अर्थ परिवर्तन की दिशाएं | अर्थ विस्तार अर्थ संकोच अर्थादेश अर्थोपकर्ष अथोत्कर्ष| Arth Parivartan Ki Dishayen

अर्थ परिवर्तन की दिशाएं, अर्थ विस्तार अर्थ संकोच अर्थादेश अर्थोपकर्ष  अथोत्कर्ष

अर्थ परिवर्तन की दिशाएं | अर्थ विस्तार अर्थ संकोच अर्थादेश अर्थोपकर्ष  अथोत्कर्ष| Arth Parivartan Ki Dishayen

अर्थ परिवर्तन

 

  • भाषा परिवर्तन शील है। जिस प्रकार शब्द की भाषिक ध्वनियों में परिवर्तन उसके रूप को परिवर्तित कर देता हैउसी प्रकार शब्द के अर्थ में परिवर्तन उसके मूल भाव या विचार को बदल देता है। 


  • अर्थ के कारण शब्द की चेतना में गति है। भाषा विकास शब्दार्थ की चेतना का ही विकास है जो विभिन्न देशकालपरिस्थितियों में सतत रूप से परिवर्तन के माध्यम से सक्रिय रहता है। विद्वानों का भी मानना है कि भाषा कभी गतिहीन नहीं होती। उसका गतिहीन होना या जड़ होना ही उसकी मृत्यु होना है। 


  • भाषा के विकास में उसकी गतिशीलता बहुत सूक्ष्म रूप में होती है जिसका प्रभाव ध्वनिगठनशब्दरूपशब्दार्थ आदि में देखा जा सकता है। विद्वानों का मानना है कि शब्द के रूपगत परिवर्तनों का आधार मनुष्य का बाह्येन्द्रियाँ हैं और अर्थगत परिवर्तन का सीधा सम्बंध उसके मानस जगत से है। 


  • अर्थ परिवर्तन का अध्ययन व्यक्तिसमाज और उसकी जातीय संस्कृति के विकास के विभिन्न सोपानों को उद्घाटित करता है। आधुनिक भाषाविदों का यह मानना है कि पहले की में आधुनिक समाज में तेजी से हो रहे परिवर्तन के कारण अर्थ परिवर्तन भी अधिक हो रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भाव-विचार की संवाहिक होने के नाते भाषा के अर्थगत परिवर्तन किसी भी मानव समाज और उसकी जातीय संस्कृति के अध्ययन में अन्य भाषागत परिवर्तनों की अपेक्षा अधिक सहायक हो सकते हैं।

 

अर्थ परिवर्तन की दिशाएं

 

  • किस स्थिति विशेष में किसी शब्द का अर्थ किस दिशा में विकसित होता है - यह जानने के लिए भाषाविदों ने अनेक प्रयत्न किए किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी तक अर्थ परिवर्तन का कोई भाषा वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत नहीं किया जा सका। 


  • बीसवीं सदी में फ्रेंच भाषा वैज्ञानिक ब्रेआल' ने सर्वप्रथम अर्थ विज्ञान को भाषा विज्ञान में स्वतंत्र अध्ययन का विषय बनाया। 


उन्होंने तार्किक आधार देते हुए यह सिद्ध किया कि अर्थ विकास या अर्थ परिवर्तन की तीन दशाएं हो सकती हैं- 
  • 1. अर्थ विस्तार 2. अर्थ संकोच 3. अर्थादेश

 

अर्थ परिवर्तन की इन दिशाओं का उदाहरण सहित विस्तार से परिचय इस प्रकार है-

 

1 अर्थ विस्तार

 

  • शब्द में बिना किसी परिवर्तन के अर्थ का विस्तार होना प्रत्येक विकासशील भाषा का स्वभाव है। हिन्दी का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें यह प्रक्रिया आवश्यक और स्वाभाविक है। प्रारम्भ में शब्द का एक निश्चित अर्थ होता है किन्तु धीरे-धीरे उसके प्रयोग में विविधता आती जाती है। इसलिए वह व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होने लगता है। अपनी व्यापकता में मूल अर्थ लगभग भुला दिया जाता है और व्यापक अर्थ ही सामान्य हो जाता है। जैसे प्रारम्भ में केवल तिल के रस को 'तेलकहते थे। धीरे-धीरे सरसोंनारियलबादाम ही नहीं मिट्टीमछली के तेल को भी 'तेलकहा जाने लगा। इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी देखे जा सकते हैं- 'स्याहका अर्थ काला है। इसी से स्याही’ बना किन्तु अब लालनीलीहरी सभी तरह की 'स्याहीहैं। 'अधरनीचे के दोनों ओठों को कहते थे। अब दोनों ओष्ठों के लिए 'अधरप्रयुक्त होता है। वीणा बजाने में पारंगत व्यक्ति को प्रवीणकहा जाता था। अब किसी भी कार्य में कुशल व्यक्ति को प्रवीणकहते हैं। इसी प्रकार ग्रंथ’ का प्रारम्भिक अर्थ 'गूँथनाया 'बाँधनाहै। कागज के पन्नों को एक में बाँधकर ग्रंथ तैयार होता था। वर्तमान में किसी भी पुस्तक के लिए 'ग्रंथशब्द का प्रयोग किया जाता है। 'ग्लास पहले केवल शीशे के होते थेअब स्टीलप्लास्टिकचाँदीथर्मोकोल के भी ग्लास चलने लगे हैं। खोयी हुई गायों को खोजने के लिए 'गवेषणाशब्द चलता था। 
  • अब किसी भी खोजपूर्ण लेखन या कार्य के लिए गवेषणाका प्रयोग होता है जैसे गवेषणात्मक लेख या साहित्य। इसी प्रकार हवन-पूजा में प्रयुक्त होने वाली विशेष प्रकार की छोटी घास 'कुशको लाने वाले को कुशल’ कहते थे । अर्थ विस्तार में इसका अर्थ ठीक तरह से कुशल मंगल) हो गया। सब्ज (हरा रंग) से 'सब्जीबना अर्थात हरे रंग की सब्जी होती थी। अब * ( कुशल पूर्वककिसी भी रंग की सब्जी को 'सब्जीकहते हैं। व्यक्तिवाचक संज्ञा अर्थात व्यक्तियों के नामें पर भी अर्थ विस्तार देखा जा सकता है जो उनके गुणों और कार्यों के कारण रूढ़ हो गया। जैसे विभीषण (घर का भेदिया)नारद (लड़ाई लगाने वाला)जयचंद (देशद्रोही)भगीरथ (असम्भव को सम्भव करने वाला)मंथरा (कुमंत्रणा करने वाली)सती-सावित्री (पतिव्रता)कुबेर (धनाढ्य व्यक्ति) आदि।

 

  • इसी प्रकार संख्यावाची शब्दों में भी अर्थ विस्तार की प्रवृत्ति दृष्टव्य है। भारतीय दण्ड विधान में 420 की धारा धोखाखड़ी और 110 नम्बर की धारा जनता की निगाह में बुरे व्यक्ति पर लगती है। इसी आधार पर धोखेबाज व्यक्ति के लिए 'चार सौ बीसऔर बुरे व्यक्ति के लिए दस नम्बरी’ शब्द चलने लगा। साठ वर्ष की उम्र में पहले व्यक्ति की बुद्धि और सोचने-समझने की क्षमता क्षीण होने लगती थी। शायद रिटायरमेंट की उम्र इसीलिए साठ रखी गयी थी। सठियानाअर्थ इसी सन्दर्भ में विकासित हुआ है। भाषा में अर्थ विस्तार की प्रवृत्ति स्वाभाविक है। यद्यपि इसके उदाहरण अधिक नहीं मिलते क्योंकि भाषा में ज्यों-ज्यों विकास होता हैउसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं और छोटी से छोटी वस्तुओं को प्रकट करने की क्षमता भी विकसित होती जाती है।

 

2 अर्थ संकोच 

  • भाषा के विकास में अर्थ-संकोच महत्वपूर्ण है। प्रारम्भ में शब्दों का अर्थ सामान्य रहा होगा। सामान्य या विस्तृत अर्थ जब विशिष्ट अर्थ में सीमित हो जाता हैतो इसे अर्थ-संकोच कहते हैं। 
  • तात्पर्य यह है कि विशिष्टीकरण की प्रक्रिया में अर्थ की व्यापकता सीमित या संकुचित हो जाती है। जैसे मृगशब्द को ही लें। प्रायः सभी पशुओं के लिए 'मृगशब्द प्रचलित था। इसी से 'मृगया' (पशुओं का शिकार करना) बना किन्तु धीरे-धीरे यही 'मृगकेवल हिरन के अर्थ में संकुचित हो गया। 
  • अर्थ परिवर्तन के अन्तर्गत अर्थ-संकोच की प्रवृत्ति को भाषा वैज्ञानिकों ने अन्य प्रवृत्तियों (अर्थ-विस्तारअर्थादेश आदि) से अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण माना है। बाबू श्यामसुन्दर दास का मानना है के इस संकोच की सविस्तार कथा लिखी जाय तो अर्थ-विचार का अत्यंत मनोरंजक और शिक्षाप्रद अंग तैयार हो जाय। इसी प्रकार पाश्चात्य भाषाविद् ब्रील का कथन है कि राष्ट्र या जाति जितनी ही अधिक विकसित होगीउसकी भाषा में अर्थ संकोच के उदाहरण उतने ही अधिक मिलेंगे। 
  • डॉ हरदेव बाहरी का भी मानना है कि भाषा में सापेक्षता या सुनिश्चिता लाने के लिए अर्थ-संकोच आवश्यक भी है। अर्थ-संकोच से भाषा का व्यवहार स्थिर और समृद्ध होता है। अतः अर्थ-संकोच की अपेक्षा अर्थ-प्रसार की प्रक्रिया कम होती है क्योंकि भाषा का लक्ष्य विचारों या भावों को अधिक से अधिक स्पष्ट रूप में व्यक्त करना होता है।


अर्थ-संकोच के उदाहरण

विशेषकर जब वह साहित्य और ज्ञान-विज्ञान का माध्यम बन जाती है। निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा अर्थ-संकोच की प्रवृत्ति को अच्छी तरह समझा जा सकता है- 

  • शब्द - सामान्य अर्थ - अर्थ संकोच 
  • जलज- जल से उत्पन्न सभी वस्तुएं - कमल 
  • गो- चलने वाला प्राणी मनुष्यपशु -गाय 
  • खग - आकाश में उड़ने वाला -पक्षी 
  • रसाल -रस से पूर्ण वस्तु -आम 


  • इसी प्रकार वत्सबाछाबछेड़ापाड़ाछौनामेमनाचूजापोआपिल्लाआदि सभी शब्दों का अर्थ 'बच्चाहै किन्तु अर्थ-संकुचन के कारण ये क्रमशः मनुष्यगायघोड़ाभैंससुअर, , भेंड़साँप और कुत्ते के बच्चे के विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। 


डॉ हरदेव बाहरी ने अर्थ-संकोच की निम्नलिखित स्थितियाँ बतायी है -

 

1. विशेषण लगने पर बार (द्वार) = चौबारापुरुष = राजपुरुषकाल महाकाल 

2. विशेषण के विशेष्य और विशेष्य के विशेषण में लुप्त होकर समाने पर पत्र = समाचार पत्रजन्माष्टमी = कृष्ण जन्माष्टमीलगन= शुभ लगनचाल = खोटी चाल 

3. समानार्थक शब्द इकट्ठा होने पर एक का अर्थ-संकोच हो जाता है जैसे - भात और भत्तागर्भिणी (स्त्री) और गाभिन (गायभैंस)चून (चूर्ण) और चूना

 

  • इसी प्रकार समास उपसर्गप्रत्यय द्वारा भी किसी शब्द के अर्थ की विशिष्टीकरण प्रक्रिया होती हैं जो अर्थ-संकोच के ही उदाहरण हैं। जैसे- घनश्याम और पीताम्बर का अर्थ कृष्ण के लिएदशानन रावण के लिएगजवदन गणेश के लिए संकुचित हो गया।

 

3 अर्थादेश

 

  • भावों की समानता के कारण कभी-कभी शब्द के मुख्य अर्थ के साथ अन्य गौण अर्थ भी चलने लगते हैं। कुछ समय बाद मुख्य अर्थ तो लुप्त हो जाता है और गौण अर्थ ही प्रचलन में मुख्य हो जाता है। इस तरह मुख्य अर्थ के लोप होने और उसके स्थान पर नवीन अर्थ के चलन को अर्थादेशकहते हैं। जैसे - असुरपहले देववाची शब्द था जिसका अर्थ 'देवताथा किन्तु असुरअब 'राक्षसवाचीशब्द हो गया है। इसी प्रकार 'मौनशब्द 'मुनिसे बना है। आरम्भ में इसका प्रयोग मुनियों के विशुद्ध आचरण के लिए होता था। अब 'मौनचुप रहने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। वर’ का अर्थ 'श्रेष्ठथा। अब यह 'दूल्हेके लिए प्रयुक्त होता है। यद्यपि 'दूल्हाशब्द भी 'दुर्लभसे बना है। कन्या के लिए दूल्हा खोजना आसान तो नहीं दुर्लभ कार्य है। बंगला भाषा में 'गृह’ से हिन्दी में घरबना जिसका अर्थ हिन्दी में तो घर है किन्तु बंगला में 'कमरा । 

अच्छे-बुरे भाव की दृष्टि से  अर्थादेश के दो भेद किए गये हैं - 

1. अर्थोपकर्ष 

2. अथोत्कर्ष

 

अर्थोपकर्ष - 

  • सामाजिक दृष्टि से किसी शब्द का प्रारम्भ में अच्छा अर्थ जब बुरे भाव में परिवर्तित हो जाता हैतब अर्थोपकर्ष होता है। जैसे- भक्त के अर्थ में प्रयुक्त 'हरिजनशब्द का अर्थ जाति विशेष तक सीमित होकर रह गया। 'जुगुप्साशब्द पालने या छिपाने के अर्थ में चलता था। अब उसका अर्थ 'घृणाहै। यह भी देखा गया है कि तत्सम् शब्द तो अच्छे भाव के अर्थ में है किन्तु उसी से विकसित तद्भव शब्द बुरे या हीन भाव अर्थ में प्रचलित हो जाता है। गर्भिणी’ से विकसित गाभिनको ही लें। गर्भिणी स्त्रियों के लिए है और गाभिन पशुओं के लिए प्रणाली (रास्तायुक्ति) से निकला 'पनारीया 'पनारा' (गंदी नाली या नाला) भी इसी अर्थोपकर्ष के उदाहरण हैं।

 

अर्थोत्कर्ष 

  • यह अर्थोपकर्ष का उल्टा है। इसमें पूर्व में प्रचलित बूरे भाव का अर्थ बाद में अच्छे भाव के अर्थ में प्रचलित हो जाता है। जैसे 'मुग्धऔर 'साहसशब्दों के अर्थ को देखें। संस्कृत में 'मुग्घका अर्थ मूढ़के लिए होता था। अब वह मोहित होने के अर्थ में चलता है। इसी प्रकार 'साहसपहले व्यभिचारहत्या जैसे बुरे भाव का शब्द थाअब तो 'साहसऔर 'साहसीकी सभी प्रशंसा करते हैं किन्तु 'दुस्साहसकी नहीं।

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