बहुलवाद क्या है ? | बहुलवाद की विशेषताएं विकास | बहुलवाद के विकास में सहायक तत्व |What is pluralism in Hindi

 बहुलवाद क्या है ?  विशेषताएं  विकास  विकास में सहायक तत्व

बहुलवाद क्या है ? | बहुलवाद की विशेषताएं  विकास | बहुलवाद के विकास में सहायक तत्व |What is pluralism in Hindi


 

बहुलवाद क्या है ?

  • बहुलवाद क्या है ? यह जानने के पहले हमे यह जानना होगा कि एकलवाद क्या है ? अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'पोलिटिकल प्लूरेलिज्म' मे हेसिये ने लिखा है “एकलवादी राज्य वह है जिसके पास केवल सत्ता का एक स्रोत है अथवा होना चाहिए। जो सिद्धान्त रूप में सर्वब्यापक तथा असीमित होता है यहां एक तथा निरंकुश शक्ति सम्प्रभुता है तथा ऐसे सिद्धान्त को जो ऐसे सम्प्रभुता के अस्तित्व को मानता है बहुलवादी एकलवाद कहते है । " अर्थात एकलवाद सम्प्रभुता को राज्य की अद्वितीय, निरंकुष, अविभाज्य तथा सर्वोच्च शक्ति मानता है जबकि राज्य की सम्प्रभुता को सीमित कर देने वाला तथा उसका अन्य समुदायों के पक्ष में समर्पण की मांग करने वाला सिद्धान्त बहुलवाद के नाम से सम्बोधित किया जाता हैं। बहुलवादियों का मानना है कि मानव अपनी विभिन्न आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न संगठनो का निर्माण करता है राज्य भी उन्हीं मे से एक हैं। अतः शासन की शक्ति उसी अनुपात में इन संगठनो मे विभाजित कर दी जानी चाहिए जिस अनुपात में वे मानव के आवश्यकताओं को पूर्ण करते है। इसकी मान्यता है कि चूंकि समाज संघात्मक है इसलिए सत्ता भी संघात्मक होनी है। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि बहुलवादी सम्प्रभुता सीमित तथा बंटी हुई है। यह प्रभुसता को सर्वव्यापक, अविभाज्य तथा निरंकुष नही मानता है बल्कि राज्य को भी अन्य समुदायों की भाँति जनहित का एक समुदाय समझता है।

 

  • हेसिये  बहुलवाद की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "बहुलवादी राज्य एक ऐसा राज्य है जिसमें सत्ता का केवल एक स्रोत नहीं है बल्कि यह विभिन्न क्षेत्रो में विभाजित है और इसे विभाजित किया भी जाना चाहिए। "

 

  • बहुलवादी बडे ही रोचक ढंग से राज्य के अद्वैतवादी सम्प्रभुता पर प्रहार करते हैं। उन लोगो ने राज्य के सम्प्रभुता को हानिकारक, कष्टदायी निरर्थक और त्याज्य माना।

 

  • कहा जाता है कि बहुलवादी राज्य की आलोचना करते हैं, उसकी बेइज्जती करते हैं तथा उसको उच्च आसन से हटाकर निम्नतर श्रेणी में पहुँचाना चाहते हैं। क्रैब का विचार है कि "सम्प्रभुता की धारणा को राजनीति से निकाल देना चाहिए। डयूगी के अनुसार" राज्य का प्रभुत्व या तो मर चुका है। या मृत्यु शैया पर पड़ा है।" लिंडसे के शब्दों में “यदि हम तथ्यों पर दृष्टि डाले तो यह स्पष्ट है कि राज्य के प्रभुसत्ता का सिद्धान्त भंग हो चुका है। "बार्कर का कहना है कि” कोई भी राजनीतिक सिद्धान्त निष्प्राण और व्यर्थ नहीं हो गया है जितना कि सर्व प्रभुत्त सम्पन्न राज्य का । "लास्की ने तो यहाँ तक कह दिया है कि” यदि सम्प्रभुता की सम्पूर्ण धारणा का त्याग कर दिया जाय तो यह राजनीति शास्त्र के लिए एक स्थायी लाभ की बात होगी । "


बहुलवाद की विशेषताएं 

संक्षेप में बहुलवाद की विषेषताओं का उल्लेख निम्न रूपों में किया जा सकता है

 

(1) समाज में अनेकता है इसलिए हितों में भी अनेकता होती है। 

(2) राज्य भी अन्य समूदायों की भाँति एक समुदाय ही है इसलिए इसे सर्वोच्चता व सर्वव्यापकता नहीं मिलनी चाहिए। 

(3) राज्य की प्रभु सत्ता असीमित व निरकुंश नहीं हो सकती। 

(4) सम्प्रभुता अविभाजित नहीं है बल्कि इसका विभाजन विभिन्न समुदायो तथा राज्य के बीच होना चाहिए । 

(5) व्यक्ति की सम्पूर्ण आस्था केवल राज्य के प्रति नही हो सकती है क्योंकि वह अन्य समुदायों के प्रति भी आस्था रखता है। 

(6) कानून केवल सम्प्रभु का आदेष मात्र नहीं है। 

(7) वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीयता के युग में वाह्य सम्प्रभुता भी अन्तर्राष्ट्रीय नियमो द्वारा सीमित है।

 

बहुलवाद का विकास

 

  • प्रत्येक सिद्धान्त अपने समय की सामाजिक आवश्यकताओं का परिणाम होता है। 16 वीं एवं 17 वीं शतब्दियों मे जो समाजिक आवष्यकताएँ पैदा हुई उनकी पूर्ति के लिए राज्य के सम्प्रभुता का एकलवाद सिद्धान्त अस्तित्व में आया। ठीक उसी प्रकार 19 वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों तथा 20 वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों की आवष्यकताओं ने बहुलवाद को बढावा दिया।

 

  • यद्यपि बहुलवाद के विकास की प्रक्रिया मध्ययुग से ही प्रारम्भ हो गयी थी जब समाज की अव्यवस्था पूर्ण स्थिति में राज्य के अतिरिक्त स्थानीय संस्थाओं और समुदायों का अत्यधिक महत्व था। धार्मिक क्षेत्र में चर्च, आर्थिक क्षेत्र में व्यावसायिक श्रेणियों और राजनीतिक क्षेत्र में सामन्तो को महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त थी। चर्च एवं सामन्त राजा के प्रभुत्व में सहभागी होते थे। कभी-कभी उनमें संघर्ष की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती थी जो गृह युद्ध का रूप धारण कर लेता था।

 

  • सोलहवीं एंव सत्रहवी शताब्दी में राष्ट्रीयता की प्रबल भावनाओं के कारण यूरोप के कुछ देशों में राष्ट्रीय राज्यो का अभ्युदय हुआ। जिसमें सम्प्रभुता का स्वरूप अद्वैतवादी रहा। राजनीतिक सत्ता निरंकुष राजाओं में केन्द्रित होने के कारण अधिनायकवादी प्रवृति का विकास हुआ। जिसके विरूद्र जन आन्दोलन और क्रान्तिया हुई इन क्रान्तियो ने निरंकुष शासको को तो समाप्त कर दिया परन्तु रंकुष एक नये युग का सूत्रपात हुआ जो इतना प्रबल था कि मानव जीवन का प्रत्येक आयाम के (पक्ष) इससे प्रभावित होने लगा इसके विरूद्ध प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। राज्य के इस एकत्ववादी निरंकुशता के विरूद्ध जो विचार परम्परा अस्तित्व में आयी उसे बहुलवाद के नाम से जाना है। इस प्रकार बहुलवाद के अभ्युदाय में राज्य की निरंकुषता और केन्द्रीयकरण के प्रवृत्तियाँ के विरोध का भाव निहित है।

 

  • बहुलवाद का जनक (जन्मदाता) गियर्क और मेटलैण्ड को माना जाता हैं। इन लोगो ने 19 वीं शताब्दी के अन्त में अपने विचारों का प्रतिपादन करते हुए कहा कि समाज मे विद्यमान विभिन्न समुदाय मानव स्वभाव की उपज हैं। ये अपने स्वरूप में काल्पनिक तथा कृत्रिम नहीं होते हैं बल्कि उनका अपना व्यक्तित्व, अपनी इच्छा तथा चेतना होती है। मे राज्य के नियन्त्रण से मुक्त और कभी कभी उससे अग्रणी भी होते हैं। बाद में समाजवादी विचारको ने बहुलवाद पर बल देते हुए बताया की मानवीय जीवन बहुआयामी (कई पक्षीय) होता है। राज्य अर्थात राजनतिक पक्ष जीवन का एक अंष मात्र है। एमिल दुर्खिम ने व्यावसायिक समूह को पुनर्जागृत करने का प्रयास किया। समाजषास्त्रियों ने यह भी सुझाव दिया कि भौगोलिक प्रतिनिधित्व के स्थान पर व्यावसायिक प्रतिनिधित्व को स्वीकार किया जाय। कुछ विद्वानो ने विषिष्ट समुदायो के स्वतन्त्र अधिकारों पर बल देकर राज्य के सर्वोच्चता का प्रतिरोध किया । बहुलवाद के प्रमुख समर्थको में जे. नेविल, फिगीस, पाल बान्कुर, दुर्खिम, मैकाइबर, लास्की, बार्कर, डिग्विट, क्रैब, जी. डी. एच. कोल और मिस फालेट का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

 

बहुलवाद के विकास में सहायक तत्व

 

बहुलवाद के विकास मे निम्नलिखित कारण सहायक बने -

 

(1) बहुलवाद राज्य के पूजा के सिद्धान्त के विरूद्ध प्रतिक्रिया है। हीगल तथा उसके अनुयायियों ने राज्य को एक रहस्यात्मक देवता बना दिया था। हीगल का मानना था कि “राज्य पृथ्वी पर ईष्वर का अवतरण है। ''इस प्रकार राज्य के सर्वसत्तावादी स्वरुप की स्थापना हुई। जिसमें मानव का सम्पूर्ण जीवन पूर्णतः राज्य के अधीन हो गया तथा राज्य के ऊपर किसी भी प्रकार के नियन्त्रण को अस्वीकार कर दिया गया। परिणामस्वरुप 19 वीं शताब्दी में अनेक राज्य स्वेच्छाचारी और निरकुंष बन गये। जिससे व्यक्ति की वैयक्तिक स्वतन्त्रता का लोप हो गया। अतः इस सर्वसत्तावाद के विरुद्ध प्रबल जनमत जागृत हुआ जिसने बहुलवाद के विकास की पृष्ठभूमि तैयार की।

 

(2) वर्तमान लोक कल्याणकारी राज्य के युग में राज्य का कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक हो गया है। अर्थात राज्य का उत्तर दायित्व मानव जीवन में 'पालने से लेकर कब्र तक हो गया है। कार्यभार की अधिकता के कारण राज्य के लिए यह सम्भव नहीं रह गया है कि वह मानवीय जीवन की सभी आवश्यकताओं को कुशलता पूर्वक पूरा कर सके। अतः यह आवश्यक हो गया है कि राज्य शक्ति को विकेन्द्रित कर उसके कार्यो को अन्य संस्थाओं में विभाजित कर दिया जाय ।

 

(3) विगत सौ वर्षों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ है। जिससे दुनिया के देष एक-दूसरे के करीब आये हैं अर्थात विष्व के देशों की दूरियाँ सिमट गयी हैं। ऐसे में किसी एक में घटने वाली घटना दूसरे देषों को प्रभावित किये बिना नही रहती है। आज राज्य सम्प्रभुता सम्पन् राज्य नही बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय परिवार के एक सदस्य मात्र रह गय है। इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का विकास बहुलवाद के विकास में एक प्रमुख सहायक तत्व रहा है।

 

(4) प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र में क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की त्रुटियों ने भी यह आवश्यक बना दिया है कि व्यावसायिक प्रतिनिधित्व को स्थापित किया जाय। क्योंकि क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व में समाज के सभी वर्गो व व्यवसायों के लोगों को प्रतिधित्व नही हो पाता है अतः बहुलवादियों ने नारा बुलंद किया कि आर्थिक, व्यावसायिक और धार्मिक समूहों को भी सत्ता प्रदान की जाय तथा इन्हें प्रतिनिधित्व का आधार बनाया जाय । व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के समर्थक राज्य के उग्र विरोधी तथा समुदायों के समर्थक थे।

 

(5) बहुलवाद के प्रतिपादक गियर्क, मेटलैण्ड और फिगिस ने मध्यकाल की उस व्यवस्था की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया जिसमें आर्थिक संघों को सर्वोच्चता प्राप्त थी तथा शक्ति एक जगह केन्द्रित नहीं थी बल्कि यह आर्थिक संघों में बटी हुई थी। जो आन्तरिक रुप से स्वतन्त्र थे। जि प्रकार मध्यकाल में समुदायों की सत्ता उपयोगी व राज्य के हस्तक्षेप से स्वतन्त्र थी। उसी प्रकार वर्तमान समय में सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि समुदायों की स्थिति पायी जाती है। अतः इन समुदायों को राज्य के समान मानते हुए सामासजिक सत्ता को संघात्मक बनाया जाना चाहिए।

 

(6) मिल, लॉक, मान्टेस्क्यू, स्पेंसर आदि व्यक्तिवादियों ने व्याक्ति के महत्व का प्रतिपादन करते हुए राज्य के अद्धैतवादी सम्प्रभुता पर प्रहार किया । इनका मानना था कि राज्य व्यक्ति के लिए है व्यक्ति राज्य के लिए नहीं। अतः यह आवष्यक है कि राज्य की सम्प्रभुता इतनी अधिक न हो जाय कि राज्य के लिए व्यक्ति के अस्तित्व और उसके हितों को बलिदान कर दिया जाए। इस प्रकार इन विचारकों ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर राज्य सता का विरोध किया। इस पृष्ठभूमि ने बहुलवाद विचारधारा के विकास की दिषा में मार्ग प्रषस्त किया।

 

(7) आधुनिक युग में कुछ नवीन विचारधराओं का उदय हुआ है जो राज्य को अलाभकारी तथ निरर्थक मानती है। इनमें अराजकतावाद, संघवाद तथा श्रेणी समाजवाद प्रमुख हैं। इसमें अराजकतावाद राज्य शक्ति (सम्प्रभुता) के अस्तित्व को ही समाप्त करने का पक्षपोषण करता है क्योंकि इसका मानना है कि सामाजिक व्यवस्था व व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए राज्य के सम्प्रभुता

 

का अस्तित्व न तो आवश्यक है और न ही उपयोगी । संघवादी विचारक सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर आधारित संघो के पारस्परिक सहयोग पर आधारित समाजो मानव कल्याण का साधन है। जबकि श्रेणी समाजवाद के समर्थकों का मानना है कि वास्तविक कल्याण सम्प्रभुता के बहुलवादी आधार पर निर्मित समाज में ही सम्भव है। इस प्रकार उक्त तीनों विचारधाराओं ने भी राज्य के एकल सम्प्रभुता का विरोध कर बहुलवाद के लिए पथ प्रषस्त किया. 


उपर्युक्त विष्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि बहुलवाद के विकास में सबसे मूल भावना यह रही है कि राज्य के सम्प्रभुता की एकलवादी धारणा न तो वांछनीय है और नहीं समाज कल्याण के दृष्टि से उपयोगी ही है।

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