भाषा शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त विधियाँ एवं लक्ष्य । Theories method and aim of Language Teaching in Hindi

भाषा शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त विधियाँ  एवं लक्ष्य

भाषा शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त विधियाँ  एवं लक्ष्य । Theories method and aim of Language Teaching in Hindi

भाषा शिक्षण के प्रमुख सिद्धान्त Main Theories of Language Teaching

 

भाषा शिक्षण के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त दिए हैं जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है- 

 

अनुबन्धन का सिद्धान्त Theory of Conditioning 

  • भाषा विकास में अनुबन्धन या साहचर्य का बहुत योगदान है। शैशवावस्था में जब बच्चे शब्द सीखते हैंतो सीखना अमूर्त नहीं होता हैबल्कि किसी मूर्त वस्तु से जोड़कर उन्हें शब्दों की जानकारी दी जाती है। उदाहरण के लिए कलम कहने के साथ उन्हें कलम दिया जाता हैपानी या दूध कहने पर उन्हें पानी या दूध दिखाया जाता है। इसी तरह बच्चे विशिष्ट वस्तु या व्यक्ति से साहचर्य स्थापित करते हैं और अभ्यास हो जाने पर सम्बन्ध वस्तु या व्यक्ति की उपस्थिति पर सम्बन्धित शब्द से सम्बोधित करते हैं।

 

अनुकरण का सिद्धान्त Theory of Imitation 

  • चैपिनीजशर्लीकर्टी तथा वैलेन्टाइन आदि मनोवैज्ञानिकों ने अनुकरण के द्वारा भाषा सीखने पर अध्ययन किया है। इनका मत है कि बालक अपने परिवारजनों तथा साथियों की भाषा का अनुकरण करके सीखते हैं। जैसी भाषा जिस समाज या परिवार में बोली जाती है बच्चे उसी भाषा को सीखते हैं। यदि बालक के समाज या परिवार में प्रयुक्त भाषा में कोई दोष हो तो उस बालक की भाषा में भी दोष परिलक्षित होता है।

 

चॉमस्की का भाषा अर्जित करने का सिद्धान्त Chomsky's Theory of Language Acquisition 

  • चॉमस्की का कहना है कि बच्चे शब्दों की निश्चित संख्या से कुछ निश्चित नियमों का अनुकरण करते हुए वाक्यों का निर्माण करना सीख जाते हैं। इन शब्दों से नये-नये वाक्यों एवं शब्दों का निर्माण होता है। इन वाक्यों का निर्माण बच्चे जिन नियमों के अन्तर्गत करते हैं उन्हें चॉमस्की ने जेनेरेटिव ग्रामर की संज्ञा प्रदान की है।

 

अभिप्रेरणा एवं रुचि का सिद्धान्त Theory of Motivation and Interest

  • हिन्दी पाठ्य सामग्री और उसकी शिक्षण प्रणालियों का चुनाव बच्चों की रुचि एवं आवश्यकताओं के अनुरूप किया जाना चाहिएउन्हे भाषा सीखने हेतु अभिप्रेरित करने के लिए यह आवश्यक है। 


क्रियाशीलता का सिद्धान्त Theory of Creativity

 

  • क्रियाशीलता बालकों को सीखने के क्रम में खुशी प्रदान करती है। इसलिए अधिकतर शिक्षा-शास्त्रियों ने भाषा शिक्षण में इस सिद्धान्त को अपनाए जाने की सिफारिश की है। क्रियाशीलता के लिए छात्रों से प्रश्न पूछेना, स्कूल के साहित्यिक कार्यक्रम चलाना, छात्रों को उसमें क्रियाशील रखना, पाठों का अभ्यास कराना, मौखिक व लिखित कार्य कराना, आदि कार्य किए जा सकते हैं।

 

अभ्यास का सिद्धान्त Theory of Practice

 

  • थॉर्नडाइक ने कहा है, "भाषा एक कौशल है और इसका विकास अभ्यास पर ही निर्भर है।" भाषा के कलात्मक एवं भाव दोनों पक्षों के लिए अभ्यास सर्वथा आवश्यक है।

 

जीवन समन्वय का सिद्धान्त Theory of Life Coordination

 

  • मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि बच्चे उन विषयों एवं क्रियाओं में अधिक रुचि लेते हैं, जो उनके वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होती हैं। अतः अध्यापक को चाहिए कि वह बच्चों को पढ़ाने के लिए जिस सामग्री का चयन करे, उसका सम्बन्ध बच्चों के जीवन से अवश्य हो।

 

निश्चित उद्देश्य एवं पाठ्य सामग्री का सिद्धान्त Theory of Fixed Objectives and Text Material

  • हिन्दी भाषा शिक्षण के एक नहीं अनेक उद्देश्य होते हैं। हमें बच्चों के ज्ञान, कौशल, रुचि एवं अभिवृत्ति का विकास करना होता है। प्रत्येक उद्देश्य की प्राप्ति एक निश्चित अनुपात में होनी चाहिए। अध्यापक को शिक्षण से पूर्व पाठ के उद्देश्य और उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विषय सामग्री का चयन बच्चों के स्तर के अनुकूल करना चाहिए।

 

वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त Theory of Individual Difference

 

  • एक की कक्षा के छात्रों में वैयक्तिक विभिन्नताएँ होती हैं। कोई छात्र शुद्ध उच्चारण नहीं करता, तो किसी का लेख स्पष्ट नहीं होता, किसी का वाचन ठीक नहीं, तो किसी का लेख अशुद्ध होता है, कोई मौन पाठ नहीं कर पाता तो कोई कई बार याद करने पर भी तथ्य भूल जाता है। इसलिए अध्यापक को इन सबकी वैयक्तिक विभिन्नता एवं कठिनाइयों को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य सम्पन्न करना चाहिए।

 

अनुपात एवं क्रम का सिद्धान्त Theory of Ratio and Series

 

  • भाषा-शिक्षण का मूल उद्देश्य भाषा-कौशलों में छात्रों को निपुण करना होता है। भाषा-कौशल मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं। लेखन कौशल, अभिव्यक्ति कौशल, वाचन / पठन कौशल एवं श्रवण कौशल। ये सभी भाषा-कौशल आपस में सम्बन्धित हैं। अतः इन सभी का समुचित ज्ञान आवश्यक है। यदि बालक किसी एक भाषा-कौशल में निपुण और अन्य में फिसड्डी है, तो इसे शिक्षण की असफलता ही माना जाएगा। इन सभी कौशलों का अनुपात सही होना चाहिए।


बोलचाल का सिद्धान्त Theory of Conversion 

  • भाषा-शिक्षण बोलचाल के माध्यम से होनी चाहिए। इससे भाषा सीखने में कम समय लगता है और इस प्रकार प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी रहता है साथ ही इससे बालकों की सर्जनात्मक शक्ति एवं अभिव्यक्ति कौशल में भी वृद्धि होती है।

 

चयन का सिद्धान्त Theory of Selection

 

  • हिन्दी भाषा शिक्षण के लिए कब किस सिद्धान्त या पद्धति का सहारा लिया जाए, इसकी ठीक जानकारी अध्यापक को होनी चाहिए। किसी पाठ को किस रूप में प्रस्तुत करके छात्रों को सरल एवं सहज ग्राह्य बनाया जाए, इसके लिए अध्यापक को बहुमुखी प्रयास करना चाहिए और जो रूप अधिक प्रभावकारी हो, उसका चयन करना चाहिए, जिससे छात्र लाभान्वित हो सकें।

 

बाल केन्द्रिता का सिद्धान्त Child-centered Theory 

  • भाषा-शिक्षण के समय इस बात पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए कि शिक्षण का केन्द्र बालक है। अध्यापक को अध्यापन के समय इतना आत्मविभोर नहीं होना चाहिए कि बालक विस्मृत हो जाए। इसलिए भाषा शिक्षण का केन्द्र बालक हो । भाषा शिक्षण में बालक के स्वभाव, क्षमता, रुचि, स्तर आदि का ध्यान रखा जाना सर्वाधिक आवश्यक है।

 

शिक्षण सूत्रों का सिद्धान्त Theory of Teaching Formulae 

  • शिक्षण के कुछ सामान्य सूत्र हैं जिनके अनुसार शिक्षण कार्य करने से बच्चों को सीखने में सरलता, सुगमता और स्थायित्व प्राप्त होता है जैसे- 'सरल से कठिन की ओर', 'ज्ञात से अज्ञात की ओर', 'मूर्त से अमूर्त की ओर', 'विशिष्ट से सामान्य की ओर', 'आगमन से निगमन की ओर', 'विश्लेषण से संश्लेषण की ओर' आदि । शिक्षण के इन सूत्रों का आधार और पालन करने से शिक्षण अधिक प्रभावकारी होता है।

 

साहचर्य का सिद्धान्त Theory of Association

 

  • बच्चे दूसरों को सुनकर बोलना तो सीखते ही रहते हैं, किन्तु इस प्रकार के अधिगम के लिए पर्याप्त संख्या में उसे इस भाषा के बोलने वालों का साहचर्य मिलना आवश्यक है। बच्चा माँ को माँ या मम्मी को कहने के साथ पहचानना और समझना तभी सीख सकेगा जब माँ के उच्चारण के साथ स्वयं माँ को और पिताजी या पापा के उच्चारण के साथ स्वयं पिता को भी देखेगा।

 

आवृत्ति का सिद्धान्त Theory of Repetition

 

  • मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि भाषा सीखने में आवृत्ति का बहुत महत्त्व है। सीखी हुई बात को जितना अधिक दोहराया जाएगा वह उतने ही अधिक देर तक याद रहेगी। इसलिए भाषा शिक्षण में पुनरावृत्ति पर भी विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता होती है।

 

परिपक्वता का सिद्धान्त Theory of Maturity 

  • परिपक्वता का तात्पर्य है कि भाषा अवयवों एवं स्वरों पर नियन्त्रण होना। बोलने में जब जिह्ना, गला, तालु, होठ, दाँत तथा स्वर यन्त्र आदि जिम्मेदार होते हैं इनमें किसी भी प्रकार की कमजोरी या कमी वाणी को प्रभावित करती है। इन सभी अंगों में परिवक्वता होती है तो भाषा पर नियन्त्रण होता है और अभिव्यक्ति अच्छी होती है।

 

भाषा शिक्षण की विधियाँ Methods of Language Teaching 

  • भाषा और सीखने (भाषिक और अधिगम) से सम्बन्धित अनेक विधियाँ हैं। इनमें से अधिकतर विधियों का विकास द्वितीय भाषा को सीखने के सन्दर्भ में ही हुआ है। जो विधियाँ विकसित हैं उनमें से हैं- पारम्परिक व्याकरण अनुवाद विधि, प्रत्यक्ष तरीका, ऑडियो-लिंगुअल एप्रोच, कम्युनिकेटिव एप्रोच (बातचीत-आधारित सम्प्रेषणात्मक विधि), कम्प्यूटर एडेड लैंग्वेज टीचिंग (सी.ए.एल.टी), कम्युनिटी लैंग्वेज लर्निंग (सी.एल.एल.), साइलेंट वे, सजेस्टोपेडिया और टोटल फीजिकल रिस्पान्स (टी.पी.आर.) और द्वितीय-भाषा सीखने के लिए निर्धारित वषेन का मॉनिटर व शूमैन एकल्चरेशन मॉडलों से विकसित हुए तरीके।

 

भाषा शिक्षण विधियों के गुण-दोष Merits and Demerits of Language Teaching Methods

 

  • उपरोक्त बताई गई सभी विधियों के अपने-अपने गुण एवं दोष हैं। 
  • हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि इनमें से प्रत्येक का सिद्धान्त व व्यवहार के स्तर पर खास ऐतिहासिक सन्दर्भ में और खास जरूरतों को पूरा करने के क्रम में विकास हुआ। व्याकरण - अनुवाद (ग्रामर - ट्रान्सलेशन ) तरीका व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक और संरचनावादी भाषा विज्ञान के तहत औपनिवेशिक ताकतों की जरूरत पूरा करने के क्रम में जन्मा और पनपा। कुछ भी हो, यह तरीका हमें यह जरूर बताता है कि कैसे एक साहित्यिक भाषा सीखने के लिए केवल विषय-वस्तु तथा पूर्णता लिए हुए पाठ पर होना चाहिए। यदि आज हम इस विधि को अपनाएँ तो इसे कई स्तरों पर सुधारना तो पड़ेगा . ही, साथ ही हमें सीधे, ऑडियो-लिंगुअल और कम्युनिकेटिव एप्रोच (सम्प्रेषणात्मक विधि), से सीखे पाठों को ध्यान में रखना पड़ेगा, ताकि सीखे जा रहे भाषा के 'स्पोकेन' (वाक्) वाला पक्ष छूट न जाए। साइलेंट वे, सजेस्टोपेडिया और टी.पी.आर. जैसे तरीके विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने के लिए विकसित हुए थे। शोधों से पता चलता है कि टी.पी.आर.भाषा सीखने की आरम्भिक अवस्था में काफी सफल हो सकती है, खासकर सीखने वाले की हिचक दूर करने के लिए. 


ध्यान देने योग्य बातें

 

इसमें कोई शक नहीं कि प्रत्येक शिक्षक सामाजिक-मनोवैज्ञानिक, भाषिक और कक्षा की विविधता के अनुसार पढ़ाने का अपना विशिष्ट तरीका विकसित कर लेता है। नई पाठ्यचर्या को शिक्षक के सशक्तीकरण पर ध्यान देना होगा, ताकि वह कक्षा में अपने स्तर पर पहलकदमी कर सके। कुछ मुख्य बातें जिन पर गौर करना जरूरी है, निम्नलिखित हैं- 

 

सीखने वाला 

  • पढ़ाने का कोई भी तरीका हो, शिक्षार्थी को कोरी स्लेट नहीं समझना चाहिए। उसे पठन-पाठन प्रक्रिया के केन्द्र में होना चाहिए। उसकी संज्ञानात्मक सामर्थ्य व अभिरुचियों को गौर करने के उपरान्त शिक्षक को पढ़ाने के उचित तरीके पर कार्य करना चाहिए।

 

रुख 

  • शिक्षक के लिए सभी विद्यार्थियों के प्रति सकारात्मक रुख अपनाना जरूरी है। जाति, रंग, मार्म या जेंडर के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना व्यवहार से बच्चे पठन-पाठन के प्रति उत्साहित होंगे और सीखने की प्रक्रिया में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगे। साथ ही, शिक्षक का अच्छा व्यवहार बच्चे में तनाव/चिन्ता के स्तर को भी बढ़ने नहीं देता, जो सीखने की प्रक्रिया में बाधक होता है। 


बहुभाषिक 

  • एक संसाधन के रूप में कक्षा में मौजूद बहुभाषिक का भाषा-शिक्षण के लिए अच्छे प्लेटफॉर्म के रूप में उपयोग हो सकता है। बच्चों के सहयोग से कक्षाओं में बहुभाषिकतावाद प्राप्त करने का एक सुग्राही विश्लेषण शिक्षकों और शिक्षण में बहुभाषिकता के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने में सहायक होगा। इस विषय में अनुवाद एक अत्यधिक सशक्त माध्यम सिद्ध हो सकता है।

 

जेंडर और पर्यावरण के मुद्दे 

  • यह जरूरी है कि भाषा-शिक्षण के आधुनिक तरीके बच्चों को जेंडर और पर्यावरण के प्रति जागरूक करें। इन मुद्दों को सावधानी के साथ और कोमल व संवेदनशील शिक्षण-पद्धतियों के माध्यम से सामने लाया जाना चाहिए। मूल्यांकन मूल्यांकन को पठन-पाठन का ही हिस्सा होना चाहिए। जैसे ही हम सामान्य कक्षा-प्रक्रिया को परीक्षा या जाँच के लिए रोकते हैं, विद्यार्थी में तनाव पैदा होता है, वे चिन्तित रहने लगते हैं पुनः सामान्य मूड में आने में मुश्किल होती है।

 

भाषा शिक्षण के लक्ष्य Aims of Language Teaching

 

वक्ता के कथन को समझने की योग्यता

  • एक शिक्षार्थी को जो कुछ कहा गया है उसे समझने के लिए उसमें वक्ता की ओर से आने वाले विभिन्न गैर शाब्दिक संकेतों को ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए। उसमें गैर शाब्दिक संकेतों के द्वारा सुनकर और समझकर सम्बन्ध जोड़ने और अनुमान लगाने की कुशलता होनी चाहिए। 

समझ के साथ पठन की योग्यता होनी चाहिए न कि मात्र डिकोडीकरण की

  •  उसे विभिन्न व्याकरण सम्मत, अर्थगत और लिपि संकेतों के प्रयोग द्वारा आरेखित तरीके से सम्बन्धित विषयवस्तु से पठन की आदत विकसित करनी चाहिए तथा अपने पिछले ज्ञान के साथ जोड़कर निष्कर्षो द्वारा अर्थ निर्माण के योग्य होना चाहिए। उसे पठन के लिए आत्मविश्वास विकसित करना चाहिए तथा विवेचनात्मक दृष्टिकोण के साथ पढ़ते समय प्रश्न भी सामने रखने चाहिए।


सहज अभिव्यक्ति की क्षमता 

  • उसे विभिन्न परिस्थितियों में अपने सम्पेषणात्मक कौशलों को प्रयोग में लाने में समर्थ होना चाहिए। उसके खजाने में अभिव्यक्ति के कई तरीके होने चाहिए जिन्हें वह चुन सके। उसे इस योग्य भी होना चाहिए कि वह तार्किक, विश्लेषणात्मक तथा रचनात्मक ढंग से परिचर्चा में शामिल हो सके। 

सुसंगत लेखन 

  • लेखन एक यान्त्रिक कौशल नहीं है। इसमें विभिन्न सम्बद्ध युक्तियाँ अर्थात् तत्सम्बन्धी विषयों के द्वारा उस विषय को संयोजित करने एवं पयार्यवाची इत्यादि के प्रयोग द्वारा पर विचारों को सुसंगत ढंग से संयोजित करने की योग्यता के साथ-साथ व्याकरण, शब्द-ज्ञान, विषय, विराम-चिह्नों इत्यादि पर पर्याप्त नियन्त्रण इत्यादि कौशल सम्मिलित है। शिक्षार्थी को अपने विचार सहज एवं व्यवस्थित ढंग से प्रकट करने का आत्मविश्वास विकसित करना चाहिए। विद्यार्थी को अपने लिए विषय का चयन करने, विचारों को व्यवस्थित करने और श्रोता-बोध की दृष्टि से लिखने के लिए प्रोत्साहित एवं प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। यह केवल तभी सम्भव है यदि उसका लेखन एक प्रक्रिया के रूप में दिखाई दे न कि एक उत्पाद के रूप में। उसे विभिन्न उद्देश्यों से और विभिन्न परिस्थितियों में अनौपचारिक से पूर्णतः औपचारिक रूप तक लेखन का प्रयोग करना आना चाहिए।

 
विभिन्न विषयों की भाषा को समझने की योग्यता का विकास

  • विद्यालय के विषयों के अतिरिक्त विद्यार्थी को विभिन्न प्रयोजनों जैसे- संगीत, खेल-कूद, फिल्म, बागवानी, निमार्ण कार्य, पाककला इत्यादि में प्रयोग की जाने वाली विभिन्न भाषाओं को समझने और उनके प्रयोग में भी दक्ष होना चाहिए। 

भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन 

  • भाषा की कक्षा में विभिन्न शिक्षण तकनीकियाँ अपनाई जानी चाहिए। कराए जाने वाले कार्य इस प्रकार से होने चाहिए कि उससे बच्चा वैज्ञानिक प्रक्रिया के तमाम अवयवों जैसे- आँकड़ों का संकलन, आँकड़ों का अवलोकन और उनकी समानताओं और विभिन्नताओं के आधार पर उनका वर्गीकरण एवं परिकल्पना करने इत्यादि के अनुसार अग्रसर हो। इस प्रकार बच्चे की संज्ञानात्मक योग्यताओं को विकसित करने में भाषा विज्ञान के ये उपकरण महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। इससे व्याकरण के मानक नियमों को बेहतर ढंग से सीखा जा सकेगा। तथापि यह प्रक्रिया बहुभाषीय कक्षाओं में विशेष रूप से प्रभावी है।

 

सृजनात्मकता का विकास 

  • भाषा की कक्षा में एक विद्यार्थी को अपनी कल्पना और सृजनात्मकता विकसित करने के लिए पर्याप्त स्थान मिलना चाहिए। कक्षा का लोकाचार और शिक्षक-विद्यार्थी सम्बन्ध बच्चे में आत्मविश्वास विकसित करता है जिससे पाठ्य सामग्री के आदान-प्रदान और गतिविधियों में बिना अवरोध के दोनों ही सृजनात्मकता का प्रयोग करते हैं।

 

संवेदनशीलता

  • भाषा की कक्षा द्वारा विद्यार्थियों को हमारी समृद्ध संस्कृति विकसित करने एवं समकालीन जीवन के विभिन्न पहलुओं से अवगत करवाने के बेहतर अवसर उपलब्ध होते हैं। भाषा की कक्षा और पाठ्य सामग्री से विद्यार्थियों को अपने इर्द-गिर्द लोगों एवं राष्ट्र के प्रति संवेदनशील बनने के अधिक अवसर भी प्राप्त होते हैं।

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