यौगिक ( योग) ग्रंथों का सामान्य परिचय | Yog Se Sambandhit Granth Aur Unki Jaankari

यौगिक ( योग) ग्रंथों का सामान्य परिचय

यौगिक ( योग) ग्रंथों का सामान्य परिचय | Yog Se Sambandhit Granth Aur Unki Jaankari


 

यौगिक ( योग) ग्रंथों का सामान्य परिचय

सभी भारतीय दर्शन एक ही ज्ञान के पथ हैं। प्रत्येक दर्शन उप मार्ग का एक सोपान है। परमपद तक पहुंचने के लिए पहले सोपान को पार करना ही होगा।

 

1- पातंजल योग सूत्र

 

योग के दार्शनिक रूप में तत्वों पर विचार करने के लिए महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र महत्वपूर्ण दर्शन है। 'योग सूत्रयोगशास्त्र का मूल ग्रंथ है। इसमें चार पाद हैं

 

1. समाधिपाद 

2. साधनपाद 

3. विभूतिपाद 

4. कैवल्यपाद

 

1) प्रथमपाद में कुल 51 सूत्र हैंजिसके अंतर्गत योग के स्वरूपचित्तवृत्तिसमाधि तथा उनके भेदों का निरूपण किया गया है।

 

2 ) द्वितीय पाद में कुल 55 सूत्र हैंइसमें क्रियायोगअविद्याादि क्लेश एवं उनके निवारण के उपाय एवं अष्टांग योग (बहिरंग) आदि महत्वपूर्ण विषयों का निरूपण मिलता है।

 

3) तृतीय पाद में भी 55 सूत्र हैं। इसके अंतर्गत धारणाध्यानसमाधि संयम एवं संयम जन्य विभूतियां निरूपित की गई हैं।

 

4) चतुर्थ पाद में 34 सूत्रों का वर्णन है। इसका प्रमुख विषय कैवल्य है तथा इसमें समाधिसिद्धि (अंतरंग)चित्तनिर्माणआत्मभावभावनानिवृत्तिधर्ममेघसमाधि आदि का निरूपण भी किया गया है। अन्य दर्शनों की अपेक्षा योग दर्शन की एक विशेषता यह है कि यह सैद्धान्तिक ही नहींव्यावहारिक भी है।

 

2-  घेरण्ड संहिता

 

  • घेरण्ड संहिता में महर्षि घेरण्ड ने जिस योग की शिक्षा दी हैउसे लोग 'सप्तांग योगके नाम से भी जानते हैं। अन्य ग्रंथों में अष्टांग योग की चर्चा की गई हैलेकिन हठयोग के कुछ ग्रंथों में योग के छह अंगों का वर्णन मिलता है। गोरखनाथ द्वारा लिखित 'गोरक्ष शतकमें भी षडंग योग की चर्चा की गई है।

 

  • घेरण्ड संहिता में सबसे पहले शरीर शुद्धि की क्रियाओं की चर्चा की गई है जिन्हें षट्कर्म कहा जाता है। इनमें प्रमुख हैं- नेति- नाक की सफाईधौति-पाचन तंत्र की सफाईवस्ति - बड़ी आंत की सफाईजिससे हमारे शारीरिक विकार दूर हो जाएंनौलि - पेटगुर्दे इत्यादि का व्यायामकपालभाति और त्राटक-अग्र मस्तिष्क की सफाई व मानसिक एकाग्रता की एक विधि है। इसके बाद आसनों की चर्चा की गयी है जिनसे शरीर की दृढ़ता और स्थिरता प्राप्त होती है। तीसरे आयाम में पच्चीस मुद्राओं की चर्चा मिलती हैचौथे आयाम में प्रत्याहार पांचवें आयाम में प्राणायाम के अभ्यास को जोड़ा है। छठे आयाम के अंतर्गत ध्यान की चर्चा मिलती है जोकि तीन प्रकार के हैं - स्थूलसूक्ष्म और ज्योतिध्यान। सातवें आयाम में समाधि का वर्णन मिलता है।

 

  • इस प्रक्रिया या समूह को उन्होंने एक दूसरा नाम भी दिया हैवह है- घटस्थ योग ।

 

  • इस प्रकार महर्षि घेरण्ड ने 'घटस्थ योग के बारे में बताया है कि घटस्थ योग शरीर पर आधारित योग है। घट का अर्थ होता है घड़ा। जब हम घड़े की कल्पना करते हैंतब मिट्टी से बनी आकृति मन में उभरती है। हम उसकी बाह्य आकृति को देखते हैंपरन्तु हमें यह मालूम नहीं रहता कि इसके अंदर क्या भरा हैहो सकता हैघड़ा खाली हो या उसमें पानी भरा होहो सकता है उसमें अन्न रखा हो। घड़े के भीतर कोई भी चीज हो सकती हैलेकिन घट कहने से केवल बाह्य आकृति का ज्ञान मिलता है। शरीर को तो हम देखते हैं। उसे सुखी व संतुष्ट बनाने के लिए हम पुरुषार्थ या कर्म करते हैं। शरीर को ठंड लगती है तो कपड़े पहनते हैं। गरमी लगती है तो कपड़े उतारते हैंपंखा चलाते हैं। शरीर विश्राम चाहता है तो सोते हैं। शरीर के इन सब बाह्य क्रिया कलापों को तो हम अपने जीवन में देखते हैंअनुभव करते हैंलेकिन शरीर के भीतर कौन-कौन से तत्व हैं यह कोई नहीं जानता।

 

  • शरीर की रचना एक विचित्र संयोग से हुई है। उस संयोग को आप चाहे प्रकृति कहिएब्रह्मा कहिए या ईश्वर कहिए। जब हम शरीर पर आधारित योगाभ्यास करते हैंतो हमारे मस्तिष्क पर उसका सीधा प्रभाव पड़ता हैऔर मस्तिष्क की गतिविधियां शांत हो जाती है। शारीरिक योग का प्रभाव मन पर पड़ता हैउसके माध्यम से मानसिक चंचलता शांत हो जाती हैं शांति की प्राप्ति के पश्चात् हम अपने कर्मों और संस्कारों को परिमार्जित कर सकते हैं।

 

  • अतः शरीर को निर्मित करने वाले स्थूल एवं सूक्ष्म तत्वों से परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। जब स्थूल एवं सूक्ष्म तत्वों का परिचय हमें प्राप्त होता हैतब यह कहा जा सकता है कि घटस्थ योग की शुरुआत हो रही है।

 

3- श्रीमद्भगवद्गीता

 

श्रीमद्भगवद्गीता विभिन्न योग पद्धतियों का सुविस्तृत ग्रन्थ है जिसमें से मुख्य योग परिभाषाओं का वर्णन निम्नवत है- 

 

श्रीमद्भगवद्गीता कर्मयोग के बारे में स्पष्ट अभिमत प्रस्तुत करता है। कर्मयोग समत्व भावअनासक्त कर्मईश्वर अर्पित कर्म आदि अनेक भावों से युक्त है यथा श्रीमद्भगवद्गीता (2 / 48 ) मतानुसार

 

'योगस्थ कुरू कर्माणि संगत्यक्तवा धनंजय 

सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।

 

  • अर्थात् योग में स्थित होकर कर्म करोहे धनन्जय उससे (कर्म से) आसक्ति त्यागकर कार्य सिद्धि या असिद्धि दोनों में समान भाव होकर कर्म करो यही समत्व भाव योग है।

 

  • इसी क्रम में अगले श्लोक 2/49 में भगवान ने कहा है कि 'इस बुद्धि योग के द्वारा किया काम तो बहुत ऊँचा है। अतः समत्व वाले बुद्धियोग की शरण लो क्योंकि काम को फल की इच्छा से करने वाले अत्यन्त दीन हैं 'अतः कर्मों में कुशलता के लिए अच्छे और बुरे दोनों कर्मों से स्वयं को निवृत्त करना ही कर्मयोग कहा गया है।श्लोक 2/50 में कहा गया है कि-

 

'बुद्धियुक्तों जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । 

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्'

 

एक अन्य परिभाषा में श्लोक 6/23 में कहा गया है कि-

 

'तं विद्याददुःख संयोग वियोग योग संज्ञितम् । 

स निश्चयेन सोक्तष्यो योगो निर्विष्णचेतसा ।।

 

अर्थात् जो दुःख रूप संसार के संयोग से रहित है वह विद्या (ज्ञान) ही योग हैउसको जानना चाहिए। इस योग को धैर्य और उत्साहपूर्वक निश्चय चित्त से करना चाहिए।

 

स्थितप्रज्ञ के निम्नलिखित लक्षणों का उल्लेख गीता के दूसरे अध्याय में मिलता है

 

1. क्षमाशील 

2. करुणानिधि 

3. एक विचार दृष्टिवाला 

4. कर्मयोगी 

5. जीवन मुक्त 

6. योगारुढ़ 

7. भगवत्भक्त 

8. गुणातीत 

9.ज्ञाननिष्ठ

 

4-  हठयोग प्रदीपिका

 

हठयोग प्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम ने सहयोग परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इसके चार अंगों का विस्तृत वर्णन किया है:

 

आसनप्राणायाममुद्रानादानुसंधान

 

हठयोग 

  1. आसन 
  2. प्राणायाम 
  3. मुद्रा 
  4. नादानुसंधान

 

इस प्रकार स्वात्माराम ने उपर्युक्त चार अंगों का निर्देश किया है। हठयोग का अभ्यास प्रायः राजयोग के लिए ही किया जाता है। हठयोग (प्रदीपिका 2/76) 

इसमें बाधक एवं साधक तत्वों का उल्लेख भी मिलता है। (हठयोग प्रदीपिका 1/15, 16)

 

प्रथम उपदेश

 

इसमें आसनों की संख्या 15 बतायी गई है। सिद्धासन और पद्मासन पर विशेष महत्व दिया गया है अंत में हठाभ्यासियों के लिए पथ्य व अपथ्य आहार का विस्तार से विवेचन किया गया है।

 

द्वितीय उपदेश

 

  • इसके प्रथम भाग 1-20 में प्राणायाम की उपयोगिता व विशेषता के साथ नाड़ी शोधन की आवश्यकता पर महत्व दिया गया है और 21-37 में षट्कर्म और अष्टकुम्भकों का विस्तृत वर्णन है।

 

तृतीय उपदेश 

  • इसमें 10 मुद्राओं व कुण्डलिनी का वर्णन किया गया है।

 

चतुर्थ उपदेश 

  • इसमें नादनादानुसंधान व समाधि की विस्तृत चर्चा की गई है.

 

5- वशिष्ठ संहिता

 

वशिष्ठ संहिता में महर्षि वशिष्ठ जी ने 14 नाड़ियों का वर्णन किया है। इनमें तीन प्रमुख हैं 

(1) इड़ा, (2) पिंगला (3) सुषुम्ना

 

इसके साथ ही यहां यम की चर्चा भी मिलती है। प्राणायाम को यहां दो प्रकार से समझाया गया है:

 

1. सहित कुम्भक 

2. केवल कुम्भक

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.