डीवी का शिक्षा दर्शन |डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य पाठ्यचर्चा| John DV Shiksha Darshan

डीवी का शिक्षा दर्शन (John DV Shiksha Darshan)

डीवी का शिक्षा दर्शन |डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य पाठ्यचर्चा| John DV Shiksha Darshan

डीवी का शिक्षा दर्शन 


विमर्शक अन्वेषण या खोज डीवी के सम्पूर्ण विचार क्षेत्र का महत्वपूर्ण पक्ष है। डीवी के अनुसार शिक्षा समस्या समाधान की प्रक्रिया है । हम कर के सीखते हैं। वास्तविक जीवन परिस्थितियों में क्रिया या प्रतिक्रिया करने का अवसर प्राप्त है। खोज शिक्षा में केन्द्रीय स्थान रखता है। केवल तथ्यों का संग्रह नहीं वरन् समस्या समाधान में बुद्धि का प्रयोग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । में शिक्षा को प्रायोगिक होना चाहिए न कि केवल आशुभाषण या व्याख्यान ।

 

डीवी के अनुसार शिक्षा में पुनर्रचनात्मक उद्देश्य उतना ही महत्वपूर्ण है जितना अनुभव में कहीं भी। डीवी ने डेमोक्रेसी एण्ड एडुकेशन में कहा है “शिक्षा लगातार अनुभव की पहचान तथा पुनर्रचना है।" वर्तमान अनुभव इस तरह से निर्देशित हो कि भावी अनुभव अधिक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी हो । शिक्षा में यदि भूतकाल के मूल्य एवं ज्ञान दिए जाते हैं तो इस तरह से दिए जाने चाहिए कि वे विस्तृतगहरे तथा बेहतर हो सके। शिक्षा में आलोचनान कि निष्क्रिय स्वीकृति आवश्यक है। डीवी ने शिक्षा एवं विकास को समान माना है। अध्यापक के रूप में हम बच्चे के साथ वहाँ से शुरू करते है जहाँ वह अभी हैउसकी रूचि एवं ज्ञान में विस्तार कर हम उसे समुदाय एवं समाज में योग्य व्यक्ति बनाते है। वह अपने विकास के लिए उत्तरदायित्व के साथ कार्य करना सीखता है तथा समाज के सभी सदस्यों के विकास में सहयोग प्रदान करता है। शिक्षा किसी और चीज का साधन नहीं होना चाहिए। यह केवल भविष्य की तैयारी नहीं होनी चाहिए। विकास की प्रक्रिया आनन्दप्रद तथा आंतरिक रूप से सुखद होनी चाहिएताकि शिक्षा के लिए मानव को अभिप्रेरित करें। डीवी का शिक्षा दर्शन शिक्षा की सामाजिक प्रकृति पर जोर देता हैप्रजातंत्र से इसका घनिष्ठ एवं बहुआयामी सम्बन्ध है।

 

स्पेन्सर की मांग 'शिक्षा में अधिक विज्ञान और कम साहित्यसे आगे बढ़कर डीवी ने कहा विज्ञान किताब पढ़कर नहीं सीखना चाहिए वरन् उपयोगी व्यवसाय / कार्य करते हुए आना चाहिए।डीवी के मन में उदार शिक्षा के प्रति बहुत सम्मान नहीं था इसका उपयोग एक स्वतंत्र व्यक्ति की संस्कृति का द्योतक है- एक आदमी जिसने कभी काम नहीं किया हो इस तरह की शिक्षा एक अभिजात्य तंत्र में सुविधा प्राप्त सम्पन्न वर्ग के लिए तो उपयोगी है पर औद्योगिक एवं प्रजातांत्रिक जीवन के लिए नहीं। डीवी के अनुसार अब हमें वह शिक्षा चाहिए जो व्यवसाय / पेशे से मिलती है न कि किताबों से। विद्वत संस्कृति अहंकार को बढ़ाता है पर व्यवसाय / कार्य में साथ में मिलकर काम करने से प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास होता है। एक औद्योगिक समाज में विद्यालय एक लघु कार्यशाला और एक लघु समुदाय होना चाहिए- जो कार्य या व्यवहार तथा प्रयास एवं भूल ( भूल एवं सुधार ) द्वारा सिखाये। कला एवं अनुशासन जो कि सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था के लिए आवश्यक हैकी शिक्षा दी जानी चाहिए। विद्यालय केवल मानसिक वृद्धि का साधन प्रदान कर सकता हैशेष चीजें हमारे द्वारा अनुभव को ग्रहण एवं व्याख्या करने पर निर्भर करता है। वास्तविक शिक्षा विद्यालय छोड़ने पर प्रारम्भ होती है- तथा कोई कारण नहीं है कि ये मृत्यु के पूर्व रूक जाये। 

 

डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य

 

डीवी शिक्षा के पूर्व निर्धारित उद्देश्य के पक्ष में नहीं हैं। पर उनके कार्यों में शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य स्पष्टतः दिखते हैं-

 

बच्चे का विकास- 

  • शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है बच्चे की शक्ति एवं क्षमता का विकास प्रत्येक बच्चे की अपनी विशेष क्षमता होती है अतः एक ही प्रकार के विकास का सिद्धान्त लागू करना व्यर्थ है क्योंकि एक बच्चे का विकास दूसरे से अलग होता है। बच्चे की क्षमता के अनुरूप अध्यापक को विकास को दिशा देनी चाहिए। डीवी शिक्षा के उद्देश्य को अनुत्तरित रखना चाहते हैं। अगर शिक्षा के लिए एक निश्चित उद्देश्य तय किया जाता है तो यह अत्यधिक हानिप्रद हो सकता है। बिना आंतरिक क्षमताओं को ध्यान दिये अध्यापक विवश होगा एक विशेष दिशा में छात्रों को ले जाने के लिए। सामान्यतः शिक्षा का उद्देश्य ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जिसमें बच्चे को क्रियाशील होने का अवसर मिलता है। साथ ही दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है मानव जाति की सामाजिक जागरूकता को बढ़ाना प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से शिक्षा बच्चे में सामाजिक क्षमता का विकास करता है। मानव एक सामाजिक प्राणी है जिसका विकास समाज के मध्य ही होना चाहिएसमाज के बाहर उसका विकास नहीं हो सकता है अतः शिक्षा को सामाजिक क्षमता एवं कौशल का विकास करना चाहिए।

 

प्रजातांत्रिक व्यक्ति एवं समाज का सृजन- 

  • प्रयोजनवादी शिक्षा का लक्ष्य है व्यक्ति में प्रजातांत्रिक मूल्य एवं आदर्श को भरनाप्रजातांत्रिक समाज की रचना करना जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता न हो। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र हो तथा एक दूसरे का सहयोग करने को तत्पर रहे। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा पूरी करने तथा क्षमता का विकास करने का अवसर मिले। व्यक्तियों के मध्य समानता होनी चाहिए। डीवी के अनुसार व्यक्ति एवं समूह के मध्य हितों में कोई अंतर नहीं होता है अतः शिक्षा का उद्देश्य है प्रजातांत्रिक समाज के व्यक्तियों के मध्य सहयोग एवं सद्भव को बढ़ाना । अतः नैतिक शिक्षा और विकास आवश्यक है । नैतिकता का विकास विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय की विभिन्न गतिविधियों में भाग लेने से होता है जिससे उनमें जिम्मेदारी उठाने की भावना का विकास हो सके। इससे बच्चे का चरित्र विकसित होता है तथा सामाजिक कुशलता बढ़ती है। अवसर की समानता विद्यार्थियों को अपनी रूचि एवं रूझान के अनुरूप विकास का अवसर देता है।

 

भावी जीवन की तैयारी - 

  • प्रयोजनवादी शिक्षा वस्तुतः इस अर्थ में उपयोगी है कि यह व्यक्ति को भावी जीवन हेतु तैयार करता है ताकि वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर आत्मसंतोष प्राप्त कर सके । भावी जीवन की शिक्षा व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन हेतु तैयारी करती है। डीवी परम्परागत शिक्षा पद्धति के विरोध में है। अतः उन्होंने प्रगतिशील शिक्षा की योजना बनायी तथा प्रगतिशील स्कूल की स्थापना की - ताकि बच्चे के व्यक्तित्व एवं प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास हो सके।

 

डीवी के अनुसार  पाठ्यचर्चा

 

डीवी के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया के दो पक्ष हैं- मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक ।

 

1. मनोवैज्ञानिक पक्ष - 

बच्चे की रूचि एवं क्षमता के अनुसार पाठ्यचर्या एवं शिक्षण विधि निर्धारित किए जाने चाहिए। बच्चे की रूचि को जानने के उपरांत शिक्षा दी जानी चाहिए। तथा इनका उपयोग विभिन्न स्तरों पर शिक्षा की पाठ्यचर्चा के निर्धारण में किया जाना चाहिए।

 

2. सामाजिक पक्ष - 

शिक्षा की शुरूआत व्यक्ति द्वारा जाति की सामूहिक चेतना में भाग लेने से होती है। अतः विद्यालय का ऐसा वातावरण होना चाहिए कि बच्चा समूह की सामाजिक चेतना में भाग ले सके। यह उसके व्यवहार में सुधार लाता है और व्यक्तित्व तथा क्षमता में विकास कर उसकी सामाजिक कुशलता बढ़ाता है।

 

डीवी के पाठ्यचर्चा के सिद्धान्त- 

डीवी ने पाठ्यचर्चा की संरचना के लिए चार सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया:

 

1. उपयोगिता- 

पाठ्यक्रम को उपयोगिता पर आधारित होनी चाहिए अर्थात् पाठ्यचर्चा बच्चे के विकास के विभिन्न सोपानों में उसकी रूचि एवं रूझान पर आधारित होना चाहिए। बच्चों में चार प्रमुख रूचि देखी जा सकती हैं- बात करने की इच्छा तथा विचारों का आदान-प्रदानखोजरचना तथा कलात्मक अभिव्यक्ति । पाठ्यचर्चा इन चार तत्वों द्वारा निर्धारित होने चाहिए तथा पढ़नालिखनागिननामानवीय कौशलसंगीत एवं अन्य कलाओं का अध्यापन करना चाहिए। सारे विषयों को एक साथ नहीं वरन् जब मानसिक विकास के विशेष स्तर पर इसकी आवश्यकता एवं इच्छा जाहिर हो तब पढ़ाया जाना चाहिए।

 

2. नमनीयता - 

अनम्य या पूर्वनिर्धारित की जगह पाठ्यचर्चा लचीली होनी चाहिए। ताकि बच्चे की रूचि या रूझान में परिवर्तन को समायोजित किया जा सके। 


3. प्रायोगिक कार्य- 

पाठ्यचर्चा को बच्चे के तत्कालिक अनुभवों से जुड़ा होना चाहिए। समस्या के रूप में विभिन्न तरह की गतिविधियों को उपस्थित कर इनके अनुभव को बढ़ाया जा सकता है और मजबूत किया जा सकता है। इस प्रकार अनुभवों के प्रकार को बढ़ाया जा सकता है। यथासंभव विषयों का अध्यापन बच्चे के अनुभव पर आधारित होना चाहिए ।

 

4.सामीप्य- 

जहाँ तक संभव हो पाठ्यचर्चा में उन्हीं विषयों को रखा जाये जो बच्चे के तत्कालीन विकास की स्थिति में उसके जीवन की प्रक्रिया से जुड़ा है। इससे उसको दिए जा रहे ज्ञान में ऐक्य हो सकेगा। जिससे इतिहासभूगोलगणितभाषा में समन्वय स्थापित हो सके। डीवी वर्तमान में ज्ञान को विभिन्न विषयों में बाँटकर पढ़ाये जाने की विधि के कटु आलोचक थे क्योंकि उनकी दृष्टि में ऐसा विभाजन अप्राकृतिक है। जहाँ तक संभव हो पाठ्यचर्चा के सभी विषय सम्बन्धित या एकीकृत हो ।

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