भ्रष्टाचार रोकने हेतु कानूनी मशीनरी एवं अल्पतम करने के उपाय | भ्रष्टाचार निरोध पर संथानम समिति |Measures to prevent corruption

 भ्रष्टाचार रोकने हेतु कानूनी मशीनरी एवं अल्पतम करने के उपाय

 

भ्रष्टाचार रोकने हेतु कानूनी मशीनरी एवं अल्पतम करने के उपाय | भ्रष्टाचार निरोध पर संथानम समिति |Measures to prevent corruption

भ्रष्टाचार रोकने हेतु उपाय  Measures to prevent corruption

भारत में भ्रष्टाचार रोकने हेतु वर्ष 1947 में भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम पारित किया गया था। सरकारी कर्मचारियों से संबंधित विभिन्न आचार संहिता भी है जिनकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। भ्रष्टाचार का सामना करने के लिए विद्यमान साधनों के पुनरीक्षण हेतु संथानम समिति भी गठित की गई तथा केन्द्र एवं राज्य स्तर पर सतर्कता आयोग भी गठित किये गये। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय जाँच ब्यूरो तथा लोकपाल एवं लोकायुक्त की संस्थाएँ भी भ्रष्टाचार रोकने के लिए हैं। इन सबका वर्णन इस प्रकार है-

 

(1) भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1947- 

इस अधिनियम में भारतीय दण्ड संहिता में पहले से विद्यमान भ्रष्टाचार से संबंधित अपराधों को न तो पुन: परिभाषित किया गया और न ही इस परिभाषा में कोई विस्तार किया गया। इसी प्रकार इसने भारतीय दंड संहिता में दी गई लोक सेवक" की परिभाषा को ही अपनाया। फिर भी इस कानून ने नए अपराध की परिभाषा बनाई, पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन में आपराधिक दुराचार जिसके लिए सजा को बढ़ाने का न्यूनतम एक वर्ष से अधिकतम 7 वर्ष तक अनुबंध किया गया था। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1947 में सरकारी कर्मचारियों से संबंधित भ्रष्टाचार के कार्य क्षेत्र की जो परिभाषा दी गई है, वह है- "सरकारी कर्मचारी को अपने कर्त्तव्य निष्पादन में आपराधिक कदाचार का अपराध करने वाला कहा जाता है । "

 

  • यदि वह आदतन किसी भी व्यक्ति से अपने लिये या किसी अन्य व्यक्ति के लिए इनाम या प्रेरक के रूप में कोई पारितोषिक (कानूनी पारिश्रमिक के अतिरिक्त अन्य) जैसा कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 161 में वर्णित है, स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिए सहमत होता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है।

 

  • यदि वह आदतन ऐसे व्यक्ति से जिसके बारे में वह जानता है कि उससे उसका कार्य व्यवहार हुआ है या होना संभावित है या होने वाला है अथवा जिसके साथ उसके हैं अथवा किसी अन्य सरकारी कर्मचारी जिसके वह अधीनस्थ है, के सरकारी काम का संबंध है अथवा किसी ऐसे व्यक्ति से जिसका हितबद्ध होना वह जानता है अथवा जो संबंधित व्यक्तियों का रिश्तेदार है अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए बिना प्रतिफल के अथवा उसकी जानकारी में अपर्याप्त प्रतिफल के बदले कोई मूल्यवान वस्तु के स्वीकार करें जिसका हितबद्ध होना वह जानता है अथवा जो संबंधित व्यक्तियों का रिश्तेदार है अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए बिना प्रतिफल के अथवा उसकी जानकारी में अपर्याप्त प्रतिफल के बदले कोई मूल्यवान वस्तु स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने हेतु सहमत होता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है। यदि वह बेईमानी से या धोखे से गबन करता है, या अन्यथा सरकारी कर्मचारी की अपनी स्थिति का दुरुपयोग करता है, अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु अथवा आर्थिक लाभ प्राप्त करता है।

 

(2) दंड विधि संशोधन अधिनियम 1952- 

दंड विधि संशोधन अधिनियम 1952 के आ जाने से भ्रष्टाचार से संबंधित कानूनों में कुछ परिवर्तन हुए। भारतीय दंड संहिता की धारा 165 के अधीन उल्लिखित सजा को विद्यमान दो वर्षों की बजाय तीन वर्षों तक कर दिया गया। इसके साथ ही भारतीय दंड सहिता में एक नई धारा 165 क लगा दी गई, जिससे भारतीय दंड संहिता की धारा 161 और 165 में परिभाषित किये गये अपराधों को दुष्प्रेरित करना भी अपराध बना दिया गया। यह अनुबंध किया गया कि भ्रष्टाचार से संबंधित सभी अपराधों की सुनवाई विशेष न्यायाधीशों द्वारा ही की जाए।

 

(3) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988: 

इस अधिनियम को राष्ट्रपति की अनुमति 9 सितंबर 1988 को मिली। इसमें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947, दंड विधि संशोधन अधिनियम 1952 और भारतीय दंड संहिता के कुछ उपबंधों को समेकित किया गया है। इसके अलावा, इसमें कुछ परंतुक भी हैं, जिन्हें लोक सेवकों में भ्रष्टाचार का प्रभावशाली ढंग से सामना करने की इच्छा रखा गया है। इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

 

(क) 'लोक सेवक' शब्द की परिभाषा अधिनियम में दी गई है। यह परिभाषा भारतीय दंड संहिता में विद्यमान परिभाषा से बड़ी है। 

(ख) अधिनियम में एक नई धारणा, 'लोक कर्त्तव्य' को रखा गया।

(ग) भारतीय दंड संहिता में भ्रष्टाचार से संबंधित अपराधों को अधिनियम के अध्याय 3 में रखा गया और भारतीय दंड संहिता से वे हटा दिए गए।

(घ) अधिनियम के अधीन सभी मामलों की सुनवाई विशेष न्यायाधीशों द्वारा ही होगी। 

(च) विविध अपराधों के लिए जुर्मानों में वृद्धि की गई।

 

(4) कपटपूर्ण रिश्वत (Collusive Bribery): 

  • किसी भी भ्रष्टाचार लेन-देन में दो पक्ष होते हैं; एक रिश्वत देने वाला और दूसरा रिश्वत लेने वाला। रिश्वतखोरी के अपराध को दो प्रकार की श्रेणियों में रखा जा सकता है। एक श्रेणी में रिश्वत देने वाला जबरदस्ती उससे पैसे ऐंठे जाने का शिकार होता है, उसे एक मामूली सी सेवा के लिए पैसे देने पड़ते हैं क्योंकि यदि वह पैसे ऐंठने वाले लोकसेवक की माँग नहीं मानता है तो उसे उस रिश्वत की राशि से कहीं अधिक खो देना पड़ेगा। विलंब, उत्पीड़न, अनिश्चितता, खोया हुआ अवसर और मजदूरी- ये सभी परिणाम होते हैं रिश्वतखोरी की मांग को ठुकराने के, जो इतने भयानक हो गए हैं कि भ्रष्टाचार के कुचक्र ने प्रतिदिन के जीवन-यापन के लिए नागरिक को निचोड़कर रख दिया है। इसके अलावा, ऐसे के मामलों की एक और श्रेणी है जिसमें रिश्वत लेने वाला और रिश्वत देने वाला दोनों एक साथ मिलकर समाज को लूटते हैं और रिश्वत देने वाला उतना ही या उससे भी अधिक अपराधी होता है जितना कि रिश्वत लेने वाला। इनमें घटिया गुणवत्ता के कामों के निष्पादन के मामले, प्रतिस्पर्द्धा के विकार, राजकोष को लूटना, लोक अधिप्राप्तियों में कमीशन लेना, कपटसंधि से कर की चोरी और लोगों को घटिया किस्म की दवाएँ देकर सीधे हानि पहुँचाना और सुरक्षा नियमों का अतिक्रमण । भ्रष्टाचार की इन दो श्रेणियों को क्रमश: बल प्रयोग' और कपटकारी संधि' के नामों से भी जाना जाता है।
  • तेजी से बढ़ रही हमारी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ बल प्रयोगपूर्ण भ्रष्टाचार के मामलों में वृद्धि हो रही है और कई बार ये प्राय: कई गुना 'गंभीर आर्थिक अपराधों' का रूप ले लेते हैं।

 

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अध्याय-111 में विविध अपराधों और जुर्मानों को अधिकथित किया गया है। धारा 7 में लोक सेवक द्वारा किसी सरकारी काम को करने के लिए असंवैधानिक रूप से परितोषण प्राप्त करना अपराध है। यद्यपि, रिश्वत देने की अलग से कोई परिभाषा नहीं दी गई है, फिर भी रिश्वत देने वाला 'दुष्पेरणा' का अपराधी है और जो सजा रिश्वत लेने वाले को मिलती है, उसी सजा का पात्र रिश्वत देने वाला भी है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 12 के तहत रिश्वत देने को भी अपराध घोषित किया गया है फिर भी अधिनियम की धारा 24 के अंतर्गत, यदि रिश्वत देने वाला न्यायालय में यह वक्तव्य देता है कि उसने रिश्वत का प्रस्ताव रखा था तो रिश्वत देने वाले को अभियोजन से उन्मुक्त रखने का उपबंध है। फिर भी, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 'बल प्रयोग' और 'कपटसंधि' में कोई अन्तर नहीं बताता। बल प्रयोग के भ्रष्टाचार का सामना करने में व्यवस्थापिक सुधार बहुत प्रभावी होते हैं। इसके अतिरिक्त, यद्यपि भ्रष्टाचार के मामले में सामान्य दोषियों की दर कम है, यह देखा गया है कि बलप्रयोग भ्रष्टाचार के दोषियों के मामलों की दर कपटसंधि भ्रष्टाचार की अपेक्षा अधिक है। इसका कारण यह है कि रिश्वत वाला भी एक पीड़ित व्यक्ति होता है और क्योंकि उसे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 24 के अंतर्गत उन्मुक्ति का प्रावधान है, अत: वह रिश्वत लेने वाले के बचाव के लिए आगे आता है। इसके अतिरिक्त, सतर्कता तंत्र द्वारा 'जाल बनाकर पकड़ने के मामले ऐसे में बहुत प्रभावशाली होते हैं। कपटसंधि भ्रष्टाचार के लिए वैसा ही करना सत्य नहीं होता है। इन मामलों में दोषसिद्ध होना बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि रिश्वत देने वाले और रिश्वत लेने वाले दोनों की मिलीभगत से उन दोनों को लेनदेन का लाभ मिलता है। दोषसिद्ध भ्रष्टाचार का नकारात्मक प्रभाव बहुत ही विपरीत होता है तथा सरकार और प्राय: समाज ही कुल मिलाकर इससे पीड़ित होते हैं।

 

(5) अभियोजन के लिए स्वीकृति


  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 में यह उपबंध हैं कि न्यायालय को अधिनियम की धारा 7, 10, 11, 13 और 15 के अंतर्गत परिभाषित अपराधों का संज्ञान लेने से पहले सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति लेनी आवश्यक होगी। इस उपबंध का उद्देश्य ईमानदार लोक सेवकों को विद्वेषपूर्ण और कष्टमय शिकायतों द्वारा उत्पीड़न से बचाव करना है। 


  • सक्षम प्राधिकारी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उसके समक्ष रखे गए साक्ष्य पर अपने विवेक का प्रयोग करते हुए इस बात से अपने को संतुष्ट कर ले कि अभियुक्त लोक सेवक के विरुद्ध कोई प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। यद्यपि इस प्रावधान की मंशा स्पष्ट है, फिर भी यह दलील दी जाती है कि इस खंड का प्रयोग कभी कभी स्वीकृति प्राधिकारी द्वारा बेईमान अधिकारियों को बचाने के लिए किया जाता है। ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहां ऐसी स्वीकृति प्रदान में असाधारण विलंब हुए है। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जहाँ स्वीकृति प्रदान करने में त्रुटियों का प्रयोग अभियुक्त द्वारा स्वीकृति को चुनौती देने और इसे रद्द कराए जाने के लिए अज्ञानतावश किया जाता है। 

 

उपर्युक्त के मद्देनजर दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने स्वीकृति से संबंधित विविध पहलुओं के जाँचोपरांत कानून में निम्नलिखित संशोधनों की आवश्यकता जताई थी:-

 

(i) ऐसे किसी लोक सेवक के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने के लिए पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, जिसे रंगे हाथों पकड़ा गया हो अथवा आय के ज्ञात स्त्रोतों से अधिक की संपत्ति के मामले हों। 

(ii) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में यह सुनिश्चित करने के लिए संशोधन किया जाना चाहिए कि स्वीकृति देने वाले प्राधिकारियों को बुलाना न पड़े और इसके बजाय समुचित प्राधिकारी द्वारा कागजात प्राप्त करके न्यायालयों के समक्ष पेश कर दिए जाएँ।

(iii) संसद अथवा विधान मंडल के पीठासीन अधिकारी को क्रमश: संसद सदस्य और विधायकों की स्वीकृति दिए जाने के लिए पदासीन किया जाना चाहिए। 

(iv) सेवारत लोक सेवकों पर अब तक लागू कानूनी कार्रवाई के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता अवकाश प्राप्त लोक सेवकों पर भी उनके द्वारा सेवा के दौरान निष्पादित किए गए काम के लिए लागू होगी। 

  • (v) ऐसे सभी मामलों में जहाँ भारत सरकार कानूनी कार्रवाई करने की स्वीकृति प्रदान करने के लिए अधिकृत हो, वहाँ इस अधिकार को केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त और सरकार के विभागीय सचिव की आधिकारिक समिति को प्रत्यायोजित कर दिया जाना चाहिए। दोनों व्यक्तियों के बीच मतभेद हो जाने के मामले में इसे पूरे केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के समक्ष रख कर सुलझाया जा सकता है। यदि स्वीकृति भारत के सचिव के विरुद्ध आवश्यक हो तो आधिकारिक समिति में मंत्रिमंडल सचिव और केन्द्रीय सतर्कता आयोग शामिल होंगे। इसी प्रकार के प्रबंध राज्य स्तर पर भी किए जा सकते हैं। सभी मामलों में कानूनी कार्यवाही या अन्यथा स्वीकृति प्रदान करने वा आदेश दो माह के भीतर जारी किया जाएगा। अस्वीकृति के मामले में, अस्वीकृति के कारणों को संबंधित विधायी मंडल के समक्ष वार्षिक रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए।


  • इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 6 गई, 2014 को अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में सुब्रह्मण्यम स्वामी की एक याचिका पर दिल्ली  विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (Delhi Special Police Establishment Act (DSPEA) की धारा 6 को अवैध करार दिया। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय सांविधानिक पीठ के मुताबिक धारा 6, भ्रष्टाचार के मामले में अधिकारियों में भेदभाव करती है। इस धारा में यह प्रावधान था कि संयुक्त सचिव या उससे ऊपर के रैंक के अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच से पूर्व सीबीआई को सरकार से अनुमति लेना जरूरी था। जबकि संयुक्त सचिव से नीचे के रैंक के अधिकारियों के मामले में जाँच हेतु अनुमति की आवश्यकता नहीं होती थी। न्यायालय का मानना था अधिनियम की धारा 6 वरिष्ठ अधिकारियों एवं कनिष्ठ अधिकारियों के बीच भेदभाव करता है और यह वरिष्ठ अधिकारियों को भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के खिलाफ कवच प्रदान करता है, जबकि भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार होता है भले ही वरिष्ठ अधिकारी करे या कनिष्ठ अधिकारी न्यायालय का यह भी कहना था कि आज भ्रष्टाचार देश का शत्रु है।

 

(i) न्यायालय ने कहा कि समान अपराध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के साथ विधि ने के अनुसार समान व्यवहार किया जाना चाहिये। 

(ii) किसी लोक सेवक का दर्जा या स्थिति उसे समान अपराध के लिए समान व्यवहार से उन्मुक्ति नहीं दिला सकती। 

(ii) न्यायालय का यह भी मानना था कि दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना कानून का नियम 6, भ्रष्टाचार रोक अधिनियम के उद्देश्यों को समाप्त कर देगा जो कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए बनाया गया है। 

(iv) दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम 1946 में अस्तित्व में आया। केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआई की स्थापना इसी अधिनियम के तहत हुई है।

 

(6) भ्रष्ट लोक सेवकों पर क्षतिपूर्ति करने का दायित्वः 

  • जहाँ एक ओर लोक सेवकों द्वारा किए जाने वाले भ्रष्ट कृत्य के कारण वे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम अंतर्गत सजा के पात्र हैं, वहीं दूसरी ओर गलत काम करने वाले के लिए कोई सिविल दायित्व नहीं है और न ही किसी ऐसे व्यक्ति/संगठन को प्रतिपूर्ति के लिए प्रावधान है, जिसके प्रति गलत काम हुआ है या जो लोक सेवक के कदाचार के कारण पीड़ित हुआ है। संविधान संचालन समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग ने उन मामलों में दायित्व के नियतन के लिए बृहत् कानून को अधिनियमित करने की सिफारिश की थी, जहाँ लोक सेवकों ने अपने असद्भावपूर्ण कार्यों से सरकार को नुकसान पहुँचाया उच्चतम न्यायालय ने पेट्रोल पंपों के अनुचित आबंटन के मामलों में अनुकरणीय क्षतिपूर्ति तो अवश्य लगाई परंतु एक समीक्षा याचना में इस आदेश को बाद में उलट दिया, जिसमें न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि लोक सेवकों के विरुद्ध अनुकरणाय प्रतिपूतियों के आदेश दिए जा सकते हैं परंतु ऐसा करना इन मामलों में न्यायपूर्ण नहीं था। 


  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की कि उन मामलों में जहां लोक सेवक अपने श्रृष्ट कृत्यों से सरकार या नागरिकों को कोई हानि पहुँचाते हैं तो उन्हें इस पर हुई हानि पूरा करने का पात्र बनाया जाना चाहिए और इसके अलावा, उसे क्षतिपूर्ति करने का पात्र भी बनाया जाना चाहिए। आयोग का मत था कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में एक अध्याय को जोड़कर इसका प्रावधान किया जा सकता है। जहाँ ऐसी क्षतिपूर्ति का भुगतान देय होगा, क्षतिपूर्ति को आंके जाने के सिद्धांत और उन लोगों को क्षतिपूर्ति देने के मानदंड, जिनके साथ गलत किया गया है, ऐसे मामलों के हालातों को स्पष्ट रूप से लेखबद्ध किया जाना चाहिए। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पर्याप्त सुरक्षा उपाय किए गए हों ताकि सद्भावपूर्ण भूलों को ऐसी क्षतिपूर्तियों का आदेश देने में ही खत्म न कर दिया जा सके। अन्यथा, लोक सेवक स्वच्छ और शीघ्र ढंग से निर्णय लेने में हतोत्साहित होंगे।

 

(7) भ्रष्ट तरीकों से प्राप्त की गई गैर कानूनी संपत्तियों को जब्त करना: 

  • भ्रष्ट लोक सेवकों का अभियोजन और बाद में उनकी दोषसिद्धि भ्रष्टाचार के परिमाण अनुरूप नहीं होती। सबूत का अपेक्षित स्तर और कार्यप्रणाली की बाधाओं ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि भ्रष्ट लोक सेवकों की बहुत बड़ी संख्या दोषसिद्ध नहीं हो पाती। इससे बदतर यह बात है कि प्राय: वे अपनी पाप की कमाई को दंडमुक्त होकर सबके सामने दिखाते हैं। यह आवश्यक है कि आपराधिक अभियोजन के अलावा, भ्रष्ट लोक सेवक को उसकी पाप की कमाई के स्वामित्व से भी बेदखल कर दिया जाना चाहिए। 
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में लोक सेवक की आय के ज्ञात स्रोत से अधिक की संपत्तियों को जब्त करने का उपबंध है। फिर भी, यह उपबंध अपर्याप्त साबित हुआ है, क्योंकि ऐसी जब्ती संगत अपराधों के लिए केवल दोषसिद्ध हो जाने पर ही संभव । इस समय, लोक सेवकों की असंवैधानिक रूप से अधिग्रहित की गई संपत्ति को जब्त और कुर्क करने के लिए दंड विधि संशोधन अध्यादेश, 1944 के प्रावधानों का सहारा लिया जाता है। इस अध्यादेश के अधीन, असंवैधानिक रूप से अधिग्रहित संपत्ति की अन्तरिम कुर्की के लिए प्रावधान हैं। विशेष न्यायाधीश किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा आवेदन दिए जाने के आधार पर ऐसा करने के लिए सशक्त हैं। अपराध मामले के नतीजे पर निर्भर करते हुए, कुर्क की गई संपत्ति को या तो जब्त कर लिया जाता है या विमुक्त कर दिया जाता है। मौजूदा प्रावधानों में एक और त्रुटि यह है कि कुर्की के लिए प्रक्रिया तभी चालू होगी जब न्यायालय अपराध का संज्ञान ले लेगा। वास्तविक स्थितियों में, ऐसा करने से बहुत विलंब हो सकता है क्योंकि अभियुक्त को अपने पाप की कमाई को छिपा देने या समायोजित कर लेने के लिए समय मिल जाएगा। फिर भी, विद्यमान प्रावधानों के अधीन, कुर्की के अनुरोध को फाइल करने के लिए राज्य या संघ सरकार अधिकृत करती है। ऐसा करने में भी समय लग सकता है।

 

  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने यह सिफारिश की कि आय से अधिक सम्पत्ति रखने के लिए दोषसिद्ध लोक सेवक की संपत्तियों की जब्ती के लिए कानून को सबूत का भार उस लोक सेवक पर अंतरित कर देना चाहिए जो दोषसिद्ध है। ऐसे मामलों में उपधारणा यह होनी चाहिए कि लोक सेवक के कब्जे में पाई गई आय से अधिक संपत्तियाँ उसके द्वारा भ्रष्ट साधनों से अधिग्रहित की गई थीं और सम्पत्तियों की जब्ती के लिए संभाव्यता की प्रबलता का सबूत पर्याप्त होगा। ये अनिवार्यताएँ विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित ड्राट बिल में थी।

 

  • फरवरी 2012 में केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में एक मार्गदर्शन भी जारी किया था, जिसमें यह प्रावधान किया गया था कि सेवानिवृत्ति के पश्चात भी लोक सेवकों की संपत्ति जब्त की जा सकती है। इस संबंध में बिहार सरकार द्वारा वर्ष 2011 में बिहार विशेष न्यायालय अधिनियम 2009 लाया गया जिसके तहत यह प्रावधान किया गया कि जाँच के दौरान भी संबंधित प्राधिकार की अनुमति से किसी भ्रष्ट अधिकारी की संपत्ति जब् की जा सकती है और इस आधार पर देश में पहली बार एक आईएएस अधिकारी की संपत्ति जब्त की जा गई थी। ओडिशा में भी 'ओडिशा विशेष न्यायालय अधिनियम 2006' बिहार के कानून से एक वर्ष पूर्व लाया गया, पर कानूनी अड़चनों के कारण शीघ्र लागू नहीं हो पाया था। ओडिशा के कानून में भी ट्रायल के दौरान ही भ्रष्ट अधिकारियों की संपत्ति जब्ती का प्रावधान है।

 

(8) व्हिसलब्लोअर अथवा भ्रष्टाचार या घोटाले की सूचना देने वाले की सुरक्षाः 

  • सूचना देने वाले व्यक्ति भ्रष्टाचार के बारे में सूचना प्रदान करने में एक आवश्यक भूमिका अदा करते हैं। किसी विभाग/एजेंसी में काम करने वाले लोक सेवक अपने संगठन में अन्य लोगों के पूर्ववृत्तों और गतिविधियों से परिचित होते हैं। फिर भी, प्राय: वे बदले की भावना के डर से इस सूचना को देने के इच्छुक नहीं होते। लोक सेवक द्वारा अपने संगठन में भ्रष्टाचार की सूचना देने की तत्परता और उसे तथा उसकी पहचान को संरक्षण दिए जाने में बहुत ही नजदीकी संबंध होता है। यदि पर्याप्त रूप से सांविधिक संरक्षण प्रदान कर दिया जाए तो इस बात की बहुत ही संभावना होती है कि सरकार को भ्रष्टाचार के बारे में पर्याप्त सूचना मिल सकती है। 'भ्रष्टाचार, घोटाले की सूचना देने वाला व्यक्ति' ये शब्द हमारे शब्दकोश में अपेक्षाकृत हाल ही में जुड़े हैं। संयुक्त राज्यों में, डेनियल एल्सबर्ग नाम का व्यक्ति जो तथाकथित पैंटागोन पेपरों’ सीटी बजाता था' के दःख और विपत्ति के बाद, वाटरगेट के बाद के युग में, व्हिसलब्लोअर न केवल विधान द्वारा सुरक्षित कर दिया गया है, बल्कि नागरिकों के नैतिक कर्त्तव्यों के रूप में प्रोत्साहित भी किया जाता है। इतना ही नहीं, एनरोन और  वर्ल्डकॉग के आश्चर्यजनक पतन के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिकी कांग्रेस ने सारवेन्स सूचना ओक्सले अधिनियम 2002 पारित किया, जिसमें सीटी बजाकर (व्हिस्लब्लो) सूचना देने वाले को सार्वजनिक व्यापार कंपनियों में भारी सुरक्षा दी गई। किसी भी निगमित : देने वाले से बदला लेने वाले व्यक्ति को अब 10 सालों तक के लिए सजा हो सकती है। ऐसी सुरक्षा देने वाले कानून यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में विद्यमान हैं। यूके पब्लिक इंट्रेस्ट डिस्क्लोयर अधिनियम, 1998, ऑस्ट्रेलिया का दि पब्लिक इंट्रेस्ट डिस्क्लोयर एक्ट 1994, न्यूजीलैंड का दि प्रोट्रेक्टिड डिस्क्लोयर एक्ट 2000 और अमेरिका का विसिल ब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट 1984, ये ऐसे विधान हैं, जो भ्रष्टाचार की सूचना देने वालों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। ये सभी कानून सामान्यत: सूचना देने वाले के गुमनामों का संरक्षण करने और उसे संगठन के भीतर उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करते हैं।

 

(9) भारत में व्हिस्लब्लोअर अधिनियमः 

  • व्हिस्लब्लोअर यानी भंडाफोड़कर्ताओं से लिखित में शिकायत प्राप्त करने हेतु केन्द्रीय सतर्कता आयोग को शीर्ष अभिकरण के रूप में प्राधिकृत करते हुए 21 अप्रैल, 2004 को एक संकल्प जारी किया गया था। अन्य बातों के साथ-साथ इस संकल्प मे भंडाफोड़कर्ताओं को उत्पीड़न से संरक्षण देने तथा उनकी पहचान को गुप्त रखने की दृष्टि से कुछ प्रावधान किए गए। चूँकि यह महसूस किया गया कि भ्रष्टाचार की सूचना देने वाले व्यक्तियों को संवैधानिक संरक्षण अपेक्षित है, इसलिए भंडाफोड़कर्ताओं का 'लोक हित प्रकटन और संरक्षण' विधेयक, 2010 संसद में पेश किया गया। यह विधेयक विभाग से सम्बद्ध संसदीय स्थायी समिति को भेजा गया जिसने इस विधेयक में संशोधन का सुझाव देते हुए अपनी 46वीं रिपोर्ट में सिफारिशें की। इन सिफारिशों के आधार पर इस विधेयक को 'भंडाफोड़कर्ता संरक्षण विधेयक, 2011’ (Whistleblower Protection Bill) के रूप में संशोधित किया गया। मंत्री परिषद के सदस्यों, उच्च न्यायपालिका सहित न्यायपालिका, नियामक प्राधिकारियों आदि को इस विधेयक के कार्य क्षेत्र में शामिल करने की सिफारिश स्वीकार कर ली गई थी। इसमें केवल उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को छोड़ दिया गया क्योंकि जहाँ तक उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का संबंध था, इस पहलू को न्यायपालिका मानक तथा दायित्व विधेयक, 2010 में पहले ही शामिल किया जा चुका है। इस विधेयक के कार्यक्षेत्र में सुरक्षा बलों, सुरक्षा तथा इंटेलीजेंस एजेंसियों आदि को शामिल करने के बारे में स्थायी समिति की सिफारिश भी सरकार द्वारा स्वीकार कर ली गई। इस उद्देश्य हेतु आधिकारिक संशोधन लाए गए। यह विधेयक लोकसभा से 11 दिसंबर, 2011 को, राज्यसभा से 21 फरवरी, 2014 को पारित किया गया तथा राष्ट्रपति ने 9 मई, 2014 को इस पर हस्ताक्षर कर दिये। वैसे इस विधेयक ने कानून की शक्ल ले ली है, परंतु सीबीआई निदेशक से उनके घर पर मिलने वाले लोगों की सूची बाहर आने पर सर्वोच्च न्यायालय के रुख से इस कानून की आत्मा पर ही सवाल खड़े हो गये। सर्वोच्च न्यायालय ने अधिवक्ता प्रशांत भूषण से उस व्यक्ति का नाम बताने को कहा जिसने यह सूची सार्वजनिक की। व्हिस्लब्लोअर की पहचान छुपाने की कोशिश को इससे ठेस जरूर पहुँची है।

 

(10) सरकारी कर्मचारियों की आचरण नियमावली :

सरकारी कर्मचारियों को विभिन्न वर्ग अलग-अलग पर सार रूप से समान आचरण नियमों द्वारा शासित है। निम्नांकित नियम है-

 

अ) अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियमावली, 1954 

ब) केन्द्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियमावली, 1955 

स) रेलवे सेवा (आचरण) नियमावली, 1956


सरकार ने सरकारी कर्मचारियों से संबंधित विशिष्ट परिस्थितियों में कार्यवाही हेतु नियम भी बनाए हैं अथवा समय-समय पर निर्देश प्रसारित किए हैं;

 

1. राजपत्रित अधिकारियों द्वारा ऋण देने या लेने के संबंध में 1860 में तथा अराजपत्रित कर्मचारियों द्वारा ऋण देने या लेने के संबंध में 1869 में; 

2. उपहार स्वीकार करने के संबंध में 1976 में; 

3. घर तथा अन्य मूल्यवान संपत्ति खरीदने और बेचने के संबंध में 1881 में

4. दूसरों के लाभार्थ शासनाधीन किसी पद से किसी आर्थिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी एक द्वारा त्यागपत्र देने के संबंध में 1883 में; 

5. अचल संपत्ति के अतिरिक्त अन्य निवेश करने तथा सट्टा करने के संबंध में 1885 में;

6. संपत्तियाँ बनाने या उनका प्रबंध करने, निजी व्यापार और नौकरी में लगने के संबंध में 1885 में; 

7. सरकारी कर्मचारियों द्वारा चन्दा एकत्रित करने के संबंध में 1885 में; 

8. आदतन ऋणग्रस्त या दिवालिया होने के संबंध में 1885 में

9. सेवानिवृत्ति के उपरान्त व्यापारिक नौकरी स्वीकार करने के संबंध में 1920 में।

 

इन नियमों में निरपवाद रूप से बचाव के असंख्य रास्ते हैं जिसका परिणाम यह है कि भ्रष्ट होने और भ्रष्ट करने का प्रलोधन इतना शक्तिशाली है कि उसे रोकना कठिन है।


 

(11) भ्रष्टाचार निरोध पर संथानम समितिः 

भ्रष्टाचार का सामना करने के विद्यमान साधनों का पुनरीक्षण करने तथा भ्रष्टाचार निवारक उपायों को अधिक प्रभावशाली बनाने के व्यावहारिक साधनों पर परामर्श देने के लिए जून 1962 में संथानम समिति नियुक्त की गयी थी जिसने मार्च 1964 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस समिति की कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें ये थीं कि संविधान के अनुच्छेद 311 को इस तरह संशोधित किया जाये जिससे कि भ्रष्टाचार संबंधी न्यायिक प्रक्रिया सरल और शीघ्रता की हो सके, कि केन्द्रीय और राज्य स्तरों पर भ्रष्टाचार का सामना करने के लिये स्वशासी अधिकारों सहित क्रमशः केन्द्रीय तथा राज्य सतर्कता आयोग होने चाहिए। 

संथानम समितिः की प्रमुख सिफारिशे इस प्रकार हैं-

 

(1) सरकारी कर्मचारियों के लिए निर्धारित सेवा नियमों में इस प्रकार संशोधन किया जाये कि उनके अवकाश प्राप्त करने के बाद दो वर्षों तक कोई भी निजी या व्यावसायिक कम्पनी उन्हें नियोजित न कर सके। 

(2) अगर किसी अधिकारी का आचरण संदिग्ध है, तो समिति की सिफारिश के अनुसार (अ) उसकी पेंशन पूर्णत: या अंशतः वापस ले लेना चाहिए, (ब) 25 वर्षों की सेवा कर लेने के बाद या 50 वर्ष आयु पूरा कर लेने के बाद उनके लिए अवकाश ग्रहण करना बाध्यकारी होना चाहिए, तथा (स) संदिग्ध अधिकारियों के आचरण की समीक्षा करने के लिए एक उपयुक्त मशीनरी को विकसित करना चाहिए। 

(3) कानूनों, नियमों, प्रक्रियाओं, विवेकाधीन अधिकारों के प्रयोग से जुड़े विवादास्पद विषयों की समीक्षा होनी चाहिए तथा विवेकाधिकारों के प्रयोग पर नियंत्रण के लिए एक मशीनरी को विकसित करना चाहिए। 

(4) भारत रक्षा विधेयक, 1962 का संशोधन होना चाहिए। 

(5) 'लोक सेवक' शब्द को नये ढंग से परिभाषित करने के लिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 का संशोधन होना चाहिए। वैसे हर व्यक्ति को जो सरकार या स्थानीय शासन या निगम (केन्द्र या राज्य अधिनियम के अधीन गठित) या सरकारी कम्पनी (कम्पनी अधिनियम 1956 की धारा 617 के अधीन गठित) में कार्यरत है अथवा जिसे किसी लोक कार्य के लिए पारिश्रमिक के रूप में फीस या कमीशन दिया जा रहा है, 'लोक सेवक' समझा जाना चाहिए। 

(6) समिति ने सम्पूर्ण निगरानी संगठन के पुनर्गठन, रेलवे निगरानी संगठन में सुधार तथा लोक उपक्रमों और न्यायिक सेवा के लिए निगरानी संगठनों के गठन का भी सुझाव दिया। 

(7) समिति ने एक स्वतंत्र केन्द्रीय निगरानी आयोग के गठन की भी सिफारिश की।

(8) सरकारी सेवकों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों में सरल प्रक्रिया विकसित करने के लिए संविधान की धारा 311 में संशोधन होना चाहिए।

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