मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक भूगोल की भूमिका।ऐतिहासिक भूगोल की मूलभूत अवधारणायें । MP Historic Geography Role

 मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक भूगोल की भूमिका

मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक भूगोल की भूमिका।ऐतिहासिक भूगोल की मूलभूत अवधारणायें । MP Historic Geography Role



मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक भूगोल की भूमिका

 

  • मध्यप्रदेश का इतिहास मध्यप्रदेश में मनुष्य की उपस्थिति से प्रारंभ हो जाता है। यह हजारों वर्ष पुराना इतिहास में है जिसका अध्ययन भाषाओं और लिपियों से या तो पूर्व का है या अज्ञात अपठित लिपियों के समय का इतिहास में इसे पाषाण कालीन सभ्यता से लेकर चाल्कोलिथिक सभ्यता का इतिहास कहा जाता है। इस अध्ययन की विवेचना मूलतः पुरातात्विक है। 


  • भूगोल में यह विषय वस्तु राजनैतिक भूगोल से अलग पुरा भूगोल (पैलियोज्याग्रफी) की - है। इतिहास का यह काल मनुष्य की सभ्यता का आधार काल है। 

 

  • मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक भूगोल के लेखन के पूर्व मध्यप्रदेश का संक्षिप्त इतिहास का वर्णन किया जा रहा है ताकि इतिहास और भूगोल के संबंधों पर चर्चा की जा सके परंतु उससे पहिले ऐतिहासिक भूगोल की मूलभूत अवधाणाओं पर विचार किया जा रहा है। मध्यप्रदेश की ऐतिहासिक भूगोल की भूमिका को निम्नलिखित शीर्षकों में विवेचित किया गया है।

 

(अ) ऐतिहासिक भूगोल की मूल-भूत अवधारणायें 

(स) मध्यप्रदेश का सामान्य भूगोल 

(ब) मध्यप्रदेश का परिचयात्मक इतिहास 

(द) मध्यप्रदेश के भौगोलिक प्रदेशों का वर्गीकरण 

 


ऐतिहासिक भूगोल की मूलभूत अवधारणायें

 

  • इतिहास एवं भूगोल विषयों की आधुनिक अकादमीय सीमाओं के निर्धारण के प्रारंभिक काल में ही विद्वज्जनों (जार्ज, 1924) का यह विश्वास रहा है कि मानव इतिहास के दिशा निर्धारण में भूगोल या भौगोलिक कारकों का बड़ा प्रभाव रहा है।

 

  • लगभग एक शती पहले मनुष्य के प्राचीन इतिहास तथा धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित इतिवृत्तों में जमीनी हकीकतों को देखने का कार्य प्रारंभ हुआ। 
  • कनिंघम (1924) ने वैदिक भारत की जमीनी सचाई पर ग्रंथ लिखा, लगभग उसी समय राइट (1925) ने ईसाई इतिहास की जमीनी हकीकत 'क्रुसेड्स' को अपने शोध का विषय बनाया।
  • भारत में प्राचीन ग्रंथों वेदों, बाल्मिीकि रामायण, महाभारत एवं पुराणों में वर्णित नदियों, पहाड़ों, नगरों, राज्यों इत्यादि के प्राचीन नाम, उनसे संबंधित ऐतिहासिक घटनाओं एवं व्यक्तियों के अभिज्ञान द्वारा इन अल्पज्ञात इतिहास के सूत्रों को ढूँढने का प्रयास किया, जिनसे विस्मृत कालखण्डों पर प्रकाश पड़ सकता था।

 

  • ऐतिहासिक भूगोल के अध्ययन क्षेत्र की विषय वस्तु में इस तरह स्त्रोत के रूप में प्राचीन ग्रंथों के महत्व को स्वीकार किया गया, तथा इन ग्रंथों के शोध के द्वारा भौतिक एवं सांस्कृतिक भूगोल के प्राचीन तथ्यों को उजागर करने पर बल दिया गया। परिणामतः इस विषयवस्तु पर सैकड़ों शोधपत्र एवं दर्जनों मानक पुस्तकें लिखी गईं। 
  • मध्यप्रदेश के भूगोलविद् अली (1966) ने यदि 'ज्याग्रफी आफ पुराणाज' लिखी तो इतिहासकार बाजपेई (1967) ने एक पूरा विश्वकोश 'ज्योग्रफिकल इनसाइक्लोपीडिया ऑफएंशियेंट, मेडीवल इंडिया' संपादित किया| बी.सी.ला ने (1942 से 1968 तक) आधा दर्जन से अधिक ग्रंथ लिखे जिनका विषय क्षेत्र ऐतिहासिक भूगोल था, उन्होंने इतिहास और भूगोल के इस अंतसंबंध को प्राचीन धर्मों, जातियों इत्यादि में भी ढूंढा, फलतः इस विषय के अध्ययन क्षेत्र का विस्तार हुआ। 
  • ऐतिहासिक भूगोल के विस्तार के साथ क्रमबद्ध अध्ययन जुड़ने प्रारंभ हुये अर्थात् देश, प्रदेश और भौगोलिक विभागों पर ऐतिहासिक भूगोल लिखे गये। 
  • ब्राउन (1948) ने संयुक्त राज्य अमेरिका का ऐतिहासिक भूगोल 'हिस्टोरिकल ज्योग्रफी ऑफ यू.एस.ए. ' लिखा, ईस्ट (1956) ने 'हिस्टारिकल ज्योग्राफी ऑफ यूरोप' लिखा। 
  • भारत में देश ही नहीं प्रदेशों पर भी इस विषय पर ग्रंथ लिखे गये। सांकलिया (1949) ने यदि गुजरात का ऐतिहासिक भूगोल लिखा, तो पाण्डेय ने (1963) ने बिहार का तथा भट्टाचार्य (1977) ने (अब पुराने) मध्यप्रदेश का भौगोलिक प्रदेशों पर भी ऐतिहासिक भूगोल लिखे गये, अग्रवाल (1975) ने 'विन्ध्यक्षेत्र का ऐतिहासिक भूगोल' लिखा।

 

  • ऐतिहासिक भूगोल की विषय वस्तु की सीमा में सभी प्रकार की प्राचीन लिखित एवं पुरातात्विक सामग्री आ गई क्योंकि प्राचीन ग्रंथ ऐतिहासिक पहिचान या अभिज्ञान के साक्ष्य थे। हजारों प्राचीन ग्रंथों, शिलालेखों तथा सिक्कों पर न जाने कितने शोधपत्र अब तक प्रकाशित से एक बड़ी संख्या में ऐतिहासिक भूगोल संबंधित हैं। इतिहासकारों ने प्राचीन जनपदों, नगरों, राज्यों तथा समाजों पर अनगिनत लेख लिखे हैं जिनमें से अनेक ऐतिहासिक भूगोल से संबंधित हैं।


  • ऐतिहासिक भूगोल की अकदामीय व्याख्याओं में भू-राजनीति का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है, भारतीय संदर्भ में पणिक्कर (1959) का 'ज्याग्रफिकल फेक्टर्स इन इंडियन हिस्ट्री' एक चर्चित ग्रंथ रहा है जिसमें बीसवीं सदी के मध्य में भारतीयों के संबंध में बहुप्रसारित उस मत का खंडन है जिसमें प्राचीन भारतीयों को कछुआ धर्म वाला या कूपमंडूक कहा जा रहा था।

 

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