राई नृत्य बुन्देलखड, बेड़नी और मृदंगिया राई नृत्य की मुद्राएँ| Rai Nritya Sampurn Jaankari

राई नृत्य बुन्देलखड, बेड़नी और मृदंगिया राई नृत्य की मुद्राएँ

राई नृत्य बुन्देलखड, बेड़नी और मृदंगिया राई नृत्य की मुद्राएँ| Rai Nritya Sampurn Jaankari



राई नृत्य बुन्देलखड की जानकारी 

  • राई बुंदेलखण्ड का लोकप्रिय लोकनृत्य है। बच्चे का जन्म हो, मुंडन संस्कार हो, जनेऊ हो, सगाई हो, विवाह हो, कोई भी मनौती पूरी होने आदि की खुशी का अवसर हो, राई लोक नृत्य का आयोजन किया जा सकता है। 
  • राई शोभा और प्रतिष्ठा का लोकनृत्य है। राई जहां खुशी का नृत्य है, वहीं शौर्य, श्रृंगार और साहस का भी उद्दाम नृत्य है । बेजोड़ लोकसंगीत, तीव्र गति नृत्य और तात्कालिक कविता के तालमेल ने राई नृत्य को एक ऐसी सम्पूर्णता प्रदान कर दी है, जिसका सामान्यतः अन्य लोक नृत्यों में संयोग दुर्लभ ही है। राई नृत्य में शारीरिक वेग में और चपलता का समन्वय अद्भुत होता है ।
  • राई पूर्ण देह नृत्य है, जिसमें शरीर का एक-एक अंग नृत्य करता है। अपनी पारम्परिकता में राई एक सम्पूर्ण लोकनृत्य की श्रेणी में है।


राई नृत्य एक लोक विधा

  • राई एक लोक विधा है। राई नृत्य अपनी परम्परा में भी उतना ही जीवित और जीवन्त है, जितना आधुनिक मंचों पर उसकी दर्शनीयता और मांग बढ़ी है। जो एक बार राई नृत्य को देख लेता है, उसे फिर बार-बार देखने की इच्छा होती है। 
  • राई नृत्य का प्रभाव प्रत्येक के मन-मस्तिष्क में ऐसा होता है कि इस नाच की मनमोहक छबियां सदैव के लिये स्मृति में समा जाती हैं। 
  • बुंदेलखंड का कोई हिस्सा ऐसा नहीं होता, जहां राई नृत्य को देखने की ललक नहीं होती। मनोरंजन राई नृत्य का मूल मकसद है। राई नृत्य को देखने के लिये हर युवक, प्रौढ़ और बूढे तक का मन मचल उठता है, क्योंकि उसमें उन्मुक्त श्रृंगार रस की परिपूर्ति होती है। अंत तक राई नृत्य को देखने की कशिश बनी रहती है। 
  • राई नृत्य के प्रारंभ से लगाकर प्रभावोत्पादकता अपने अंचल से बाहर भी एक जैसी होती है। इस अर्थ में राई एक सम्पूर्ण लोकविधा बन गई है। सम्पूर्ण कला रूप में प्रतिष्ठित हो गई है।

 

राई नृत्य की परम्परा 

  • मध्यप्रदेश के समूचे बुंदेलखण्ड में राई नृत्य की परम्परा है। राई नृत्य की परम्परा ग्वालियर, बघेलखण्ड के अतिरिक्त उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में भी प्रचलित है। पर बघेलखंड और उत्तरप्रदेश की राई में बहुत फर्क है। 


  • बघेलखण्ड और उत्तरप्रदेश में राई नर्तक पुरुष ही स्त्री बनकर नाचते हैं, जबकि बुंदेलखंड में नर्तकी स्त्री होती है, जिसे 'बेड़नी' कहते हैं। इस कारण से भी मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के राई लोक नृत्य का आकर्षण बिल्कुल अलग है। राई रबी की फसल कटनी और किसान संस्कृति से संबंध रखती है। उसके प्रादुर्भाव के भी यही दो मूल कारक हैं।

 

  • बुंदेलखंड में राई नृत्य की परम्परा बहुत पुरानी हैं। श्री माधव शुक्ल मनोज ने राई मोनोग्राफ में लिखा है- "राई नृत्य कब से प्रचलित हुआ, यह खोज पाना मुश्किल है। वैसे तो बुंदेली के प्रथम कवि जगनिक के लोककाव्य आल्हाखंड (12वीं शती) और परमाल रासो के नाम से प्रकाशित अज्ञात कवि के रासो ग्रंथ में आल्हा उदल के जन्मोत्सव वर्णन में लोक नृत्य का उल्लेख है, किंतु राई का उल्लेख नहीं मिलता। छिताई चरित ( 15 वीं शती) में नाद मृदंग कला परवीना। नाचहि चतुर प्रेम रस लीना। जायसीकृत पद्मावत (16वीं शती) में जानी गति बेड़िन दिखराई। बाँहू डुलाय जीऊ लेई जाई । और केशव कृत रामचंद्रिका (17वीं शती) में काहू कहूँ लोलिनी बेड़नी गीत गाये' से राई गीत और नृत्य के प्रसार का अंदाज लगाया जा सकता है।"

1842 के एक जनविद्रोह में राई नृत्य की महत्वपूर्ण भूमिका

  • सन् 1842 के एक जनविद्रोह में राई नृत्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। वह जनविद्रोह का सूत्रपात नारहट (सागर) के जागीरदार मधुकर शाह बुंदेला के राज दरबार में हुआ था। "राज दरबार में बेड़नी राई नृत्य कर रही थी कि अंग्रेज सैनिकों ने चारों तरफ से घेरकर बेड़नी का बलात् अपहरण कर लिया। मधुकर शाह ने जब बेड़नी को वापस देने और क्षमा मांगने के लिए अंग्रेज अधिकारी को पत्र लिखा, तब उन्हें उत्तर मिला कि बेड़नी अब सिर्फ हमारे सामने ही नाचगी अगर मधुकर को शौक हो तो वे अपनी रानियों को नचवायें। तब मधुकर शाह विद्रोही हो गये। नारहट में ठाकुर, लोधी, माल गुजार सभी संगठित हुए और जन विद्रोह की लपटें उठीं। फिर मालथौन, खिमलासा, खुरई पर कब्जा किया गया। 1857 के पहले की इस चिनगारी में राई नृत्य की समिधा का योग हमेशा याद रहेगा।"

 

बुंदेलखंड के लोक जीवन में राई नृत्य

  • बुंदेलखंड के लोक जीवन में राई नृत्य सदियों से लोकानुरंजन ओर लोकमंगल का साधन रहा है। साधारण जन से लगाकर मालगुजारों 'सामन्तो' जागीरदारों और प्रतिष्ठित परिवारों में राई लोकनृत्य को आश्रय मिलता रहा था मनोरंजन के लिए राजदरवारों तक में बेड़नियों के न होने लगे थे। सैनिकों के मनोरंजन का भी राई सबसे बड़ा साधन बन गया था। थके सैनिकों में उत्साह जगाने के लिये सेना के पड़ावों में राई नृत्य के प्रदर्शन होने लगे थे। सैनिकों की राह में इस नृत्य के किये जाने के कारण लोग इसे राही नृत्य भी कहते हैं। 


  • कुछ लोग राई यानी मथनी की तरह बेड़नी के नाचने से राई नृत्य की संज्ञा देते हैं। बुंदेली लोक जीवन में राई इतनी समा गई है कि गृह प्रवेश मुंडन अथवा समधियों आगमन तक में राई नृत्य करवाने की प्रबल इच्छा दिखाई देती है। यही कारण है कि बेडनियों के गांव के गांव आबाद हो गये। जहां नृत्य और देहप्रेमी दोनों पहुंचने लगे। ऐसे गांवों में राई के कई केन्द्र बन गये, जिनमें प्रमुख रूप से सागर जिले के खमरिया, पथरिया, हवला और फतहपुर, छतरपुर जिले के बिजावर एवं गंज, पन्ना जिले में देवेन्द्र नगर, बड़ागांव, गुना ग्वालियर करेला के आस-पास के गांव आदि प्रसिद्ध हैं। सागर और दमोह जिले राई नृत्य के लिये सबसे प्रसिद्ध हैं। यहां की राई अपने पूरे रंग और रूप में विकसित है।

 

राई के केन्द्र में बेड़नी और मृदंगिया

 

  • राई लोकनृत्य के केन्द्र में बेड़नी और मृदंग वादक होता है। मृदंग वादक को मृदंगिया भी कहते हैं। राई नृत्य पूरी तरह बेड़नी और मृदंगिया पर निर्भर है। बेड़नी और मृदंगिया पर निर्भर है। बेड़नी और मृदंगिया एक दूसरे के परिपूरक हैं। अकेली बेड़नी अथवा अकेला मृदंगिया राई नृत्य में कुछ भी नहीं है। बेड़नी से ही नृत्य शोभा पाता है। मध्यकाल तक बेड़नी का यह रूप लगभग सुनिश्चित हो गया था। यहाँ तक कि बेड़नी की एक जाति तक बन गई थी, जिसका नाम बेड़िया था। इस तरह एक पूरी जाति की जाति इस नृत्य के कार्य में संलग्न हो गई थी। 


  • यद्यपि बेड़िया जाति के अतिरिक्त कंजर, गंधर्व, कबूतरी, रंगरेज जातियों में राई नृत्य की परम्परा रही है, तथापि इन जातियों की नर्तकियां भी बेड़नी ही कहलाती थीं, इससे राई नृत्य की महत्ता स्पष्ट होती है। राई कला की विविधता और व्यापकता का कारण भी यही है।

 

  • " राई नृत्य की नर्तकी बेड़नी मध्यकाल में नृत्य के लिये विख्यात रही है। नटी के संबंध में प्राचीन ग्रंथों में कई उल्लेख मिलते हैं। वात्सायन के कामसूत्र में नटी को रंगमंच पर नाचने वाली (रंगयोपिता) वेश्या बताया गया है, किंतु बेड़नी अपने को बेड़िया जाति की मानती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बेड़नी शब्द विट-डी-बिड़िनी से बना है। प्राचीन ग्रंथों में नट और विट अलग-अलग माने गये हैं।"


बेडिया परिवार समाज 

  • बेडिया परिवार में पुरुष खेती करते हैं और उसकी पत्नी बेड़नी अर्थात् नृत्य का काम करती है। बडिया समाज में महिलाओं का नाचना बुरा नहीं माना जाता। इसके साथ ही बेड़नियों को परपुरुष से भी संबंध बनाने की छूट होती है। उनके पति इसके लिये भी बुरा नहीं मानते। बेड़िया परिवार में एक और महत्वपूर्ण प्रथा होती है। प्रायः एक परिवार में ज्यादातर एक ही लड़की को बेडनी बनाने की इजाजत होती है, जिसकी कमाई पर पूरा परिवार निर्भर होता है। वह लड़की घर पर नृत्य की शिक्षा लेती है, बड़ी होने पर मां के साथ नृत्य के मैदान में उतरती है। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी यह नृत्य कला चली आती है। 
  • बेड़िया समाज में लड़के का पैदा होना उतना अच्छा नहीं माना जाता, जितना लड़की का। बेड़िया परिवार में प्रायः पहली लड़की को बेड़नी बनाने का रिवाज है। बेडिया समाज राई नृत्य की निरन्तरता बनाये रखने और एक कला को बचाये रखने के लिये शायद इतनी कठोर प्रथा को भी अपना लियां हो। 
  • यह केवल पेट के लिये तो नहीं हो सकता. कला की रक्षा के लिये भी पूरे वेड़िया समाज ने इस प्रचलित सामाजिक उपेक्षा के काम का सदियों से सहज रूप से स्वीकार कर लिया। कला के लिये किसी समाज का यह त्याग कोई कम नहीं है। इसके लिये उन्हें कितनी पीड़ा झेलनी होती होगी, यह तो वही जानें?


मृदंगिया राई नृत्य का अनिवार्य अंग

  • मृदंगिया राई नृत्य का अनिवार्य अंग है। जब तक मृदंगिया का साथ नहीं मिलता तब तक कोई बेड़नी नाचने के लिये तैयार नहीं होती, क्योंकि बिना मृदंग वादक के राई नृत्य पूरा नहीं अधूरा होता है। बेडनी और मृदंगिया एक दूसरे के परिपूरक हैं। 


  • प्रसिद्ध वेडनियां कुशल मृदंगिया के साथ ही नाचना पसंद करती हैं। पूरे बुंदेलखंड में कई प्रसिद्ध मृदंगिया हैं, जिनमें खमरिया के कपूरे सेठ और कनेरा देव के रामसहाय पाण्डे सबसे अधिक प्रसिद्ध और दक्ष मृदंगिया हैं। कपूरे सेठ तो अब नहीं रहे लेकिन उनका नाम राई कला के विकास और मृदंग वादन में बड़े से लिया जाता है। रामसहाय पाण्डे वर्तमान में सबसे अधिक सक्रिय और सर्वश्रेष्ठ मृदांगया हैं। 


  • शिखर सम्मान प्राप्त रामसहाय पाण्डे को राई को देश-विदेश में ले जाने का श्रेय है। दयाराम कुशवाहा, प्रहलाद और प्रकाश यादव की राई मंडली ने भी ख्याति अर्जित की है। इंग वादक की कोई जाति विशेष नहीं होती। किसी जाति का व्यक्ति राई नृत्य के लिये कमर में मृदंग बाँध सकता है। कपूरे सेठ जैन थे और रामसहाय पाण्डे ब्राह्मण हैं।

 

  • राई कला की दृष्टि से पथरिया की बेड़नियां सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं। रजिया, गिरजिया, चन्द्रा, धनकुँवर, शांति, कांति, मुन्नी आदि पथरिया की प्रसिद्ध बेड़नियां रही हैं। राई एक व्यावसायिक कला परम्परा के रूप में विकसित हुई है, इसलिये बेड़नियां नृत्य करने जाने के पहले बयाना और करार इकरार भी करती हैं। 


  • राई नृत्य कभी राज्याश्रय तक प्राप्त कर चुका था रियासतों के सामंतों, जागीरदारों, जमींदारों, मालगुजारों और रईसों में राई लोक नृत्य कराने और देखने की रुचि सर्वाधिक रही है। एक रात के नृत्य के लिये बेड़नियां पांच सौ से पांच हजार रुपये तक लेती हैं। नृत्य में हाथ देने-लेने की आमदनी अलग से होती है, जिसका कोई हिसाब नहीं होता। नृत्य में हाथ देने और लेने का एक अंदाज होता है, जिसमें बेड़नियों से नजदीकियां और स्पर्श करने तक के अवसर होते हैं। ऐसा करके बेड़नियां अधिक पैसा झटकती हैं। बेड़नी सारी रात नृत्य करती हैं। अब तो यह नृत्य किसी भी समय कहीं भी नाचा जा सकता है। यह शौकीन, रसिक, कलापारखी, सांस्कृतिक केन्द्रों में आयोजित कार्यक्रमों पर निर्भर है। राई  लोकनृत्य की लोकप्रियता प्रदेश और देश में इतनी बढ़ गई है कि बुंदेलखंड की अपनी पारम्परिक सीमाओं को लाँघकर वह अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के घेरे में पहुँच गई है।

 

राई की रंगत

 

  • राई सम्पूर्ण रूप से उद्दाम श्रृंगार और प्रेम का नृत्य है। राई नृत्य की महफिलें देर रात दस बजे के बाद पारंग होती है और भोर के तारे के उदय तक राजती है। राई की रंगतें रात में ही खिलती है। राई लोकनृ पूरी तरह से देह का राग है। इसी राग के भीतर कहीं विराग का संदेश भी छिपा हुआ होता है। यही कारण है कि राई में उदाम श्रृंगार और प्रेम के गीतों के साथ आध्यात्मिक भक्ति के गीत भजन भी गाये जाते हैं।

 

  • राई नृत्य संगीत की देवी शारदा और हनुमान की सुगरणी से शुरू होता है। बुंदेलखंड के सभी देवी-देवताओं का भी स्मरण किया जाता है। राई नृत्य में बस इतना सा आनुष्ठानिक भाव होता है. इस भाव को राई कला के प्रति निष्ठा और समर्पण ही कहा जाना चाहिये क्योंकि शारदा और भक्त शिरोमणि हनुमान जैसे संगीत और बल के देवताओं से इस कला को बचाये रखने के लिये वरदान मांगा जाता है। फिर राई स्वांग और फाग गीत गाये जाते हैं।

 

  • नृत्य प्रारंभ करते समय बेडनियां सबसे पहले सभी वादयों को दाहिने हाथ से श्रद्धापूर्वक स्पर्श करती हुई नमन करती हैं। गायक दल गीत की पंक्तियां बुंदेलखंड के मूल आलाप से उठाता है और आलाप के अंतिम छोर से गीत के शब्दों के साथ राई के सारे दिय बज उठते है। बेड़नी भी गाते हुए नृत्यारंभ करती है। चारों ओर घिरे लोगों को घेरे में घूम-घूमकर नृत्य का आगाज करती है। कुछ देर घूंघट डाले बेड़नियां सभी वाद्यों की समवेत संगत में केवल राई की पारम्परिक धुन पर पैरों की जोरदार पटक, कमर की टक और घुंघरुओं की लय ताल पर राई नृत्य की ऐसी शुरुआत करती हैं कि प्रारंभ ही राई नृत्य में उपस्थित दर्शक श्रोताओं का मन और आँखें बंध जाती हैं। यह बेड़नियों का राई नृत्य में रमने ओर रमाने का जबर्दस्त उपक्रम होता है। 


  • मृदंगिया भी मृदंग बजाते अखाड़े का चक्कर लगाता है, उसके साथ बेड़नियां कलीदार घाघरा पकडे कमर और हाथ की मुद्राएं करते हुए नृत्य करती हैं। बाजों की एक पूरी बजाँटी होने के पश्चात् राई स्वांग गीतों का सिलसिला शुरू होता है और राई नृत्य की पूरी रंगत खिलने लगती है।

 

  • राई नर्तकी बेडनी अपना स्वयं श्रृंगार करती है। राई नर्तकी का श्रृंगार बुंदेलखंड की कला परम्परा के अनुरूप विशिष्ट होता है। वेशभूषा अत्यधिक चमकदार और कल्पनाशील होती है, जो स्वयं बेड़नी द्वारा तैयार करवायी जाती है। घेरदार अस्सी कलि (चुन्नट) का गहरे रंग का चमकदार घाघरा घाघरे के नीचे चूड़ीदार पायजामा, चमकदार अंगिया चोली या पोलका गोटा किनारी लगी चमकदार चुनरिया या ओढ़नी। हाथ में रंगीन रूमाल । यही एक नर्तकी की आकर्षक वेशभूषा होती है, जिसे स्वयं बेड़नी ने राई नृत्य परम्परा में कई वर्षों के नृत्य अनुभव से विकसित की है। विशेषकर घाघरा और ओढ़नी राई नृत्य की शान होती है।

 

राई नृत्य में - घूंघट और घेरदार घाघरा

 

  • राई नृत्य में बेड़नी का मुख या चेहरा सदैव ढँका होता है। परम्परा से यह नृत्य घूँघट क ओट में होता है, तथापि केश और मुख सज्जा (मैकप) के प्रति बेड़नी पूर्ण सजग और सतव रहती है। रात के मशाल - बिजली के उजाले में घूंघट से बेड़नी की मुख-सज्जा झिलमिलात रहती हैं। आँखों में डोरीदार कजरा । भौंहों में दोनों ओर की कनपटी तक सुनहरी रंगी टिपकियां, मुख में पान और ओंठों पर रची पान की गुलाबी लाली बेड़नी के मुख सौंदर्य क द्विगुणित कर देती है। 

  • बेड़नी के मुख पर घूंघट मध्यकालीन सामाजिक प्रथा का प्रतीक है ऐतिहासिक कारणों से मध्यकाल में ही बड़े-बड़े लहंगे पहनने का चलन हुआ। घूंघट के कार स्त्रियों में जो नृत्य प्रचलित हुए, उनमें घूंघट और घाघरे की कला का विकास बहुत ऊँचे मुका तक पहुँचा दिखाई देता है। बुंदेलखंड की राई लोकनृत्य भी इसका एक उदाहरण है। य कारण है कि राई नृत्य चकरी प्रधान है। राई में बेड़नियां अधिक से अधिक चकरियां लेकर घाट के घेर से नृत्य को सुंदर से सुंदरतम बनाने की कोशिश करती हैं। राई में घाघरे के घेर  जितनी मुद्राएं मिलती हैं, उतनी अन्य घूमर नृत्यों में भी नहीं दिखाई देती हैं। नृत्य में कहीं-कहीं घाघरे के घेर की मर्यादा का भी अतिक्रमण होता है। राई नृत्य में घूंघट की भी कई कलाएं व्यक्त की जाती हैं। घूंघट के कारण चेहरे की बजाय राई में कमर, पैर और कलीदार लहंगे की सर्वाधिक बनती हैं।

 

  • बेड़नी बुंदेलखंड के लगभग सभी पारम्परिक आभूषण पहनने की इच्छा रखती है। माथे पर जगमगाता बूंदा या बिन्दी, सिर पर बेंदा - बिन्दिया- शीश फूल, कानों में कर्णफूल, ऐरन या झूमकी, नाक में सितारों वाली पुंगरिया, गले में सोने-चांदी की हँसुली, हमेल, हाथों में चूड़ियाँ, चूरा, लंगरी ककना, गजरा अंगुलियों में नग वाली अंगुठियां, कमर में करधौनी और पैरों में बजने वाले बड़े घुघरू बाँधकर सम्पूर्ण श्रृंगार के साथ एक बेड़नी राई नृत्य में उतरती है तो ऐसा लगता है कि रात में बादलों में से कोई बिजली सज-धजकर धरती पर उतर आई है। राई नृत्य की बेडनी के इस पारंपरिक श्रृंगार को लोग देखते ही रह जाते हैं। मशाल के उजाले में तो राई नर्तकी का यह श्रृंगार और अधिक आकर्षक रहस्यमयी और जादुई हो उठता है।

 

  • साधारण तौर पर बुंदेलखंड में पुरुष सफेद धोती, कुर्ता, बंडी और सिर पर साफा धारण करते हैं। कंधे पर लाल गमछा रखते हैं। पर राई में मृदंगिया की वेशभूषा कुछ विशिष्ट होती है। पहले मृदंगिया सिर पर पांच गज का लपेटदार साफा पहनकर नाचता था. अब मृदंगिया सिर खुला रखते हैं। कमर में घुटनों के नीचे तक दो काँछ वाली खूब कसी सफेद झक धोती, उस पर मल-मल का सफेद कुर्ता, कुरते पर नीली चमकीली जाकेट, कमर में कसा गमछा गमछे पर कसकर बांधी हुई मृदंग और मृदंग पर सुंदर सतरंगी झालर बाँधे जब मृदंगिया पान खाये राई नृत्य में उतरता है तो सबके आकर्षण का केन्द्र बन जाता है।

 

राई की सोहवत

 

  • राई नृत्य की गीत-संगीत सोहबत बेजोड़ होती है। सोहबत वादक और गायक अपनी जगह पर पीछे पंक्तिबद्ध खड़े होकर गाती-बजाती और झूमती रहती है। सोहबत में सात से दस पुरुष गायक-वादक होते हैं, जो धोती, कुर्ता, चमकीली बंडी, साफा, पंच्छा डाले होते हैं। बादकों में टिमकी (नगड़िया) ढोलक, ढपला, तारे (मंजीरे) अलगोजा बजाने वाले होते हैं। तारे, टिमकी और ढोलक बजाने वाले राई गीत, स्वांग, फाग, ख्याल उठाते हैं, गाते हैं और सामूहिक रूप से दोहराते हैं। राई की बजौटी (गीत-संगीत) बहुत जबर्दस्त होती है।

 

राई का राग रंग

 

  • राई नृत्य सुमरनी गीत से प्रारंभ होता है। सुमरनी में शारदा, बुद्धि बल के देवता हनुमान ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ विघ्न विनाशक गणेश और बुन्देलखण्ड के सभी लोकदेवताओं का स्मरण होता है।  


  • बलखों रे सुमिरे हनुमान सुरखों मना लऊं शारदा' मूलतः यह कला की पूजा का उपक्रम है। जहां से राई नृत्य की शुरुआत होती है। इस थोड़े से अनुष्ठान के पश्चात राई श्रृगार नृत्य की भूमि पर पहुंच जाता है। जहां से गायकों और बादयों की सोबत भी उड़ान भरती है। नृत्य पारंभ करने के पहले बेड़नियां सभी वादयों को श्रद्धा भाव से दायें हाथ की अंगुलियों से स्पर्श करके नमन करती हैं। फिर नृत्य आरंभ होता है। गायक गीत की कड़ियां उठाता है, वादय बज रहते हैं। सोहबत वाद्य बजाते हुए तीव्र स्वर में गीत की पंक्तियां सामूहिक रूप से दोहराते हैं। नर्तकियां चारों ओर घाघरा पकड़े दुमकते हुए एक चक्कर लगाती हैं। इसके बाद राई गीत के अंत में तीव्रता से सारे वाद्य घनघना उठते हैं और राई नर्तकियां मृदंग की थाप पर नृत्य का रंग बिखेरने लगती हैं। बेड़नियां राई की लोक धुन यानी लटक पर इतनी तेजी से कमर मटकाती हैं कि जिसे देखकर युवा तो युवा बूढ़ों तक का मन थिरक उठता है।

 

  • श्री मनोज ने लिखा है- "जब रात भर मशाल के प्रकाश में बेड़नी फागें, स्वांग, ख्याल, और राई गीत गाती हुई सौ चुन्नटों वाला लहँगा फहराती, हवा में चूनरी लहराती नाचती है, तब उसके अंगों की थिरकन और लटक बहुत ही आकर्षक होती है। दर्शक इकटक देखता ही रह जाता है। बेड़नी के साथ मृदंगिया वा ढोलकिया की होड़ इस नृत्य की आत्मा है। इस होड़ में ही राई नृत्य का विशेष कला पक्ष उभर कर सामने आता है।"

 

  • राई नृत्य का लोक संगीत इतना जादुई और चुम्बकीय होता है कि रात्रि के ठण्डे प्रहरों में लोग उसे दूर से सुनकर राई के अखाड़े तक खिंचे चले आते हैं। राई लोकनृत्य रात भर चलता है। एक से एक श्रृंगारपरक राई स्वांग, फाग, ख्यालों पर बेड़नी, मृदंगिया और सोहबत मंडली उर्जा के साथ राई नृत्य को दर्शक श्रोताओं के समक्ष साकार करने में समर्थ होती है। राई लोक नृत्य में बुंदेली लोक का सम्पूर्ण राग भी है और रंग भी है। यही कारण है कि बुंदेलखंड के लोग राई नृत्य को बार-बार देखकर भी अघाते नहीं हैं।

 

राई नृत्य की मुद्राएँ

 

  • जिस सामाजिक परवेश में राई नृत्य को विकसित होने का अवसर मिला है, ठीक उसी के अनुरूप राई की पारम्परिक गतियों और मुद्राओं की भी संरचनाएं हुई हैं। राई श्रृंगार प्रधान नृत्य है इसलिये उसकी सारी गतियां अधिक तीव्र, उत्तेजक और मादक होती है। चूँकि यह स्त्री और पुरुष दोनों के समन्वय का नृत्य है, इसलिए स्त्री देह का लालित्य और पुरुष देह की चपलता दोनों एक साथ दिखाई देती हैं। यही कारण है कि राई नृत्य में शिव के ताण्डव की उत्तेजना और पार्वती के लास्य की कोमल संवेदना का सम्पुट बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

 

  • राई की कई पारम्परिक मुद्राएं, जिनके कोई निश्चित नाम नहीं प्रचलित हैं, लेकिन सुविधा की दृष्टि से उन्हें ठुमकी, चकरी, गिरदी, उडान, बैठकी, कोण, गोरचाल, मोरघुसन, झटका ढडकचका और तालमेल आदि कहा जा सकता है। ये पद गतियां और हस्त मुद्राए नृत्य के बीच में कई-कई बार दोहराई जाती है और इससे बेड़नियां अपनी मोहक नृत्य मुद्राओं से मृदगिया मृदंग वादन और नर्तन से तथा सोहबत वाले राइया (मंडली) अपने सामूहिक गायन-वादन अभिनय से राई को एक सम्पूर्ण लोकनृत्य बना देते हैं।

 

  • राई नृत्य के विश्राम के मध्य में समय काटने और मनोरंजन के लिये स्वांग (नाट्य) का आयोजन राइया करते हैं। दस पन्द्रह मिनट के इस हारय प्रहसन को देखकर दर्शक श्रोता राई देखने के लिये फिर से तरोताजा हो जाते हैं। राई - स्वांग अपने आप में राई के बीच एक समग्र लोकनाट्य की तरह विकसित लोक विधा है।

 

राई नृत्य गीत-संगीत नृत्य-वादन की होड़ का परिणाम

 

  • राई नृत्य गीत-संगीत नृत्य-वादन की होड़ का परिणाम है। राई गीत प्रायः एक या दो कड़ियों के होते हैं, जिन धुन राई कहलाती है। राई गीत इसी धुन (मीटर) में रचे जाते हैं। राई गीत बुंदेली साहित्य में उद्दाम श्रृंगारपरक माने जाते हैं। राई गीत जिन्हें स्वांग भी कहते हैं. समयानुसार गायक या नर्तक तत्काल गढ़ते हैं, कई गीत परम्परागत होते हैं, जो आ के श्रेष्ठ उदाहरण होते हैं। राई स्वांग की एक पंक्ति भी गेय छन्द बन जाती है, गेय ही नहीं इन्हें रससिक्त नृत्य गीत कह सकते हैं। फाग, स्वांग, ख्याल, चौबोला नृत्य गीत बुंदेली काव्य की मधुमय समृद्ध श्रृंखला है। 


एक राई स्वांग नृत्य गीत देखिये

 

करके प्रीत निभइयो रे, दगाबाजी ने करियो,

हाय हाय रे दगाबाजी ने करियो..... 

प्रीत जो ऐसी कीजियो, ज्यों लोटा उर डोर। 

आपन गरो फसाय के पानी लाबै बोर। 

ऐसई डोर लगइयो रे, दगाबाजी न करियो ।

करके प्रीत निमइयो रे, दगाबाजी ने करियो । 

एक पंक्ति गीत भी राई का मूल गीत होता है 

भौरा काहे न भये, भौरा काहे न भये, कलिन-कलिन रस लेते। 

 मथुरा में श्याम है नईगा, सुनोरी हमारी गुड्गों, मथुरा में श्याम है

नईयां गोकुल बूंढे, वृंदावन ढूंढे, कुजो में श्याम है , सुनो री गुईया मे श्याम है। 

नईगा बूंदा चमके लिलार, बूंदा बमके लिलार, जैसे तारा भुनसरिया

 

  • अच्छे से अबम गीत (कविता). अच्छे से अच्छा संगीत (बजौटी). अच्छे से अच्छा नृत्य (नचनारी) अच्छे से अच्छा बादन (मृदंगिया). राई नृत्य की पहली शर्त है। अच्छे काव्य, संगीत, नृत्य और वादन की पारम्परिक प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप एक से एक अच्छे राई कलाकार पूर्ण दक्ष होते चले गये। कपूरे सेठ श्रेष्ठ मृदंगियों में गिने जाते हैं। शिखर सम्मान प्राप्त कनेरादेव के रामसहाय पाण्डे राई मृदंग के प्रसिद्ध मृदंनिया और नर्तक हैं जिन्हें राई नृत्य जापान ले जाने का भी श्रेय है। इनके साथ बेड़नी चन्द्रवती और गुन्नी बाई भी विदेश गई थी। राई नृत्य के कारण जागीरदार मधुकर शाह ने अंग्रेजों के खिलाफ 1872 में जन विद्रोह कर दिया था। ईसुरी ने अपने समय की दो श्रेष्ठ बेड़नियों का जिक्र किया है प्रान हरन सुंदरिया, गँगिया, एकई सी दोई बैनें।

 

  • राई नृत्य बेड़नी के नृत्य की और मृदंगिया के मृदंग वादन की होड़ देखने लायक होती है। मृदंग वादक बेडनी को छकाने की जी तोड़ कोशिश करता है। इसी तरह बेड़नी भी मृदंगिया को अपनी नृत्य कला से पराजित करने की हर मुमकिन कोशिश करती है। मृदंगिया बेड़नी के नृत्य के साथ संगत नहीं कर पाता तो नर्तकी नाचते-नाचते वादक की मृदंग पर लहंगा रख देती है। यदि मृदंगिया चपल हुआ तो वादन और नृत्य करते हुए बेड़नी को ऐसा नहीं करने देता, तब बेड़नी नृत्य करते हुए तेजी से मृदंगिया का पीछा करती है। गृदंगिया मंच के चारों ओर भागता है और मृदंग बजाते-बजाते कई कलाबाजियां दिखाता है। वादन, नर्तन और गायन की इस होड़ में राई नृत्य की उत्कर्ष कला का दर्शन होता है और इस समय दर्शक श्रोता राई नृत्य का भरपूर आनंद लेते हैं। यहीं वह निर्णायक क्षण भी आ जाता है, जब मृदंगिया के वादन की अथवा बेड़नी के नृत्य की हार-जीत होती है। यह हार जीत कला की श्रेष्ठता के लिये होती है, इसलिये विवाद या रंजिश की कोई गुंजाइश नहीं होती, बल्कि यह अवसर अगली होड़ की चुनौती का होता है।

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