भोजन उत्पादन एवं पशुपालन । Food Production and Animal Husbandry

 भोजन उत्पादन एवं पशुपालन
Food Production and Animal Husbandry

भोजन उत्पादन एवं पशुपालन । Food Production and Animal Husbandry



भोजन उत्पादन एवं पशुपालन 

 

  • भारत की जनसंख्या बहुत अधिक है। हमारे देश की जनसंख्या सौ करोड़ से अधिक है तथा इसमें लगातार वृद्धि हो रही है। इस बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए अधिक अन्न उत्पादन की आवश्यकता है। यह वृद्धि अधिक भूमि पर कृषि करने से सम्भव हो सकती है। परन्तु भारत में पहले से ही अत्यधिक स्थान पर खेती होती है। अतः कृषि के लिए और अधिक भूमि की उपलब्धता सम्भव नहीं है। इसलिए फसल तथा पशुधन के उत्पादन की क्षमता को बढ़ाना आवश्यक है।

 

  • केवल फसल उत्पादन बढ़ाने तथा उन्हें गोदामों में संचित करने से ही कुपोषण तथा भूख की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। लोगों को अनाज खरीदने के लिए धन की आवश्यकता भी होती है। खाद्य सुरक्षा उसके उत्पादन तथा उपलब्धता दोनों पर निर्भर है। हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या अपने जीवनयापन के लिए कृषि पर ही निर्भर है इसलिए कृषि क्षेत्र में लोगों की आय भी बढ़नी चाहिए जिससे कि भूख की समस्या का समाधान हो सके। कृषि से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए हमें वैज्ञानिक प्रबन्धन प्रणालियों को अपनाना होगा। सम्पूषणीय जीवनयापन के लिए मिश्रित खेती, अन्तरा फसलीकरण तथा संघटित कृषि प्रणालियों को अपनाना चाहिए। उदाहरण के लिए पशुधन, कुक्कुट पालन, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन के साथ कृषि इत्यादि।

 

फसल उत्पादन में उन्नति Progress in Crop Production

 

  • विभिन्न फसलों के लिए विभिन्न जलवायु सम्बन्धी परिस्थितियों, तापमान तथा दीप्तिकाल (Photoperiods) की आवश्यकता होती है जिससे कि उनकी समुचित वृद्धि हो सके और वे अपना जीवन चक्र पूरा कर सकें। दीप्तिकाल सूर्य प्रकाश के काल से सम्बन्धित होता है। पौधों में पुष्पन तथा वृद्धि सूर्य प्रकाश पर निर्भर करती है।

 

ऋतुओं के आधार पर फसलों का वर्गीकरण

 

रबी फसल 

  • यह अक्टूबर-नवम्बर में बोई जाती है और मार्च अप्रैल में काट ली जाती है। उदाहरण गेहूँ, जो, मटर, चना, सरसोंराईआलू आदि। 

 

खरीफ फसल

  • यह जून-जुलाई में बोई जाती है और सितम्बर अक्टूबर में काट ली जाती है। 
  • उदाहरण धान, गन्ना, तिलहन, ज्वार, बाजरामक्का, अरहर आदि। 

जायद फसल

  • यह मई-जून में बोई जाती है और जुलाई-अगस्त में काट ली जाती है। 
  • इसकी मुख्य फसलें हैं राई, मक्का, ज्वार, जूट, मडुआ आदि।

 


भारत में सन् 1960 से सन् 2004 तक कृषि भूमि में 25% की वृद्धि हुई है जबकि अन्न की पैदावार में चार गुनी वृद्धि हुई है। 

फसल उत्पादन में सुधार की प्रक्रिया में प्रयुक्त गतिविधियों को निम्न प्रमुख वर्गों में बाँटा गया है-

 

फसल की किस्मों में सुधार 

फसल उत्पादन प्रबन्धन 

फसल सुरक्षा प्रबन्धन

 

फसल की किस्मों में सुधार (Renovation in Varieties of Crops)

 

  • फसलों का उत्पादन अच्छा हो, यह प्रयास फसलों की किस्मों के चयन पर निर्भर करता है। फसल की किस्मों या प्रभेदों के लिए विभिन्न उपयोगी गुणों (जैसे रोग प्रतिरोधक क्षमता, उर्वरक के प्रति अनुरूपता, उत्पादन की गुणवत्ता तथा उच्च उत्पादन ) का चयन प्रजनन द्वारा कर सकते हैं।

 

  • फसल की किस्मों में ऐच्छिक गुणों को संकरण द्वारा डाला जा सकता है। संकरण विधि से विभिन्न आनुवंशिक गुणों वाले पौधों में संकरण) अथवा अन्तरावंशीय (विभिन्न जेनरा में) हो सकता है। फसल सुधार की दूसरी विधि है ऐच्छिक वाले जीन का डालना। इसके परिणामस्वरूप आनुवंशिकीय रूपान्तरित होती है।

 

  • नये प्रभेदों को अपनाने से पहले यह आवश्यक है कि फसल की किस्म विभिन्न परिस्थितियों में, जो विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होती है, अच्छा उत्पादन दे सकें। किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाले विशेष बीज उपलब्ध होने चाहिए अर्थात् बीज उसी किस्म के होने चाहिए जो अनुकूल परिस्थिति में अंकुरित हो सकें।

 

  • कृषि प्रणालियाँ तथा फसल उत्पादन मौसम, मिट्टी की गुणवत्ता तथा पानी की उपलब्धता पर निर्भर करते हैं। चूँकि मौसम परिस्थितियाँ, जैसे सूखा तथा बाढ़ का पूर्वानुमान होता है इसलिए ऐसी किस्में अधिक उपयोगी हैं जो विविध जलवायु परिस्थितियों में भी उग सकें। इसी प्रकार ऐसी किस्में बनाई गई है जो उच्च लवणीय मिट्टी में भी उग सकें।

 

किस्मों में सुधार के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं -

(i) उच्च उत्पादन प्रति एकड़ फसल की उत्पादकता बढ़ाना। 

(ii) उन्नत किस्मे फसल उत्पाद की गुणवत्ता, प्रत्येक फसल में भिन्न होती है। दाल में प्रोटीन की गुणवत्ता, तिलहन में तेल की गुणवत्ता और फल तथा सब्जियों का संरक्षण महत्त्वपूर्ण है। 

(iii) जैविक तथा अजैविक प्रतिरोधकता जैविक (रोग, कीट तथा निमेटोड) तथा अजैविक (सूखा, क्षारता, जलावन्ति, गर्मी, ठण्ड तथा पाला) परिस्थितियों के कारण फसल उत्पादन कम हो सकता है। इन परिस्थितियों को सहन कर सकने वाली किस्में फसल उत्पादन में सुधार कर सकती हैं। 

(iv) परिपक्वन काल में परिवर्तन फसल को उगाने से लेकर कटाई तक कम-से-कम समय लगाना आर्थिक दृष्टि से अच्छा है। इससे किसान प्रतिवर्ष अपने खेतों में कई फसलें उगा सकते हैं। कम समय होने के कारण फसल उत्पादन में लागत क्षमता भी कम खर्च होती है। समान परिपक्वन कटाई की प्रक्रिया को सरल बनाता है और कटाई के दौरान होने वाली फसल की हानि कम हो जाती है। 

(v) व्यापक अनुकूलता व्यापक अनुकूलता वाली किस्मों का विकास करना विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में फसल उत्पादन को स्थायी करने में सहायक होगा। एक ही किस्म को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न जलवायु में उगाया जा सकता है। 

(vi) ऐच्छिक सस्य विज्ञान गुण चारे वाली फसलों के लिए लम्बी तथा सघन शाखाएँ ऐच्छिक गुण हैं अनाज के लिए बौने पौधे उपयुक्त हैं ताकि इन फसलों को उगाने के लिए कम पोषकों की आवश्यकता हो। इस प्रकार सस्य विज्ञान वाली किस्में अधिक उत्पादन प्राप्त करने में सहायक होती हैं।

 

फसल उत्पादन प्रबन्धन Crop Production Management 

  • अन्य कृषि प्रधान देशों के समान भारत में भी कृषि छोटे-छोटे खेतों से लेकर बहुत बड़े फार्मों तक में होती है। इसलिए विभिन्न किसानों के पास भूमि, धन, सूचना तथा तकनीकी की उपलब्धता कम अथवा अधिक होती है। 
  • किसान की लागत क्षमता फसल तन्त्र तथा उत्पादन प्रणालियों का निर्धारण करती है। इसलिए उत्पादन प्रणालियाँ भी विभिन्न स्तर की हो सकती हैं। 'बिना लागत' उत्पादन, 'अल्प लागत' उत्पादन तथा 'अधिक लागत' उत्पादन प्रणालियाँ इनमें सम्मिलित हैं।

 

पोषक प्रबन्धन Nutritious Managemen

  • जैसे हमें विकास, वृद्धि तथा स्वस्थ रहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है, वैसे ही पौधों को भी वृद्धि के लिए पोषक पदार्थों की आवश्यकता होती है। पौधों को पोषक पदार्थ हवा, पानी तथा मिट्टी से प्राप्त होते हैं। पौधों के लिए 16 पोषक पदार्थ आवश्यक हैं। हवा से कार्बन तथा ऑक्सीजन, पानी से हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन एवं शेष 13 पोषक पदार्थ मिट्टी से प्राप्त होते हैं। इन 13 पोषकों में से 6 की अधिक मात्रा चाहिए इसलिए इन्हें वृहत् पोषक कहते हैं। शेष 7 पोषकों की आवश्यकता कम मात्रा में होती है इसलिए इन्हें सूक्ष्म पोषक कहते हैं।

 

  • इन पोषकों की कमी के कारण पौधों की शारीरिक प्रक्रियाओं सहित जनन, वृद्धि तथा रोगों के प्रति प्रवृत्ति पर प्रभाव पड़ता है। अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए मिट्टी में खाद तथा उर्वरक के रूप में इन पोषकों को मिलाना आवश्यक है।

 

हवा, पानी से प्राप्त होने वाले पोषक

 हवा -कार्बन, ऑक्सीजन 

पानी -हाइड्रोजन ऑक्सीजन


मृदा से मिलने वाले पोषक 

(i) वृहत पोषक नाइट्रोजनफॉस्फोरसपोटैशियमकैल्शियम मैग्नीशियमसल्फर

(ii) सूक्ष्म पोषक आयरनमैंगनीज बोरॉनजिंककॉपर,मॉलिब्डेनमक्लोरीन 


खाद क्या होता है 

  • खाद में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है तथा यह मिट्टी को अल्प मात्रा में पोषक प्रदान करते हैं। खाद को जन्तुओं के अपशिष्ट तथा पौधों के कचरे के अपघटन से तैयार किया जाता है। खाद मिट्टी को पोषकों तथा कार्बनिक पदार्थों से परिपूर्ण करती है और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है। खाद में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा मिट्टी की संरचना में सुधार करती है। इसके कारण रेतीली मिट्टी में पानी को रखने की क्षमता बढ़ जाती है। चिकनी मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा पानी को निकालने में सहायता करती है जिससे पानी एकत्रित नहीं होता।

 

  • खाद के बनाने में जैविक कचरे का उपयोग किया जाता है। इससे उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग की आवश्यकता नहीं होती तथा इस प्रकार से पर्यावरण संरक्षण में सहायता मिलती है। खाद बनाने की प्रक्रिया में विभिन्न जैव पदार्थों के उपयोगों के आधार पर खाद को निम्न वर्गों में विभाजित किया जाता है-

 

(i) कम्पोस्ट तथा वर्मी कम्पोस्ट 

  • कम्पोस्टीकरण प्रक्रिया में कृषि अपशिष्ट पदार्थ जैसे पशुधन का मलमूत्र (गोबर आदि), सब्जी के छिलके एवं कचरा, जानवरों द्वारा परित्यक्त चारे, घरेलू कचरे, सीवेज कचरे, फेंके हुए आदि को गड्ढ़ों में विगलित करते हैं। कम्पोस्ट में कार्बनिक पदार्थ तथा पोषक बहुत अधिक मात्रा में होते हैं। कम्पोस्ट को केंचुओं द्वारा पौधों तथा जानवरों के अपशिष्ट पदार्थों के शीघ्र निरस्तीकरण की प्रक्रिया द्वारा बनाया जाता है। इसे वर्मी कम्पोस्ट कहते हैं।

 

(ii) हरी खाद 

  • फसल उगाने से पहले खेतों में कुछ पौधे जैसे-पटसन, मूँग अथवा ग्वार आदि उगा देते हैं और तत्पश्चात् उन पर हल चलाकर खेत की मिट्टी में मिला दिया जाता है। ये पौधे हरी खाद में परिवर्तित हो जाते हैं, जो मिट्टी को नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस से परिपूर्ण करने में सहायक होते हैं। 


र्वरक क्या होते हैं ?

  • उर्वरक व्यावसायिक रूप में तैयार पादप पोषक हैं। उर्वरक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम प्रदान करते हैं। इनके उपयोग से अच्छी कायिक वृद्धि (पत्तियाँ, शाखाएँ तथा फूल) होती है और स्वस्थ्य पौधों की प्राप्ति होती है। अधिक उत्पादन के लिए उर्वरक का भी उपयोग होता है परन्तु ये आर्थिक दृष्टि से महँगे पड़ते हैं।

 

  • उर्वरक का उपयोग बड़े ध्यान से करना चाहिए और उसके सदुपयोग के लिए इसकी खुराक की उचित मात्रा, उचित समय तथा उर्वरक देने से पहले तथा उसके बाद की सावधानियों को अपनाना चाहिए। उदाहरण के लिए कभी-कभी उर्वरक अधिक सिंचाई के कारण पानी में बह जाते हैं और पौधे उसका पूरा अवशोषण कर पाते। उर्वरक की यह अधिक मात्रा जल प्रदूषण का कारण होती है।

 

  • उर्वरक का सतत् प्रयोग मिट्टी की उर्वरता को घटाता है, क्योंकि कार्बनिक पदार्थ की पुनः पूर्ति नहीं हो पाती तथा इससे सूक्ष्मजीवों एवं भूमिगत जीवों का जीवन चक्र अवरुद्ध होता है। उर्वरकों के उपयोग द्वारा फसलों का अधिक उत्पादन कम समय में प्राप्त हो सकता है। परन्तु यह मृदा की उर्वरता को कुछ समय पश्चात् हानि पहुँचाते हैं। जबकि खाद के उपयोग के लाभ दीर्घावधि हैं।

 

सिंचाई 

  • भारत में अधिकांश खेती वर्षा पर आधारित है अर्थात् अधिकांश क्षेत्रों में फसल की उपज, समय पर मानसून आने तथा वृद्धिकाल में उचित वर्षा होने पर निर्भर करती है। इसलिए कम वर्षा होने पर फसल उत्पादन कम हो जाता है। फसल की वृद्धि काल में उचित समय पर सिंचाई करने से सम्भावित फसल उत्पादन में वृद्धि हो सकती है। इसलिए अधिकाधिक कृषि भूमि को सिंचित करने के लिए बहुत से उपाय किए जाते हैं।

 

  • भारत में पानी के अनेक स्रोत हैं और विभिन्न प्रकार की जलवायु है। इन परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार की सिंचाई की विधियाँ पानी के स्रोत की उपलब्धता के आधार पर अपनायी जाती हैं। इन स्रोतों के कुछ उदाहरण कुएँ, नहरे, नदियाँ तथा तालाब हैं।

 

  • कुएँ कुएँ दो प्रकार के होते हैं-खुदे हुए कुएँ तथा नलकूप खुदे हुए कुएँ द्वारा भूमिगत जल स्तरों में स्थित पानी को एकत्रित किया जाता है। नलकूप में पानी गहरे जल स्तरों से निकाला जाता है। इन कुओं से सिंचाई के लिए पानी को पम्प द्वारा निकाला जाता है।

 

  • नहरें यह सिंचाई का एक बहुत विस्तृत तथा व्यापक तन्त्र हैं। इनमें पानी एक या अधिक जलाशयों अथवा नदियों से आता है। मुख्य नहर से शाखाएँ निकलती हैं जो विभाजित होकर खेतों में सिंचाई करती हैं।

 

  • नदी जल उठाव प्रणाली जिन क्षेत्रों में जलाशयों से कम पानी मिलने के कारण नहरों का बहाव अनियमित अथवा अपर्याप्त होता है वहाँ जल उठाव प्रणाली अधिक उपयोगी रहती है। नदियों के किनारे स्थित खेतों में सिंचाई करने के लिए नदियों से सीधे ही पानी निकाला जाता है।

 

  • तालाब छोटे जलाशय जो छोटे क्षेत्रों में बहे हुए पानी का संग्रह करते हैं, तालाब का रूप ले लेते हैं। कृषि में पानी की उपलब्धि बढ़ाने के लिए आधुनिक विधियाँ, जैसे वर्षा के पानी का संग्रहण तथा जल विभाजन का उचित प्रबन्धन द्वारा उपयोग किया जाता है। इसके लिए छोटे बाँध बनाने होते हैं जिससे कि भूमि के नीचे जलस्तर बढ़ जाए। ये छोटे बाँध वर्षा के पानी को बहने से रोकते हैं तथा मृदा अपरदन को भी कम करते हैं।

 

फसल पैटर्न क्या होता है 

  • अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए फसल उगाने की विभिन्न विधियों को उपयोग कर सकते हैं। मिश्रित फसल में दो अथवा दो से अधिक फसलों को एक साथ ही एक खेत में उगाते हैं। जैसे कि-गेहूँ + चना अथवा गेहूँ + सरसों अथवा मूँगफली + सूर्यमूखी। इससे हानि होने की सम्भावना कम हो जाती है क्योंकि फसल के नष्ट हो जाने पर भी फसल उत्पादन की आशा बनी रहती है।

 

  • अन्तराफसलीकरण में दो अथवा दो से अधिक फसलों को एक साथ एक ही खेत में निर्दिष्ट पैटर्न पर उगाते हैं। कुछ पंक्तियों में एक प्रकार की फसल तथा उनके एकान्तर में स्थित दूसरी पंक्तियों में दूसरी प्रकार की फसल उगाते हैं। इसके उदाहरण हैं- सोयाबीन + मक्का अथवा बाजरा + लोबिया फसल का चुनाव इस प्रकार करते हैं कि उनकी पोषक तत्वों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न हों जिससे पोषकों का अधिकतम उपयोग हो सके। इस विधि द्वारा पीड़क व रोगों को एक प्रकार की फसल के सभी पौधों में फैलने से रोका जा सकता है। इस प्रकार दोनों फसलों से अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

 

  • किसी खेत में क्रमवार नियोजित कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न फसलों के उगाने को फसल चक्र कहते हैं। परिपक्वन काल के आधार पर विभिन्न फसल सम्मिश्रण के लिए फसल चक्र अपनाया जाता है। एक कटाई के बाद कौन-सी फसल उगानी चाहिए यह नमी तथा सिंचाई की उपलब्धता पर निर्भर करता है। यदि फसल चक्र उचित ढंग से अपनाया जाए तो एक वर्ष में दो अथवा तीन फसलों से अच्छा उत्पादन किया जा सकता है।

 

फसल सुरक्षा प्रबंधन 

  • फसल सुरक्षा खेतों में फसल खरपतवार, कीट, पीड़क तथा रोगों से प्रभावित होती हैं। यदि समय रहते खरपतवार तथा पीड़कों को नियन्त्रित नहीं किया जाए तो वे फसलों को बहुत हानि पहुँचाते हैं। खरपतवार योग्य भूमि में अनावश्यक पौधे होते हैं उदाहरणतः गोखरू (जैथियम), गाजर घास (पारथेनियम) व मोथा (साइरेनस रोटेडस)। ये खरपतवार भोजन, स्थान तथा प्रकाश के लिए स्पर्धा करते हैं। खरपतवार पोषक तत्व भी लेते हैं जिससे फसलों की वृद्धि कम हो जाती है। इसलिए अच्छी पैदावार के लिए प्रारम्भिक अवस्था में ही खरपतवार को खेतों में से निकाल देना चाहिए।

 

प्रायः कीट-पीडक तीन प्रकार से पौधो पर आक्रमण करते हैं 

ये मूल, तने तथा पत्तियों को काट देते हैं, .

2. ये पौधे के विभिन्न भागों से कोशिकीय रस चूस लेते हैंतथा 

3. ये तने तथा फलों में छिद्र कर देते हैं। इस प्रकार ये फसल को खराब कर देते है और फसल उत्पादन कम हो जाता है। 


  • पौधों में रोग बैक्टीरिया, कवक तथा वायरस जैसे रोग कारकों द्वारा होता है। ये मिट्टी, पानी तथा हवा में उपस्थित रहते हैं और इन माध्यमों द्वारा ही पौधों में फैलते हैं। 
  • खरपतवार, कीट तथा रोगों पर नियन्त्रण कई विधियों द्वारा किया जा सकता है। इनमें से सर्वाधिक प्रचलित विधि पीड़कनांशी रसायन का उपयोग है। इसके अन्तर्गत शाकनाशी, कीटनाशी तथा कवकनाशी आते हैं। इन रसायनों को फसल के पौधों पर छिड़कते हैं अथवा बीज और मिट्टी के उपचार के लिए उपयोग करते हैं। लेकिन इनके अधिकाधिक उपयोग से बहुत सी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे कि ये कई पौधों तथा जानवरों के लिए विषैले हो सकते हैं और पर्यावरण प्रदूषण के कारण बन जाते हैं। 
  • यान्त्रिक विधि द्वारा खरपतवारों को हटाना भी एक विधि है। निरोधक विधियाँ जैसे-समय पर फसल उगाना, उचित क्यारियाँ तैयार करना, अन्तराफसलीकरण तथा फसल चक्र खरपतवार को नियन्त्रित करने में सहायक होती हैं। पीड़कों पर नियन्त्रण पाने के लिए प्रतिरोध क्षमता वाली किस्मों का उपयोग तथा ग्रीष्म काल में हल से जुताई कुछ निरोधक विधियाँ हैं। इस विधि में खरपतवार तथा पीड़कों को नष्ट करने के लिए के मौसम में गहराई तक हल चलाया जाता है।

 

फसल का भण्डारण Storage of Cereals 

  • कृषि उत्पाद के भण्डारण में बहुत हानि हो सकती है। इस हानि के जैविक कारक कीट, छंतक, कवक, चिंचड़ी तथा जीवाणु हैं तथा इस हानि के अजैविक कारक भण्डारण के स्थान पर उपयुक्त नमी व ताप का अभाव हैं। ये कारक उत्पाद की गुणवत्ता को खराब कर देते हैं, वजन कम कर देते हैं तथा अंकुरण करने की क्षमता कम कर देते हैं। उत्पादक को बदरंग कर देते हैं। ये सब लक्षण बाजार में उत्पाद की कीमत को कम कर देते हैं। इन कारकों पर नियन्त्रण पाने के लिए उचित उपचार और भण्डारण का प्रबन्धन होना चाहिए।

 

  • निरोधक तथा नियन्त्रक विधियों का उपयोग भण्डारण करने से पहले किया जाता है। इन विधियों के भण्डारण से पहले उत्पाद की नियन्त्रित सफाई को अच्छी तरह सुखाना (पहले सूर्य के प्रकाश में और फिर छाया में) तथा धूमक (Fumigation) का उपयोग, जिससे कि पीड़क मर जाए, सम्मिलित हैं।

 

पशुपालन Animal Husbandry

 

  • पशुधन के प्रबन्धन को पशुपालन कहते हैं। इसके अन्तर्गत बहुत से कार्य . जैसे- पशुओं को भोजन देना, उनके प्रजनन की व्यवस्था करना तथा उनके रोगों पर नियन्त्रण करना आता है।

 

  • जनसंख्या वृद्धि तथा रहन-सहन के स्तर में वृद्धि के कारण अण्डों, दूध तथा माँस की खपत भी बढ़ रही है। पशुधन के लिए मानवीय व्यवहार के प्रति जागरूकता होने के कारण पशुधन खेती में कुछ नई परेशानियाँ भी आ गई हैं। इसलिए पशुधन उत्पादन बढ़ाने व उसमें सुधार की आवश्यकता है।

 

  • पशु कृषि पशुपालन के दो उद्देश्य हैं दूध देने वाले तथा कृषि कार्य (हल चलाना, सिंचाई तथा बोझा ढोने) के लिए पशुओं को पालना। भारतीय पालतू पशुओं की दो मुख्य स्पीशीज हैं-गाय (बॉस इण्डिकस), भैंस (बॉस बुवेलिस) दूध देने वाली मादाओं को दुधारू पशु कहते हैं।

 

  • दूध उत्पादन, पशु के दुग्ध स्रवण के काल पर कुछ सीमा तक निर्भर करता है। जिसका अर्थ है बच्चे के जन्म के पश्चात् दूध उत्पादन का समय काल। इस प्रकार दूध उत्पादन दुग्ध स्रवण काल को बढ़ाने से बढ़ जाता है।

 

  • लम्बे समय तक दुग्ध स्रवण काल के लिए विदेशी नसलों जैसे- जर्सी स्विस का चुनाव करते हैं।

 

  • देशी नस्लों जैसे- रेडसिन्धी, साहीवाल में रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत अधिक होती है। यदि इन दोनों नस्लों में संकरण कराया जाए तो एक ऐसी सन्तति 'तो' प्राप्त होगी जिसमें दोनों ऐच्छिक गुण (रोग प्रतिरोधक क्षमता व लम्बा दुग्ध-स्रवण काल ) होंगे।

 

  • कुक्कुट (मुर्गी पालन अण्डे व कुक्कुट माँस के उत्पादन को बढ़ाने के लिए मुर्गी पालन किया जाता है इसलिए कुक्कुट पालन में उन्नत मुर्गी की नस्लें विकसित की जाती हैं। अण्डों के लिए अण्डे देने वाली (लेअर) मुर्गी पालन किया जाता है तथा माँस के लिए ब्रौलर को पाला जाता है। रजत क्रान्ति का सम्बन्ध अण्डे के उत्पादन में आशातीत वृद्धि से है।

 

  • मत्स्य उत्पादन (मछली उत्पादन) हमारे भोजन में मछली प्रोटीन का एक समृद्ध स्रोत है। मछली उत्पादन में पंखयुक्त मछलियाँ, कवचीय मछलियाँ जैसे प्रॉन तथा मोलस्क सम्मिलित हैं। मछली प्राप्त करने की दो विधियाँ हैं- एक प्राकृतिक स्रोत (जिसे मछली पकड़ना कहते हैं) तथा दूसरा स्रोत मछली पालन ( या मछली संवर्धन)। मत्स्य उत्पादन के लिए मछली पालन का सहारा लिया जाता है। मथुमक्खी पालन मधु तथा मोम को प्राप्त करने के लिए मधु मक्खी पालन किया जाता है। इस समय यह एक कृषि उद्योग का रूप ले चुका है।

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