फ्रेडरिक फ्रोबेल का शिक्षा-दर्शन| Friedrich Froebel's Education Philosophy in Hindi

 फ्रेडरिक फ्रोबेल का शिक्षा-दर्शन (Friedrich Froebel's Philosophy)

फ्रेडरिक फ्रोबेल का शिक्षा-दर्शन| Friedrich Froebel's Philosophy in Hindi
 

फ्रेडरिक फ्रोबेल का शिक्षा-दर्शन  (Friedrich Froebel's Philosophy in Hindi)

जैसा कि हम लोग देख चुके हैं फ्रोबेल इस सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं कि सारी संभावनायेंक्षमतायें एवं शक्तियाँ बालक के अन्दर निहित है। शिक्षा व्यवस्था का कार्य विद्यार्थियों को उपयुक्त वातावरण एवं अवसर प्रदान करता है ताकि विद्यार्थी अन्तर्निहित संभावनाओं एवं क्षमताओं के अनुरूप अधिक से अधिक विकास कर सके। विकास वस्तुतः अन्दर से आरम्भ होता है। बाहर से इसे थोपा नहीं जा सकता है। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बालक को बाहर से उतना नहीं देना पड़ता है जितना अन्तर्निहित शक्तियों का प्रकाशन करना। बिना आवश्यकता अनुभव किए बालक शायद ही कुछ सीख सके। इन्हीं सिद्धान्तों पर फ्रोबेल ने शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण किया है।

 

फ्रेडरिक फ्रोबेल के अनुसार  शिक्षा का उद्देश्य

 

फ्रोबेल ने शिक्षा के द्वारा निम्नलिखित लक्ष्यों की प्राप्ति का उद्देश्य निर्धारित किया:

 

i. एकता या सामन्जस्य का बोध- 

सर्वेश्वरवादी होने के नाते फ्रोबेल का यह मानना है कि ईश्वर सबमें व्याप्त है। जीवन-प्रकृति के सभी अंगों में व्याप्त एकता एवं सामन्जस्य का बोध करवाना ही शिक्षा का उद्देश्य है। इससे जीवन एवं संस्कृति की पूर्णता का बोध होता है एवं बहुमुखी विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है।

 

ii. व्यक्ति में आध्यात्मिक प्रकृति को जागृत करना - 

शिक्षा का उद्देश्य मानव में उसकी आध्यात्मिक प्रवृति को जागृत करना है। रूसो की ही तरह फ्रोबेल मानव को जन्मजात अच्छा मानता है। वह मनुष्य की जन्मजात उच्चता यानि देवत्व में आस्था रखता है। उसके अनुसार मनुष्य के विकार या पतन के नीचे एक दमित भलाई छिपी है । विकार को दूर करने का उपाय है मनुष्य की मौलिक उच्चता की खोज कर पुनः स्थापित किया जाय। शिक्षा का यह एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है।

 

iii स्वतंत्रता एवं आन्तरिक संकल्प शक्ति का विकास

फ्रोबेल सही शिक्षा एवं प्रशिक्षण हेतु बच्चे की स्वतंत्रता को आवश्यक मानता है। शिक्षा हेतु बच्चे का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है। साथ ही शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है बालक में आन्तरिक संकल्प शक्ति का विकास करना । संकल्प चरित्र और व्यक्तित्व के गठन का आधार है। अतः शिक्षा का उद्देश्य संकल्प विकास है।

 

iv. सामाजिक भावना का विकास- 

फ्रोबेल बच्चों में सामाजिकता का विकास शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानते हैं। बच्चा परिवारसमुदायसमाज एवं विद्यालय से सीख लेकर सामाजिक भावना का विकास करते हैं ।

 

फ्रोबेल ने सामाजिक शिक्षा पर बल दिया जो कि उसकी 'एकताके सिद्धान्त के अनुरूप है। फ्रोबेल ने अपने किण्डरगार्टनों में सामूहिक क्रियाओं पर विशेष बल दिया। किण्डरगार्टेन के केन्द्रीय कक्ष में फर्श पर वृत्त या गोला बना होता है। इस गोले में बैठकर बालक समूह का अंश बन कर शिक्षा पाता है। इस वृत्त को फ्रोबेल ने समूह - भावनाओं का प्रतीक माना है। परिवारसमाज एवं विद्यालय से बच्चे को भाषासहयोगप्रेमसहानुभूति आदि सामाजिक गुण प्राप्त होते है ।

 

V. चरित्र निर्माण-

फ्रोबेल शिक्षा के द्वारा बच्चे की मौलिक अच्छाई को बनाये रखने के पक्ष में था पर जहाँ विकार आ गया हो वहाँ उचित शिक्षा और प्रशिक्षण द्वारा चरित्र की मौलिक अच्छाई को पुनः प्राप्त करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है ।

 

इस प्रकार फ्रोबेल ने शिक्षा के अत्यन्त व्यापक उद्देश्य निर्धारित किए।

 

 फ्रेडरिक फ्रोबेल के अनुसार  शिक्षा की योजना

 

फ्रोबेल ने बच्चों की शिक्षा के लिए व्यापक योजना बनाई। अपनी शैक्षिक योजना में फ्रोबेल ने बच्चे की आत्म- क्रिया एवं खेल को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना ।

 

फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा वस्तुतः विकास की प्रक्रिया है। बालक निरन्तर विकासशील रहता है। उसका विकास ज्ञान पक्ष मेंसंवेदना से सुव्यवस्थित चेतना की ओर कार्य-क्षेत्र में प्रवृति मूलक क्रियाओं से संकल्प - युक्त आचरण की ओर होता है। आत्मप्रेरित क्रियायें ही उपयोगी होती हैं। विकास के परिणाम स्वरूप बच्चे नवीन क्रियाओं में संलग्न होते हैं पर इन सबमें एक

 

कार्यमूलक एकता बनी रहती है। क्रियाओं के परिणामस्वरूप अभिरूचियों का विकास होता है। अभिरूचि शिक्षा के लिए आवश्यक है। इस प्रकार फ्रोबेल के अनुसार सीखने का आधार क्रिया ही है।

 

 फ्रेडरिक फ्रोबेल के अनुसार  शैक्षिक प्रक्रिया में क्रिया का स्थान

 

फ्रोबेल ने शिक्षा में तीन प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख किया है

 

(i) आवृत्यात्मक या लयात्मक क्रियायें 

(ii) वस्तुओं पर आधारित क्रियायें 

(ii) कार्य एवं व्यवसाय

 

आवृत्यात्मक या लयात्मक क्रियाओं से अवयवों का विकास होता है। ध्वन्यात्मक क्रियाओं द्वारा आत्मा का विकास होता है तथा अन्य आवृत्यात्मक क्रियाओं द्वारा इन्द्रियों को विकसित किया जाता है। 

वस्तुओं पर आधारित क्रियाओं से विभिन्न अंगों (अवयवों) की शक्ति बढ़ती है। अगर बच्चों को वस्तु न मिले तो उनके काल्पनिक एवं अर्न्तमुखी होने का खतरा रहता है। अतः शिशुओं एवं बच्चों को विभिन्न तरह के वस्तु दिये जाने चाहिए। किस समय किस तरह के पदार्थ दिये जायेंइस पर फ्रोबेल ने गम्भीर विचार करते हुए तीन आकार के वस्तुओं को देने का सुझाव दिया । जिन्हें वह गिफ्ट या उपहार कहता है। ये तीन आकार के होते हैं.  गोलाघन एवं बेलनाकार । फ्रोबेल के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण इन तीन आकारों पर आधारित है।

 

बच्चे को सबसे पहले गेंद देना चाहिए। फ्रोबेल के अनुसार गेंद सभी चीजों का केन्द्र या धुरी है। फ्रोबेल गेंद को अपने में पूर्ण मानता है जो स्थिरतागतिसमग्रताएकरूपताबहुपार्श्वएकपार्श्वदृश्य-अदृश्य आदि गुणों को अपने में संजाये रहता है। इस प्रकार गेंद फ्रोबेल के प्रिय सिद्धान्त 'अनेकता में एकताका प्रतिनिधित्व करता है। बच्चे गेंद का उपयोग कई तरह से कर सकते हैं- उछाल कर रस्सी से लटकाकररबर में बाँधकर आदि इन गतिविधियों से विज्ञान के कई मूलभूत सिद्धान्तों को आसानी से समझा जा सकता है। भिन्न-भिन्न रंग के गेंदों को उपहार के रूप में देकर बच्चों को रंग का व्यावहारिक ज्ञान दिया जाना चाहिए। ये रंग हैं: नीलालाल पीलाबैंगनीहरा एवं नारंगी। विभिन्न वस्तुओं की जैसे ऊनमखमल आदि की गेंद देनी चाहिए। इनसे बच्चा स्पर्शगतिदिशा आदि को समझता है।

 

उपहारों की दूसरी श्रृंखला में ठोसगोलोंबेलनों एवं घनों को दिया जाना चाहिए। अधिक भारी एवं अपेक्षाकृत स्थिर रहने के कारण इससे खेलने में अधिक शक्ति एवं कौशल की आवश्यकता पड़ती है। इससे बालक को समानता - असमानताहल्का - भारीगति आदि का बोध होता है।

 

अन्य सभी उपहार घनों से सम्बन्धित है। इन्हें विभिन्न संख्याओं में विभाजित कर या एकत्रित कर बच्चे विभिन्न आकारों का निर्माण करते हैं। घन बड़े एवं छोटे दोनों ही आकार के होते हैं। इनसे बच्चों में क्रियाओं द्वारा सृजनात्मकता का विकास किया जाता है। इनसे गणित विशेषतः रेखागणित का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त होता है ।

 

फ्रोबेल ने तीसरे तरह की क्रिया कार्य एवं व्यवसाय को माना है व्यवसाय को परिभाषित करते हुए फ्रोबेल ने कहा "व्यवसाय से तात्पर्य बालक की उस क्रिया से है जो उत्पादक और सामाजिक जीवन के किसी उपयोगी कार्य के समान हो।" कार्य मांसपेशियों एवं बुद्धि दोनों को क्रिया का अवसर देता है। शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमताओं का विकास उत्पादन कार्य के लिए आवश्यक है। लेकिन फ्रोबेल के कार्य एवं व्यवसाय का उद्देश्य धन उपार्जन नहीं है। इनकी उपयोगिता क्रिया का अवसर देने में है। फ्रोबेल ने कार्यों एवं व्यवसायों में बालू से खेलनाकागज काटनामिट्टी के मॉडल बनानाड्राइंग बनानासिलाईकताईबुनाई आदि को स्थान दिया है। इन कार्यों से बच्चा जीवन के समीप आता है।

 

इस प्रकार हम पाते हैं कि फ्रोबेल का शिशु क्रिया सम्बन्धी सिद्धान्त बालक के मनोविज्ञान के गहन और व्यवस्थित निरीक्षण का परिणाम है। फ्रोबेल सर्वप्रथम शिशुओं को शिशु-गीतों एवं आवृत्यात्मक क्रियाओं में व्यस्त रखता है। इसके उपरांत बच्चों को क्रिया एवं व्यवसाय के द्वारा व्यावहारिक प्रशिक्षण मिलता है। इस तरह से आत्मप्रेरित क्रियायें क्रमशः आत्म-नियन्त्रित क्रियाओं का रूप ले लेती है। बच्चे अपनी स्वतंत्रता एवं दायित्व की सीमायें महसूस करने लगता है।

 

फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा में  खेल

 

फ्रोबेल खेल को बालक की शिक्षा का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हिस्सा मानता है। फ्रोबेल ने खेल के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा "खेल मनुष्य के लिएविशेषतः बालक के लिए उसके अन्तः जगत एवं बाह्य-जगत का दर्पण है और इस दर्पण की भीतर से आवश्यकता है। अतः यह जीवन एवं लगन-शक्ति को व्यक्त करने वाली प्रवृति है ।" इस प्रकार मानव-शिक्षा के इतिहास में फ्रोबेल पहला व्यक्ति है जिसने खेल के शैक्षिक महत्व को समझा और इसे शिक्षा का माध्यम बना दिया। फ्रोबेल ने खेल को आत्मप्रेरितआत्मनियन्त्रित एवं स्वचालित क्रिया माना । 'उपहारभी खेल साम्रगी है। फ्रोबेल के अनुसार प्रारम्भिक जीवन में मनोरंजनात्मक खेल उपयोगी है। दूसरे स्तर पर रचनात्मक एवं उत्पादक खेलों को बौद्धिक एवं कलात्मक विकास हेतु आवश्यक माना गया। साथ ही समाजिकता के विकास हेतु समूह नृत्यसमूह गायन जैसे सामूहिक खेलों का भी आयोजन किया जाता है। शारीरिकबौद्धिक एवं मानसिक विकास हेतु उपहारों से सम्बन्धित खेल महत्वपूर्ण हैं।

 

फ्रोबेल ने खेल को अध्यापिकाओं या अध्यापकों के निर्देशन में आयोजित करने का सुझाव दिया। बच्चों के मनमाने ढंग से खेलने से शैक्षिक उद्देश्य पूरे नहीं होते हैं। बच्चों को किण्डरगार्टन में इस तरह से खेलने के लिए प्रेरित करना चाहिए कि प्रकृति द्वारा निर्धारित लक्ष्य यानि बच्चे के विकास के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके।

 

बचपन में खेल बच्चे की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रिया है तो किशोरावस्था में कार्य । अब प्रक्रिया की जगह किशोर की रूचि उत्पादन में होती है। अब उसके सामने एक निश्चित उद्देश्य रहता है। ये कार्य उसके वातावरण पर आधारित होते हैं। फ्रोबेल कार्य को ईश्वरीय रूप का बाह्य स्वरूप मानता है। वह कहता है "आदमी अपने दैवीय अस्तित्व को बाह्य स्वरूप प्रदान करने के लिए कार्य करता है जिससे वह अपनी अध्यात्मिक एवं दिव्य प्रकृति को पहचान सके। यह वस्तुतः आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया है ।"

 

फ्रोबेल खेलउपहार एवं अन्य वस्तुओं के व्यावहारिक उपयोग के अतिरिक्त उन्हें प्रतीक के तौर पर भी महत्वपूर्ण मानते हैं। उपहार विकास के नियमों का प्रतिनिधित्व करता है तो किण्डरगार्टन के फर्श पर का वृत्त सामूहिक जीवन का। फ्रोबेल का यह मानना था कि बच्चों में प्रतीकों के माध्यम से असीम कल्पनाशक्ति है। जैसे खेल में बच्चे डंडे को जांघों के मध् य रखकर घोड़े पर बैठने की कल्पना करता है। फ्रोबेल के अनुसार इस कल्पनाशक्ति का प्रयोग शिक्षा में कर बच्चे की सृजनशीलता बढ़ायी जानी चाहिए। प्रतीकों को महत्वपूर्ण मानने के कारण फ्रोबेल को रहस्यवादी माना जाता

 

 फ्रेडरिक फ्रोबेल के अनुआर  विद्यालयी पाठ्यक्रम

 

फ्रोबेल विभिन्न विषयों के अध्ययन-अध्यापन को साध्य न मानकर बच्चे के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का साधन माना है। इनसे बच्चा अपनी क्षमताओं को जान पाता । फ्रोबेल का कहना है कि जीवन में चाहे जो स्थान हो प्रत्येक बच्चे लड़के और जवान को कम से कम एक-दो घंटे किसी अर्थपूर्ण उत्पादन कार्य में लगाना चाहिए। वर्तमान में विद्यार्थी और अभिभावक काम को भावी जीवन हेतु हानिप्रद मानते हैं। शैक्षिक संस्थाओं का यह कर्तव्य है कि उनके इन पूर्वाग्रहों को समाप्त करे। वर्तमान बौद्धिक शिक्षा बच्चों आलसी  बनाती है और मानव शक्ति के बड़े हिस्से का उपयोग नहीं हो पाता है और वह बेकार जाता है। अतः उत्पादक कार्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।

 

अन्य विषय जिनका अध्यापन किया जाना चाहिए वे हैं कलाप्रकृति अध्ययन तथा विद्यालय बगवानी । फ्रोबेल पाठ्यक्रम का विभाजन चार प्रमुख भागों में करते हैं: (अ) धर्म एवं धार्मिक शिक्षा (ब) प्राकृतिक विज्ञान एवं गणित (स) भाषा एवं ( द ) कला एवं कलात्मक वस्तु । इन विषयों के अध्ययन से छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास संभव हो सकता है। शिक्षा के इतिहास में फ्रोबेल पहला व्यक्ति था जिसने 'क्रियाको पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान दिया।

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