यौगिक जीवन दर्शन :- पुरुषार्थ का अर्थ एवं व्याख्या | Yogik Jeevan Darshan

यौगिक जीवन दर्शन

यौगिक जीवन दर्शन :- पुरुषार्थ का अर्थ एवं व्याख्या  | Yogik Jeevan Darshan

 

यौगिक जीवन दर्शन


1. मानव समाज ने यौगिक संस्कृति को कहां से प्राप्त किया है? 
2. पुरुषार्थ का क्या अर्थ है ? 
3. धर्म किसे कहते हैं? 


  • मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति कर सके और अपने जन्म व कर्म को सार्थक कर सके, इसके लिये आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्य आवश्यक हैं। इस आर्टिकल में हम इन्हीं मूल्यों के विषय में समझेंगे जो हमारे पूर्वजों ने ऋषि-मुनियों से एक संस्कृति के रूप में प्राप्त किये और पूरे मानव समाज द्वारा धारण किये गये जिसके पश्चात् एक के बाद एक आने वाली पीढ़ियों ने अपने पूर्वजों से इस संस्कृति को अपनाना शुरू कर दिया । अतः यह भारतीय संस्कृति के रूप में विख्यात हुई। वास्तव में यह ही यौगिक जीवन दर्शन है। जन्म मिलने के बाद पुरुषार्थ की साधना से मनुष्य अपने जीवन को संवार सकता है। 


  • यौगिक जीवन दर्शन में जीवन के सभी शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक आयामों का विकास करने और संपूर्ण जीवनकाल को व्यवस्थित करने के लिए आश्रम व्यवस्था की गई है और ये चारों आश्रम- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास, व्यक्ति के चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. 

 

  • इस आर्टिकल  में हम आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का अध्ययन करेंगे और जानेंगे कि किस प्रकार मनुष्य अपनी पुरुषार्थ की साधना से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कर सकता है, और उसे कैसा जीवन जीना चाहिए? साथ ही, आधुनिक जीवन के संदर्भ में प्राचीन भारतीय मूल्यों का संबंध भी जान सकेंगे।

 

संस्कृति की अवधारणा

 

अध्यात्म से तात्पर्य स्वयं की आंतरिक सजगता या स्वयं को जानने के प्रयास से है। और नैतिक मूल्य एक प्रकार से आध्यात्मिक संस्कार हैं जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिसे हम संस्कृति के माध्यम से समझेंगे। आइए संस्कृति का अर्थ समझते हैं

 

संस्कृति शब्द 'सभ्' उपसर्ग के साथ संस्कृत की (डु) कृ (चं) धातु से बनता है, जिसका मूल अर्थ साफ या परिष्कृत करना है।

 

संस्कृति सामाजिक अंतःक्रियाओं एवं सामाजिक व्यवहारों के उत्प्रेरक प्रतिमानों का समुच्चय है। इस समुच्चय में ज्ञान, विज्ञान, कला, आस्था, नैतिक मूल्य एवं प्रथाएं समाविष्ट होती हैं। संस्कृति भौतिक, आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक तथा आध्यात्मिक अभ्युदय के साथ मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाओं और सम्यक चेष्टाओं की समष्टिगत अभिव्यक्ति है। यह मनुष्य के वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के स्वरूप का निर्माण, निर्देशन, नियमन और नियंत्रण करती है। अतः संस्कृति मनुष्य की जीवनपद्धति, वैचारिक दर्शन एवं सामाजिक क्रियाकलाप में उसके समष्टिवादी दृष्टिकोण की अभिव्यंजना है।

 

यौगिक जीवन दर्शन में श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए जो दर्शन दिया है, आइये यहां पर, उसका हम संक्षिप्त में अध्ययन करते हैं -

 

पुरुषार्थ का अर्थ एवं व्याख्या 

 

भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- ये चार पुरुषार्थ कहे गए हैं। पुरुषार्थ शब्द का अर्थ है– “पुरुषैः अथ्यते" अर्थात् मनुष्य जिसकी याचना करे । याचना उसी वस्तु की होती है जिसकी इच्छा होती है। इसलिए मनुष्य जिसको प्राप्त करना चाहता है उसी को पुरुषार्थ कहते हैं।

 

पुरुषार्थ मानव जीवन का दर्शन एवं अभिव्यक्ति है। जीवन की सभी सम्भावनाओं, कामनाओं, आकांक्षाओं से लेकर आत्मस्वरूप की प्राप्ति तक सभी कार्य पुरुषार्थ द्वारा ही सम्भव होते हैं। मनुष्य जन्म मिलने के बाद पुरुषार्थ की साधना द्वारा जीवन को संवारा और गढ़ा जा सकता है। जीवन के समस्त कार्य भाग्य और पुरुषार्थ के अधीन रहते हैं। इन दोनों में भाग्य गौण होता है और पुरुषार्थ ही मुख्य होता है। भाग्यवादी न बनकर हमें पुरुषार्थी बनना चाहिए। पुरुषार्थी व्यक्ति ही सौभाग्य, सम्पदा और सम्मान प्राप्त करता है। समृद्धि और सम्पन्नता पुरुषार्थ करने वाले मनुष्य को प्राप्त होती है। आलसी व भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले मनुष्यों के पास यदि लक्ष्मी है तो वह भी कुछ दिनों में वहां से चली जाती है।

 

मनुष्य जन्म तो भाग्य के अधीन होकर प्राप्त हुआ है, परन्तु अथक पुरुषार्थ करना मनुष्य के वश में होता है। पुरुषार्थहीन व्यक्ति जीवित होते हुए भी मरे हुए के समान हैं, जबकि पुरुषार्थी मनुष्य संकल्प बल और इच्छा शक्ति के बल पर काल की गति को तोड़ने और मरोड़ने का सामर्थ्य रखता है।

 

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के कर्तव्यों को मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त करने वाली विद्या को पुरुषार्थ चतुष्टय की संज्ञा दी गई है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को पुरुषार्थ चतुष्टय कहा गया है । इन्हीं चारों पुरुषार्थों पर मनुष्य जीवन आधारित है। सम्पूर्ण जीवन, अर्थ और काम की प्राप्ति हेतु हम सभी प्रयासरत रहते हैं। किन्तु कुछ लोग उक्त दोनों के पश्चात् धर्म की ओर उन्मुख होते हैं तथा कुछ अत्यन्त अल्प संख्या में उनसे आगे बढ़कर मोक्ष की ओर उन्मुख होते हैं । इसलिए कहा गया है कि अविद्या के द्वारा धर्म, अर्थ तथा काम की प्राप्ति की जा सकती है तथा विद्या द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतः मनुष्य को जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष पुरुषार्थ की प्राप्ति हेतु प्रयास करना चाहिए। आइए, इन चारों पुरुषार्थों के विषय में विस्तार से जानते हैं

 

1 धर्म

 

धर्म शब्द 'धृ' धातु से उत्पन्न हुआ है जिसका मुख्य अर्थ धारण करना, आलम्बन देना या पालन करना होता है। जिसे धारण किया जाये, उसे धर्म कहते हैं । अर्थात् जो श्रेष्ठ बनने के लिए धारणीय, आचरणीय, पालनीय है, वे सभी धर्म के अन्तर्गत आते हैं। मनुष्यों और पशुओं में आहार, निद्रा, भय और संतानोत्पत्ति करना दोनों में समान प्रवृतियां होती हैं। यदि मनुष्य में पशुओं से अधिक कुछ श्रेष्ठ है तो वह उसकी विवेक बुद्धि, उसके आचार और धर्म हैं। मनुष्य के उत्कृष्ट नैतिक आचरण के कारण ही उसे सभ्य कहा जाता है। अर्थात् धर्म मनुष्य को सभ्य बनने की राह पर लेकर चलता है। इसलिए भारत के प्राचीन मनीषियों ने कहा है कि "धर्मो रक्षति रक्षितः” अर्थात् सदा धर्म की रक्षा करो, वह तुम्हारी रक्षा करेगा।

 

मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन करते हुए कहा गया है-

 

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । 

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ।।

 

अर्थात् धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये गए अपराध को क्षमा कर देना, क्षमाशील होना), दम (मन को नियंत्रित करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धि होना), विद्या (ज्ञानवान होना), सत्य एवं अक्रोध ( क्रोध न होना) - ये धर्म के दस लक्षण कहे गए हैं। जहां ये हैं, वहीं धर्म है।

 

धर्म के भेद - 

भारतीय ऋषियों ने मुख्यतया धर्म के तीन भेदों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार हैं-

 

सामान्य धर्म- 

सामान्य धर्म के अन्तर्गत वे सभी तत्व आते हैं जिनका सबको पालन करना होता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि का पालन सभी के लिए अनिवार्य है। अभिवादन, अतिथि सत्कार आदि सामान्य धर्म कहे जाते हैं।

 

विशिष्ट धर्म– 

विशिष्ट धर्म का अर्थ यहां पर व्यक्ति विशेष, समाज, वर्ग आदि से लगाया जाता है। इसका उत्कृष्ट अर्थ स्वधर्म का पालन करना होता है। व्यक्ति जिस सामाजिक संरचना, परिवेश से जुड़ा होता है उससे सम्बन्धित नियमों व आचरणों का पालन करना होता है। स्थान, काल, पात्रता के अनुसार कर्तव्यों का निर्धारण होता है, उसे ही विशिष्ट धर्म की संज्ञा दी गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में स्वधर्म पालन करने की प्रेरणा दी गई है। कहा गया है कि दूसरे के कर्म करने में शांति नहीं मिलेगी। स्वयं के कर्तव्यों को पूरा करने से (स्वधर्म पालन करने से) ही मनुष्य को शांति व सुख प्राप्त होता है।

 

आपद् धर्म- 

जिसकी आज्ञा केवल आपातकाल के समय ही सम्पन्न करने की होती है, इसलिए उसे आपद धर्म कहा गया है। जैसे किसी के प्राण संकट में पड़ गये हों और आपके असत्य बोलने से उसके प्राण बचते हों तो उस परिस्थिति में असत्य भाषण का दोष नहीं लगता है।

 

2 अर्थ

 

  • द्वितीय पुरुषार्थ के रूप में अर्थ को मान्यता प्राप्त है। अर्थ शब्द 'ऋग्' धातु से उत्पन्न होता है जिसका अर्थ गति होता है। अर्थात् जिससे जीवन गतिमान होता है, वही अर्थ कहलाता है। धर्म का मूल भी अर्थ ही माना गया है। भूमि, धन, विद्या, कला और कृषि तथा आजीविका सम्बन्धी सभी वस्तुओं का नाम अर्थ माना गया है। प्राचीन काल में अर्थ के लिए जो वस्तुएं प्रचलित थीं वे आज के समय में उपलब्ध नहीं हैं। जो वर्तमान समय में प्रचलित हैं, जो पहले प्रचलन में नहीं थीं। अतः जीवन संचालन में काम आने वाली सभी वस्तुएं अर्थ ही कही जाती हैं।

 

  • जीवन संचालन के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है। बिना अर्थ के धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं हो पाती है। मनुष्य में कामनायें, इच्छाएं होना स्वाभाविक है। कामनाओं की पूर्ति हेतु अर्थ एक अनिवार्य साधन हमेशा से रहा है। अर्थ समस्त कार्य व्यवहार का संचालनकर्ता है। इसके अभाव में जीवन निर्वाह करना असम्भव है। पुरुषार्थ सिद्धान्त में सांसारिक कर्तव्यों के पालन एवं दायित्वों की पूर्ति हेतु अर्थ का उपार्जन आवश्यक समझा जाता है। अतः आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता होनी आवश्यक है। धन-सम्पदा अर्जित करने के लिए मानव को अपने व्यक्तिगत - सामर्थ्य का उपयोग करना चाहिए। किन्तु यह अर्थ शुचितापूर्वक धर्माचरण करते हुए अर्जित किया जाना ही श्रेयस्कर है।

 

3 काम

 

  • काम का अर्थ है- कामना या इच्छा मनुष्य की एक ही महत्वपूर्ण इच्छा होती है कि वह सुखपूर्वक जीवन यापन करे। उसे जिस-जिस पदार्थ में सुख की अनुभूति होती है, वह उसे प्राप्त करना चाहता है, तथा जिससे दुःख की अनुभूति होती है, उसे छोड़ना चाहता है। समस्त सुख साध् नों की इच्छा काम के अन्तर्गत आती है। उपस्थेन्द्रिय के माध्यम से प्राप्त सुख की अनुभूति मुख्य होने के कारण इसे काम का प्रधान लक्षण मान लिया गया है। समस्त कामनाएं, इच्छाएं मनुष्य के लिए सुख की खोज का अंग हैं, जिन्हें वह जन्म से मृत्युपर्यन्त (सम्पूर्ण जीवन में) चाहता रहता है और अन्ततः इस संसार से अतृप्त ही चला जाता है क्योंकि ये समस्त सुख साधन क्षणिक सुखाभास के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। परमसुख (परमानन्द) का स्रोत तो परमात्मा है अतः शास्त्रों में यह निर्देश है कि काम का उपयोग भी धर्म आधारित हो, जिससे हम उन कामनाओं में अटककर न रह जाएं और न ही उस परमलक्ष्य मोक्ष को भूल जाएं। इन्द्रिय सुखों का ध्यान रखकर भी उस परमसत्य तत्व की प्राप्ति का प्रयास करते रहें। अर्थ और काम का भोग मोक्ष की ओर ले जाने वाला तभी होगा जब हम धर्म के साथ इनका आचरण करेंगे अन्यथा यह बन्धन का कारण होकर हमें अनन्त दुःख के सागर में धकेल देगा।


4 मोक्ष

 

  • भारतीय संस्कृति मनुष्य जीवन को उद्देश्यपूर्ण मानती है। इसलिए जीवन के परम लक्ष्य के प्रति पथ प्रदर्शित करती है। पुरुषार्थ सिद्धान्त अन्तिम मोक्ष का वर्णन किया गया है। धर्मपूर्वक अर्थ व काम का उपभोग करते हुए मानव मोक्ष की प्राप्ति करने का प्रयत्न करता है।

 

  • मोक्ष का शब्दार्थ है- बन्धन मुक्त होना । बन्धन का कारण अविद्या है। अविद्या के कारण मनुष्य बार- बार जन्म-मरण के फेर में पड़ा रहता है। उपनिषदों की मूल शिक्षा यही है कि मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है तो इसी जन्म में आनंदमय परमात्मा को पा लिया जाए तो यह मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। अतः इसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति का साधन मनुष्य को करना चाहिए। जिससे इस संसार के समस्त दुःखों से छुटकारा प्राप्त करके उस परमसुख, परमानन्द को प्राप्त कर सकें जो केवल परमपिता परमेश्वर की सन्निधि में ही प्राप्य है। अतः जीवन के लक्ष्य मोक्ष तक पहुंचने के लिए भारतीय ऋषियों के बताए मार्गों का अनुसरण करते हुए जीवन यापन करने का आदेश और सन्देश हमारे शास्त्रों द्वारा प्रदान किया गया है।

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