मध्यप्रदेश का प्रादेशिक ऐतिहासिक भूगोल।Regional Historical Geography of Madhya Pradesh

प्रादेशिक भूगोल के परिप्रेक्ष्य में मध्यप्रदेश का ऐतिहासिक भूगोल

मध्यप्रदेश का प्रादेशिक ऐतिहासिक भूगोल।Regional Historical Geography of Madhya Pradesh
 

 मध्यप्रदेश का प्रादेशिक ऐतिहासिक भूगोल

  • मध्यप्रदेश को भौगोलिक प्रदेशों में वर्गीकृत करने के पीछे यही मन्तव्य है कि प्रदेश के अलग-अलग भागों की ऐतिहासिक विशिष्टताओं पर विचार किया जा सके। 
  • भौगोलिक प्रदेश विस्तृत क्षेत्रों की प्रकृति की सामान्य दशा के निर्देशक होते है किंतु भौगोलिक प्रदेशों को प्राकृतिक खांचे नहीं समझना चाहिए। 
  • सभी प्राकृतिक प्रदेशों में अंर्तसंबंध होते हैं उदाहरण के लिये मध्यप्रदेश के सभी भौगोलिक प्रदेश भौतिक संरचना की दृष्टि से एक ही क्षेत्र अर्थात् प्रायद्वीपीय भारत या दक्कन के पठार का अंग हैं इसी तरह उच्चावच के स्तर पर सभी भौगोलिक प्रदेशों में या तो अलग अनुपात में समतल उर्वर भूमि है या अनुर्वर उपत्यकायें।

 

  • उपर्युक्त भौगोलिक विशेषताऐं ऐतिहासिक भूगोल के सूचकों में भी देखी जा सकती है जैसे समतल उर्वर भूमि के सूचकों में नगर एवं अन्य सांस्कृतिक उपादानो यथा बौद्धस्तूपों, बिहारों तथा मंदिरों आदि का होना है। ये सभी मध्यप्रदेश सभी भौगोलिक प्रदेशों में पाये जाते है अंतर केवल आनुपातिक वितरण का है। मनुष्य अपने श्रम से कम बेहतर भौगोलिक प्रदेशों में भी सांस्कृतिक विकास करता है, भले ही वह सीमित क्यों न हो।

 

  • अनुर्वर उपत्यका क्षेत्रों में ऐतिहासिक भूगोल के सूचक दुर्ग होते हैं। ये दुर्ग 'गिरिदुर्ग', 'वन दुर्ग' या 'जल दुर्ग' प्रकार के हो सकते हैं। अनुर्वर उपत्यकाओं के दुर्ग समीपवर्ती छोटे उर्वर मैदानों की उत्पादकता की सुरक्षा करते हैं इस तरह से दुर्ग प्रधान क्षेत्रों का इतिहास कुछ अलग ढंग से निर्धारित और विकसित होता है।

 

  • उपर्युक्त राजनैतिक भूगोल की मान्यताओं के आधार पर यहाँ पर उर्वर समतल भूमि वाले प्राकृतिक प्रदेशों यथा मालवा का पठार एवं नर्मदा घाटी के प्रभाव नगरों तथा सांस्कृतिक उपादानों तथा स्तूपों, मंदिरों आदि के वर्णनों को जहाँ वरीयता दी है वहाँ अनुर्वर उपत्यका प्रधान क्षेत्रों में दुर्गों के वर्णनों को।

 

  • ऐतिहासिक भू राजनीति में राज्यों के विकास भौगोलिक तत्वों यथा पर्वत, नदियों आदि के प्राचीन नामों तथा भौगोलिक प्रदेशों की राजनैतिक प्रकृति पर भी विचार किया गया है। 
  • भू-राजनीति सैद्धान्तिक विवेचना की अकादमिक विधि है जिसमें भूगोल और मनुष्य के ऐतिहासिक संबंधो का विश्लेशण किया जाता है। मनुष्य ने हर प्राकृतिक शक्ति पर विजय प्राप्त की है परन्तु फिर भी भौगोलिक स्थिति पर्वतों, नदियों तथा जलवायु इत्यादि का मनुष्य के इतिहास पर गहरा प्रभाव रहा है। यह प्रभाव भू-राजनीति में राज्यों की सीमा के प्रसार और संकुचन में विशेष रूप से देखने मिलता है।

 

  • भारत की केन्द्रीय शक्तियाँ चाहे वे प्राचीन काल की हस्तिनापुर या मगध की रही हों, पूर्वमध्यकाल में दिल्ली या कन्नौज की रही हों या कि फिर विदेशी कुषाण, शक या हूण रहे हों गंगा-यमुना के उर्वर क्षेत्र पर अधिकार करने पश्चात् सदैव ही मध्यप्रदेश के समृद्ध भौगोलिक क्षेत्र मालवा पर अधिकार करने का प्रयास करते रहे हैं। मालवा की समृद्धि उसकी उर्वर मृदा पर निर्भर रही है। 
  • मध्यप्रदेश के पाँच प्राकृतिक विभागों में मालवा ही इतिहास की राजनैतिक शक्तियों की रुचि का मुख्य केन्द्र रहा है। इस रुचि का कारण मालवा की समृद्धि ही थी । मालवा मध्यप्रदेश की भू-राजनीति का सबसे बड़ा आकर्षण रहा है। 

  • शेष चार प्राकृतिक विभागों में से सबके अपने अलग गुण थे कुछ वैसे ही जैसे मालवा का गुण समृद्धि का था। मालवा यदि भारत के प्राचीनकाल के नंदों, मौर्यो, शुंगों और गुप्तों से लेकर सुल्तानों और मुगलों के साम्राज्य का यदि महत्वपूर्ण सूबा रहा यह उस क्षेत्र की भूराजनैतिक परिणिति ही थी। इसी तरह जब भी इस समृद्ध क्षेत्र के शासकों ने केन्द्रीय शक्तियों की निर्बलता का लाभ उठाया तब यह क्षेत्र भारत की समृद्धि का परिचायक भी बना उज्जयिनी के विक्रमादित्य या धार के परमार भारतीय इतिहास के कभी न भुलाये जाने वाले सुसंस्कृत राजा थे।

 

  • प्राचीन केन्द्रीय शक्तियों यथा मगध या हस्तिनापुर का प्रसार गंगा यमुना का मैदान । इस मैदान से लगा हुआ क्षेत्र विन्ध्य भू-राजनैतिक उपत्यकाओं का था। भूराजनैतिक दृष्टि से उर्वर क्षेत्र के शासकों की इस दुर्गम क्षेत्र में सीमित रुचि रही है। यह क्षेत्र उत्तराखंड से दक्षिणापथ की कुछ कष्टप्रद एवं असुरक्षित मार्गों का क्षेत्र था। भौगोलिक दुर्गमता का गुण विन्ध्यांचल की पहाड़ी प्रकृति का प्रतिफल है। प्राचीन काल से मध्यकाल तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों के पराजित राजवंशो की यह शरण स्थली रही है।

 

  • चंबल की घाटी अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण महत्वपूर्ण रही है। मध्यभारत पठार का वृहत्तर भौगोलिक प्रदेश राजस्थान तक फैला है। चंबल की घाटी या मध्यभारत पठार का पूर्वी भाग भूराजनीतिक की दृष्टि से एक गलियारा रही है, जब जब यहाँ पर शक्ति सम्पन्न राज्य रहे तब-तब मालवा केन्द्रीय शक्तियों के हाथ नहीं लग सका।

 

  • नर्मदा घाटी भूराजनीतिक दृष्टि से दो तरह से महत्वपूर्ण रही है पहला यह कि इस नदी के द्वारा पश्चिम से पूर्व की ओर प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन भारत के कालखण्डों में प्रमुख सामाजिक समूहों और राजनैतिक शक्तियों के प्रसार की दिशा और गति निश्चित हुई। यह नर्मदा तट की उपजाऊ भूमि के कारण हुआ।

 

  • सतपुड़ा पर्वत वस्तुतः अवरोधी पर्वत माला रही है। भूराजनैतिक दृष्टि से भारत उत्तराखण्ड एवं दक्षिणापथ को विभाजित करने का क्षेय इस पर्वत की दुर्गमता रही है। इसीलिए इस पर्वत के उत्तर की ओर समानान्तर बहने वाली नर्मदा को उत्तर और दक्षिण की सीमारेखा भी कहा गया। 
  • ऐतिहासिक भू-राजनैतिक अध्ययनों में प्राचीन राज्यों, नगरों, सीमाओं के विकास एवं उनकी स्थापनाओं पर विचार किया जाता है। 
  • मध्यप्रदेश की भूराजनैतिक के केन्द्र मालवा तथा अन्य भौगोलिक प्रदेशों की राजनीति की कुछ महत्वपूर्ण भूराजनैतिक विशेषताओं पर संक्षेप में यहाँ विचार किया जा रहा है। 
  • मध्यप्रदेश के क्षेत्रीय नामों में मालवा, बघेलखंड तथा बुंदेलखण्ड आज भी सुनिश्चित भौगोलिक क्षेत्रों का बोध कराते हैं। इन क्षेत्रीय नामों के पीछे ऐतिहासिक समुदायों का अपना विकास, उनकी राजनैतिक सफलतायें या असफलाओं तथा उनके प्राचीन प्रवासों की गतिविधियाँ जुड़ी है। इतिहास की अनेक महत्वपूर्ण घटनायें इन जमीनी तथ्यों से जुड़ी हुई हैं। इस विवेचना की परिधि में इन्हें भी रखा गया है। 
  • यदि संपूर्ण मध्यप्रदेश के पाँचों प्राकृतिक विभागों पर ध्यान दे तो हमें पता चलता है कि मध्यप्रदेश के अधिकतर उपजाऊ समतल मैदान या तो मालवा की उत्तर की और प्रवाहित होने वाली नदियों के हैं या कि पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नर्मदा नदी की घाटी के क्षेत्र में हैं। इनमें भी वस्तुतः विन्ध्याचल पर्वत की नदियाँ मालवा के भीतरी भागों तक प्रवेश कर गई हैं।

 

  • इस संपूर्ण मध्यप्रदेश में मालवा के चारों ओर समतल भूमि की पहाड़ियों के क्षेत्र हैं फिर चाहे वह मध्यभारत का पठार हो, विन्ध्याचल का विस्तार क्षेत्र हो या कि फिर दक्षिण में पूर्व से पश्चिम तक फैला सतपुड़ा पर्वत हो पठारी क्षेत्रों की राजनीति पूर्व मध्यकाल से लेकर उत्तर मध्यकाल तक दुर्गों से जुड़ी है। वे सभी दुर्ग चाहे वे मध्यभारत के पठार में हों, विन्ध्याचल में हों या फिर सतपुड़ा में सभी गिरिदुर्ग हैं। इन दुर्गों की स्थापना, इन पर विजय या इनमें आश्रित रहने के पश्चात् मिली पराजयें इन तीनों भौगोलिक प्रदेशों का भू राजनैतिक इतिहास की इबारत रही है, वस्तुतः ऊपरी नर्मदा घाटी भी विस्तृत पर्वतों के बीच है इसलिये भूराजनैतिक दृष्टि से वह पर्वतीय क्षेत्र ही है जहाँ पर दुर्ग महत्वपूर्ण रहे हैं। निचली नर्मदाघाटी अपने उच्चावच में मालवा के जैसी ही रही है साथ ही मालवा की सीमा पर रहने के कारण वहाँ की भूराजनीति मालवा से प्रभावित रही है।


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