राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त - विकासवादी सिद्धान्त |राज्य के विकास में सहायक तत्व | Theory of Origin of the State - Evolutionary Theory

राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त - विकासवादी सिद्धान्त, राज्य के विकास में सहायक तत्व

राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्त - विकासवादी सिद्धान्त |राज्य के विकास में सहायक तत्व | Theory of Origin of the State - Evolutionary Theory
  

राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त 

  • राज्य की उत्पत्ति के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया जिनमें दैवी सिद्धान्त, सामाजिक समझौता सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, पितृसत्तात्मक एंव मातृसत्तात्मक सिद्धान्त प्रमुख है। इन सिद्धान्तों से प्रायः यही निष्कर्ष निकलता है कि राज्य का निर्माण एक निश्चित समय पर किया गया या किसी एक तत्व का इसके पीछे योगदान रहा है। गहराई से देखने पर यह अनुभव होता है कि राज्य का निर्माण नहीं किया गया। यह तो निरन्तर विकास का परिणाम है। डा0 गार्नर का यह कथन सर्वथा उपयोगी है कि "राज्य का न तो ईश्वर की सृष्टि है, न ही वह उच्चकोटि के शारीरिक बल का परिणाम है, न किसी प्रस्ताव या समझौते की कृति है और न परिवार का ही विस्तृत रूप है। यह क्रमिक विकास से उदित एक ऐतिहासिक संस्था है। "

 

  • राज्य विकास का परिणाम है तथा राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धान्त द्वारा ही की गई है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य का विकास लम्बे समय से चला आ रहा है तथा आदिकालीन समाज से क्रमिक विकास करते करते इसने वर्तमान राष्ट्रीय स्वरूप को प्राप्त किया है।

 

राज्य के विकास में सहायक तत्व:

 

यह बताना कि कब एवं  किस प्रकार राज्य अस्तित्व में आया, अत्यधिक कठिन है। गेटेल के अनुसार ” अन्य सामाजिक संस्था की भाँति ही राज्य का उदय अनेक स्रोतों से तथा अनेक प्रकार की स्थितियों के अधीन हुआ और वह लगभग अदृश्य रूप से उभरा है।” प्रकृति परिस्थिति तथा स्वभाव के भेदों के कारण विभिन्न समयों, अवस्थाओं एंव स्थानों में राज्यों के विकास का क्रम भी विभिन्न रहा है और उसके अर्न्तगत निम्न तत्वों का योगदान प्रमुख रूप से रहा है- (1) रक्त सम्बन्ध (2) मानव की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियाँ ( 3 ) धर्म (4) शक्ति (5) आर्थिक गतिविधियाँ (6) राजनीतिक चेतना।

 

1.रक्त सम्बन्ध - 

  • यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि सामाजिक संगठन का प्राचीनतम् रूप रक्त सम्बन्ध पर आधारित था तथा रक्त सम्बन्ध एकता का प्रथम तथा दृढ़तम बन्धन रहा है। आंग्ल भाषा की कहावत है कि- खून पानी से गाढ़ा होता है। इसके अन्तर्गत पुरूष नारी तथा बच्चों से 'युक्त परिवार संगठित जीवन की प्रथम इकाई बना। हर परिवार का मुख्यिा होता था और उसे परिवार के सदस्यों पर किसी न किसी प्रकार से नियंत्रण प्राप्त था। मूल परिवारों में से कई परिवार विकसित हुए जिसके परिणाम स्वरूप एक नई इकाई जाति, कबीला या कुटुम्ब का जन्म हुआ। परिवार के मुखिया की ही भाँति बड़ी इकाई कबीले का भी एक मुखिया बन गया। परिवारों से कबीला तथा कबीले से अन्ततः राज्य बन गये। हेनरी मेन ने उचित ही कहा है, “प्राथमिक संवर्ग परिवार है। परिवारों का योग कुलों या घरानों का गठन करता है। घरानों के योग से कबीला बनता है। कबीलों के योग से राज्य बनता है।'' मैकाइबर के अनुसार - “जैसे-जैसे पीढ़ियों के विकास के साथ संवर्ग विशाल होता गया, रक्त सम्बन्धें का भाव और अधिकार पुष्ट होता गया । रक्त सम्बन्ध ने समाज का निर्माण किया है तथा समाज ने आगे चलकर राज्य का निर्माण किया है। "

 

2. मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियाँ 

  • मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक तथा राजनीतिक प्राणी है तथा समूह में रहने की मानव की प्रवृत्ति ने ही राज्य को जन्म दिया है। समाज में साथ-साथ रहते हुए जब विभिन्न व्यक्तियों के स्वभाव तथा स्वार्थगत भेदों के कारण विभिन्न प्रकार के विवाद उत्पन्न हुए तो इन विवादों को दूर करने के लिए एक सम्प्रभुता सम्पन्न राजनीतिक संस्था की आवश्यकता समझी गयी तथा राज्य का उदय हुआ। इस प्रकार राज्य को बहुत अधिक सीमा तक मानव की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्ति का परिणाम कहा जा सकता है। इस सम्बनध में जॉन मार्ले ने उचित ही कहा है “राज्य के विकास का वास्तविक आधार मनुष्य के जीवन में विद्यमान अन्तर्जात प्रवृत्ति रही है। "

 

3. धर्म 

  • रक्त सम्बन्ध की भाँति ही धर्म का राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वस्तुतः प्रारम्भिक समाज में रक्त सम्बन्ध एवं धर्म एक ही वस्तु के दो पहलू थे तथा दोनों की परिवार तथा कबीलों को परस्पर जोड़ने का कार्य साथ ही करते थे । विल्सन के अनुसार “प्रारम्भिक समाज में धर्म समान रक्त का प्रतीक, उसकी एकता, पवित्रता तथा दायित्व की अभिव्यक्ति था । " गेटेल ने तो यहाँ तक लिखा है कि रक्त सम्बन्ध तथा धर्म एक ही वस्तु के दो रूप धार्मिक मान्यता प्राप्त थी । तथा समूह की एकता एवं उनके कर्तव्यों को वस्तुतः धर्म का उदय परिवारों एवं कबीलों में रहने वाले लोगों की जीवन शैली में से हुआ। प्रारम्भिक समाज में धर्म के दो रूप प्रचलित थे पितृ पूजा तथा प्राकृतिक शक्तियों की पूजा । व्यक्ति अपने परिवार के वृद्ध व्यक्तियों के मृत हो जाने पर भी उनके प्रति ऋद्धा रखते थे तथा उनका विचार था कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा शेष रहती है, अतः इस आत्मा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने पितृ पूजा आरम्भ कर दी। धर्म के इस बहुप्रचलित रूप ने परिवारों को एकता के सूत्र में बाँधा जो एक ही वंश या रक्त से सम्बन्धित होते थे, उनके कुल देवता या पूर्वज भी एक ही हुआ करते थे।

 

  • उस समय धर्म का एक दूसरा प्रचलित रूप प्राकृतिक शक्तियों की पूजा थी । प्रारम्भिक समाज में बुद्धि के विकास के अभाव में व्यक्ति प्राकृतिक परिवर्तनों को समझने में असमर्थ थे। उन्होंने बादल की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक, वायु की गति तथा वस्तुओं के परिवर्तन ईश्वर की शक्ति का अनुभव किया तथा प्रकृति की प्रत्येक वस्तु उनके लिए देवता बन गई। व्यकित पृथ्वी सूर्य, अग्नि, इन्द्र तथा वरुण की उपासना करने लगे तथा एक ही शक्ति के उपासकों में परस्पर घनिष्ठ मैत्री भाव उत्पन्न हुआ जो राज्य का आधार बना।

 

  • प्रारम्भिक समाज में विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को देचता या भूत-प्रेत समझा जाता था तथा जब कोई व्यक्ति यह सिद्ध कर देता था कि वह प्राकृतिक शक्तियों को नियंत्रित रख सकता है, तब उसे समाज में असाधारण शक्ति तथा सम्मान प्राप्त हो जाता था तथा अनेक बार वे तांत्रिक कहे जाने वाले व्यक्ति राजा बन जाते थे। यूनानी नरार राज्य में ऐसा ही हुआ था। धर्म ने एक से अधिक रूप में राज्य के विकास में अपना योगदान दिया है। 

 

4.शक्ति 

  • राज्य संस्था के विकास में शक्ति या युद्ध का स्थान भी विशेष महत्वपूर्ण रहा है। जैक्स के अनुसार "युद्ध ने सम्राट को जन्म दिया” अन्य मनुष्यों पर आधिपत्य स्थापित करने तथा संघर्ष एवं आक्रमण की प्रवृत्ति भी मानव की मूल प्रवृत्तियों में से एक है। मानवीय विकास के प्रारम्भिक काल में ये प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक सक्रिय थीं। कृषि तथा व्यवसाय की उन्नति ने निजी सम्पत्ति की धारणा बढ़ावा दिया। ऐसी स्थिति में निवास स्थान तथा सम्पत्ति की रक्षा के लिए युद्ध होने लगे। लोग सुरक्षा प्रदान करने की क्षमता रखने वाले शक्तिशाली व्यक्ति के नेतृत्व को स्वीकार करने लगे। इस नेता की अधीनता में एक कबीला दूसरे कबीले पर आधिपत्य जमाने की चेष्टा में संलग्न रहा तथा संघर्ष की इस प्रक्रिया में विजयी कबीले का सैनिक सरदार राजा बन बैठा। बलपूर्वक शक्ति ने प्रभुसत्ता का रूप धारण किया तथा शासक के प्रति भक्ति एवं निष्ठा की भावना का जन्म हुआ।

 

  • आत्म रक्षा तथा विस्तारवादी प्रवृत्ति ने भी राज्य के विकास में अपना योगदान दिया है। उदाहरण स्वरूप, अमेरिका के कई उपनिवेश ब्रिटिश सम्राट जार्ज तृतीय के विरूद्ध संगठित हो गये तथा उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी क्योंकि उन्हें अंग्रेजों के आक्रमण तथा शोषण का खतरा था। प्राचीनकाल में विजयों के द्वारा छोटे राज्यों से बड़े राज्यों तथा बड़े से विशाल साम्राज्यों का उत्थान तथा पतन इसी प्रकार हुआ। भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध के शासक नन्द को परास्त करके अपने विशाल साम्राज्य की नींव रखी तथा धीरे-धीरे उसका विस्तार किया। इसी प्रकार यूरोप में भी रोम के सम्राटों ने दूर-दूर के प्रदेशों को जीतकर रोम साम्राज्य का निर्माण किया जिसका कालान्तर में पतन भी हो गया। मैकाइबर का कहना सर्वथा सत्य है कि राज्य का उदय शक्ति के द्वारा नहीं हुआ है यद्यपि शक्ति ने राज्य विस्तार में महत्वपूर्ण भाग लिया है।

 

5. आर्थिक गतिविधियाँ 

  • आर्थिक गतिविधियों ने भी राज्य की उत्पत्ति एवं विकास में अपना योगदान दिया है। सबसे पहले मनुष्य शिकार के द्वारा अपना जीवनयापन करता था, तदोपरान्त पशुपालन की अवस्था आ गई। शिकार अवस्था में धनवान एवं निर्धन का भेद न था, परन्तु पशुपालन अवस्था में यह भेद उभरकर सामने आ गया। जिसमें पास अधिक पशु होते थे, वह धनवान समझा जाता था तथा जिसके पा कम होते थे या बिलकुल नहीं होते थे वह निर्धन समझा जाता था। पशुपालन के युग में मनुष्य की आवश्यकतायें बढ़ गई तथा धीरे-धीरे कृषि का रिवाज आरम्भ हुआ। कृषि के आरम्भ होने से मनुष्य का एक स्थान से दूसरे पर भोजन की तलाश में घूमना फिरना बन्द हो गया तथा वह एक स्थान पर बस गया। इस प्रकार से ग्रामों तथा नगरों की उत्पत्ति हुई । कृषि के आरम्भ होने से उद्योगों एवं व्यापार की भी उन्नति हुई तथा सम्पत्ति की परम्परा ने जन्म लिया । सम्पत्ति के कारण अनेक वर्ग उत्पन्न हुए तथा उनमें संघर्ष बढ़ा। अतः इन संघर्षों को नियंत्रित करने के लिए कानून की आवश्यकता महसूस हुई। गेटेल के अनुसार, “आर्थिक सेवायें, जिनके द्वारा मनुष्य ने मौलिक अपेक्षाओं की संतुष्टि की तथा बाद में सम्पत्ति एवं धन का संचय किया, राज्य निर्माण में आवश्यक तत्व रही है। "

 

  • प्लेटो, मैकियावेली हाब्स, लोक, आडम स्मिथ तथा मांटेस्क्यू जैसे विचारकों ने भी राज्य की उत्पत्ति तथा विकास में आर्थिक तत्वों के योग को स्वीकार किया है। आगे चलकर कार्ल मार्क्स ने तो इस विचार को प्रकट करते हुए लिखा है कि, “राज्य आर्थिक परिस्थिति की ही अभिव्यक्ति है।"

 

6. राजनीतिक चेतना

 

  • राज्य की स्थापना में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान राजनीतिक चेतना का माना जाता है। जब लोगों ने यह अनुभव करना आरम्भ किया कि वे किसी जंगली संगठित होकर ही कर सकते हैं तो उनमें राजनीतिक संगठन की भावना उत्पन्न हुई तथा उसी के परिणाम स्वरूप राज्य का जन्म हुआ। जनसंख्या वृद्धि मानव जाति सम्बन्धों को नियमित करने तथा सम्पत्ति का वृद्धि के साथ भी राज्य की आवश्यकता अनुभव की गई। इसके अतिरिक्त शान्ति व्यवस्था की स्थापना तथा आर्थिक उन्नति के लिए भी राज्य की अनिवार्यता बढ़ती गई। यह आवश्यकता इसलिए और भी बढ़ जाती थी क्योंकि एक समुदाय के दूसरे समुदाय पर आक्रमण से रक्षा की आवश्यकता अनुभव की गई। इस आवश्यकता की पूर्ति केवल एक अच्छा योद्धा तथा कुशल नेता ही कर सकता था । यही नेता आगे चलकर राजा बन गया। गिलक्राइस्ट के अनुसार, “राज्य निर्माण के सभी तत्वों की तह में, जिनमें रक्त सम्बन्ध एवं धर्म भी सम्मिलित है, राजनीतिक चेतना है, जो सबसे प्रमुख तत है।” अतएव यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि राजनीतिक चेतना ही मनुष्य को राज्य के रूप में संगठित करती है।

 

  • इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्य की उत्पत्ति तथा विकास में अनेक तत्वों ने अपना योगदान दिया है, जिनमें रक्त सम्बन्ध धर्म, शक्ति सामाजिक प्रवृत्ति, आर्थिक गतिविधियों तथा राजनीतिक चेतना महत्वपूर्ण है। इन सभी तत्वों ने राज्य के विकास में अपना अभीष्ट योगदान दिया है इस सन्दर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जितने सिद्धान्त उभरकर सामने आये हैं उनमें यही सिद्धान्त सबसे वास्तविक तथा सर्वमान्य प्रतीत होता है।

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