ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम |ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम की कमियाँ | Second Law of Thermodynamics in Hindi

 ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम 
Second Law of Thermodynamics



ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम, ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त का ही एक रूप है जो यान्त्रिक कार्य W तथाऊष्मीय ऊर्जा Q में तुल्यता प्रदर्शित करता है। यह नियम यह नहीं बताता है कि ऊष्मा को कार्य में किस सीमा तक रूपान्तरित किया जा सकता है अथवा इस प्रकार के रूपान्तरण के लिये क्या आवश्यक शर्तें होती हैं। यह नियम ऊष्मा प्रवाह की दिशा के बारे में भी कुछ नहीं बताता है।   ऊष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार, सम्पूर्ण यान्त्रिक कार्य, ऊष्मा में रुपान्तरित किया जा सकता है तथा उष्मा को पूर्णतः कार्य में रूपान्तरित किया जा सकता है, परन्तु हमारा अनुभव बताता है कि कार्य को तो पूर्णतः ऊष्मा में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन ऊष्मा को पूर्णतः कार्य में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।  उदाहरण  •	वायु में स्वतन्त्रतापूर्वक दोलन करते हुए सरल लोलक की सम्पूर्ण यान्त्रिक ऊर्जा धीरे-धीरे वायु के घर्षण आदि के कारण ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है तथा अन्त में लोलक का दोलन आयाम शून्य हो जाता है।  •	बीकर में रखे पानी में मथनी चलाने पर पानी गर्म हो जाता है अर्थात् यान्त्रिक कार्य, ऊष्मा में परिवर्तित हो जाता है।  •	एक धुरी पर चक्कर लगाता हुआ पहिया धीरे-धीरे रुक जाता है, क्योंकि इसकी गतिज ऊर्जा बेयरिंग पर घर्षण के कारण ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है।  अब, प्रश्न उठता है कि  •	क्या सरल लोलक बाह्य वातावरण से ऊष्मा अवशोषित करके उसे यान्त्रिक ऊर्जा में बदल सकता है, जिससे उसका आयाम धीरे-धीरे बढ़ता जाये?  •	क्या बेकर में रखे गर्म पानी से मथनी को चलाया जा सकता है?  •	क्या बेयरिंग पर उत्पन्न ऊष्मा को पहिए की गतिज ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है, जिससे कि वह पुनः चक्कर लगा सके?  ऊष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार उपर्युक्त प्रक्रियाएँ भी सम्भव हैं, परन्तु व्यवहार में ऐसा सम्भव नहीं है। इस प्रकार ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा परिवर्तन की दिशा के बारे में कोई जानकारी प्रदान नहीं करता है। ऊष्मा ऊर्जा को यान्त्रिक कार्य में आवश्यक शर्तों के अन्तर्गत ही रूपान्तरित किया जा सकता है। पुनः हम पाते हैं कि ऊष्मा इन्जम की दक्षता 1 से कम होती है अर्थात् ऊष्मा का केवल कुछ भाग ही कार्य में परिवर्तित होता है। इसी प्रकार एक गर्म वस्तु व एक ठण्डी वस्तु को परस्पर सम्पर्क में रखा जाये तो ऊष्मा चाहे गर्म वस्तु से ठण्डी वस्तु में प्रवाहित हो अथवा ठण्डी  वस्तु से गर्म वस्तु में, फिर भी ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का उल्लंघन नहीं होगा क्योंकि प्रथम नियम के अनुसार एक वस्तु द्वारा दी गई ऊष्मा दूसरी वस्तु द्वारा ली गई ऊष्मा के बराबर होती है। स्पष्ट है कि ऊष्मा स्वतः ही कभी भी ठण्डी वस्तु से गर्म वस्तु में प्रवाहित नहीं होती है। इस प्रकार प्रथम नियम ऊष्मा प्रवाह की दिशा नहीं बताता है   उपर्युक्त प्रकार के प्रायोगिक तथ्यों को ऊष्मागतिकी में समाविष्ट करने के लिये ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम की स्थापना की गई। ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम यह बताता है कि ऊर्जा रूपान्तरण किस तरीके से होता है तथा ऊर्जा स्थानान्तरण की दिशा क्या होती है? इस प्रकार ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम, प्रथम नियम का पूरक है।   ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम को कई प्रकार से बताया गया है परन्तु सभी कथन, यद्यपि शब्दों की दृष्टि से भिन्न हैं, लेकिन भावार्थ की दृष्टि से एक-दूसरे के तुल्य है। इनमें कुछ महत्वपूर्ण कथन अग्रलिखित है-   (1) केल्विन प्लांक का कथन (Kelvin-Planck's Statement) हम जानते हैं कि ऊष्मा इंजन में कार्यकारी पदार्थ ऊँचे ताप के कुण्ड (स्त्रोत) से उष्मा लेता है, इसके एक भाग को कार्य मे रूपान्तरित करता है तथा शेष उष्मा कम ताप के कुण्ड(सिंक) को देता है। इस प्रकार उष्मा का प्रवाह गर्म वस्तु से ठण्डी वस्तु की ओर होने के परिणामस्वरूप उष्मा इंजन से यांत्रिक कार्य प्राप्त होता है।यदि किसी प्रकार स्त्रोत एवं सिंक एक ही ताप पर हों तो उष्मा का कोई प्रवाह नहीं होगा तथा कोई भी यांत्रिक उर्जा प्राप्त नहीं होगी । अतः उष्मा को कार्य में रूपान्तरित करने के लिए तापान्तर का होना आवश्यक है। ऐसे किसी इंजन का अभी तक निर्माण नहीं हुआ है, जो स्रोत से ली गई सम्पूर्ण उष्मा को कार्य में रूपान्तरित कर दे तथा सिंक को कुछ भी ऊष्मा न दे अर्थात् स्रोत से ऊष्मा लेकर बिना कुछ भी ऊष्मा सिंक को दिए, कार्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अब यदि इन्जत से लगातार कार्य प्राप्त करना चाहें तो यह स्रोत से लगातार ऊष्मा अवशोषित करेगा, जिससे स्रोत का ताप घटता जायेगा तथा अन्ततः स्त्रोत का ताप सिंक के ताप के बराबर हो जायेगा तथा उष्मा  का प्रवाह सम्भव नहीं होगा। अतः कोई यांत्रिक कार्य प्राप्त नहीं होगा। इसका अर्थ है कि केवल उष्मा-स्रोत से सतत् कार्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है अर्थात इसके लिए शीतल वस्तु (सिंक) का होना भी अनिवार्य है। इन तथ्यों के आधार पर लॉर्ड केल्विन ने कहा- किसी वस्तु को वातावरण की न्यूनतम ताप की  वस्तु से अधिक शीतलन करने से कार्य की सतत् प्राप्ति असम्भव है।"   केल्विन तथा प्लांक ने द्वितीय नियम को निम्न प्रकार से भी व्यक्त किया - इस प्रकार की किसी भी मशीन का निर्माण असम्भव है जो कि चक्रीय प्रक्रम में किसी स्रोत से ऊष्मा लेकर, कार्यकारी निकाय में कुछ परिवर्तन किये बिना, उसे पूर्णतः कार्य में परिवर्तित कर दे।   (2) क्लॉसिस का कथन (Clausius's Statement) प्रशीतक या रेफ्रिजरेटर वास्तव में उत्क्रमित (reversed) दिशा में कार्य करने वाला ऊष्मा इंजन है। रेफ्रिजरेटर में कार्यकारी पदार्थ ठण्डी वस्तु (सिंक) से ऊष्मा लेता है, इस पर किसी अन्य बाह्य ऊर्जा स्रोत द्वारा कार्य किया जाता है तथा अधिक मात्रा में ऊष्मा गर्म वस्तु (स्रोत) को दी जाती है। अर्थात् रेफ्रिजरेटर एक ऐसी मशीन है जो उण्डी वस्तु से ऊष्मा लेकर गर्म वस्तु को पहुंचाती है जबकि इस पर बाह्य ऊर्जा स्रोत द्वारा कार्य किया जाता है। ऐसे किसी भी रेफ्रिजरेटर का अभी तक निर्माण नहीं हुआ है जो किसी बाह्य ऊर्जा स्रोत की सहायता के बिना ऊष्मा को ठण्डी वस्तु से गर्म वस्तु पर पहुंचा सके। इस तथ्य के आधार पर क्लॉरियस ने द्वितीय नियम को कथन के रूप में निम्न प्रकार से व्यक्त किया है   किसी भी स्वचालित (self-acting) मशीन के लिए जिसे किसी अन्य बाह्य स्रोत से ऊर्जा प्राप्त न हो चक्रीय प्रक्रम में ऊष्मा को निम्न ताप वाली वस्तु से अधिक ताप वाली वस्तु पर पहुंचाना असम्भव है।   अथवा   ऊष्मा स्वतः ही निम्न ताप की वस्तु से उच्च ताप की वस्तु की और प्रवाहित नहीं हो सकती। स्पष्ट है कि ऊष्मा कभी भी निम्न ताप वाली वस्तु से अधिक ताप वाली वस्तु की ओर प्रवाहित नहीं हो सकती जब तक कि उस पर बाह्य ऊर्जा स्रोत द्वारा कार्य नहीं किया जाता। यह कथन भौतिकी की अन्य शाखाओं के अनुभवों से पूर्णत: मेल खाता है।  जैसे •	कोई पिण्ड निम्न सतह से उच्च सतह पर तब तक नहीं पहुँच सकता जब तक कि उस पर बाह्य स्रोत के द्वारा कार्य नहीं किया जाये। •	इसी प्रकार विद्युत धारा कम विभव वाले बिन्तु से अधिक विभव वाले बिन्दु की और कभी भी प्रवाहित नहीं होता जब तक कि उस पर बाहा कार्य न किया जाये।   प्रथम व द्वितीय प्रकार की शाश्वत गतियाँ (Perpetual Motions of First and Second Kind)   ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त का ही एक रूप है जो यह बताता है कि ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है और नष्ट की जा सकती है, परन्तु यह एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो सकती है। अतः इस  नियम से स्पष्ट है कि कोई भी निकाय उष्मा के रूप में जितनी उर्जा लेता है, कार्य के रूप में उससे अधिक उर्जा नहीं दे सकता है।  वह मशीन जो अवशोषित मात्रा से अधिक कार्य प्रदान करती है प्रथम प्रकार की शाश्वत मशीन (सदैव कार्य करने वाली मशीन) कहलाती है।   ऊष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार, प्रथम प्रकार की शाश्वत मशीन असम्भव है। ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियमानुसार, ऊष्मा को पूर्णत: कार्य में परिवर्तित करना असम्भव है अथवा एक ही स्रोत से निरन्तर कार्य को प्राप्ति असम्भव है। अतः ऐसी मशीन जो किसी स्रोत से ऊष्मा अवशोषित करके उसे पूर्णत: कार्य में बदल देती है अथवा एक ही स्रोत की आन्तरिक ऊर्जा का उपयोग करके कार्य प्रदान करती है, द्वितीय प्रकार की शाश्वत मशीन कहलाती है। इस प्रकार हम समुद्र, वायुमण्डल के अन्दर की आन्तरिक ऊर्जा के विशाल स्रोतों से निरन्तर कार्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि एक ऐसा इन्जन बनाया जा सके जो उत्क्रमणीय इन्जन से अधिक दक्ष हो तो हम निम्न ताप वाली वस्तु से ऊष्मा लेकर उसे सम्पूर्ण रूप से निरन्तर कार्य में परिवर्तित कर सकते हैं। ऐसा करने पर हम ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का उल्लंघन नहीं करते हैं लेकिन हमारा दैनिक जीवन का अनुभव बताता है कि ऐसी कोई मशीन जो कि एक ही स्रोत की आन्तरिक ऊर्जा को उपयोग में लाती रहे अर्थात् बिना तापान्तर के कार्य करती रहे, व्यवहार में निर्मित नहीं की जा सकती। अतः द्वितीय प्रकार की शाश्वत मशीन का निर्माण करना असम्भव है। ओस्टवाल्ड (Ostwald) ने द्वितीय नियम को इस रूप में व्यक्त किया कि द्वितीय प्रकार की शाश्वत गति असम्भव है। इसमें केल्विन-प्लांक कथन तथा क्लॉसियस कथन दोनों ही निहित हैं।


ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम की कमियाँ 

ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम, ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त का ही एक रूप है जो यान्त्रिक कार्य W तथाऊष्मीय ऊर्जा Q में तुल्यता प्रदर्शित करता है। यह नियम यह नहीं बताता है कि ऊष्मा को कार्य में किस सीमा तक रूपान्तरित किया जा सकता है अथवा इस प्रकार के रूपान्तरण के लिये क्या आवश्यक शर्तें होती हैं। यह नियम ऊष्मा प्रवाह की दिशा के बारे में भी कुछ नहीं बताता है।



ऊष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार, सम्पूर्ण यान्त्रिक कार्य, ऊष्मा में रुपान्तरित किया जा सकता है तथा उष्मा को पूर्णतः कार्य में रूपान्तरित किया जा सकता है, परन्तु हमारा अनुभव बताता है कि कार्य को तो पूर्णतः ऊष्मा में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन ऊष्मा को पूर्णतः कार्य में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। 


उदाहरण

  • वायु में स्वतन्त्रतापूर्वक दोलन करते हुए सरल लोलक की सम्पूर्ण यान्त्रिक ऊर्जा धीरे-धीरे वायु के घर्षण आदि के कारण ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है तथा अन्त में लोलक का दोलन आयाम शून्य हो जाता है। 
  • बीकर में रखे पानी में मथनी चलाने पर पानी गर्म हो जाता है अर्थात् यान्त्रिक कार्य, ऊष्मा में परिवर्तित हो जाता है। 
  • एक धुरी पर चक्कर लगाता हुआ पहिया धीरे-धीरे रुक जाता है, क्योंकि इसकी गतिज ऊर्जा बेयरिंग पर घर्षण के कारण ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती है। 


अब, प्रश्न उठता है कि

  • क्या सरल लोलक बाह्य वातावरण से ऊष्मा अवशोषित करके उसे यान्त्रिक ऊर्जा में बदल सकता है, जिससे उसका आयाम धीरे-धीरे बढ़ता जाये
  • क्या बेकर में रखे गर्म पानी से मथनी को चलाया जा सकता है
  • क्या बेयरिंग पर उत्पन्न ऊष्मा को पहिए की गतिज ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है, जिससे कि वह पुनः चक्कर लगा सके


ऊष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार उपर्युक्त प्रक्रियाएँ भी सम्भव हैं, परन्तु व्यवहार में ऐसा सम्भव नहीं है। इस प्रकार ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा परिवर्तन की दिशा के बारे में कोई जानकारी प्रदान नहीं करता है। ऊष्मा ऊर्जा को यान्त्रिक कार्य में आवश्यक शर्तों के अन्तर्गत ही रूपान्तरित किया जा सकता है। पुनः हम पाते हैं कि ऊष्मा इन्जम की दक्षता 1 से कम होती है अर्थात् ऊष्मा का केवल कुछ भाग ही कार्य में परिवर्तित होता है। इसी प्रकार एक गर्म वस्तु व एक ठण्डी वस्तु को परस्पर सम्पर्क में रखा जाये तो ऊष्मा चाहे गर्म वस्तु से ठण्डी वस्तु में प्रवाहित हो अथवा ठण्डी  वस्तु से गर्म वस्तु में, फिर भी ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का उल्लंघन नहीं होगा क्योंकि प्रथम नियम के अनुसार एक वस्तु द्वारा दी गई ऊष्मा दूसरी वस्तु द्वारा ली गई ऊष्मा के बराबर होती है। स्पष्ट है कि ऊष्मा स्वतः ही कभी भी ठण्डी वस्तु से गर्म वस्तु में प्रवाहित नहीं होती है। इस प्रकार प्रथम नियम ऊष्मा प्रवाह की दिशा नहीं बताता है। 


 ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम

उपर्युक्त प्रकार के प्रायोगिक तथ्यों को ऊष्मागतिकी में समाविष्ट करने के लिये ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम की स्थापना की गई। ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम यह बताता है कि ऊर्जा रूपान्तरण किस तरीके से होता है तथा ऊर्जा स्थानान्तरण की दिशा क्या होती है? इस प्रकार ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम, प्रथम नियम का पूरक है।



ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम को कई प्रकार से बताया गया है परन्तु सभी कथन, यद्यपि शब्दों की दृष्टि से भिन्न हैं, लेकिन भावार्थ की दृष्टि से एक-दूसरे के तुल्य है। इनमें कुछ महत्वपूर्ण कथन अग्रलिखित है-



(1) केल्विन प्लांक का कथन (Kelvin-Planck's Statement)

  • हम जानते हैं कि ऊष्मा इंजन में कार्यकारी पदार्थ ऊँचे ताप के कुण्ड (स्त्रोत) से उष्मा लेता है, इसके एक भाग को कार्य मे रूपान्तरित करता है तथा शेष उष्मा कम ताप के कुण्ड(सिंक) को देता है। इस प्रकार उष्मा का प्रवाह गर्म वस्तु से ठण्डी वस्तु की ओर होने के परिणामस्वरूप उष्मा इंजन से यांत्रिक कार्य प्राप्त होता है।यदि किसी प्रकार स्त्रोत एवं सिंक एक ही ताप पर हों तो उष्मा का कोई प्रवाह नहीं होगा तथा कोई भी यांत्रिक उर्जा प्राप्त नहीं होगी । अतः उष्मा को कार्य में रूपान्तरित करने के लिए तापान्तर का होना आवश्यक है। ऐसे किसी इंजन का अभी तक निर्माण नहीं हुआ है, जो स्रोत से ली गई सम्पूर्ण उष्मा को कार्य में रूपान्तरित कर दे तथा सिंक को कुछ भी ऊष्मा न दे अर्थात् स्रोत से ऊष्मा लेकर बिना कुछ भी ऊष्मा सिंक को दिए, कार्य प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अब यदि इन्जत से लगातार कार्य प्राप्त करना चाहें तो यह स्रोत से लगातार ऊष्मा अवशोषित करेगा, जिससे स्रोत का ताप घटता जायेगा तथा अन्ततः स्त्रोत का ताप सिंक के ताप के बराबर हो जायेगा तथा उष्मा  का प्रवाह सम्भव नहीं होगा। अतः कोई यांत्रिक कार्य प्राप्त नहीं होगा। इसका अर्थ है कि केवल उष्मा-स्रोत से सतत् कार्य की प्राप्ति सम्भव नहीं है अर्थात इसके लिए शीतल वस्तु (सिंक) का होना भी अनिवार्य है। इन तथ्यों के आधार पर लॉर्ड केल्विन ने कहा- किसी वस्तु को वातावरण की न्यूनतम ताप की  वस्तु से अधिक शीतलन करने से कार्य की सतत् प्राप्ति असम्भव है।"



  • केल्विन तथा प्लांक ने द्वितीय नियम को निम्न प्रकार से भी व्यक्त किया - इस प्रकार की किसी भी मशीन का निर्माण असम्भव है जो कि चक्रीय प्रक्रम में किसी स्रोत से ऊष्मा लेकर, कार्यकारी निकाय में कुछ परिवर्तन किये बिना, उसे पूर्णतः कार्य में परिवर्तित कर दे।



(2) क्लॉसिस का कथन (Clausius's Statement)

  • प्रशीतक या रेफ्रिजरेटर वास्तव में उत्क्रमित (reversed) दिशा में कार्य करने वाला ऊष्मा इंजन है। रेफ्रिजरेटर में कार्यकारी पदार्थ ठण्डी वस्तु (सिंक) से ऊष्मा लेता है, इस पर किसी अन्य बाह्य ऊर्जा स्रोत द्वारा कार्य किया जाता है तथा अधिक मात्रा में ऊष्मा गर्म वस्तु (स्रोत) को दी जाती है। अर्थात् रेफ्रिजरेटर एक ऐसी मशीन है जो उण्डी वस्तु से ऊष्मा लेकर गर्म वस्तु को पहुंचाती है जबकि इस पर बाह्य ऊर्जा स्रोत द्वारा कार्य किया जाता है। ऐसे किसी भी रेफ्रिजरेटर का अभी तक निर्माण नहीं हुआ है जो किसी बाह्य ऊर्जा स्रोत की सहायता के बिना ऊष्मा को ठण्डी वस्तु से गर्म वस्तु पर पहुंचा सके। इस तथ्य के आधार पर क्लॉरियस ने द्वितीय नियम को कथन के रूप में निम्न प्रकार से व्यक्त किया है



किसी भी स्वचालित (self-acting) मशीन के लिए जिसे किसी अन्य बाह्य स्रोत से ऊर्जा प्राप्त न हो चक्रीय प्रक्रम में ऊष्मा को निम्न ताप वाली वस्तु से अधिक ताप वाली वस्तु पर पहुंचाना असम्भव है।



अथवा



ऊष्मा स्वतः ही निम्न ताप की वस्तु से उच्च ताप की वस्तु की और प्रवाहित नहीं हो सकती।

स्पष्ट है कि ऊष्मा कभी भी निम्न ताप वाली वस्तु से अधिक ताप वाली वस्तु की ओर प्रवाहित नहीं हो सकती जब तक कि उस पर बाह्य ऊर्जा स्रोत द्वारा कार्य नहीं किया जाता। यह कथन भौतिकी की अन्य शाखाओं के अनुभवों से पूर्णत: मेल खाता है।

 जैसे

  • कोई पिण्ड निम्न सतह से उच्च सतह पर तब तक नहीं पहुँच सकता जब तक कि उस पर बाह्य स्रोत के द्वारा कार्य नहीं किया जाये।
  • इसी प्रकार विद्युत धारा कम विभव वाले बिन्तु से अधिक विभव वाले बिन्दु की और कभी भी प्रवाहित नहीं होता जब तक कि उस पर बाहा कार्य न किया जाये।



ऊष्मागतिकी के प्रथम व द्वितीय प्रकार की शाश्वत गतियाँ

 (Perpetual Motions of First and Second Kind)


  • ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त का ही एक रूप है जो यह बताता है कि ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है और नष्ट की जा सकती है, परन्तु यह एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो सकती है। अतः इस  नियम से स्पष्ट है कि कोई भी निकाय उष्मा के रूप में जितनी उर्जा लेता है, कार्य के रूप में उससे अधिक उर्जा नहीं दे सकता है। 


वह मशीन जो अवशोषित मात्रा से अधिक कार्य प्रदान करती है प्रथम प्रकार की शाश्वत मशीन (सदैव कार्य करने वाली मशीन) कहलाती है।



  • ऊष्मागतिकी के प्रथम नियमानुसार, प्रथम प्रकार की शाश्वत मशीन असम्भव है। ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियमानुसार, ऊष्मा को पूर्णत: कार्य में परिवर्तित करना असम्भव है अथवा एक ही स्रोत से निरन्तर कार्य को प्राप्ति असम्भव है। अतः ऐसी मशीन जो किसी स्रोत से ऊष्मा अवशोषित करके उसे पूर्णत: कार्य में बदल देती है अथवा एक ही स्रोत की आन्तरिक ऊर्जा का उपयोग करके कार्य प्रदान करती है, द्वितीय प्रकार की शाश्वत मशीन कहलाती है। इस प्रकार हम समुद्र, वायुमण्डल के अन्दर की आन्तरिक ऊर्जा के विशाल स्रोतों से निरन्तर कार्य प्राप्त कर सकते हैं। यदि एक ऐसा इन्जन बनाया जा सके जो उत्क्रमणीय इन्जन से अधिक दक्ष हो तो हम निम्न ताप वाली वस्तु से ऊष्मा लेकर उसे सम्पूर्ण रूप से निरन्तर कार्य में परिवर्तित कर सकते हैं। ऐसा करने पर हम ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम का उल्लंघन नहीं करते हैं लेकिन हमारा दैनिक जीवन का अनुभव बताता है कि ऐसी कोई मशीन जो कि एक ही स्रोत की आन्तरिक ऊर्जा को उपयोग में लाती रहे अर्थात् बिना तापान्तर के कार्य करती रहे, व्यवहार में निर्मित नहीं की जा सकती। अतः द्वितीय प्रकार की शाश्वत मशीन का निर्माण करना असम्भव है। ओस्टवाल्ड (Ostwald) ने द्वितीय नियम को इस रूप में व्यक्त किया कि द्वितीय प्रकार की शाश्वत गति असम्भव है। इसमें केल्विन-प्लांक कथन तथा क्लॉसियस कथन दोनों ही निहित हैं।

 

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