डीवी के अनुसार शिक्षण विधि अनुशासन |डीवी के अनुसार शिक्षक का दायित्व | DV Education Method in Hindi

डीवी के अनुसार  शिक्षण - विधि (DV Education Method in Hindi )

डीवी के अनुसार  शिक्षण विधि अनुशासन |डीवी के अनुसार शिक्षक का दायित्व | DV Education Method in Hindi

डीवी के अनुसार  शिक्षण - विधि

 

आधुनिक शिक्षण विधि के विकास में जॉन डीवी की भूमिका महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपनी शिक्षण विधि में निम्न पक्षों पर जोर दिया-

 

1. कर के सीखना - 

डीवी ने अपनी दो पुस्तकों हाउ वी थिन्क एवं इन्ट्रेस्ट एण्ड एर्कोटस इन एजुकेशन में अनेक नवीन एवं उपयोगी शिक्षण विधियों का प्रतिपादन किया है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है अगर बच्चा स्वयं कर के कोई विषय सीखता है तो वह सीखना अधिक प्रभावशाली होता है। अध्यापक को यह नहीं चाहिए कि जीवन भर जितनी सूचनाओं को उसने संग्रहित किया है वह छात्र के मस्तिष्क में जबरन डाले। वरन् अध्यापक ऐसी परिस्थिति का निर्माण करे कि छात्र स्वयं प्राकृतिक क्षमता एवं गुणों का विकास करने में समर्थ हो छात्रों को तथ्यों की जानकारी तब दी जाय जब वह उन तथ्यों से सम्बन्धित कार्य कर रहे हों। साथ ही बच्चे को वास्तविक समस्याओं एवं कठिनाइयों से जूझने का अवसर मिलना चाहिए ताकि वह उन समस्याओं / कठिनाइयों को सुलझाने का प्रयास करे । समस्या समाधान एक अच्छी पद्धति है जो कि बच्चे के अनुभव में वृद्धि करता है।

 

2. एकीकरण-

बच्चे के जीवनउसकी क्रियाओं एवं पढ़े जाने वाले विषयों (विषय वस्तु) में ऐक्य हो। सभी विषयों को उसकी क्रियाओं के इर्द-गिर्द - जिससे कि बच्चे अभ्यस्त हैं पढ़ाया जाना चाहिए। महात्मा गाँधी के सिद्धान्तों में इसकी झलक दिखती है।

 

3. बाल केन्द्रित पद्धति- 

बच्चे की रूचि के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए। डीवी रूचि एवं प्रयास को शिक्षा में सर्वोच्च मानते हैं। शिक्षक को छात्र की रूचि क्रियाकलापों की योजना बनाने के पूर्वअवश्य समझनी चाहिए। अगर बच्चों को स्वयं कार्यक्रम बनाने का अवसर दिया जाय तो वह रूचि के अनुसार बनायेंगे । बेहतर यह होगा कि उसे कोई भय या दबाव के अन्दर कार्य करना न पड़े ताकि वह स्वतंत्रता पूर्वक कार्यक्रम बना सके। अगर यह हो जाये तो विद्यालय के सारे क्रियाकलाप स्वेच्छा से लिए गए क्रियाकलाप होंगे।

 

यद्यपि यह सिद्धान्त शिक्षा मनोविज्ञान के अनुरूप है पर इसकी कमी यह है कि बच्चे बहुत से विषयों के ज्ञान से वंचित रह जायेंगे तथा जो भी ज्ञान मिलेगा वह अनियोजित होगा।

 

4. योजना पद्धति- 

डीवी के विचारों के आधार पर बाद में योजना पद्धति का विकास हुआ जिससे छात्रों में उत्साहआत्मविश्वासआत्मनिर्भरतासहयोग तथा सामाजिक भाव का विकास का होता है।

 

डीवी के अनुसार शिक्षक का दायित्व 

विद्यालय में ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिससे बच्चे का सामाजिक व्यक्तित्व विकसित हो सके ताकि वह एक उत्तरदायीप्रजातांत्रिक नागरिक बन सके। डीवी अध्यापक को इतना महत्वपूर्ण मानता है कि वह अध्यापक को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि कहता है।

 

प्रजातांत्रिक निदेशक- 

शिक्षक का व्यक्तित्व एवं कार्य प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों एवं शिक्षा मनोविज्ञान पर आधारित होना चाहिए। विद्यालय में समानता एवं स्वतंत्रता का महत्व समझाने हेतु अध्यापक कोअपने को विद्यार्थियों से श्रेष्ठ नहीं मानना चाहिए। उसे अपने विचारोंरूचियों एवं प्रकृतियों को विद्यार्थियों पर नहीं लादना चाहिए। उसे बच्चों की रूचियों एवं व्यक्तित्व की विशेषताओं को देखते हुए पाठ्यचर्चा का निर्धारण करना चाहिए। अतः अध्यापक को लगातार बच्चों की भिन्नता का ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक बच्चों को ऐसे कार्यों मे लगाए जो उसे सोचने और निदान ढूँढ़ने के लिए प्रेरित करे ।

 

डीवी के अनुसार अनुशासन

 

1. समाजीकरण द्वारा अनुशासन

अगर बच्चें ऊपर वर्णित योजना के अनुसार कार्य करे तो विद्यालय में अनुशासन बनी रहती है। कठिनाई तब होती है जब बाह्य शक्तियों द्वारा बच्चों को अपनी प्राकृतिक इच्छाओं को प्रकट करने से रोका जाय । डीवी के अनुसार अनुशासन बच्चे के अपने व्यक्तित्व और उसके सामाजिक पर्यावरण पर निर्भर करता है। वास्तविक अनुशासन सामाजिक नियंत्रण का रूप लेती है- जब बच्चा विद्यालय के सामूहिक क्रियाकलापों में भाग लेता है। अतः विद्यालय का वातावरण ऐसा हो कि बच्चे को पारस्परिक सद्भाव एवं सहयोग के साथ जीने को प्रेरित करे। बच्चे में अनुशासन एवं नियमबद्धता का विकास इससे हो सकता है कि वे समूह में एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य करे।

 

2. विद्यालय कार्यक्रम के द्वारा आत्मअनुशासन-

 

विद्यालय के कार्यक्रम बच्चों के चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतः बच्चों को ऐसा सामाजिक वातावरण दिया जाना चाहिए जिससे उसमें आत्मअनुशासन की भावना का विकास हो सके ताकि वास्तव में वह एक सामाजिक प्राणी बन सके शांत वातावरण अच्छे और शीघ्र कार्य के लिए आवश्यक हैपर शांति एक साधन हैसाध्य नहीं। बच्चे आपस में झगड़े नहीं पर इसके लिए बच्चों को डाँटना या दंडित करना उचित नहीं है वरन् दायित्व की भावना का विकास कर उसमें अनुशासन का विकास हो सके। इसके लिए अध्यापक को स्वयं उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार करना होगा।

 

3. सामाजिक कार्यों में सहभागिता - 

सामाजिक कार्यों में सहभागिता शैक्षिक प्रशिक्षण का एक अनिवार्य हिस्सा है। विद्यालय स्वयं एक लघु समाज है। अगर बच्चा विद्यालय के सामाजिक कार्यों में भाग लेता है तो भविष्य में वह सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों में भाग लेने के लिए प्रशिक्षित हो जायेगा। इस तरह से एक प्रौढ़ के रूप में वह एक अनुशासित जीवन जीने का अभ्यस्त हो जायेगा।

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