प्रवर्तन किया, जिसे आगे चलकर अंग्रेजों द्वारा अपना लिया गया। उन्होंने भूमि के मसलों में बिचौलियों के संबंध कायम किए। जजिया, आयकर, संपत्ति कर इत्यादि अन्य प्रत्यक्ष करों का अंश थे। अप्रत्यक्ष करों में सीमा शुल्क, बिक्री कर चुंगी तथा उत्पादक शुल्क शामिल थे। सार्वजनिक कोषों के संग्रह, देखभाल तथा संवितरण के लिए सरकारी तथा गैर-सरकारी खजानों का एक तंत्र मौजूद था।

 

  • यद्यपि, उपरोक्त विरासत ने भारत के राजकाषीय इतिहास पर अपने पद चिन्हों की अमिट छाप छोड़ी है, फिर भी आधुनिक, वित्तीय प्रणाली की शुरूआत ब्रिटिश प्रशासन के दौरान हुई। इस काल में वित्तीय प्रशासन विकास के अनेक विशिष्ट चरणों से होकर गुजरा। 


भारत के वित्तीय प्रशासन का  इतिहास

भारत के वित्तीय प्रशासन के इतिहास को मोटे तौर पर निम्नलिखित चार विशिष्ट चरणों में विभाजित किया जा सकता है:

 

  • काल I (1765-1858) संरचना का निर्माण तथा उसका सुदृढीकरण 
  • काल II (1859-1918) प्रणालियों तथा प्रक्रियाओं का विकास काल
  • III (1919-1947) जनतंत्रीकरण तथा 
  • विकेन्द्रीकरण काल IV (1948 से आज तक) विकासात्मक रूझान

 

भारत के वित्तीय प्रशासन का  इतिहास काल - 1 

संरचना का निर्माण तथा उसका सुदृढ़ीकरण (Creation of Structure and its Consolidation)

 

  • 1765 में दीवानी अधिकारों का अधिग्रहण ब्रिटिश भारत के वित्तीय प्रशासन की स्थापना का प्रतीक है। सभी शक्तियाँ ईस्ट इंडिया कम्पनी की सौंप दी गई और इन्हें कम्पनी द्वारा नियंत्रक बोर्ड के जरिए जागू किया जाता था। भारत में प्राप्त राजस्व को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की वाणिज्यिक कमाई माना जाता था। ब्रिटिश सरकार, विभिन्न विनियोजन अधिनियमों में यथा उपबंधित, अप्रत्यक्ष तरीकों के जरिए ही कम्पनी प्रशासन पर प्रभाव डाल सकती थी। सार्वजनिक वित्त का अधीक्षण एवं नियंत्रण, गवर्नर के नेतृत्व में प्रत्येक प्रेसीडेन्सी में अलग से सौंपा गया था। नियंत्रक बोर्ड से खासतौर पर अनुमति प्राप्त किए बिना भारत का गर्वनर जनरल इन कोषों का इस्तेमाल नहीं कर सकता था । हालांकि युद्ध के दौरान वह इन कोषों का उपयोग कर सकता था। 
  • 1833 में कम्पनी प्रशासन में भारी अव्यवस्था के चलते, ब्रिटिश संसद ने कार्यवाही शुरू की। 1833 के भारत सरकार अधिनियम के तहत ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत पर स्वयं शासन करने का अधिकार खो दिया। इसके पास रखी संपत्ति को सम्राट के लिए ट्रस्ट के रूप में छोड़ा गया। अधिनियम ने अधीक्षण नियंत्रणकारी सत्ता भारत के गर्वनर जनरल को सौंप दी। गर्वनरों को भी अपनी सत्ता से हाथ धोना पड़ा क्योंकि गर्वनर जनरल से मंजूरी प्राप्त किए बिना वे न तो किसी नए पद की स्थापना कर सकते थे न ही कोई अनुदान, वेतन, भत्ता अथवा उत्पादन ही दे सकते थे। भारत सरकार के वित्त सचिव को प्राक्कलन तैयार करने, उपायों तथा साधनों का प्रावधान, ऋणों पर बातचीत तथा लेखे का पर्यवेक्षण आदि जैसे वित्तीय कार्यों के संचालन एवं समन्वय का दायित्व सौंपा गया। उसे नये व्यय संबंधी तमाम प्रस्तावों की समीक्षा करनी होती थी। बंगाल का महालेखाकार भारत कास महालेखाकर बन गया तथा उस वित्त सचिव के समक्ष वित्तीय विवरणियों तथा लेखे प्रस्तुत करने का दायित्व सौंपा गया। लेखापरीक्षा के लिए कोई प्राधिकारी नियुक्त नहीं था क्योंकि वह प्रान्तों के पास बनी रहीं। वित्त तथा लेखे के एक संयोग के जरिए वित्त सचिव के हाथ मजबूत करने की दृष्टि से इसे 1857 में भारत का महालेखाकार बना दिया गया। यह व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं चल पायी। 1857 में लार्ड कैनिग द्वारा शुरू किए गए सुधारों के तहत वित्त सचिव को केवल वित्त का कार्यभार सौंपा गया। भारत के महालेखाकार को जिसने वित्त सचिव के लेखा संबंधी कार्यभार ग्रहण किया था, लेखापरीक्षा का दायित्व सौंपा गया।

 

  • वित्तीय प्रशासन के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया 1858 के अधिनियम ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की औपचारिक सत्ता समाप्त कर दी। ब्रिटिश सरकार ने भारतीय वित्त व्यवस्था का पर्यवेक्षण एवं नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया। अधिनियम के तहत भारत के लिए एक सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्स का प्रावधान किया गया उसकी मदद के लिए काउंसिल ऑफ इण्डिया का गठन किया गया। ब्रिटिश मंत्रिमंडल में मिनिस्टर ऑफ स्टेट्स हुआ करता था जो भारतीय वित्तीय एवं प्रशासनिक मामलों के लिए उत्तरदायी होता था। उसकी पूर्वस्वीकृति के बिना भारतीय वित्त में से किसी तरह का विनियोजन नहीं किया जा सकता था। गवर्नर जनरल को सौंपे हुए वित्तीय प्राधिकार प्राप्त थे। भारत का सैक्रेटरी ऑफ स्टेट्स बजट की स्वीकृति आचार संहिताओं तथा कार्यकारी आदेशों में यथा - अभिव्यक्त नियमों तथा कायदों की एक प्रणाली के जरए व्यय का नियंत्रण आदि जैसे उपायों द्वारा भारतीय वित्त का नियंत्रण करता था। उसके अधीनस्थ एक वित्तीय समिति तथा वित्त सचिव रहता था जो एक सलाहकार के बतौर वित्त विभाग के भारतीय कार्यालय का प्रमुख होता था। कांउसिल ऑफ इण्डिया जिससे चौकीदार जैसी भूमिका की अपेक्षा की गई थी. अपनी भूमिका निभाने में असफल रही क्योंकि उसके पास एक "निरंकुश' सैक्रेटरी ऑफ स्टेट्स को नियंत्रित करने का कोई साधन मौजूद न था। समय के अभाव रूचि के अभाव तथा भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास आदि जैसे अनेक कारणों से भारत के सैक्रेटरी ऑफ स्टेट के उपर संसदीय नियंत्रण भी काफी कमजोर था सैक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया वस्तुतः सत्ता का प्रमुख केन्द्र बन गया । किन्तु स्थानीय परिस्थिति से अनभिज्ञता प्रभावी संचार व्यवस्था के अभाव, भौगोलिक कारकों (दूरियों) इत्यादि जैसी सीमाओं के चलते वह प्रभावी नियंत्रण कायम करने की स्थिति में नहीं था। उसके पास भारत के गवर्नर जनरल को महत्वपूर्ण वित्तीय प्राधिकार सौंपने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं था, गवर्नर जनरल ही भारतीय वित्तीय गतिविधियों का असली कर्ताधर्ता बन गया। भारत में उसे नियंत्रित करने वाली कोई सत्ता मौजूद न थी क्योंकि लेजिस्लेटिव कांउसिल को वित्तीय मामलों की परीक्षा करने का कोई अधिकार नहीं था प्रान्तों की केन्द्र पर अत्यधिक निर्भरता का युग, जो 1833 में शुरू हुआ था 1858 के भारत सरकार अधिनियम के तहत भी जारी रहा। भारत के गवर्नर जनरल की तुलना में महालेखाकार की निम्नतर हैसियत ज्यों की त्यों बरकरार रही।

 

  • वित्त विभाग की अध्यक्षता तथा निर्देशन वित्त सदस्य को करना होता था। भारतीय वित्त के संदर्भ में वह अनेक कर्तव्यों का निर्वाह करता था। वह वार्षिक वित्तीय विवरण तैयार करता था, वित्त व्यवस्था को स्वस्थ रखना, सुनिश्चित करने के लिए आय-व्यय की प्रगति पर निगरानी रखता था, धन संबंधी व्यवस्था का पर्यवेक्षण प्रशासन करता था तथा प्रान्तीय वित्त विभागों का पर्यवेक्षण एवं नियंत्रण करता था। वित्त सचिव के नेतृत्व में वित्त विभाग को यह सुनिश्चित करना होता था कि भारत के लिए सैक्रेटरी ऑफ स्टेट्स द्वारा लागू प्रतिबंधों पर अमल किया जा रहा है तथा नियम-कायदों का पालन हो रहा है। इसके पास दोहरी शक्ति थी। अर्थात् बजटपूर्व छानबीन तथा व्यय की मंजूरी।

 

भारत के वित्तीय प्रशासन का  इतिहास काल - II 

प्रणालियों एवं प्रक्रियाओं का विकास (Development of systems and Procedures)

 

  • गवर्नर जनरल को महसूस हुआ कि वित्तीय समस्याओं का अकेले सामना करना असंभव है। 1859 में, उसके अनुरोध पर, कार्यकारिणी परिषद् में उसकी मदद के लिए वित्त सदस्य का पद स्थापित किया गया। जैम्स विल्सन पहला वित्त सदस्य था। उस समय तक बजट निर्माण की प्रणाली नहीं थी क्योंकि कानून में इसका कोई प्रावधान नहीं था। हालांकि कानून उससे यह मांग नहीं करता था फिर भी विल्सन ने 18-2-1860 को विधान परिषद् में पहला बजट प्रस्तुत किया यद्यपि उसके बजट पर परिषद् ने बहस नहीं की, किन्तु उसकी प्रस्तुति ने वित्तीय मुद्दे पर खासी दिलचस्पी पैदा की। इसने एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया जिससे जब भी कोई वित्तीय मकसद सामने आता तो परिषद में बजट पेश होता और उस पर विस्तृत चर्चा होती। 1861-62 से वार्षिक बजट प्रणाली की स्थापना हुई। 1892 के परिषद् अधिनियम ने गवर्नर जनरल ऑफ इण्डिया इन कांउसिल को विधान परिषद् में बजट पर बहस को अधिकृत करते हुए नियम बनाने के लिए अधिकृत किया जिनके तहत बजट प्रस्तावों को उलट देने का अधिकार नहीं दिया गया था। लेकिन सदस्यों को कोई प्रस्ताव पेश करने की स्वतंत्रता नहीं थी। सार्वजनिक कोष पर लोकप्रिय नियंत्रण कायम करने के लिए सदन के भतर तथा बाहर लगातार आन्दोलन जारी रहा। 1895 तथा 1896 के अपने वार्षिक अधिवेशनों में कांग्रेस द्वारा संपूर्ण बजट व्यवस्था की मांग करते हुए प्रस्ताव पारित किए गए। 1909 के अधिनियम के तहत वार्षिक बजट पर विस्तृत बहस तथा साथ ही बजट अनुमानों पर प्रस्ताव पारित करने के उपबन्ध किए गए हालांकि 1909 का अधिनियम बजटीय विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था किन्तु इससे सीमित लाभ ही मिल सके क्योंकि ये प्रस्ताव सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं थे। 1910 के अधिनियम ने बजट की विधानमंडलों द्वारा स्वीकृति की आधुनिक प्रणाली की शुरूआत की विधानमंडलों को मंजूरी देने अथवा मंजूरी देने से इंकार करने अथवा उल्लेखित धनराशि में कटौती करने के लिए अधिकृत किया गया । किन्तु इस प्रणाली में दो खामियां थी। पहली यह कि सराकर लोकप्रिय जनमत को ठुकरा सकती थी और दूसरा यह कि बजट के आधे से भी अधिक मामलों पर मतदान नहीं कराया जा सकता था। 1935 के अधिनियम ने भी इस प्रणाली में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं किया।

 

  • 1860 में महालेखाकार को भारत का महालेखाकार बना दिया गया और वह लेखा सार्वजनिक विभागों के कार्यों का पर्यवेक्षण आदि जैसे अनेक कर्त्तव्यों का निर्वाह करने के लिए उत्तरदायी था1919 के अधिनियम ने उसे संवैधानिक हैसियत प्रदान की। उसे सरकार से स्वतंत्र रखा गया ताकि वह चौकसी करने की अपनी भूमिका प्रभावी ढंग से निभाने में सक्षम हो सके।

 

भारत के वित्तीय प्रशासन का  इतिहास काल - III 

जनतंत्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरण (Democratization and Decentralization)

 

  • 1909 तक केन्द्रीय विधानमंडल शक्तिशाली नौकरशाही तले दबा हुआ था। 1909 के मिण्टो मार्ले सुधारों ने केन्द्रीय विधानमंडल में निर्वाचित तत्वों के सीमित प्रवेश का इरादा बनाया। किन्तु 1919 के अधिनियम के तहत प्रान्तीय विधानमंडलों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत हो गया तथा केन्द्रीय विधानमंडल का विस्तार किया गया और उसे अधिक लोकप्रिय प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाया गया। इस अधिनियम ने प्रांतीय सरकारों में अधिकतम लोकप्रिय प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया। इसने प्रान्तीय सरकारों में दोहरी शासन व्यवस्था की परिकल्पना भी की जिसके तहत प्रान्तीय स्वायत्ता की प्रक्रिया 1937 में पूरी हुई जबकि 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत लोकप्रिय सरकारों का गठन हुआ । केन्द्र में दोहरी शासन प्रणाली 1935 के अधिनियमों के तहत शुरू की गई जिसके अनुसार वायसराय की कार्यकारी परिषद् के लोकप्रिय ढंग से निर्वाचित सदस्यों के मातहत 20 प्रतिशत व्यय रखे जाने का प्रावधान किया गया। लेकिन गवर्नर जनरल द्वारा उपभोग की जा रही विशेष शक्तियों ने लोकप्रिय भागीदारी को धक्का पहुँचाया।

 

  • 1833 से पहले कोई केन्द्र सरकार नहीं थी। 1833 से ही प्रान्तों के केन्द्र पर निर्भरता के युग की शुरूआत हुई। यह निर्भरता इतनी अधिक थी कि कोई गवर्नर 10 रूपये प्रतिमाह से अधिक वेतन वाले किसी भी स्थाई पद का निर्धारण नहीं कर सकता था। व्यवस्था 1858 के अधिनियम के तहत भी जारी रही। बुनियादी आधार - वाक्य यह था कि साम्राज्य को समग्र रूप से लिया जाना चाहिए न कि पृथक राज्यों के संकलन के रूप में। हालांकि प्रादेशिक सत्ता में 1857, 1877, 1882, 1897, 1904 और 1911 में किए गए विभिन्न विरोधों एवं समझौतों के जरिए वृद्धि हुई थी किन्तु यह बुनियादी आधार - वाक्य 1919 का अधिनियम एक मील का पत्थर था। इसने केन्द्र तथा प्रान्तों के बीच शक्तियों तथा दायित्वों का सांविधिक वितरण किया। अंतरित विषयों पर प्रान्तों द्वारा अपने बजट प्रस्तुत करने की अनिवार्यता अब नहीं थी। किन्तु इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल को गवर्नरों का पर्यवेक्षण तथा नियंत्रण करने की महत्वपूर्ण शक्तियों की परिकल्पना की। उदाहरण के तौर पर वह संदेशों की शक्ल में गवर्नरों को निर्देश भेज सकता था । समग्र - संघवाद के मूल लक्षणों तथा संरचनओं का आरंभ 1935 में किया गया जो आज तक विद्यमान है।

 

भारत के वित्तीय प्रशासन का  इतिहास काल - IV 

विकासात्मक रूझान (Development Orientation )

 

  • स्वतंत्रता ने वित्तीय प्रशासन की राजनैतिक पृष्ठभूमि में मौलिक परिवर्तन ला दिया। कार्यपालिका द्वारा विधायिका के प्रति जवाबदेही के सिद्धांत को औपचारिक मान्यता प्रदान की गई। बजटीय तथा अन्य प्रणालियों एवं प्रक्रियाओं को इस सिद्धान्त का पालन तथा क्रियान्वयन करने के अनुरूप ढाला गया। विधानमंडल समितियां सार्वजनिक कोषों के स्वरूप, विवरण, वैधानिक तथा निरंतरता में सक्रिया रूचि लेने लगी। नियंत्रण एवं महालेखापरीक्षक एक संवैधानिक प्राधिकारी बन गया जिस पर विधानमंडलीय शक्तियों को सहायता देने की भी जिम्मेदारी थी। वित्तीय प्रशासन ने धीरे-धीरे अपना केन्द्र स्थायित्व से हटाकर कल्याण, विकास तथा समता पर केंद्रित किया। 1974 में नियोजन तथा बजट प्रक्रिया को मिलाकर निष्पादन बजट प्रणाली शुरू की गई, जिसने वित्तीय प्रक्रिया को परिणाम उन्मुखी बना दिया। वित्तीय नियंत्रण की प्रणाली को मूलतः पुनर्गठित किया गया ताकि इसे योजना के क्रियान्वयन का एक औजार बनाया जा सके। परिणामस्वरूप 1955 1958, 1962, 1968 तथा 1975 की योजनाओं जैसी अनेक प्रतिनिधित्व की योजनाओं के जरिए व्यय करने वाले विभागों को महत्वपूर्ण शक्तियां सौंपी गई वित्तीय नियंत्रण का दायित्व भी दृढ़ता के साथ करने वाले विभागों पर निश्चित किया गया। इसे दो साधनों से प्राप्त किया जाता था पहली एकीकृत वित्तीय सलाह की योजना एवं दूसरी लेखा परीक्षा परिणामस्वरूप कर संरचना को तर्कसंगत बनाने के लिए अनेक कदम उठाये गए। काल्डोर के कर प्रस्ताव, वांचू समिति रिपोर्ट, झा समिति रिपोर्ट आदि इन कदमों के उदाहरण है। घाटे की अर्थव्यवस्था एक नियमित लक्षण बन गई क्योंकि सरकार को विकास की गति में तेजी लाने के लिए दबाव का सामना करना पड़ रहा था।

 

  • बैंकिग प्रणाली का राष्ट्रीयकरण, राष्ट्रीय कोषों के विकासात्मक गतिविधियों की ओर प्रवाह का एक औजार माना गया था। विकास एवं समता के ध्येयों के आगे बढ़ाने में सार्वजनिक क्षेत्र ने उल्लेखनीय महत्व प्राप्त कर लिया। कुछ अवांछित परिणाम भी सामने आए। तेजी से बढ़ती मुद्रास्फीति, भुगतान संतुलन का सिकुड़ना, सार्वजनिक क्षेत्रों से नकारात्मक परिणामों में वृद्धि सार्वजनिक बचतों में कमी तथा स्त्रोत आधार का सिकुड़ना इत्यादि का वित्तीय प्रशासन पर अंततः इस तरह बुरा प्रभाव हुआ कि सरकार को इन प्रवृत्तियों को सुधारने के लिए कदम उठाने पड़े।

 

  • निष्कर्ष के रूप में, काल - 1 के दौरान मूलतः वित्तीय संगठन के निर्माण पर बल दिया गया जिसका उद्देश्य सैक्रेटरी ऑफ स्टेट्स तथा गर्वनर जनरल के रूप में नियंत्रण तथा निर्देशन के केन्द्र का निर्माण करना था । काल-II को एक स्वस्थ बजट प्रणाली की उत्पत्ति तथा उसके प्रयोग के प्रयास के लक्षणों से पहचाना जा सकता है। काल - III में स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं और अनेक परिणाम के रूप में धीरे-धीरे लोकप्रिय तत्वों को शामिल करने के प्रयास हुए। इससे सत्ता का विकेन्द्रीकरण तथा संघीय संरचना का निर्माण भी देखा गया। अंतिम चरण जनता तथा उसकी भलाई एवं विकास की तरफ झुकाव के लक्षण से पहचाना जा सकता है।

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