दक्षिण एशिया में सार्क की भूमिका एवं महत्व का वर्णन कीजिए। MPPSC Mains 2014 Question With Answer

दक्षिण एशिया में सार्क की भूमिका एवं महत्व का वर्णन कीजिए?

दक्षिण एशिया में सार्क की भूमिका एवं महत्व का वर्णन कीजिए। MPPSC Mains 2014 Question With Answer


दक्षिण एशिया में सार्क की भूमिका एवं महत्व का वर्णन कीजिए?

दक्षेस (सार्क) के चार्टर में अनुच्छेद-2 के अनुसार मुख्यतः तीन सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है संगठन के ढाँचे के अंतर्गत सहयोगसार्वभौम सहायतासमानता संघीय एकात्मकताक्षेत्रीय अखंडताराजनीतिक स्वतंत्रताअहस्तक्षेप तथा परस्पर लाभ के सिद्धांतों का सम्मान करना एवं अंतरराष्ट्रीय मामलों में दखल न देने को आधार मानकर संगठन का ढाँचा तैयार करना।

 

संगठन के ढाँचे में यह भी उल्लेख किया गया कि सहयोग द्विपक्षीय और बहुपक्षीय उत्तरदायित्वों का विरोध नहीं करेगा। संगठन के ढाँचे में यह भी व्यवस्था की गई कि सहयोग द्विपक्षीय अथवा बहुपक्षीय सहयोग के एवज में नहीं होगा। स्वास्थ्यजनसंख्या नियंत्रण एवं बाल कल्याणअवैध विकास दक्षिण एशिया क्षेत्रीय समितिजिसके सदस्य बांग्लादेशभूटानभारतमालदीवनेपालपाकिस्तान और श्रीलंका के मंत्री थेके प्रमुख कार्य थे इस कार्यक्रम का पर्यवेक्षण करनाक्षेत्रीय और बाह्य संसाधनों को संगठित करना तथा सहयोग के लिये अतिरिक्त क्षेत्रों की पहचान करना।

 

मादक पदार्थ व्यापार और औषधि दुरुपयोग पर रोकग्रामीण विकासविज्ञान एवं प्रौद्योगिकीपर्यटनपरिवहन तथा महिला एसएआरसी की अनुशंसा के आधार पर दिसंबर 1985 में ढाका (बांग्लादेश) में पहला शिखर सम्मेलन आयोजित किया गयाजिसमें दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन .(सार्क) की स्थापना के लिए जारी घोषणा-पत्र (Charter) को स्वीकृति को प्रदान की गई।  


सार्क के उद्देश्य हैं- 

दक्षिण एशियाई क्षेत्र की जनता के कल्याण एवं जीवन स्तर में सुधार लाना क्षेत्र के सामाजिकआर्थिक और सांस्कृतिक विकास को गति देना सदस्य देशों की सामूहिक आत्मनिर्भरता में वृद्धि करनाविज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में पारस्परिक सहायता में तेजी लाना समान लक्ष्यों और उद्देश्यो वाले अंतर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय संगठनों के साथ सहयोग स्थापित करनाअंतर्राष्ट्रीय मंचों पर समान हितों के मामलों में सदस्य देशों के मध्य सहयोग की भावना को मजबूती प्रदान करनातथा: अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग स्थापित करना।

 

सार्क की संरचना 

सार्क के संगठनात्मक ढाँचे में शासनाध्यक्षों का शिखर सम्मेलनमंत्रिपरिषदविदेश सचिवों की स्थायी समितिकार्यकारी समितितकनीकी समितियाँ और सचिवालय सम्मिलित है। 

राष्ट्राध्यक्षों के शिखर सम्मेलन में सभी सदस्य देश सम्मिलित होते हैं तथा यह सार्क का सर्वोच्य निर्णयकारी अंग है। सामान्यतया वर्ष में एक बार इस शिखर सम्मेलन का आयोजन होता है। मंत्रिपरिषद सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की बनी होती है। इसके कार्य हैं- नीतियों का निर्धारणइन नीतियों की प्रगति की समीक्षा और सहयोग के नए क्षेत्र तथा उनके लिए आवश्यक प्रक्रियाओं की पहचान करना। मंत्रिपरिषद की वर्ष में कम-से-कम दो बैठकें आवश्यक रूप से होती हैं। यद्यपि आवश्यकता पड़ने पर इसकी दो से अधिक बैठकें हो सकती हैं। मंत्रिपरिषद की सहायता देने के लिए कार्यकारी समितिविदेश मंत्रियों की स्थायी समिति और 11 तकनीकी समितियों की व्यवस्था है। स्थायी समिति सहयोग कार्यक्रमों के समग्र पर्यवेक्षण और समन्वयन के लिए उत्तरदायी होती है। इसकी बैठक सामान्यतः मंत्रिपरिषद की बैठक से पहले होती है। तकनीकी समितियाँ अपने-अपने क्षेत्र के कार्यक्रमों के क्रियान्वयनसमन्वपन और पर्यवेक्षण के लिए उत्तरदायी होती है।

 

1987 में काठमांडू में सार्क के स्थायी सचिवालय की स्थापना हुई। सचिवालय का प्रधान अधिकारी महासचिव होता हैजिसकी सदस्यता के लिए अनेक अधिकारियों और कर्मचारियों की व्यवस्था है । महासचिव की नियुक्ति सदस्य देश के प्रतिनिधियों में से वर्णमाला क्रम में तथा चक्रण पद्धति के आधार पर होती है।


सचिवालय के मुख्य कार्य हैं- 

 

1. कार्यक्रमों का पर्यवेक्षणसमन्वयन एवं क्रियान्वयनकरनातथा  

2. सार्क के विभिन्न अंगों की बैठकों की व्यवस्था करना। इस संगठन का अध्यक्ष वही देश होता है जहां सार्क का अंतिम शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ है। 

3. अग्रिम शिखर सम्मेलन के समय नए अध्यक्ष की घोषणा की जाती है। 


सार्क के निर्णय 

सार्क के निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाते हैं तथा द्विपक्षीय एवं विवादास्पद मुद्दे टाल दिए जाते हैं। संगठन के संविधान में यह प्रावधान भी है कि सार्क के अंतर्गत कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहिएदो विद्यमान द्विपक्षीय और बहुपक्षीय अनुबंधों के विरुद्ध हो। साथ हीसार्क कार्यक्रमों को सदस्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की नीति पर आधारित होना चाहिए।

 

सार्क की गतिविधियां 

सार्क ने केंद्रीय आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम था- 1991 में व्यापारउत्पादनों और सेवाओं (Trade, Manufacturs and Services - TMS ) पर क्षेत्रीय अध्ययन का समापन । उसी वर्ष व्यापार और आर्थिक समस्याओं से निपटने के लिए एक उच्चस्तरीय आर्थिक सहयोग समिति (सीईसी) का गठन किया गया। सदस्य देशों के वाणिज्य सचिव इस समिति के सदस्य होते हैं।

 

1993 में ढाका में आयोजित सार्क के सातवें शिखर सम्मेलन में सार्क अधिमान्य व्यापार (SAARC - Preferen tial Trading Arrangement - SAPTA) स्थापित करने के लिए एक समझौता हुआ। साप्टा दिसंबर 1995 में प्रभाव में आया । साप्टा सार्क देशों में आर्थिक और व्यापार सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से शुल्क राहतों के विनिमय के लिये एक ढाँचा प्रदान करता है। साप्टा के अधीन शुल्कअतिरिक्त सीमा शुल्क (Paratariff), गैर-शुल्क (non-tariff) तथा प्रत्यक्ष व्यापार उपाय आते हैं। साप्टा के अधीन चलने वाली सभी वार्ताओं और समझौतों का अंतिम उद्देश्य 2005 तक दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र (एसएएफटीए) की स्थापना करना है। सार्क का आठवाँ शिखर सम्मेलन मई 1995 मे नई दिल्ली में हुआ । इस सम्मेलन में सार्क (infrastructural) विकास कोष को विलीन करके दक्षिण एशिया विकास कोप (एसएडीएफ) स्थापित करने का निर्णय लिया गया। दक्षिण एशिया विकास कोष एक न्यूनतम साझेदारी स्थापित हो चुकी हो। किसी संगठन के गठन का मूल आधार सामूहिक आर्थिक लाभ हो सकता है: फिर भीइसकी सफलता में राजनीतिक  कारकों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसमें संदेह नहीं कि इस संगठन को आर्थिक अंश (content) देने के प्रयास किए गए हैंलेकिन तकनीकी और पूँजी अल्प आपूर्ति और अल्प-विकसित मौलिक आर्थिक संरचना इसकी प्रमुख बाधाएँ हैं। सार्क देशों के मध्य व्यापार स्तर बहुत निम्न हैंयद्यपि कई सदस्यों ने निर्यातोन्मुखी नीतियाँ अपनाई है। कुछ सदस्य देशों ने द्विपक्षीय मुक्त व्यापार संधियां की हैं (उदाहरण के लियेभारत और श्रीलंका ने 1998 में मुक्त व्यापार संधि पर हस्ताक्षर किए)जो इस बात की संकेतक है कि साफ्टा कभी भी प्रभावशाली नहीं हो पायेगा। इसके अतिरिक्तयह अनुभव किया जा रहा है कि सार्क की संस्थागत संरचनाएँ पर्याप्त नहीं हैं। अतः यह सदस्य देशों द्वारा पारित अनेक परियोजनाओं को क्रियान्वित करने में असमर्थ हैं।

 

काठमांडू स्थित सार्क सचिवालय के पास परियाजनाओं को आगे बढ़ाने के लिये न तो सहायक सुविधाएँ हैं न ही राजनीतिक शक्ति ।

 

यदि सार्क कोई अर्थपूर्ण प्रगति चाहता है तो इसके सदस्यों को कभी समाप्त न होने वाले राजनीतिक विवादों को ठंडे बस्ते में डालकर आपसी व्यापार संबंधों को और मजबूत करना होगा। उन्हें यह समझना चाहिए कि एकजुट रहने से वे उत्तर- विश्व व्यापार संगठन ( post-WTO) उदारवादी अर्थव्यवस्था का अधिक लाभ उठा सकेंगे। सस्ते श्रम एवं अन्य लाभकारी परिस्थितियों के कारण सार्क देश कई कृषि वस्तुओं तथा कपड़ा एवं आभूषण उत्पादों के मामले में विश्व के अन्य देशों को कड़ी चुनौती देने की स्थिति में है। लेकिन जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का हैतो ये सुविधाएं इनके लिये हानिकारक सिद्ध हो रही हैं। चायचावलजूट और अब आभूषणजैसी वस्तुओं में उन्हें विकसित देशों के उत्पादों के साथ प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ रहा है। इसके परिणामस्वरूप विकासशील देश अपनी वस्तुओं को कम मूल्य पर बेचने के लिए विवश हैं। फिर भीविश्व व्यापार संगठन व्यवस्था के अंतर्गत व्यापारिक गतिरोधों को कम किया जा रहा है। इस परिस्थिति में इन देशों में विदेशी वस्तुओं और सेवाओं का ढेर लगना तय है। कोई विकासशील देश इस दबाव को अकेले झेलने में कठिनाइयों का अनुभव करेगालेकिन सामूहिक प्रयासों से विकासशील देश इस संकट का सामना आसानी से कर सकते हैं।

 


सार्क ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कई क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग स्थापित किया है। सार्क पिछले 15 वर्षों से भी अधिक समय से अस्तित्व में हैलेकिन इसका रिकार्ड बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है। 1985-88 की अवधि में क्षेत्रीय संगठन में विश्वास बना रहा। यद्यपि आईपीए तुलनात्मक रूप से वाह्य क्षेत्रों तक ही सीमित थाइसे सदस्यों ने बहुत गंभीरतापूर्वक लिय । लेकिन 1989 के पश्चात् इस संगठन के प्रयासों के प्रति सदस्यों में पहले जैसा उत्साह नहीं रहा है। अतः इसकी गतिशीलता में धीमापन स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है। सार्क के विभिन्न अंग अपनी समय सारणी का अनुकरण करने में सफल नहीं रहे हैं। यहाँ तक कि शिखर सम्मेलनों को भी कई बार स्थगित या रद्द कर दिया गयाजैसे- 1999 में काठमांडू में आयोजित होने वाले सार्क शिखर सम्मेलन को पाकिस्तान में सैनिक सत्ता परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में स्थगित कर दिया गया।

 

सार्क की प्रगति को बाधित करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है सदस्य देशों के मध्य राजनीतिक विद्वेषों (जिनमें अधिकतर भारत केंद्रित है) की निर्बाध संस्कृति। भारत और पाकिस्तान के बीच व्याप्त तनाव इस संगठन के विकास में एक बड़ा अवरोधक है। इतिहास साक्षी है कि क्षेत्रीय सहयोग तभी सफलतापूर्वक स्थापित हो पाता है जब संबद्ध देशों को राजनीतिक उद्देश्यों में।


No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.