राज्य की उत्पत्ति का मार्क्सवादी सिद्धान्त |Marxist theory of origin of the state

राज्य की उत्पत्ति का मार्क्सवादी सिद्धान्त

राज्य की उत्पत्ति का मार्क्सवादी सिद्धान्त |Marxist theory of origin of the state
 

राज्य की उत्पत्ति का मार्क्सवादी सिद्धान्त

  • इस सिद्धान्त का जन्म दाता महान विचारक कार्ल मार्क्स माना जाता है। मार्क्स के विचार राज्य की उत्पत्ति के संदर्भ में अन्य सिद्धान्तों से अलग प्रतीत होते हैं। मार्क्स राज्य को प्राकृतिक एवं अनिवार्य संस्था नहीं मानता है। मार्क्स के अनुसार राज्य की उत्पत्ति न तो किसी नैतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुई है तथा न मनुष्यों की इच्छा की पूर्ति के लिए। राज्य एक वर्गीय संस्था है जो एक वर्ग के द्वारा दूसरे वर्ग के दमन एवं शोषण के लिए स्थापित की जाती है। दूसरे शब्दों में राज्य धनी व्यक्तियों हाथ में ऐसा खिलौना है जिसके माध्यम से निर्धनों का शोषण किया जाता है।

 

  • मार्क्स ने राज्य की उत्पत्ति की विस्तृत व्याख्या नहीं प्रस्तुत की है। उसकी रूचि वस्तुतः राज्य के स्वरूप में थी। 1847 में जब मार्क्स ने अपनी पुस्तक ब्वउउनदपज डंदपमिजव लिखी तो उसका आरम्भ इस वाक्य से होता था, “आज तक के सम्पूर्ण समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। यद्यपि इस वाक्य में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि वर्तमान समाज से पहले कोई ऐसा भी समाज था जहाँ वर्ग संघर्ष विद्यमान न था। बाद में अनेक वैज्ञानिकों तथा इतिहासकारों ने कुछ ऐसे आदिम समुदायों का पता लगाया जो साझा सम्पत्ति के आधार पर संगठित थे। इन समुदायों के विघटन के कारण ही समाज परस्पर विरोधी वर्गों में विभाजित हो गया और यहीं से राज्य की नींव पड़ी। मार्क्स के निकटतम सहयोगी फ्रेडरिक एंजेल्स ने भी लिखा है कि राज्य कोई प्राकृतिक संस्था नहीं है बल्कि मानव इतिहास के एक विशेष मोड़ पर राज्य की उत्पत्ति हुई अर्थात् राज्य की उत्पत्ति वर्ग विभाजन एवं वर्ग संघर्ष का अनिवार्य परिणाम है। इस संदर्भ में निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

 

1. राज्य की उत्पत्ति का आधार वर्ग विभाजन

 

  • मार्क्स की धारणा के अनुसार राज्य एक वर्गीय संस्था है। चूँकि राज्य का उदय इस वर्ग विभाजन एवं संघर्ष के परिणाम स्वरूप हुआ है अतएव वह एक अस्वाभाविक संस्था है। आदिम साम्यवादी अवस्था में समाज के सदस्यों के मध्य हितों का कोई संघर्ष न थाअतएव राज्य का अस्तित्व न था। परन्तु दास प्रथा के युग में स्थिति बदल गई। इस युग में भू-स्वामियों के हाथ में भूमिसम्पत्ति तथा उत्पादन के सभी साधन थे तथा वे दासों का शोषण करते थे। स्वामी वर्ग के सदस्यों की संख्या बहुत कम थी तथा बहुसंख्यक समाज के विरूद्ध अपनी स्थिति बनाये रखने के लिये इनको शक्ति का सहारा लेना पड़ा। इनके द्वारा सेनापुलिसन्यायालय तथा जेल इत्यादि की व्यवस्था की गई। इन संस्थाओं पर उन लोगों का अधिकार था जो शोषण वर्ग के समर्थक थे तथा यही से राज्य संस्था का सूत्रपात हुआ।

 

2. राज्य तथा शासन शोषण के यंत्र 

  • राज्य का उदय वर्ग भेद के कारण हुआ तथा राज्य संस्था सदैव ही शोषक वर्ग के सहायक कार्य करती रही है। दासता के युग में स्वामी दासों का सामन्त युग में सामन्त किसानों का औद्योगिक में पूँजीपति मजदूरों का शोषण करते रहे हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में भी रूप में लोकतंत्र मात्र दिखावा की ही वस्तु होता है तथा राज्य की वास्तविक शक्ति पूँजीपति वर्ग अथवा उसके समर्थकों के हाथों में रहती है। इन राज्यों में भी कानूनों का निर्माण पूँजीपतियों के सम्पत्ति सम्बन्धी तथा अन्य हितों की रक्षा करने के लिए ही किया जाता है। इस प्रकार राज्य वर्गीय हितों का पोषण करने वाली संस्था है जिसका लक्ष्य शोषक वर्ग के हितों की रक्षा करना तथा उसे शोषित वर्ग के ज्यादा से ज्यादा शोषण की ओर बढ़ाना है।

 

3. राज्य के स्थान पर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही 

  • मार्क्स राज्य को अस्वाभाविक एवं अनावश्यक संस्था मानता है तथा उसके अन्त के लिए साम्यवादी क्रान्ति की बात करता है जिसके अन्तर्गत मजदूर वर्ग या शोषित वर्ग के द्वारा शोषक वर्ग के विरूद्ध संगठित विद्रोह किया जायेगा। परन्तु वह यह भी स्वीकार करता है कि साम्यवादी क्रां प्रथम चरण में ही राज्य का अन्त सम्भव या उचित नहीं है। पूँजीवाद के अन्त के बाद भी राज्य कुछ समय तक बना रहेगा तथा इस काल में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित होगी। इस काल में राज्य की शक्ति का प्रयोग सर्वहारा वर्ग के द्वारा पूँजीपतियों के विरोध को कुचलने तथा पूँजीवाद के बचे हुए तत्वों को समाप्त करने के लिए किया जायेगा ।

 

  • मार्क्स ने साम्यवादी घोषणा-पत्र में कहा है कि अन्तरिम काल में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सरकार द्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति और पैतृक अधिकारों की समाप्तियातायात तथा संचार के साधनों का राष्ट्रीयकरण तथा पूँजीपतियों की जमा पूँजी को समाप्त करने के लिए कठोर कदम उठाये जाने चाहिये। मार्क्स सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को ही वास्तविक लोकतंत्र मानता था जो बहुसंख्यकों के हितों के लिए कार्य करती है।

 

4. राज्यविहीन व वर्गविहीन समाज की स्थापना का आदर्श

 

  • मार्क्स राज्य को वर्ग संघर्ष से उपजी अस्थायी संस्था मानता हैं। अतः उसका विचार था कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के उपरांत जब विरोधी वर्गों का अन्त हो जायेगा तो राज्य सत्ता का भी अन्त हो जायेगा तथा राजयविहीन तथा वर्गविहीन समाज की स्थापना हो सकेगी।

 

  • मार्क्स के अनुसार ऐसे आदर्श समाज में धर्मजातिरंग तथा धन के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जायेगा तथा प्रत्येक को अधिक से अधिक न्याय प्राप्त हो सकेगा। ऐसे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को कुछ निश्चित समय के लिए आवश्यक रूप से श्रम करना पड़ेगा तथा उत्पादन सामाजिक आवश्यकताओं के अधीन होगा। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकताओं तथा योग्यता के अनुसार वस्तुएँ व पारिश्रमिक प्राप्त होगा तथा जो व्यक्ति कार्य करने योग्य नहीं होंगेउनके लिए सामाजिक सहायता की व्यवस्था की जायेगी।

 

5.राष्ट्रवाद के स्थान पर अन्तर्राष्ट्रयवाद का समर्थन

 

राज्य सम्बन्धी धारणा के प्रसंग में ही मार्क्स राष्ट्रवाद की धारणा को अस्वीकार करता है तथा अन्तर्राष्ट्रावाद का समर्थन करता है। उसका मानना है कि मजदूरों का कोई देश नहीं होता। इसी कारण वह विश्व स्तर पर मजदूर एकता का सर्मथन करता हैं। मार्क्स का विश्वास था कि जब व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण समाप्त हो जायेगा जो एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण का भी अन्त जायेगा। ऐसे में युद्धों का अन्त होगा तथा विश्व शांति की स्थापना हो सकेगी।

 

राज्य की उत्पत्ति का सारांश

 

  • राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी सिद्धान्त सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त है जो स्वीकार करता है कि राज्य विकास का परिणाम हैनिर्माण का नहीं। इसमें अनेक तत्वों का योगदान रहा है जिनमें रक्त सम्बन्धमानव की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियाँधर्मशक्तिआर्थिक गतिविधियाँ और राजनीतिक चेतना।

 

  • राज्य की उत्पत्ति के बारे में एक अलग धारणा भी है जो राज्य को एक प्राकृतिक एवं नैतिक संस्था नहीं है। राज्य का निर्माण भी शोषण के यंत्र के रूप में किया गया है। राज्य की उत्पत्ति का आधार वर्ग विभाजन है। आदिम साम्यवाद का युग र्व विभेद पर आधारित न था । सम्पत्ति के उदय के उपरांत वर्ग विभाजन को बढ़ावा मिला। राज्य की उत्पत्ति से ही शोषक एवं शोषित के सम्बन्धों को बढ़ावा मिला । राज्य तथा शासन शोषण के यंत्र हैं। सामन्तवादी तथा पूँजीवादी युग में किसानों एवं मजदूरों का शोषण। कानून निर्माणसेनापुलिसन्यायालय इत्यादि का प्रयोग शोषक वर्ग के हितों में राज्य की समाप्ति के लए श्रमिक वर्ग की एकता तथा क्रान्ति को बढ़ावाराज्य का अन्त एकबारगी न होकर धीरे-धीरे होगा। अन्तरिम काल में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही । इस अवस्था में बचे खुचे पूँजीवादी तत्वों की समाप्ति. राज्य विहीन तथा वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ना। प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीविका के उपार्जन के लिए श्रम अनिवार्य । प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता योग्यता के अनुसार समाज के उत्पादों की प्राप्ति हो सकेगी राज्य के साथ-साथ राष्ट्रवाद का विरोध तथा अन्तर्राष्ट्रवाद में विश्वास अन्तर्राष्ट्रीयता का आधार मजदूर वर्ग की एकता अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना से ही विश्व में सहयोग भाई चारे तथा शांति की भावना को बढ़ावा. 

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