पर्यावरण की भारतीय अवधारणा |Indian concept of environment

पर्यावरण की भारतीय अवधारणा (Indian concept of environment )

पर्यावरण की भारतीय अवधारणा |Indian concept of environment

पर्यावरण परिभाषा विस्तार एवं महत्व

 

  • प्रदूषण, वनों का दोहन ठोस अपशिष्ट का निस्तारण, पर्यावरण के स्तर में गिरावट, राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक उत्पादकता, भूमण्डलीय तापीकरण, ओजोन की परत का ह्रास तथा जैव विविधता की क्षति जैसी लगातार चिन्ताओं ने प्रत्येक मनुष्य को पर्यावरण के प्रति सचेत कर दिया है। विश्व भर में आयोजित हो रही संगोष्ठियों में न केवल पर्यावरण संरक्षण पर बहस छेड़ी है अपितु संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1992 में रियो डि जेनेरो तथा 2002 में जोहान्सबर्ग में पर्यावरण विकास तथा सतत् विकास पर गहन विचार कर विश्व भर में लोगों के जहन में पर्यावरण के प्रति एक जागरूकता भी पैदा की है। आज सम्पूर्ण धरती पर एक ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है, जहाँ पर हर कोई पर्यावरण के प्रति सजग रहना चाहता है। पर्यावरणीय आपदाओं का प्रबन्धन आज एक महत्वपूर्ण व्यवसाय बन गया है। अतः पर्यावरण विज्ञान व पर्यावरणीय अध्ययन के महत्व को कमतर नहीं आँका जा सकता है। मानव की उन्नति के लिए सतत् विकास ही एक महत्वपूर्ण रास्ता है। सभ्यता के आरम्भ से ही मनुष्य पारिस्थितिकी पर विचार व व्यवहार करता आ रहा है। पुराणों में भी पर्यावरण के प्रति तथा मूल्यों का उल्लेख मिलता है। आज पर्यावरण की स्थिति और अधिक संकटमय हो गयी है तथा मानव को पर्यावरण व सतत् विकास के प्रति और अधिक जागरूक होने की जरूरत है।

 

  • पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के बावजूद पर्यावरणीय अध्ययन को हमारे शैक्षिक गतिविधियों में उचित स्थान नहीं मिला है। इसको ध्यान में रखते हुये माननीय उच्च न्यायालय के निर्देश पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पर्यावरण अध्ययन को एक बुनियादी पाठ्यक्रम के रूप में अनिवार्य विषय बनाया है, जिसे सम्पूर्ण भारतवर्ष में पढ़ाया जा रहा है।

 

  • आधुनिक समय में समाज के विकास का प्रारम्भ लगभग सन् 1750 ई० में इंग्लैंड में कपड़ा मीलों के खुलने से हुआ माना जाता है, जब वहाँ औद्योगिक क्रान्ति का जन्म हुआ। मानव द्वारा किए जाने वाले कई कार्यों का उत्तरदायित्व वहाँ स्थापित मशीनों ने सम्भाल लिया औद्योगीकरण ने देखते-देखते मानव जीवन को सुगम बना दिया। उद्योग किसी भी राष्ट्र की प्रगति एवं समृद्धि का प्रतीक बन गए। जीवन के हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उद्योगों का प्रभाव पड़ने लगा। 


  • औद्योगिकीकरण के चलते नगरीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई। सम्पूर्ण विश्व का आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्वरूप ही परिवर्तित हो गया। नगरीकरण के साथ यातायात के साधनों में भी तीव्र गति से वृद्धि हुई। तीव्र जनसंख्या वृद्धि ने भी पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ाने में सहयोग दिया। मानव ने अपनी महत्वाकांक्षाओं की प्राप्ति हेतु प्रदूषण को निरन्तर बढ़ावा दिया है, परिणामस्वरूप वर्तमान में पर्यावरण संकट सर्वत्र व्याप्त है।

 

  • किसी भी जीव पर वायुमंडल, जल, मृदा, विकिरणों का सम्मिलित प्रभाव पड़ता है। मानव एक ऐसा जीव है जिसके क्रियाकलापों का पर्यावरण व प्रकृति पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। क्योंकि मानव ने अपने विकास के लिए, अपनी प्रगति के लिए प्राकृतिक घटकों का अंधाधुंध दोहन किया है।

 

पर्यावरण की परिभाषा Definition of environment in Hindi

 

  • पर्यावरण का उद्भव परि' 'आवरण' की संधि से हुआ। पर्यावरण वह आवरण है जो जीव के चारों ओर उपस्थित है अर्थात् जल, थल, नभ तीनों में जैविक व अजैविक रूप में उपस्थित सभी अवयव, पर्यावरण का ही भाग है। 


  • पर्यावरण अध्ययन उस हर महत्वपूर्ण मुद्दों का सामना करता है जो किसी भी जीव को प्रभावित करता है। यह एक कई विषयों को मिलाकर किया जाने वाला अध्ययन है जो हमारे रोज के जीवन यापन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। यह एक तरह से एक व्यावहारिक विज्ञान है जिसे प्रायोगिक रूप में आम जन को विश्वास दिलाना होता है। यह अध्ययन का एक व्यापक क्षेत्र है जो पर्यावरण तथा मानव के सम्बन्धों का अध्ययन करता है।

 

पर्यावरण को निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है-

 

1. पर्यावरण, समस्त जीवों के चारों ओर उपस्थित जैविक व अजैविक घटकों तथा प्राकृतिक व अप्राकृतिक परिस्थितियों का योग है।

2. पर्यावरण पृथ्वी पर उपस्थित सभी जैविक, भौतिक व रासायनिक अवयवों का सम्मिलित रूप है जो मनुष्य को प्रभावित करता है तथा जिसे मनुष्य प्रभावित करता है।

 

3. पर्यावरण समस्त सामाजिक, जैविक, भौतिक व रासायनिक कारकों का योग है जो सभी जीवों के चारों ओर एक आवरण के रूप में उपस्थित है।

 

पर्यावरणीय कारक Environmental factors in Hindi

 

  • पर्यावरण में ही समस्त जीव-जंतुओं का जीवन सम्भव है। यह पर्यावरण अनेक कारकों से मिलकर बना है, जिसका मनुष्यों और जीव-जंतुओं पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार मानव को प्रभावित करने वाले बाह्य बलों को अथवा परिस्थिति को कारक की संज्ञा दी जाती है। अर्थात् पर्यावरण का प्रत्येक अंग जो परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से मानव, जीव-जंतुओं को प्रभावित करता है कारक कहलाता है।

 

सामान्य रूप से पर्यावरण के कारकों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

 

  • अजैविक कारक 
  • जैविक कारक

 


1. अजैविक कारक Abiotic factors

 

सभी अजैविक कारक इसी श्रेणी में आते हैं। इसके अंतर्गत भौतिक कारक जैसे ताप, प्रकाश अथवा विकिरण इत्यादि व रासायनिक कारक जैसे मिट्टी, जल, गैसें इत्यादि तथा वातावरणीय कारक जैसे वायुमंडल इत्यादि आते हैं। यह सभी कारक एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं।

 

(i) प्रकाश 

  • प्राकृतिक रूप से सूर्य का प्रकाश एक बहुत बड़ा स्रोत है तथा पृथ्वी पर पाई जाने वाली सभी ऊर्जाऐं इसी प्रकाश ऊर्जा का रूपान्तरण है। प्रकाश की उपस्थिति में ही पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण का कार्य कर पाते हैं। अर्थात् सरल अकार्बनिक पदार्थों से जटिल कार्बनिक पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। यही कार्बनिक पदार्थ सभी उपभोक्ताओं द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से काम में लिए जाते हैं।

 

(ii) ताप

  • ताप भी पर्यावरण का महत्वपूर्ण घटक है। पृथ्वी पर तापीय ऊर्जा, सौर विकिरणों के रूप में पहुँचती है। ताप पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं सभी की गतिविधियों को प्रभावित करता है। पौधों में जल अवशोषण, प्रकाश संश्लेषण श्वसन, वाष्पोत्सर्जन आदि सभी क्रियाएँ ताप से प्रभावित होती हैं। सभी पेड़-पौधे, जीव-जंतु सूक्ष्मजीवों इत्यादि को अपनी गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने हेतु एक अनुकूल ताप की आवश्यकता होती है। इससे कम या अधिक ताप पर गतिविधियाँ विपरीत रूप से प्रभावित होती है।

 

  • जंतुओं में शीत निष्क्रियता व ग्रीष्म निष्क्रियता पाई जाती है। कुछ जीव, शीत रुधिर वाले होते हैं, जिनका तापमान वातावरण के ताप परिवर्तन के अनुसार घटता बढ़ता रहता है। जैसे-सांप, मेढक, मछली आदि। कुछ जीव उष्ण रुधिर वाले होते हैं जो समतापी कहलाते हैं। सभी स्तनपायी व पक्षी इसके उदाहरण हैं। ये वातावरण के बदलते तापमान के उपर भी अपने शरीर स्थिर रख सकते हैं। ताप के कारण कई जीवों में उष्णीय प्रवास भी पाया जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण साइबेरियन क्रेन का है। जो साइबेरिया से शीत ऋतु (कम ताप) में भारत आते हैं व मार्च के अंत तक वापस चले जाते हैं।

 

(iii) मृदा घटक- 

  • मृदा पृथ्वी की ऊपरी सतह का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो कि पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी पौधों व जंतुओं के लिए आधार प्रदान करती है। यह पेड़-पौधों को आवश्यक खनिज तत्व उपलब्ध कराती है. जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सुचारु रूप से चल पाती है और समस्त जीव-जंतु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भोजन पर निर्भर करते हैं।

 

(iv) जल घटक - 

  • पृथ्वी का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से ढका हुआ है एवं जल जीवन के लिए आवश्यक घटक है। क्योंकि जल न सिर्फ जीवों के शरीर का एक घटक है बल्कि उनकी मूलभूत आवश्यकता व कई जीवों (जलीय जीवों) का आवास भी है। जल ही वातावरण में आर्द्रता, ताप, मानसून आदि को नियंत्रित करता है।

 

  • वातावरण कारक से हमारा सन्दर्भ वायुमण्डल व उसमे उपस्थित विभिन्न गैसों से है। वायुमण्डल हमारे चारों ओर वायु का कई किलोमीटर ऊँचाई तक फैला आवरण है। यह आवरण पर्यावरण का महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें उपस्थित ऑक्सीजन के कारण, पृथ्वी पर जीवन संभव है। वायुमण्डल में उपस्थित मुख्य गैसें नाइट्रोजन 78% व ऑक्सीजन 21% व अल्पमात्रा में उपस्थित गैसे जैसे जलवाष्प, कार्बन डाईऑक्साइड, निऑन, हीलियम, आर्गन आदि के साथ एक सन्तुलन बनाए रखती है।

 

वायुमण्डल की संरचना Composition of the atmosphere

 

वायुमण्डल पृथ्वी की सतह से 500 किलोमीटर ऊँचाई तक फैला हुआ है। जिसमें तापमान 92° सेंटीग्रेड से 1200° सेंटीग्रेड तक होता है। इसमें वायु की अनेक परतें पाई जाती हैं। इसके आधार पर इसे चार भागों में बांटा गया है।

 

(i) क्षोभ मण्डल 

  • यह वायुमण्डल का सबसे निचला स्तर है व पृथ्वी की सतह से 11 किलोमीटर ऊँचाई तक फैला हुआ है। इसमें अधिक मात्रा में धूल कण, बादल और जलवाष्प उपस्थित होने के कारण यहाँ मौसमी घटनाऐं होती हैं। क्षोभमण्डल का सबसे ऊपरी स्तर, जो क्षोभ मण्डल व समताप मण्डल के बीच का संक्रमण स्थिति वाला भाग है उसे क्षोभ स्तर कहते हैं। यह करीब 1-15 किलोमीटर चौड़ा होता है।

 

(ii) समताप मंडल 

  • क्षोभ स्तर से ऊपर लगभग 13 से 50 किलोमीटर तक का क्षेत्र समताप मण्डल कहलाता है। इस भाग में बादल बिल्कुल नहीं होते हैं एवं मौसमी परिवर्तन भी नहीं होते हैं। वायुदाब बहुत न्यून हो जाता है। समताप मण्डल में ही 15 किलोमीटर से 25 किलोमीटर की ऊँचाई के बीच ओजोन गैस की अधिकता होती है। इसे ओजोन स्तर भी कहते हैं। यह स्तर सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों का अवशोषण कर उन्हें पृथ्वी तक नहीं पहुँचने देती है। अतः यह परत मानव जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण रक्षा कवच का कार्य करती है।

 

(iii) मध्य मण्डल 

  • लगभग 50 किलोमीटर से 85 किलोमीटर तक का भाग मध्य मण्डल कहलाता है। इस क्षेत्र में ताप में गिरावट - 80° सेंटीग्रेड से 90° सेंटीग्रेड तक आती है। इस क्षेत्र में ताप में इतनी गिरावट आने का मुख्य कारण यह है कि यहाँ विकिरण अवशोषक गैसें अनुपस्थित होती है।

 

(iv) आयन मण्डल - 

  • यह क्षेत्र 85 किलोमीटर से लगभग 500 किलोमीटर तक का है। इस क्षेत्र में सूर्य विकिरणों एवं पराबैंगनी किरणों की अधिकता के कारण वायुमण्डलीय गैसें आयनिक अवस्था में रहती है। इसी कारण इस क्षेत्र को आयन मण्डल कहते हैं। इस क्षेत्र का तापमान अनिश्चित होता है।

 

पर्यावरण की विशेषताऐं Characteristics of the environment

 

पर्यावरण की महत्वपूर्ण विशेषताऐं इस प्रकार हैं:

 

1. पर्यावरण का निर्माण जैविक और अजैविक तत्वों से मिलकर बना होता है। 

2. जीवों के चारों ओर की वस्तुएं पर्यावरण का निर्माण करती हैं। 

3. पर्यावरण सदैव परिवर्तनशील है। इसकी परिवर्तनशीलता का प्रमुख कारण सूर्य से प्राप्त ऊर्जा है। 

4. पर्यावरण के प्रति जीवों में अनुकूलता पाई जाती है। 

5. पर्यावरण स्व-पोषण एवं स्व-नियंत्रण पर आधारित है। 

6. पर्यावरण के अंतर्गत विशिष्ट भौतिक क्रियाऐं कार्यरत होती हैं। 

7. पर्यावरण में पार्थिव एकता के साथ-साथ क्षेत्रीय विविधता भी परिलक्षित होती है। 

8.पर्यावरण में जैव-जगत का निवास पाया जाता है।  

9. पर्यावरण के जीवों में परस्पर सहवास अनिवार्य लक्षण है। 

10. पर्यावरण में संसाधनों का भण्डार है। 

11. पर्यावरण का प्रभाव दृश्य और अदृश्य दोनों रूपों में परिलक्षित होता है।

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.