लिखित संप्रेषण वर्णात्मक लिपि देवनागरी लिपि में वर्ण व्यवस्था। Written Communication in Hindi

लिखित संप्रेषण वर्णात्मक लिपि  देवनागरी लिपि में वर्ण व्यवस्था

लिखित संप्रेषण वर्णात्मक लिपि  देवनागरी लिपि में वर्ण व्यवस्था। Written Communication in Hindi


लिखित संप्रेषण ( Written Communication)

 

  • स्वरूप एवं विकास मानव सभ्यता के विकास के साथ जीवन शैली की जटिलताओं में भी वृद्धि हुई है। ऐसे में प्रत्येक वस्तु का चित्र लिपि में अंकन करना कठिन हो गया। साथ ही अमूर्त भावनाओं और अनेक प्रकार के क्रियाकलापों की अभिव्यक्ति भी इस लिपि से भली प्रकार नहीं हो सकती थी। परिणामस्वरूपलिपि क्रमशः प्रतीकात्मकता की ओर अग्रसर हुई। 

  • लिपि के विकास का अगला चरण शब्द लेखन था। इसके अंतर्गत लिपि प्रतीक वस्तु नहीं बल्कि शब्द होते थे। आज हमारी अधिकतर लिपियाँ ध्वनि पर आधारित हैं।
  • अर्थात् किसी क्रम में साथ रखते हैंजैसे - 'कमलशब्द के लिए हम '', 'तथा 'ध्वनि प्रतीकों को उसी क्रम में रख देते हैं और उनका इकट्ठा उच्चरित रूप उसी रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करता है। इसमें वस्तु का चित्रांकन नहीं होता। एक वस्तु के लिए एक ही निश्चित चिह्न होता है। 
  • लेखन में शब्दों के उन प्रतीक चिह्नों को चित्र लिपि की ही भाँति क्रम से प्रस्तुत किया जाता है। इस दृष्टि से यह चित्र लिपि से कुछ-कुछ मिलती हैकिंतु इसमें अमूर्त भावनाओंविविध क्रियाओं आदि का द्योतन भी हो सकता है। इससे इसकी क्षमता तथा क्षेत्र चित्र लिपि से बहुत अधिक है। चीनी भाषा की लिपि इसी प्रकार की है। इस परिवार की लिपि में संसार का श्रेष्ठ साहित्य भी लिखा गया हैकिंतु इसकी भी कुछ सीमाएँ हैं। मुख्य बात तो यही है कि भाषा में शब्दों की संख्या बढ़ती रहती है। 
  • यदि हर शब्द के लिए एक प्रतीक रखा जाए तो प्रतीकों की संख्या इतनी अधिक हो जाएगी कि उन्हें याद रखना भी संभव नहीं हो पाएगा। इतने प्रतीकों को समझनापढ़ना और लिखनायह सब कुछ अत्यधिक श्रमसाध्य है। इसमें जटिल भावनाओंक्रियाओं एवं अमूर्त संकल्पनाओं के लिए प्रयुक्त शब्दों का विश्लेषण तथा अर्थबोध भी कठिन होगा।

 

1 वर्णात्मक लिपि व्यवस्था

 

  • लेखन संप्रेषण में अधिक स्पष्टता लाने के लिए आक्षरिक लेखन व्यवस्था अस्तित्व में आई। इसमें पूरे शब्द के लिए एक लिपि चिह्न न होकर अलग-अलग अक्षरों के लिए लिपि चिह्न निर्धारित किए गए। इसके अंतर्गत शब्दों में प्रयुक्त अक्षरों के लिपि चिह्न को जोड़कर शब्द लिखा जा सकता था। अक्षरों की संख्या शब्दों की अपेक्षा कम होती हैअतः इस श्रेणी की लिपि को याद रखना और लिखना शब्द लेखन की अपेक्षा आसान था। यह लेखन प्रति अक्षरों की ध्वनियों पर आधारित थी। आगे चलकर यही वर्णात्मक लिपि व्यवस्था का आधार बनी।

 

  • वर्णात्मक लिपि व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से अधिक सहज और वैज्ञानिक सिद्ध हुई। इसमें लिपि चिह्नों का आधार अक्षरों के स्थान पर वर्ण बने अक्षरों में एक से अधिक अक्षरों का मेल हो सकता हैकिंतु वर्णों के द्वारा भाषा की ध्वनियों का बिल्कुल मूल रूप में प्रतिनिधित्व होता है। भाषा की ध्वनियों के संदर्भ में स्वनिम पर भी चर्चा आवश्यक है। 
  • प्रत्येक भाषा की अपनी विशिष्ट ध्वनियाँ होती हैं जिन्हें उस भाषा के स्वनिम कहते हैं। किसी भाषा की ध्वनि व्यवस्था के अंतर्गत आने वाले स्वनिम वर्ण तो होते ही हैंकिंतु किसी लिपि चिह्न के रूप में अभिव्यक्त होकर भी वे वर्ण कहे जाते हैं। यथा - हिन्दी में 'वर्ण 'ध्वनि का प्रतीक है और जब भी वह वर्ण लिखा जाएगाउसका उच्चारण 'ही होगा। जिस प्रकार उच्चारण में एक या एक से अधिक ध्वनियाँ मिलकर एक शब्द बनाती हैंउसी प्रकार लेखन में ध्वनियों के प्रतीक वर्ण उसी क्रम में आकर उसी शब्द को लिखित रूप प्रदान करते हैं जैसे हिन्दी के शब्द 'पानीमें चार ध्वनियाँ प्+आ+न+ई प्रयुक्त हुई हैं। 
  • लेखन में इन्हीं के प्रतीक इसी क्रम में आकर शब्द को लिखित आकार में प्रस्तुत करते हैं। यह चित्रलिपि या शब्द चित्र लेखन की अपेक्षा अत्यधिक सरल है क्योंकि क्योंकि इसमें हर वर्ण किसी वस्तु या शब्द का प्रतीक न होकर भाषा की किसी ध्वनि अर्थात् स्वनिम का प्रतीक होता है। चित्र लिपि या शब्द चित्र लेखन में जहाँ असंख्य वस्तुओं या असंख्य शब्दों के लिए असंख्य लिपि चिह्नों की आवश्यकता होती हैचाहे उन वस्तुओं के नामों या शब्दों में ध्वनियों की कितनी ही समानता क्यों न हो। वर्ण लेखन में केवल भाषा की ध्वनियों से संबंधित वर्णों की पहचान करनी होती है। इनकी संख्या सीमित होती है। भाषा किसी भी ध्वनि समूह या शब्द कुछ वर्णों की सहायता से लिखा जा सकता है।

 

  • भाषाविज्ञान की दृष्टि से लिखित भाषिक संप्रेषणमौखिक संप्रेषण का प्रतिबिंब है। वर्णात्मक लिपि व्यवस्था में यह प्रतिबिंब अत्यंत सहज एवं स्पष्ट होता है। अंग्रेजी आदि भाषाओं में एक ही वर्ण कई बार एकाधिक ध्वनियों के लिए प्रयुक्त होता हैउदाहरण के लिएअंग्रेजी का वर्ण कभी 'और कभी 'के लिए प्रयुक्त होता हैजैसे city और cut. इसी प्रकार से G 'और 'का उच्चारण होता हैजैसे- goat और genious. 

 

2- देवनागरी लिपि में वर्ण व्यवस्था

 

  • संस्कृतहिन्दी आदि भाषाओं के लिए प्रयुक्त देवनागरी लिपि को विश्व की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि माना जाता है। इसमें प्रायः ध्वनि या स्वनिम के लिए एक निश्चित वर्ण का ही प्रयोग होता हैं। एक निश्चित वर्ण हमेशा एक निश्चित ध्वनि का ही प्रतिनिधित्व करता हैजैसे- वर्ण 'का प्रयोग हमेशा 'ध्वनि के लिए ही होगाकिसी अन्य ध्वनि के लिए नहीं।

 

  • वर्णों के लोप और आगम का भी भाषा में विशेष महत्व है। इसके द्वारा भाषा गतिशील होती है। इसमें समय के साथ परिवर्तन भी होते रहते हैं। लिपि में से कभी-कभी कुछ वर्ण संबंधित ध्वनियों का उपयोग न होने के कारण लुप्त भी हो जाते हैंजैसे काफी पहले 'वर्ण को हिन्दी की वर्णमाला में भी रखा जाता था किंतु हिन्दी में इस ध्वनि का प्रयोग न होने के कारण यह वर्ण लुप्त हो गया। कभी-कभी कुछ अनावश्यक वर्ण भाषा में संरक्षित भी हो जाते हैं। कारण यह कि उच्चारण के स्तर पर भाषा में परिवर्तन की गति तीव्र होती है। लिखित भाषा में यह अपेक्षाकृत धीमा होता है।
  • इसीलिए उच्चरित भाषा में कोई ध्वनि लुप्त हो जाती है लेकिन लिखित भाषा में उसका लिपि प्रतीक बना रहता हैजैसे- 'तथा 'ध्वनियों का उपयोग 'रितथा 'के रूप में हो रहा है। फिर भी इनके प्रतीक वर्णों ऋ और श का भी प्रयोग हो रहा है। उच्चारण के स्तर पर ऋतु रितु और शेष = शेष हो गया है। ऐसी स्थितियों में कहीं-कहीं ध्वनि तथा लिपि चिह्न = का सामंजस्य टूट जाता हैकिंतु मानक वर्णमाला में ऋ और श का प्रयोग जारी रखा गया है।

 

  • भाषा के विकास के साथ उसमें नए-नए लिपि-चिह्न या विशेषक का आगमन भी हो सकता है। प्रत्येक भाषा की अपनी ध्वनि व्यवस्था होती है। अन्य भाषाओं से संपर्क के कारण भाषा में दूसरी भाषाओं की शब्दावली भी आ जाती हैसाथ ही उन शब्दों से जुड़ी ध्वनियाँ भी। उदाहरण के तौर पर हिन्दी में अरबी-फारसीतुर्कीअंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों के माध्यम से कज़फू तथा आँ ध्वनियाँ आ गई हैं। इन ध्वनियों के तद्भव हिन्दी रूपों का भी इस्तेमाल किया जाता है और अर्थबोध में कठिनाई भी नहीं होतीजैसे कायदाखबरगबनजेब्रा फायदाकॉलेज को कायदाखबरजेब्रा फायदा और कॉलेज कहने पर भी अर्थबोध में कठिनाई नहीं होगी किंतु उस भाषा में यदि उन्हीं ध्वनि-समूह का कोई और शब्द पहले से मौजूद है तो अर्थबोध कठिन हो जाएगाजैसे

 

  • हॉल (बड़ा कमरा ) - हाल (दशा) 
  • ताक (आला) - ताक (टकटकी)
  • खैर (कुशल) -खैर (कथा)
  • गौर (ध्यान) -गौर (पार्वती)
  • गज़ (नाप ) -गज (हाथी) 
  • फ़न (हुनर )-फन (नाग का फन) आदि

 

  • ऐसी स्थिति में सही अर्थ ग्रहण के लिए मूल उच्चारणों की रक्षा करना उचित होता है।हिन्दी नागरी लिपि में ऐसे कई आगत वर्ण हैं। 


  • भाषा में अर्थ संप्रेषण केवल वर्णों से बने शब्दों के माध्यम से ही नहीं होता। वक्ता के बोलने की शैली पर भी अर्थबोध निर्भर करता है। इसे विराम एवं बलाघात कहते हैं जो केवल ध्वनि या वर्ण का विषय नहीं हैजैसे-

 

रोको मत जाने दो।
रोको मतजाने दो।
यह राम की किताब है। 
यह राम की किताब है?



  • यहाँ बोलने की शैली और लेखन-चिह्नों का विशेष महत्व है। उसी के अनुरूप संप्रेषण का भाव प्रकट होता है।

  • लिपि लेखन की इस उपयोगिता के कारण ही वाक् को भाषा का प्रमुख और स्वाभाविक माध्यम माना गया है। लेखन को वाक् के गौण तथा दृश्य माध्यम का स्थान दिया गया है। यह तथ्य भी प्रमुख है कि भाषा का जन्म वाक् प्रतीकों की व्यवस्था के रूप में हुआ है। प्रत्येक सामान्य मानव शिशु को बोलना सहज रूप से अनायास ही आ जाता है। लेकिन आज के समय और समाज में भाषा का लिखित रूप में संप्रेषण अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है। यह सही है कि भाषा को लिखने और पढ़ने वालों की संख्या इसे बोलने वालों की तुलना में काफी कम हैक्योंकि पढ़ना और लिखना एक अर्जित कौशल है। इसे सीखना पड़ता हैकिंतु इस संप्रेषण कौशल को अर्जित करना भी आज के समय की अनिवार्यता है। यह समाचारपत्र पढ़नेपत्र लिखने या ज्ञानार्जन या डिग्री लेने तक सीमित नहीं है। हमारे चारों ओर यातायात संबंधी निर्देश संस्थान अस्पतालस्कूल कॉलेजदूकानबसरेलवे आदि जगह साइनबोर्ड नंबर अथवा अन्य जानकारी सूचना आदि लेखन के माध्यम से ही हमारे सामने आते हैं। अतः लिपि के ज्ञान के बिना व्यक्ति का दैनिक जीवन अधूरा है।

 

  • संप्रेषण के माध्यम लेखन के द्वारा मनुष्य ने समाज में भौगोलिक दूरियों को मिटाकर परस्पर संबंध तथा संपर्क को और अधिक आसान बना दिया है। लेखन के द्वारा दो व्यक्ति आमने-सामने न होकर भी संपर्क कर सकते हैं। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हमें विश्व भर की जानकारी मिलती हैहमारा ज्ञान वर्धन होता है। मौखिक जानकारी की तुलना में लिखित जानकारी अधिक सुविधाजनक और प्रामाणिक होती है। इसे संरक्षित भी किया जा सकता है। इसे जरूरत पड़ने पर बार-बार पढ़ा जा सकता है। लेखन के द्वारा अध्ययन क्षेत्र भी विस्तृत हुआ है। आज विद्यार्थी के लिए भी लेखन का माध्यम सर्वाधिक सुगम है। केवल शिक्षक आधारित ज्ञान प्रायः मस्तिष्क की एकाग्रता की कमी एवं स्थानकालपरिस्थिति के भेद से सदैव ग्राह्य नहीं हो पाता । पुरानी रटंत प्रक्रिया में व्यय होने वाले समय को भी बचाया जा सकता है।

 

  • लेखन के द्वारा मानकता तथा स्थिरता भी प्राप्त होती है। मौखिक या उच्चरित संप्रेषण में परिवर्तन जल्दी-जल्दी घटित होते हैं। लिखित संप्रेषण में यह गति धीमी होती है। यथा - - हिन्दी में 'बाबूजीशब्द पूर्वी क्षेत्र में 'बाऊजीऔर 'बौजीभी हो जाता है किंतु लेखन में इसे हर क्षेत्र में 'बाबूजीही लिखा जाता है। इससे हर क्षेत्र के व्यक्ति को अर्थबोध हो जाता है। लिखित संप्रेषण मौखिक की अपेक्षा अधिक औपचारिक भी होता है। इससे मानकता का तत्व जुड़ जाता है। लिखित संप्रेषण में अधिकतम वर्तनीशब्दावलीसंरचना और व्याकरण में मानक रूप को सुरक्षित रखा जा सकता है जो अध्ययन में काफी सहायक होती है।

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