समाचारपत्र लेखन : संपादकीय क्या है? प्रकार विशेषताएँ एवं लेखन प्रक्रिया | News Paper Writing Sampadikiya

समाचारपत्र लेखन : संपादकीय क्या है? प्रकार विशेषताएँ एवं  लेखन प्रक्रिया

समाचारपत्र लेखन : संपादकीय क्या है? प्रकार विशेषताएँ एवं  लेखन प्रक्रिया | News Paper Writing Sampadikiya


समाचारपत्र लेखन News Paper Writing in Hindi

 

  • अब तक आप समाचारपत्र की परिभाषा और उसके स्वरूप से परिचित हो चुके होंगे। आइए अब आपको यह बताया जाए कि समाचारपत्र लेखन क्या हैसमाचारपत्र लेखन से तात्पर्य है समाचारपत्र के लिए किया जाने वाला लेखन या समाचारपत्र में किया गया लेखन। समाचारपत्र लेखन एक विशिष्ट कार्य है और इसके लिए एक विशेष प्रशिक्षणतकनीक और अभ्यास की आवश्यकता है तभी कोई व्यक्ति समाचारपत्र लेखन में सफल हो सकता है। समाचारपत्र में समाचार भी लिखे जाते हैंसंपादकीय भी लिखे जाते हैफीचर भी लिखे जाते हैंसाथ ही अन्य उपयोगी सामग्री का भी लेखन किया जाता है। उन सभी का विवचेन इस इकाई में आपको समझाया जा रहा है कि उनका स्वरूप क्या है और उनका लेखन किस प्रकार किया जा सकता है।यहां यह उल्लेखनीय है इस सामग्री में समाचार का अंश अवश्य रहता है। सूचना इसके है मूल में रहती है। चूँक समाचारों पर पहली दो इकाइयों में विस्तार से चर्चा की जा चुकी है अतः यहां समाचार से इतर सामग्री लेखन पर विचार अपेक्षित है


संपादकीय क्या हैउसकी लेखन प्रक्रिया को सोदाहरण समझाइए।

1 संपादकीय लेखन

 

  • प्रायः प्रत्येक समाचारपत्र में संपादकीय प्रकाशित होते हैं। इनकी संख्या एक या एकाधिक हो सकती है। जैसे 'दैनिक भास्करएक संपादकीय प्रकाशित होता है और 'जनसत्तामें दो संपादकीय प्रकाशित होते हैं। पहले तीन संपादकीय समाचारपत्रों में आते थे अब इनकी संख्या कम और स्वरूप छोटा होता जा रहा है। संपादकीय संपादक द्वारा लिखा गया लेख है। यह समाचार का सार तत्त्वसंपादक का नितांत अपना निजी दृष्टिकोण पत्र की रीति-नीति का स्वच्छ दर्पणसमाचारपत्रों का स्थायी सम्मानवाहकसंजीवन तत्त्वधड़कनरीढ़ और आत्मा होता है और समाचारपत्र को चिरस्मरणीय बनाता है। इसके अभाव में समाचारपत्र वैसा ही है जैसाकि 'शीतलता के बिना जलदाहकता के बिना अग्निशील के बिना सौंदर्यविनय रहित शक्तिसमर्पण रहित भक्तिप्रेम रहित अनुरक्तिप्राण रहित शरीरसुगंध विहीन पुष्पकूजन रहित पक्षी समुदायहँसी ठिठोली शून्य पनघट और राष्ट्रभाषा रहित राष्ट्र || एक आदर्श संपादकीय कलेवर से 'वामनऔर चेतना से 'विराटहोता है।' (संपा० डॉ. सुरेश गौतमडॉ. वीणा गौतमहिदी पत्रकारिता: कलआज और कलपृ०-107, डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी का कथन) संपादकीय से ही किसी संपादक की लेखन क्षमता काउसकी लेखन के कौशल का परिचय मिलता है।

 

एम० लायल स्पेंसर ने श्रेष्ठ संपादकीय को इस प्रकार परिभाषित किया है- 

  • संपादकीय संक्षेप में तथ्यों और विचारों का ऐसा तर्कसंगत और सुरुचिपूर्ण प्रस्तवन है जिसका उद्देश्य मनोरंजनविचारों को प्रभावित करना या किसी महत्त्वपूर्ण समाचार का ऐसा भाष्य प्रस्तुत करना है जिससे सामान्य पाठक उसका महत्त्व समझ सके। (उद्धृतडॉ. संजीव भानावतसंपादन - कलापृ० - 13) संपादकीय लेखन या तो संपादक करता है या संपादकीय विभाग के वरिष्ठ उपसंपादक यह कार्य करते हैं। छोटे समाचारपत्रों में यह कार्य संपादक स्वयं ही करता है। लेकिन आजकल इस पर भी छद्म हावी हो गया है। आजकल लिखता है कोई और दिखता है कोई तथा बिकता है कोई.संपादक कोई नामधारी है तो लिखनेवाला कोई कलमधारी । नाम किसी का और काम किसी का। फिर भी यह सत्य है कि संपादक की सहमति के बिना किसी भी बड़े समाचारपत्र में संपादकीय नहीं छपता। आजकल संपादकीय खरीदे भी जाते हैं और बेचे भी जाते हैं। (संपा. डॉ. सुरेश गौतमडॉ. वीणा गौतमहिदी पत्रकारिता: कलआज और कलपृ०-107, डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी का कथन) यद्यपि संपादकीय में संपादक का नामोल्लेख नहीं होता तथापि यह संपादक का ही विचार माना जाता है। कभी-कभी किसी विशेष अवसर पर या अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना पर संपादकीय संपादक के नाम के साथ मुखपृष्ठ पर प्रकाशित होता है। आरक्षण विवादपर कमलेश्वर के 'राष्ट्रीय सहारामें प्रकाशित संपादकीय इसी प्रकार के थे।

 
एक अच्छे संपादकीय की निम्नलिखित विशेषताएं मानी गई हैं

 

(क) समाचारों का भाष्य प्रस्तुत करना

(ख) घटना की पृष्ठभूमि प्रदान करना

(ग) भविष्य की संभावनाओं की ओर संकेत करना

(घ) विश्लेषण करते हुए नैतिक निर्णय देना 

(ड) तथ्यों की प्रामाणिक और प्रभावोत्पादक प्रस्तुति।

 

  • यहां यह उल्लेखनीय है कि संपादकीय लेखन एक कठिन कार्य है। यह फीचर लेखन की तरह सहज नहीं है। इसमें संपादक का अपना व्यक्तित्व और शैली दृष्टिगत होती है। इसके लेखन के लिए पहले विषय चयन करना पड़ता है और तदनुरूप सामग्री संकलन करनी पड़ती है। इसके बाद मानसिक स्तर पर रूपरेखा बनानी पड़ती है। इसके बाद लेखन का मूल कार्य प्रारंभ होता है जिसमें विषय-प्रवेश (समस्या-कथन)विषय का क्रमिक विस्तार (समस्या- विश्लेषण)विषय का निष्कर्ष ( समस्या पर निर्णायक टिप्पणी)शीर्षक और प्रथम वाक्य तथा भाषा पर ध्यान दिया जाता है।

 

  • संपादकीय लेखन के लिए प्रतिदिन संपादक द्वारा संपादकीय विभाग के सदस्यों के साथ बैठक कर संपादकीय का विषय और लेखक तय किया जाता है। इसी बिंदु पर समाचारपत्र द्वारा अपनाई जाने वाली दिशा का निर्धारण किया जाता है। प्रायः संपादकीय के लिए महत्त्वपूर्ण और रुचिकर विषय का चयन किया जाता है। ये विषय राष्ट्रीय भी हो सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय भीजैसे मुंबई पर आतंकवादी हमला या अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव। एक अच्छे विषय का चयन समाचारपत्र की लोकप्रियता को बढ़ा सकता है और गलत चयन लोकप्रियता कम कर देता है।

 

  • विषय-निर्धारण के बाद सामग्री का संकलन किया जाता है। इसके लिए संपादकीय लेखक को पुस्तकालय में रखे संदर्भ ग्रंथोंसमाचारपत्रों की विषयवार संचित कतरनों और इंटरनेट से मदद मिलती है। इसके साथ ही वह अन्य माध्यमों पर प्रसारित-प्रकाशित हो रही सूचनाओं और ताजा समाचारों पर भी अपनी पैनी दृष्टि रखता है। फिर जो लिखना है उसकी रूपरेखा मस्तिष्क में बनाकर वह लिखना शुरू करता हैं।

 

  • सबसे पहले समस्या-कथन या विषय प्रवेश किया जाता है। यह संपादकीय के प्रथम अनुच्छेद में होता है। इसमें किसी केंद्रीभूत विचार पर अपना ध्यान केंद्रित कर संपादकीय लेखक उसे पाठक के मन में उतारने का प्रयास करता है। पाठक के मन में प्रतिक्रिया पैदा करना उसका लक्ष्य होता है। दूसरे अनुच्छेद में विषय का क्रमिक विस्तार विचार के संबंध में वक्तव्यमतयुक्तियाँतर्क और कथन प्रस्तुत करके संतुलित रूप में किया जाता है। इसीलिए यह अनुच्छेद पहले अनुच्छेद की अपेक्षा बड़ा होता है। विषय प्रतिपादन में पूर्वग्रहपक्षपात और कट्टरता आदि से बचना चाहिए। साथ ही विचारों की पुनरावृत्ति या अनावश्यक शब्द - विस्तार न होइसका भी ध्यान रखना चाहिए। तीसरे अनुच्छेद में निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है। संपादकीय के इस भाग में किसी महत्त्वपूर्ण विचारउत्प्रेरणापरामर्श या आदेश देने का प्रयास किया जाता है। संपादकीय के शीर्षक और पहले वाक्य का भी बहुत महत्त्व होता है। शीर्षक 'शो विंडोके समान है जो दूर से ही ग्राहक को आर्किर्षत कर अपने पास बुलाता है। डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी के शब्दों में शीर्षक चलते हुए कदम को ठिठकाता है। शीर्षक भोजन से उठनेवाली ऐसी सोंधी सुगंध है जिससे जठराग्नि इतनी प्रदीप्त हो उठती है कि बिना भूख के भी सब कुछ चट कर जाने को मन मचल उठता है। संपादकीय का शीर्षक दो दर्पणों के बीच रखे हुए दीपक की तरह होना चाहिए। उचित शीर्षक के अभाव में पूरा संपादकीय ऐसा लगता है जैसा सौंदर्य विभूषित सुपुष्ट देहयष्टि पर खल्वाट सिर अथवा पीतदंतयुक्त बीमार मुस्कान। (संपा० डॉ. सुरेश गौतमडॉ. वीणा गौतमहिंदी पत्रकारिता: कल आज और कलपृ० 111) संपादकीय का प्रथम वाक्य ऐसा हो कि पाठक सहज भाव से रुचिपूर्वक सारा संपादकीय पढ़ लेने को तत्पर हो जाएउसकी उत्सुकता बढ़ जाए। अधिकांश पाठकों द्वारा पढ़े जाने में ही संपादकीय की सफलता है।

 

  • संपादकीय लेखन के समय उसकी भाषा पर भी ध्यान देना चाहिए। संपादकीय की भाषा जीवंतस्पष्टसशक्तसंयतसंतुलितसरल-सुबोध और प्रभावशाली होनी चाहिए तथा वाक्य परस्पर संबद्ध होने चाहिए। भाषागत तथा विचारगत एकरूपता का निर्वाह होना आवश्यक है। यहां न तो अनावश्यक अलंकरण होना चाहिए और न वाग्जाल बल्कि तर्कपूर्ण ढंग से सटीक शब्द प्रयोग द्वारा विषय प्रस्तुति होनी चाहिए। कठिन शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। बीच-बीच में काव्य पंक्तियोंदोहोंशेरों आदि का प्रयोग किया जा सकता है जैसे कि 'पंजाब केसरीसमाचारपत्र के संपादकीयों में मिलता है। इनके प्रयोग से संपादकीय रुचिकरजीवंत और कलात्मक बनता है। कुछ खास ढंग के वाक्यों का प्रयोग भी किया जा सकता है जैसे 'जरूरी प्रतीत होता है', 'यह देखना शेष है', 'सही दिशा में कदम है', 'हम कहने का साहस करते हैंआदि। लेकिन इस प्रकार के वाक्यों का प्रयोग लगातार नहीं होना चाहिए।

 

संपादकीय लेखों के प्रकार

 

संपादकीय लेख के मूलत: दो प्रकार हैं 1. सूचनात्मक और 2. विवादास्पद 

सूचनात्मक संपादकीय

  • सूचनात्मक संपादकीय में प्रायः समस्या का वर्णनविश्लेषण अधिक और टिप्पणी कम होती है। विवादास्पद संपादकीय में वर्णन के साथ उसके किसी एक पहलू का समर्थन या विरोध किया जाता है। कुछ संपादकीय कर्त्तव्यबोधक होते हैंजैसे बाढ़अकाल या भूकंप के समय जनता को प्रेरित करने के लिए लिखे जाने वाले संपादकीय। कुछ उत्साहवर्धक संपादकीय होते हैंजैसे भारत-पाक संघर्ष के समय जनता का मनोबल ऊँचा रखने के लिए संपादकीय लिखना। कुछ संपादकीय पक्ष समर्थक होते हैंजैसे - सामनापत्र के संपादकीय। कुछ संपादकीय जिहादी होते हैंजैसे हिंदी के समर्थक पत्र हिंदी के बारे में और अंग्रेज़ी के समर्थक पत्र अंग्रेज़ी के विषय में प्रायः लिखते हैं। कुछ संपादकीय त्यौहारोंमौसम आदि पर आधारित होते हैं। कुछ संपादकीय उद्धरणप्रधान होते हैं। संपादकीय का वर्गीकरण विषय के आधार पर भी किया जा सकता है। (संपा० वेदप्रताप वैदिकहिंदी पत्रकारिता विविध आयामपृ० 59 )

 

यहाँ संपादकीय का एक उदाहरण प्रस्तु है

 

ठेके पर सरस्वती

 

  • अनिश्चित भविष्य निश्चय ही अभिशाप होता है। अचरज नहीं कि निजीकरण के उतावले दौर में अब कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी ठेके पर लाने का प्रयत्न किया जा रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू०जी०सी०) के इस आशय के सुझाव को शिक्षकों द्वारा उनको अनिश्चितता के गर्त में धकेलने की साजिश के तौर पर देखा जा रहा है। फिलहाल उच्च शिक्षा में उच्च गुणवत्ता’ बनाए रखने की दृष्टि से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने तीन से पाँच वर्ष के कार्यकाल के लिए अध्यापकों को ठेके पर नियुक्त करने का सुझाव बहस और विचार के लिए रखा है। आयोग के अनुसार राष्ट्रीय शैक्षिक योजना संस्थान (नीपा) इस सुझाव पर व्यापक विचार-विमर्श के बाद बताएगी कि किस प्रकार इसे लागू किया जाएएक पूर्व प्रोफेसर और वर्तमान मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी के मानव संसाधन मंत्रालय की शिक्षा के क्षेत्र पर कुछ ज्यादा निगरानी रहती है। एन० सी० ई० आर० टी० के पाठ्यक्रम-परिवर्तन का विवाद अभी थमा नहीं था कि प्रोफेसररीडर और लेक्चरर ठेके पर नियुक्त करने का प्रस्ताव रख दिया गया। यू०जी०सी० और शिक्षक समुदाय पढ़ाई के घंटों को लेकर अभी हाल में लंबे समय तक टकराव की मुद्रा में रहे। पढ़ाने के समय में डेढ़ घंटे की बढ़ोत्तरी पर किसी तरह समझौता हुआ था किंतु ठेके पर अध्यापकों की नियुक्ति से फिर टंटा खड़ा हो गया है। इस मुद्दे पर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी समर्थक शिक्षक संगठन और वामपंथी शिक्षक संघसभी शिक्षकों पर ठेकेदारी की प्रथा लादने के विरुद्ध कमर कसे हैं।

 

  • यू०जी०सी० का तर्क है कि स्थायी नियुक्ति के कारण उच्च शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। पक्की नौकरी पाए शिक्षक अपने पेशे के प्रति गंभीर नहीं हैं। न तो वे पढ़ाने में पर्याप्त रुचि लेते हैं और न ही शोध का कार्य मन लगाकर करते हैं। दुनिया में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर नए शोध और खोजें हो रही हैं जबकि साठ वर्ष तक नौकरी की गारंटी पाए हमारे शिक्षकों के रवैए के कारण भारत उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। यू०जी०सी० के इस तर्क में आंशिक सच्चाई तो हो सकती है किंतु पूरे शिक्षक समुदाय की ईमानदारी पर यूँ प्रश्नचिह्न लगाना भी उचित नहीं है। पश्चिमी देशों की नकल पर भारत में शिक्षक ठेके पर रखने की वकालत करने वाले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भली-भांति पता है कि वहाँ और यहाँ की परिस्थितियों में जमीन-आसमान का अंतर है। वहाँ के विश्वविद्यालयों और उच्च अनुसंधान संस्थानों में जो सुविधा तथा संसाधन उपलब्ध हैं उनका शतांश भी हमारे यहाँ नहीं है। जब सुविधाएँ समान नहीं तो समान परिणामों की अपेक्षा कैसे की जा सकती हैपश्चिम में नियुक्ति और तरक्की के मामलों में काफी निष्पक्षता और पारर्दिर्शता बरती जाती है। हमारे देश की भाँति वहाँ भाई-भतीजावाद का खुला नाच नहीं होता। वहाँ शिक्षक और वैज्ञानिक कुंठाग्रस्त हो आत्महत्या पर भी मजबूर नहीं होते।

 

  • निजीकरण की राह पर चल रही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र में लाना चाहती है। शिक्षकों की सावधि ठेके पर नियुक्ति करना इसी कड़ी का हिस्सा है। बड़ी संख्या में विदेशी संस्थान शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश को आतुर बताए जा रहे हैं। उनसे होड़ के नाम पर यू० जी०सी० को लगता है कि निजी संस्थान से तभी टक्कर ली जा सकती है जब उसके शिक्षक चुस्त हों किंतु उसका तर्क बेदम है। ऐसा हो गया तो प्रतिभाशाली छात्र ठेके का प्राध्यापक बनने के बजाए किसी बेहतर स्थायी नौकरी का विकल्प चुनना पसंद करेंगे। ऐसे में शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिभाओं के पलायन का खतरा और भी बढ़ेगा। अनेक पश्चिमी देश इस समस्या के चलते ठेका प्रथा में संशोधन को मजबूर हो चुके हैं। वे अब तीन साल के बजाए आठ-दस वर्ष के लिए शिक्षकों को नियुक्त करने लगे हैं। जिस व्यवस्था को पश्चिमी देश खारिज़ कर चुके हैं या कर रहे हैंउसे अपनाने से हमारे यहाँ शिक्षा का स्तर ऊपर उठेगायह मान बैठना एक भूल होगी। (साभारहिन्दुस्तान, 9 नवंबर, 2002)

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