महिलाओं के विरुद्ध कुप्रथाएं | महिलाओं के प्रति अपराध |Crime malpractices against women in Hindi

महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध कुप्रथाएं हिंसा  (Crime against women in Hindi)

महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध कुप्रथाएं हिंसा  (Crime against women in Hindi)


महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध कुप्रथाएं हिंसा 

 

सरकार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के अनेक प्रयासों के बाद भी देश के अनेक हिस्सों में आज भी कई कुप्रथाएं जीवित हैं। इन कुप्रथाओं को जड़ से समाप्त करने के लिए उनके मूल में छिपी सामाजिक मानसिकता को समझना आवश्यक है। आज मुख्यतः स्त्रियों के जीवन में जिन कुप्रथाओं और हिंसा के स्वरूपों को सर्वाधिक देखा जा रहा है उन्हें दो भागों में बाँटकर देखा जा सकता है- 

 

स्त्रियों के विरूद्ध हिंसा के स्वरूप  

महिलाओं के विरुद्ध कुप्रथाएं 

  • सती 
  • बाल विवाह 
  • दहेज 
  • देवदासी 
  • देह व्यापार 
  • डायन / टोनही

स्त्रियों के विरूद्ध हिंसा

  • लिंग आधारित भ्रूण हत्या 
  • कन्या शिशु हत्या 
  • घरेलू हिंसा 
  • यौन हिंसा 
  • सम्मान के लिए हत्या (आनर किलिंग )

 

महिलाओं के विरुद्ध कुप्रथाएं  Malpractices against women

 सती प्रथा 

  • मध्ययुग से ही इस क्रूर प्रथा को रोकने की अनेक चेष्टाएं हुई। यद्यपि इतिहास में यह भी दर्ज है कि सती होने से रोककर स्त्रियों को हरम में डाल दिया जाता था। 5वीं शताब्दी में कश्मीर के शासक सिकन्दर ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया था। मुगल सम्राट अकबर व पेशवाओं के अलावा ईस्ट इंडिया कम्पनी के कुछ गवर्नर जनरलों जैसे लार्ड कार्नवालिस एवं लार्ड हैस्टिंग्स ने इस दिशा में कुछ प्रयत्न किये। इस क्रूर प्रथा को कानूनी रूप से बन्द करने का श्रेय लार्ड विलियम बैंटिक को जाता है। 


  • राजा राममोहन राय ने बैंटिक के इस कार्य में सहयोग किया। राजा राममोहन राय ने अपने पत्र संवाद कौमुदी' के माध्यम से इस प्रथा का व्यापक विरोध किया। 1829 ई. में विधवाओं को जीवित जिन्दा जलाना अपराध घोषित कर दिया गया। पहले यह नियम बंगाल प्रेसीडेंसी में लागू हुआ, परन्तु बाद में 1830 ई. के लगभग इसे बम्बई और मद्रास में भी लागू कर दिया गया। 
  • 19वीं शताब्दी में यह प्रथा नियंत्रित हो गई। फिर भी, घटना अक्टूबर 2008 की है। छत्तीसगढ़ के छेछर गांव में लंबी बिमारी के बाद एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। पति की मौत से दुखी उसकी पत्नी लालमती पति की जलती चिता में कूद गयी। वहाँ उपस्थित लोगों में किसी ने उसे रोकने की चेष्टा नहीं की बल्कि आजादी के 60 साल बाद हुई इस घटना के बाद लोगों ने लालमती को सती मइया के रूप में पूजना शुरू कर दिया। 


  • इससे पहले सन् 1987 में राजस्थान में रूपकुंवर इसी प्रकार सती हुई थी। अतिशय भावुकता अथवा अवसाद में उठाये गए इस कदम का परिजनों तथा अन्य लोगों द्वारा नहीं रोका जाना इस बात का प्रमाण है कि इस मामले में आज भी मानसिकता वही है। सती आयोग (निवारण) अधिनियम 1987 (1988 में संशोधन) जैसे अधिनियमों के बाद भी इस तरह की घटनाएं समाज के दूषित मानसिकता को प्रतिबिंबित करती हैं। रूपकुंवर के सती बनने के बाद सरला माहेश्वरी ने एक कविता लिखी जिसमें वह रूपकुंवर से पूछती हैं कि क्या तुम्हें इस बात का डर था कि यदि देवी न बनी तो डायन बना दी जाओगी? उनकी यह कविता पठनीय है।

 

  • सच बतलाना रूपकंवर किसने किसने किसने तुम्हारे इस सुंदर तन-मन को आग के सुपुर्द कर दिया / क्या तुम्हें डर था कि देवी न बनी तो डायन बना दी जाओगी/ क्या तुम्हें डर था / अपने उस समाज का / जहाँ विधवा की जिंदगी काले पानी की सजा से कम कठोर नहीं होती / लेकिन फिर भी / यकीन नहीं होता रूपकंवर / कि हिरणी की तरह चमकती तुम्हारी आंखों ने / यौवन से हुलसते तुम्हारे बदन ने / आग की लपटों में झुलसने से इंकार नहीं किया होगा।

 

बाल विवाह

  • मध्ययुगीन समाज विवाह नामक संस्था पर कठोर नियंत्रण रखना चाहती थी। ताकि वयस्क होने पर इच्छा-अनिच्छा, पसंद-नापसंद, विद्रोह आदि की स्थिति से बचा जा सके। इसलिए लड़का तथा लड़की दोनों का विवाह कम उम्र में ही तय कर दिया जाता था। लड़कों को विशेषाधिकार के तहत बहुविवाह की अनुमति थी। इसके अलावा, बड़े बूढ़ों में पोते का मुंह देखने की कामना एवं विदेशी आक्रांताओं द्वारा लड़की को अपहरण तथा बलात्कार से बचाने के लिए कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। अतः कई बार 75 वर्ष के वृद्ध के साथ 5 वर्ष की कन्या ब्याह दी जाती थी। यह समस्या समय के साथ बढ़ती चली गई तथा आज भी कई समुदायों में प्रचलित है।

 

 

बाल विवाह क्या है:

भारतीय कानून के अनुसार बाल विवाह वह विवाह है जिसमें लड़की की उम्र 18 वर्ष से कम तथा लड़के की उम्र 21 वर्ष कम होती है।

 

बाल विवाह खतरनाक है क्योंकि

 

  • वैवाहिक संबंध के लिए शारीरिक तथा मानसिक रूप परिपक्वता आवश्यक है। अल्प आयु में बने यौन संबंध से लड़कियाँ कई शारीरिक व्याधियों से पीड़ित हो जाती हैं। वैवाहिक संबंध के लिए भारतीय कानून में लड़कियों की आयु 18 वर्ष तथा लड़कों की आयु 21 वर्ष होना जरूरी है।

 

  • अल्पायु में लड़कियां गर्भधारण के योग्य नहीं होती हैं। यूनिसेफ चाइल्ड मैरिज इन्फॉर्मेशन शीट के मुताबिक अगर लड़की 20 साल से कम उम्र में मां बनती है तो 5 साल की उम्र तक बच्चे की मृत्यु का अंदेशा डेढ़ गुना बढ़ जाता है। कम उम्र में गर्भधारण तथा बार-बार गर्भपात लड़कियो के जीवन के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। इसके अलावा एक सहज सा प्रश्न उठता है कि जो स्वयं बच्ची है वह भला अपने बच्चों की देख-भाल कैसे कर सकती है?

 

  • गृहस्थी का भार उठाने के लिए पति-पत्नी दोनों का मानसिक रूप से परिपक्व होना भी आवश्यक है, ताकि वे साथ मिलकर जीवन के लिए जरूरी कामों में अपनी सहभागिता निभा सकें। गृहस्थी का दायित्व नन्हें कंधों पर डाल देना एक प्रकार की अमानवीयता है। छोटी उम्र में विवाह के बाद एक लड़की अपने कई अधिकारों से वंचित कर दी जाती है। जैसे-खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई इच्छानुकूल आजीविका तथा व्यवसाय का चयन आदि।


 

दहेज प्रथा

  • प्रारंभिक काल में जब नव वधुओं को गृहस्थी आरंभ करने हेतु उपहार स्वरूप दहेज दिए जाने की शुरूआत हुई होगी तब संभवतः उन्हें इस बात का आभास नहीं रहा होगा कि यही उपहार भविष्य में नव वधुओं को जिन्दा जला दिये जाने का कारण बन जाएगा।
  • इस प्रथा के कारण आज असंख्य नव वधुयें या तो मार डाली जाती हैं अथवा नर्क समान जीवन व्यतीत करने पर विवश होती हैं। यह ऐसी प्रथा है जिससे शिक्षित वर्ग भी मुक्त नहीं है। बड़े-बड़े घरानों में भी दहेज के लिए वधुओं को प्रताड़ित किया जाता है।
  • इस समस्या का ही विस्तृत कुपरिणाम कन्या भ्रूण हत्या के रूप में हमारे सामने आया। लड़कियां बोझ समझी जाने लगीं। विवाह में होने वाले भारी भरकम खर्चों के कारण उन्हें शिक्षा से भी वंचित कर दिया गया। 
  • सरकार द्वारा 1961 में ही दहेज विरोधी कानून पारित कर दिया गया, परंतु इसका सार्थक प्रभाव नहीं दिखा। इस कानून का सहारा लोग तभी लेते हैं जब दहेज के लिए किसी नव वधू की हत्या हो जाती है। अन्यथा दहेज मांग के विरुद्ध वधु पक्ष से भी आवाज नहीं उठायी जाती है। इसका एक कुपरिणाम यह हुआ कि अमीर वर्ग इस प्रथा के जरिये अपने शान और शौकत का प्रदर्शन करने लगा। जबकि गरीब तबका बिटिया के बड़ी होते ही एड़ियां घिसने को मजबूर हो गया। यह अलग बात है कि कई बार अमीर घराने की बेटियां भी दहेज लोभियों की शिकार हो जाती हैं।

 

देवदासी प्रथा: 

  • भारत में यौन शोषण को सर्वप्रथम संस्थागत रूप देने का प्रयास है- देवदासी प्रथा यह प्रथा मुख्य रूप से दक्षिण भारत अर्थात कर्नाटक, तमिलनाडू, आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र तथा उड़ीसा में पुष्पित - पल्लवित हुई। 
  • इतिहासकारों के अनुसार इसकी शुरूआत संभवतः 6वीं शताब्दी में हुई थी। इसी काल में सर्वाधिक पुराणों की रचना हुई। विद्वानों का यह भी मानना है कि देवदासी शब्द का प्रथम प्रयोग चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया था।
  • देवदासी ऐसी स्त्रियाँ होती हैं जो आजन्म अविवाहित रहकर मंदिर में सेवा कार्य करती हैं। इस प्रथा में माता-पिता स्वेच्छा से अपनी पुत्री को बाल्यावस्था में ही देवी एलम्या को समर्पित कर देते हैं। 
  • मंदिर में ही इन्हें नृत्य संगीत की दीक्षा दी जाती थी। ईश्वर की सेवा को समर्पित देवदासियां समाज के आभिजात्य वर्ग के हाथों शोषित के लिए विवश होती थीं। इन्हें मान लेना भूल होगी क्योंकि दक्षिण भारत के मंदिरों में आज भी किसी न किसी रूप में देवदासियों का अस्तित्व है।

 

  • कर्नाटक सरकार ने 1982 में तथा आंध्र प्रदेश की सरकार ने 1988 में इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। परंतु इससे पूर्व ही अनेक कारणों से मंदिरों में देवदासियों के लिए जीवन यापन करना मुश्किल हो चुका था। 1990 में हुए एक सर्वेक्षण में 45.9 प्रतिशत देवदासियां वेश्यावृत्ति में संलग्न पायी गईं। शेष ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर मजदूर अथवा दिहाड़ी मजदूर बन गईं। परंतु यह प्रथा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। 


देह व्यापार 

  • देह व्यापार आदिकाल से अलग-अलग स्वरूपों में विद्यमान रहा है। संस्कृत श्लोकों में इन्हें रूपजीवा, पण्यैक्रोता स्त्री अर्थात जिसे रूपया देकर क्रय किया गया हो, कहा गया है। कई ग्रंथों में नगरवधु का उल्लेख मिलता है।

 

  • वर्तमान युग में देह व्यापार स्थल को हम चकला अथवा रेड लाईट ऐरिया के नाम से जानते हैं। आज देश में कुल 1170 से अधिक  ज्ञात चकला घर हैं। देश के विभिन्न कोनों से लड़कियां अपहृत कर जबरन इस धंधे में धकेली जा रही हैं। इस सामाजिक बुराई को समाप्त करने के सभी प्रयास अभी तक असफल ही साबित हुए हैं। 

 

  • दो वयस्कों के यौन संबंध को यदि वह जन शिष्टाचार के विपरीत न हो, कानून व्यक्तिगत मानता है, जो दंडनीय नहीं है। भारतीय दण्डविधान 1860 से वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक 1956 तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्य व्यापार को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं। वेश्यावृत्ति का उन्मूलन सरल नहीं है, पर ऐसे सभी संभव प्रयास किए जाने चाहिए जिससे इस व्यवसाय को प्रोत्साहन न मिले क्योंकि यह व्यवसाय एक मनुष्य के लिये या स्वयं स्त्री के लिए किसी भी प्रकार हितकर नहीं है।

 

  • परम्परागत देह व्यापार भारत में कुछ समुदाय ऐसे भी हैं जहां देह व्यापार को न केवल सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है बल्कि यह सदियों से चली आ रही परंपरा है। पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकात्ता से सटा दक्षिण परगना जिले के मधुसूदन गांव में तो वेश्यावृत्ति को जिन्दगी का हिस्सा माना जाता है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि वहां के लोग इसे कोई बदनामी नहीं मानते। उनके अनुसार यह सब उनकी जीवन शैली का हिस्सा है और उन्हें इस पर कोई शर्मिन्दगी नहीं है, इस पूरे गांव की अर्थव्यवस्था इसी धंधे पर टिकी है।

 

मध्य प्रदेश के बांछड़ा समुदाय

  • मध्य प्रदेश के बांछड़ा समुदाय में देह व्यापार सदियों से चली आ रही परम्परा है। बांछड़ा समुदाय के परिवार मुख्य रूप से मध्यप्रदेश के रतलाम, मंदसौर व नीमच जिलों में रहते हैं। इन तीनों जिलों में कुल 98 गांवों में बांछड़ा समुदाय के डेरे बसे हुए हैं।


  • मंदसौर शहर क्षेत्र सीमा में भी इस समुदाय का डेरा है। तीनों जिले राजस्थान की सीमा से लगे हुए हैं। रतलाम जिले में रतलाम, जावरा, आलोट, सैलाना, पिपलौदा व बाजना तहसील हैं। मंदसौर जिले में मंदसौर, मल्हारगढ़, गरोठ, सीतामऊ, पलपुरा, सुवासरा तथा नीमच में नीमच, मनासा व जावद तहसील हैं। 

  • मंदसौर व नीमच जिला अफीम उत्पादन के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है; वहीं इस काले सोने की तस्करी के कारण बदनाम भी है। इन तीनों जिलों की पहचान संयुक्त रूप से बांछड़ा समुदाय के परंपरागत देह व्यापार के कारण भी होती है। 


  • बांछड़ा और उनकी तरह ही देह व्यापार करने वाली प्रदेश के 16 जिलों में फैली बेडिया, कंजर तथा सांसी जाति की महिलाओं को वेश्यावृत्ति से दूर करने के लिए शासन ने 1992 में जाबालि योजना की शुरुआत की। इस योजना के तहत समुदाय के छोटे बच्चों को दूषित माहौल से दूर रखने के लिए छात्रावास का प्रस्ताव था। इस समुदाय को जिस्म फरोशी के धंधे से बाहर निकालने के कई बड़े एनजीओ भी लगातार सक्रिय हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि आगे स्थिति सुधरेगी।

 

डायन अथवा टोनही प्रथा

  • 8 अगस्त, 2015 सुबह की अखबार में एक खबर छपी कि झारखण्ड में रांची से 37 किलोमीटर दूर मांडर थाने के कजिया गांव में कुछ लोगों ने घर का दरवाजा तोड़कर महिलाओं को निकाला और उन्हें डायन बताकर मार डाला। पांचो औरतें अलग-अलग परिवार से थीं। पुलिस ने कुछ आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस अधिकारियों ने यह भी स्वीकार किया कि झारखण्ड राज्य बनने से लेकर 2015 तक 1200 महिलाओं को डायन बताकर राज्य में मार डाला गया। जबकि देश में पिछले दो दशक में 1385 महिलाओं की हत्या हो चुकी है।  

  • देश के विभिन्न हिस्सों में इस तरह की खबर छपी थीं और इस घटना के बाद भी कई औरतें डायन बताकर मार डाली गयीं। सवाल यह उठता है कि क्यों कोई औरत डायन बताकर मार डाली जाती है। विकास अध्ययन संस्थान की प्रोफेसर कंचन माथुर गांव-गांव गई और लगभग 60 डायन करार दी गई महिलाओं से मिलीं। उन्होंने पाया कि ऐसी ज्यादातर महिलाएं गरीब पिछड़े समाज से होती हैं। 
  • डायन करार दिये जाने का कारण बहुत ही छोटा है जैसे-गाय ने दूध देना बंद कर दियाकिसी बच्चे की मौत हो जाना कूंए का पानी सूख जाना आदि। जबकि कई मामलों में सम्पत्ति हड़प लेने की नीयत सामने आती है। डायन करार दी गई औरतों के साथ क्रूरतापूर्वक व्यवहार किया जाता है जैसे- बाल मूड़ देनायौन उत्पीड़नगांव से निकाल देना और अंत में हत्या कर देना। देश में अभी भी इस से संबंधित केंद्रीय कानून का अभाव है। परंतु उल्लेखनीय है कि यह कानून से अधिक स्त्रियों के प्रति सामाजिक असहिष्णुता का मामला है। स्त्री हिंसा तथा अन्य हिंसाओं के लिए अनेक कानून पहले से ही निर्मित हैं। यदि इस मामले को प्रशासनिक स्तर पर गम्भीरता से लिया जाता तो संभवतः स्थिति इतनी भयावह नहीं होती।

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